Saturday, July 27, 2024
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शहादत खान की कहानी – अल्लाह बेटियां न दे

“पूत पड़ोसी और धी पराई.” यह अम्मी का सिद्ध वाक्य था. इसे वह तब से बोलती आ रही थीं जब से हम छहों भाई-बहनों ने लंबाई में बढ़ना, नए चीज़ों को सीखना और घटनाओं को अपनी स्मृतियों में संजोना शुरु किया था. उनकी नज़रों में ‘पूत’ यानी हम दोनों भाई पड़ोसी थे और ‘धी’ यानी उनकी बाकी चारों बेटियां पराई. पराई भी ऐसे कि जिनके लिए बेमियाद खर्च करना पड़ता है, लाखों रुपये का दहेज देना पड़ता है और कर्ज में डूब मरना होता है. इसलिए अम्मी को बहने कभी पसंद नहीं आई. वह हमेशा उन्हें देखकर कूढ़ती रहतीं. उनकी मौजूदगी से चिढ़तीं. इसीलिए उन्होंने उन्हें कभी स्कूल भी नहीं भेजा. वे सारा दिन घर के कामों में लगी रहती. शादी से पहले पूरे घर की जिम्मेदारी बड़ी बाजी कुलसुम के ऊपर थी. फिर उसकी शादी के बाद उन जिम्मेदारियों को दोनों छोटी बहनों ने संभाल लिया. पढ़ाई के नाम पर उन दोनों ने बस पड़ोस की एक औरत से कुरान पढ़ था जिसे वे दिन की शुरुआत होने से पहले फज़र (सुबह की नमाज़) की नमाज़ के बाद हर रोज़ पढ़ती थीं. फिर दिन का काम शुरु होता जो रात के दस-ग्यारह बजे तक चलता रहता. तो भी अम्मी को सुकून न मिलता. वह जब तब उन्हें झिड़कती रहतीं, कोसती रहतीं, गालियां बकतीं और कहती कि अगर वे न होती तो उनकी ज़िंदगी ज्यादा आसान और सुकून भरी होती. उन्हीं की वजह से ही उन्हें परेशानियों के अलावा कभी कुछ नहीं मिला. 
उनकी इस तरह की बुदबुदाहट पर अब्बू जी कभी-कभी उन्हें झिड़कते हुए कहते, “तुम उन्हें इस तरह क्यों कोसती रहती हो? वे हमारे अपने बच्चे हैं, किसी जानवर के नहीं.”
“कोई अपना नी होता है… सब मतलबी है”, अम्मी हाथ नचाते हुए कहती, “एक बार इनकी शादी हो जाने दो. फिर देखना. कोई तुम्हारे पास आकर भी नहीं फटकेगा. ये पूत जिन्हें तुम इतना पढ़ा-लिखा रहे हो ना ये बीवियों के गुलाम हो जाएंगे… ऐसे जैसे तुम्हें जानते ही न हो. एकदम पड़ोसी. और ये धीकड़ियां (बेटियां) जिन्हें तुमने सिर चढ़ा रखा है ये तो लाख चाह कर भी अपनी नी हो सकती… एक बार शादी हुई कि बस… फिर ये और इनके मियां. मां-बाप जाए जहन्नुम में. और ये कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं है… जब इनकी शादी करोगे ना तब पता चलेगा. लोग किस तरह मुंह खोलते हैं… कैसी-कैसी चीज़ों की लिस्ट थमाते हैं… और फिर बाद में कहते हैं कि आपकी बेटी ही बरतेगी. अरे, बरतेगी तो बरतेगी… इसका क्या मतलब… हमारी खाल उतार लोगे? लेकिन नहीं… देना है तो देना है… इन सूरियों (गाली देते हुए) की बदौलत… इन कंजड़ियों की वजह से. इन्हीं की वजह से कर्जे में डूबना पड़ता है… इन्ही की वजह से पेट काट-काटकर जोड़ना पड़ता है.”
अम्मी इसी तरह की ओर भी बहुत सी बाते कहती जातीं. अब्बू जी खामोश से उनकी बातो को सुनते रहते. और बहनें, वे इस तरह सिर झुकाएं अपने कामों में लगी रहती मानो उन्हें कुछ सुनाई ही न दे रहा हो.
हालांकि इस तरह की बातें घर में कभी-कभी ही होती थीं. लेकिन बड़ी