Wednesday, May 15, 2024
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शची मिश्र की कहानी – बिंदी

कम्पार्टमेंट में पहुँच कर उसने सीट के नीचे सामान रखवाया और कुली को पैसे देकर अपनी सीट पर बैठ गयी। एसी का डब्बा अपनी जगह से कुछ आगे जा कर लगा था। पहली बार अकेली घर से बाहर निकल रही थी इसलिए इस जरा सी दूरी में उसे घबराहट होने लगी।  मुंबई की भीड़ – भाड़ वाला प्लेटफार्म और यात्रियों का रेला देर से उसे परेशान कर रहा था, कम्पार्टमेंट में बैठने के बाद लगा कि अब जान में जान आयी है । 
बैठने के साथ ही नई चिंता उभर आयी। अकेले कैसे सारा सामान कम्पार्टमेंट के बाहर ले जायेगी और उतारेगी, कैसे कुली बुलायेगी? हमेशा दोनों मिलकर सामान उतार लेते थे। अब उसका दिल एक नए अंदेशे से धड़कने लगा। उसने खुद को समझाया और सहज होने की कोशिश करने लगी।
गाड़ी छूटने वाली ही थी कि एक और परिवार कंपार्टमेंट में आ गया। उसने अपने सहयात्री परिवार पर नजर डाली, एक अधेड़ महिला, दो जवान लड़का और लड़की। महिला की ठेठ उत्तर भारतीय वेशभूषा पूरी माँग में सिंदूर, बड़ी सी बिंदी, साथ में सूटकेस, एयर बैग के साथ मोटे थैले और टोकरी।
उसने उठ कर अपने खाने के सामान हुक में टाँग दिया और प्लेटफार्म से खरीदी मैगजीनों को साइड टेबल पर रख दिया। लम्बी यात्रा में किताबें और मैगजीने ही उसकी सदा से साथी रही हैं। ट्रेन में एक दम खाली बैठने से एक अजीब सी उकताहट घेरने लगती है पर पढ़ने का शौक उसके उकताहट को बहुत हद तक कम कर देता है। 
उसकी बड़ी सी बिंदी पर ध्यान जाते ही उसका हाथ अपने आप अपने माथे पर चला गया। उसकी छोटी सी बिंदी अपनी जगह पर चिपकी हुई थी। कभी कभी हाथ लग जाने से या दो-तीन बार उतार कर दोबारा लगाई गई पुरानी बिंदी गिर जाया करती है, पर आज एक दम नई बिंदी उसके माथे पर मजबूती से चिपकी थी। गले में पहना मंगलसूत्र भी मौजूद था वह आश्वस्त हुई। भीड़ – भाड़ में न जाने कब कौन अपने कुशल हाथों से कौन सी चीज गायब कर दे पता ही नहीं चलता है। 
कुछ छोटी – छोटी चीजें बाहरी व्यक्तित्व में इतनी गहरी बैठ जाती है कि उसके बिना अपना व्यक्तित्व स्वयं को ही आधे का भी अधूरा लगता है। छोटी सी बिंदी मंगलसूत्र हाथों में लाल बंगाली पौला पता नहीं कैसे एक-एक चीजें बदलती और जुड़ती गयी। काँच की चूड़ियों की जगह प्लास्टिक के पौले ने ले ली। बंबई के परिवेश ने उसमें पतला सा मंगलसूत्र भी जोड़ दिया अब इन तीनों चीजों के साथ ही वह अपने आप को शीशे के सामने पूरी पाती है। आज भी उसने घर से निकलने से पहले, शीशे के सामने खड़े होकर अपने आप को पूरा किया था ।
उसने एक पत्रिका उठाई और सरसरी नजर से पन्ने पलटने लगी। पत्रिका को एक बार पलट कर वह बाद में मनपसंद क्रम से पढ़ती थी।
थोड़ी देर बाद उसे महसूस होने लगा कि सामने बैठी महिला की जिज्ञासु आँखें उसे देख रही हैं। वह एक बार उसकी एक पत्रिका उठा कर पलट चुकी पर बिजनेस टुडे और दलाल स्ट्रीट जैसी पत्रिकाएँ उसके लिये बेमानी थी। उसने उन्हें वहीं बिना पढ़े वापस रख दिया था। शायद उसे उम्मीद थी कि महिला होने के नाते मेरे पास महिलाओं की पसंदीदा पत्रिकाएँ होगी।
उसने पत्रिका बंद कर दी और एक नजर सामने बैठी महिला पर डाली। 
वह  मुसकुराई ।
“कहाँ जा रहीं है?” उसने सामने बैठी महिला से पूछा। यह सहज सा प्रश्न था। एक कंपार्टमेंट में बैठे लोग हमेशा ऐसे ही बातचीत की शुरुआत करते  हैं।
  “लखनऊ।” वह मुसकुरा कर बोली। वह लड़की जो अभी तक ऊब रही थी, चैतन्य हो गयी थी। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह भी उससे बातें करना चाह रही है। लड़का पहले ही ऊपर की बर्थ पर जाकर लेट गया था।
“आप कहाँ जा रही है?” उसने बात को आगे बढ़ाते हुए पूछा।
“मैं भी लखनऊ जा रही हूँ।” वह संक्षिप्त सा उत्तर देकर चुप हो गयी।
“लखनऊ में ही रहती है?”
“नहीं मुंबई में, लखनऊ में घर है।”
“मैं भी लखनऊ में ही रहती हूँ। बंबई में लड़की को दिखाने के लिये ले गयी थी।”
उसने ध्यान से उस लड़की को देखा। वह एक साधारण शक्ल सूरत की कमजोर सी लड़की थी।
“क्यों, क्या हो गया?” उसे हैरानी हुई कि इतनी कम उम्र में ऐसी क्या परेशानी आ गयी कि उसे इलाज के लिये लखनऊ से मुंबई जाना पड़ा। 
“इसका खून बनना बंद हो गया है। बंबई में मेरा भतीजा है उसने  टाटा मेमोरियल में दिखाने के लिये बुलाया था, डाक्टर ने जाँच करवा कर दवा लिख दी है।”
“इसके पापा साथ नहीं आये?” उसके माथे की बिंदी और माँग का सिंदूर स्पष्ट रूप से उसके सुहागिन होने की घोषणा कर रहे थे ।
“रेलवे में हैं उन्हें छुट्टी नहीं मिली। इसकी जन्म पत्री भी दिखा चुकी हूँ, पंडित लोग 
रक्त दोष बताते है।”
उसका मन शंकित हो उठा। टाटा मेमोरियल कैंसर हास्पिटल कोई डिजनी लैंड तो है नहीं, जहाँ छुट्टियों में बच्चे शौकिया तौर पर घूमने जाते हो? इतनी कम उम्र में विधाता ने उसे कैसी परीक्षा में डाल दिया। 
उसे लगता है कि, एक उम्र के बाद औरतें सिर्फ माँ रह जाती है। उसने हौसला देने के लिये कहा, “अरे ठीक हो जायेगी कुछ दिन में,  छोटी मोटी समस्या तो आती जाती रहती है, जवान बच्चे है झट ठीक हो जाएँगे, आप बिल्कुल चिंता न करें।”
हौसला देने के बावजूद उसकी आँखों में नमी आ गई थी। उसने लड़की से पूछा, “मुंबई में कहाँ कहाँ घूमी?” वह माहौल को हल्का करना चाहती थी जो अचानक ही बहुत ही बोझिल हो गया था।
“आंटी! एक दिन टूरिस्ट बस में बैठ कर घूमने गई थी” उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
“कैसा लगा?” उसने हँस कर पूछा।
  “अच्छा।” वह धीरे से हँसी।
“किस क्लास में पढ़ती हो?”
“बी एस सी, सेकेन्ड इयर में।” उसने बुझा हुआ सा जवाब दिया।
वह पूरे वार्तालाप के दौरान चुपचाप ही रही। निःसंदेह वह अपनी बीमारी की गंभीरता को समझ रही थी।
“भाई साहब क्या करते है?” उसने पूछा।
 पहले उसने ध्यान नहीं दिया पर अगले ही क्षण उसे महसूस हुआ कि वह उसी से पूछ रही है।
“डाक्टर हैं, लीलावती में।”
“आप भी काम करती है?”
“नहीं। मैं घर में ही रहती हूँ।”
“भाई साहब की डयूटी तो लम्बी होती होगी?”
“हाँ सुबह आठ बजे निकल जाते हैं पर आने का टाइम तय नहीं है अधिकतर देर हो जाती है।”
वह ठेठ घरेलू औरतों की तरह अपनी घर-गृहस्थी लेकर बैठ गयी और साथ ही उसकी गृहस्थी को लेखा जोखा भी ले रही थी।
“लखनऊ में आपके कौन है?”
“मेरा मायका और ससुराल दोनों लखनऊ में ही है।” शुक्र है उसने मुहल्ला नहीं पूछा।
“अभी कहाँ जा रही है, मायका या ससुराल?” वह हंस पड़ी।
“मायके, माँ की तबीयत ठीक नहीं है।”
“पिताजी है?”
“हाँ, है।”
“सास ससुर।”
“नहीं। दोनों नहीं हैं।”
“फिर ससुराल में कौन है?” 
“देवर – देवरानी।”       
उसके चाहने से लगने लगा कि देवर देवरानी के होने का मतलब कोई नहीं है अपना।
“कितने दिन रुकेंगी लखनऊ में?”
“दस दिन रुकूँगी। लौटने का रिजर्वेशन करवा कर आयी हूँ।”
“तो भाई साहब के खाने-पीने का कौन देखेगा?”
“काम वाली बाई है, खाना बना देगी।” 
“हमेशा बाई ही बनाती है?” उसने फिर पूछा।
“नहीं, मैं खुद बनाती हूँ।”
“हाँ, रोज – रोज नौकर के हाथ का खाना नहीं खाया जा सकता है।”
वह चुप रहीं।
“बच्चे कितने है?” थोड़ा रुककर उसने पूछा।
“दो, एक बेटा एक बेटी।”
“हमारी तरह ही आपके भी।” वह धीरे से हँस दी।
बदले में वह भी हल्के से मुस्कराई।
“बच्चे क्या करते है?”
“बेटा एमबीए कर रहा है और बेटी टवेल्थ में है।”
“बेटा मेडिकल में नहीं गया?” 
“नहीं, उसे मेडिकल पसंद नहीं था। बेटी चाहती है देखिये क्या होता है।”
वह लगातार सवाल पर सवाल दागे जा रही थी जैसे कि उसकी पूरी जिन्दगी का लेखा जोखा ले डालेगी। वह भी उससे उदासीन नहीं रह सकी। लम्बा सफर सहयात्री से उदासीन रह कर तो नहीं काटा जा सकता है?
“बेटी मेडिकल में जाना चाहती है तब तो खूब मेहनत करती होगी। ये भी मेडिकल में जाना चाहती है पर जितनी पढ़ाई चाहिये उतनी पढ़ती नहीं है। एक साल इसने कोचिंग भी की थी।” वह लड़की के मेडिकल में न आ पाने से थोड़ी मायूस थी।
उसने उसे हौसला देने के लिये कहा, “आज कल बहुत सारे कोर्स है, तरह तरह की नौकरियाँ हैं, कितनों के बारे में तो हम लोग जानते ही नहीं। आज कल बच्चे अपनी पसंद की पढ़ाई करके ज्यादा अच्छा काम कर रहे है। डाक्टरी में समय भी बहुत  ज्यादा लग जाता है इसलिये बच्चे कम पसंद करते है। मेरा बेटा सौरभ इसी लिये मेडिकल लाइन में नहीं जाना चाहता था, कहता था  “पापा आप हमेशा बीमार लोगों से घिरे रहते है, पैसा कमाते है पर इन्ज्वाय नहीं कर सकते क्योंकि आपके पास समय नहीं है। मैं अपनी जिन्दगी में कमाई के साथ साथ मौज मस्ती भी करना चाहता हूँ, ये नहीं कि मैं कमाऊँ और बीवी बच्चे ऐश करें।” अपनी बात पूरी करके हँस दी। 
 “हूँ।  उसने धीरे से कहा। वह पूरी तरह सौरभ के विचार से सहमत नहीं थी। …इसके पापा को शौक था कि दोनों में से कम से कम एक तो डाक्टर बने। लड़का बड़ा है अभी एम एस सी कर रहा है।”
“आप निश्चिंत रहिए। आजकल के बच्चे समझदार है, उन्हें पता है कि क्या करना है और वह उस काम में बहुत अच्छा करेंगे। आप निश्चित रहिये।” वह नब्बे प्रतिशत औरतों का एक ही रोना, उसने मन ही मन कहा। 
“आप भी कुछ करती हैं?” उसे देखकर वह अच्छी तरह समझ रही थी कि वह घर गृहस्थी में समय बिताने वाली औरत है फिर भी वह पूछ बैठी थी।
“अरे नहीं। वह थोड़ा झेंप सी गयी,  घर के काम से ही फुरसत नहीं मिलती कि सोचा जाए। सुबह उठकर चाय नाश्ता पूजा पाठ खाना….. आप पूजा करती है? सहसा वह अपनी बात बीच में छोड़ कर उससे पूछने लगी।
“हाँ सबेरे थोड़ा सा।”
 “भाई साहब भी पूजा करते हैं?” वह चौंकी फिर लगा कि वह उसके पति के बारे में पूछ रही है।
“हाँ सबेरे नहाने के बाद पाँच मिनट भगवान के आगे हाथ जोड़ लेते हैं।”
“डाक्टर होकर पूजा पाठ करते है?” उसने हैरानी से कहा।
उसकी इस सर्वथा नवीन धारणा से वह अचकचा गयी। कभी परम मूर्खा कभी चतुरा को वह समझ नहीं पा रही थी कि वह उससे क्या कहे? टालने के अंदाज में उसने कहा, “अपने विश्वास की बात है। इसमें डाक्टर होने और न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।”
वह थोड़ी देर चुप रही। “आप मराठी नहीं है फिर भी मंगलसूत्र पहनती है?” अपनी कही बात पर वह खुद झेंपती सी हँस दी।
“हाँ, वहाँ सभी औरतें पहनती हैं, कुछ दिन बाद मैं भी पहनने लगी।”
“मुझे भी अच्छा लगता है, मैं भी अपने लिए बनवाने के लिए सोच रही हूँ।”
उसने उसकी इच्छा में अपनी हाँ, हूँ नहीं मिलाई। अब वह उसे नहीं झेल पा रही थी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह चादर ओढ़ कर लेट गयी। लेटते ही एक शून्यता उसे धीरे -धीरे घेरने लगी। 
कई महीने बाद वह घर से बाहर निकली थी। कितने दिन तो उसे साहस जुटाने में लगे। उसे लगता था कि सारी दुनिया उसे सवालिया निगाहों से देखेगी, जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो और वह इस काल्पनिक मानसिक स्थिति को नहीं सह पाती थी पर आज वह भीतरी और बाहरी दोनों तौर पर खुद को मजबूती से तैयार करके बाहर निकली थी। उसे महसूस हो रहा था कि अब उसका अकेलापन और अनजाना सा अपराध बोध दूर हो गया है। उसका आत्मविश्वास अब वापस उसके पास है और दुनिया की निगाहें अब उससे सवाल नहीं करेंगी।
वह अपनी सहयात्रिणी से बड़ी देर तक सहज ढंग से बतियाती रही। जीवन भर सच बोलने वाली सिलसिलेवार ढंग से सहज झूठ गढ़ती गयी। एक पल के लिए भी उसकी जबान नहीं अटकी और न ही उसके अंतर्मन ने उसे टोका। 
उसे एक पल के लिये भी नहीं लगा कि वह झूठ बोल रही है। सच ही तो था सब कुछ, वह तो बस बातों में जिन्दगी के बीते हुए पलों को जी रही थी। वह पूरे विश्वास के साथ सारे रास्ते सच बोलती रही। अगर जरा सा अंतर झूठ है तो वह झूठ बोलने का अपराध कर रही है। उसका झूठ अनायास ही पैदा हुए क्षणिक मिथ्या अपराध बोध की यातना से कही अधिक सुखद और पवित्र था।
उसे चाय की तलब लगने लगी। थोड़ी देर पहले चाय वाला आवाज लगाता हुआ गुजरा था पर जब तक वह उठ कर बैठती, वह आगे निकल चुका था। डेढ़ बज चुका था लगभग सभी लोग खा पीकर सो गये थे। 
उसे भी भूख लगने लगी। उसने हुक पर से बैग उतारा उसमें बिस्कूट, फल और सैंडविच थे। ट्रेन के खाने की तुलना में सैंडविच नापसंद होने के वावजूद भी बेहतर विकल्प था। उसने दोनों सैंडविच को फ्रूट जूस के सहारे किसी तरह निगला। उसके पति को डिनर में सूप और सैंडविच पसंद थे हफ्ते में दो तीन बार तो यही मेन्यू रहता था, वह भी खाती थी पर पसंद कभी नहीं आया। बस चलता है जैसा चलता रहा।
उसकी सहयात्रिणी  एक घंटा पहले ही बच्चों के साथ खा-पी चुकी थी। वह करवट बदल कर लेटी थी तभी सीट के नीचे से बैग का खींचना, स्टील के टिफिन कैरियर का खुलना बंद होना, बैग को वापस खिसकाना सब सुन रही थी। वह जान बूझ कर उस बीच करवट बदल कर लेटी रही और जब चारों ओर सन्नाटा पसर गया तो वह उठ कर बैठी। घड़ी वह लगाती नहीं थी मोबाइल पर टाइम देखा तो दो बज चुका था। 
खाने के बाद चाय तलब खत्म हो गयी थी। इस बीच चाय वाले के आने की उम्मीद भी कम थी। उसने एक मैगजीन उठा ली और पढ़ने लगी। मन नहीं लगा पढ़ने में, उससे पढ़ा ही नहीं जा रहा था, आँखें सिर्फ अक्षरों पर दौड़ रही थी, दिमाग तक कुछ भी नहीं पहुँच रहा था। उसने दुबारा तिबारा उन्हीं लाइनों को पढ़ा ताकि कुछ दिमाग में उतर सके पर नहीं पर दिमाग ने जैसे दरवाजा बंद कर लिया हो और कुछ भी समझना नहीं चाह रहा हो।
उसे लगा मन में भी दरवाजा होना चाहिये। उसके मन में दरवाजा नहीं था, इसी से सब का आना जाना लगा रहता है, रिश्ते नाते, लोग लगाव, किसी का भी रोक नहीं है। दरवाजा होना जरूरी है, नहीं तो जिन्दगी सराय बन जाती है। अब तो कस कर बंद कर लिया है पर जो है वह नहीं निकलता।  
बहुत कुछ भर गया है फालतू सा। एक बार मन को उलट कर खाली कर देना चाहती है वह।  जैसे ड्रेसिंग टेबल की ड्रार निकाल कर पलट कर साफ करती है। काम की चीजें अलग करके बेकार चीजें डस्टबिन में डाल देती है। काश! मन भी ड्रार होता जिसे एक बार कम से कम इस मोड़ पर तो एक बार उलटा जा सकता? मन की उलझने, बदरंग रिश्तों, उलझनों को उलट कर कचरे के डब्बे में डाल सकती। इस तरह से बहुत कुछ निकल जाता, मन और जिन्दगी से पर हो जाता पर होता है इसका उलटा और कचरा जमा होता जा रहा है।
मन भारी होने लगा। पता नहीं क्यों सन्नाटा होते ही मन अपनी चादर बुनने लगता है। पूरी जिन्दगी ताने – बाने में तन जाती है और मन उस पर चलता रहता है जैसे कि जिन्दगी करघे पर कसी कोई चादर हो और मन उसे नए सिरे से बुन रहा है। सिर्फ बुना ही जाता है रोज का रोज, हाँ बुनावट रोज बदल जाती है कभी दर्द, कभी गुस्सा  कभी कसक और कभी शिकायतें। मन जैसा चाहता है वैसी बुनावट बुनने लगता है। उसका अपने मन पर कोई बस नहीं चलता। वह मन के साथ जबरदस्ती करना भी नहीं चाहती है। बस मन का जैसा मन हो, वह करता रहता है।
उसे बचपन से कभी भी लड़की होने का पछतावा नहीं रहा, पर आज लगता है यही उसकी सबसे बड़ी बेबसी है क्योंकि औरत के लिये सीमाएँ ही हैं।  लक्ष्मण ने तो एक ही रेखा खींची थी पर यहाँ तो सारा उसका सारा अस्तित्व ही गोल गोल रेखाओं से घिरा हुआ है।
वह किसी म्यूजियम में रखी ममी बन गयी है जिसका सारा शरीर पट्टियों से गोल गोल लपेट कर रख दिया गया है, जिसे हर व्यक्ति हर रिश्ता दूर खड़ा होकर देखता है और आगे बढ़ जाता है। उन पट्टियों को सरका कर देखने का न तो किसी में साहस है और न ही आवश्यकता। ये जमाना प्रैक्टिकल होने का है। समझदार लोग इतंजार करो और देखो की नीति अपनाते हैं। न किसी की जिन्दगी में दखल देते हैं और न अपने में पसंद करते हैं। रिश्ते तो  सिर्फ फार्मेल्टी निभाने और  हाजिरी गिनाते है, फला, फला, और फला सीमाबद्ध। नपा तुला सम्भाषण और गिनती करके उपस्थिति। कहीं भी आत्मीयता की कोई अनुभूति नहीं। ऐसी छाँव नहीं जहाँ गर्म लू के थपेड़े सहती हुई वह एक पल ठहर कर साँस ले सके।
इन रिश्तों के पेड़ जमीन पर नहीं थे और न ही इनका साया किसी जमीन के टुकड़े पर फैला था। ये पेड़ जैसे चलती गाड़ियों पर उगे हुए हो और वह तपते रेगिस्तान में नंगे पैर खड़ी हो। उसके आगे-पीछे, दाएँ – बाएँ गाड़ियों पर उगे छायादार पेड़ सर्र – सर्र निकलते जा रहे है जिन्हें वह सिर्फ देख सकती थी, उसकी ठंडक और छाया को वह महसूस नहीं कर सकती थी।
ये पेड़ उसके सामने क्यों परेड कर रहे हैं, उसे छाया देने के लिये या अब वह तपते रेगिस्तान में नंगे पैर खड़ी है, इसको और गहराई से एहसास कराने के लिये? पता नहीं। जब कुछ भी अनुभूति शून्य होकर किया जाता है तो उसका अर्थ अपने आप खोने लगता है। शायद वह सब कुछ भी वैसा ही कुछ था, टोटल पूरा करने जैसा।
पता नहीं कितनी देर तक सोचती रही, दुनिया जहाँन की, इधर उधर की। वह सो जाना चाहती थी एक लम्बी नींद। उसने अपने तन मन को ढीला छोड़ दिया।
कंपार्टमेंट में बचे खुचे यात्रियों में चहल पहल होने लगी। करीब बीस मिनट में प्लेटफॉर्म आ जायेगा। वह भी बचा खुचा सामान समेटने लगी। उसने मैगजीन और नावेल उठा कर एयर बैग में डाल लिया।
एक बार फिर उसकी हिम्मत टूटने लगी। दिल ने जैसे धड़कना बंद कर दिया था। साँस रोके हुए वह निर्जीव सी सीट पर बैठी रही। स्टेशन पर पता नहीं कौन आया होगा? उसे लग रहा था कि जैसे वह अपनी सारी जमा पूँजी गँवा कर खाली हाथ घर लौट रही है। 
लोग अपने सामानों को खींच खींच कर दरवाजे की तरफ बढ़ने लगे। उसने भी धड़कते भारी मन से अटैची को खींचा। स्ट्रालर वाली अटैची का हैंडिल खींच कर एयर बैग के हैंडिल को स्ट्रॉलर के डंडे मैं फँसा कर अटैची के ऊपर रखा और पर्स को कंधे पर लटका कर लाइन में लग गयी।
हड़बड़ाहट में कई बार उसका सूटकेस लोगों के सामानों से टकराया। बैग भी ठीक से न टिकाने की वजह लटक गया, दुबारा उठा कर जैसे – तैसे रखा अभी भी कुछ टेढ़ा लटक रहा है। पता नहीं क्यों वह हड़बड़ा कर सबसे पहले नीचे उतर जाना चाहती थी।
प्लेटफार्म पर उतरते ही वह टूट गयी। किसी ने उसका सामान नीचे उतार दिया था। चेहरे पर जबरदस्ती जमाया हुआ मुखौटा पिघलने लगा। दोनों हाथों में पहने प्लास्टिक के लाल कंगनों को उसने झटके से उतारा और मंगलसूत्र को लगभग खींचते हुए गले से बाहर निकाला और दोनों चीजों को सहमते हुए पर्स में ऐसे रखा जैसे कोई देख न पाए। वैसे ही जैसे तीन महीने पहले उतार कर पति की निष्प्राण छाती पर रख दिया था। माथे पर मजबूती से चिपकी बिंदी को नोचते ही जैसे अंदर से बहुत कुछ नुच उठा। बिंदी उँगलियों में चिपक गयी थी। छुड़ाने की कोशिश में एक उँगली से छूट कर दूसरी उँगली में और फिर वापस उसी उँगली में बार बार पिचकती जा रही थी। उसने झुंझलाकर दूसरे हाथ की उँगली से पकड़ कर उसे अलग किया और बगल में दूर फेंक दिया कि कहीं उसके पैरों के नीचे न आ जाये। 
उसकी पीठ में जैसे दो आँखें उग आयी हो, अनगिनत लोगों के अनगिनत जोड़ी पैर, सस्ती घिसी हुई चप्पलें, भारी भरकम स्पोर्टस शू, नुकीली हाई हिल की सैडिलें, बच्चों के चूँ चूँ करते जूते, बूढ़े घिसटते पैर, जवानों के धमाधम भागते पैर। सिर्फ पैर ही पैर, घुटने के नीचे के पैर। वह वहीं जम सी गयी थी। उसके दाहिने बाएँ ओर से तेजी से पैर आगे निकलते जा रहे थे। पैरों का रेला उस फेंकी हुई बिंदी को रौंदते जा रहा हैं। उसे लग रहा है कि वे पैर प्लेटफार्म पर नहीं उसकी छाती पर चल रहे हैं। 
अब तो वह देख भी नहीं पा रही थी पैरों को। आँखें धुँधलाने लगी थी। सामने से आने वाले लोगों के चेहरे आपस में गड्ड – मड्ड होने लगे। अब वह उन चेहरों में किसी अपने को नहीं ढूँढ पा रही थी। उसने खुद को ढीला छोड़ दिया। अब अपने ही उसे प्लेटफार्म पर ढूँढ लेंगे।

शची मिश्र
ईमेल – mishra.shachi@gmail.com
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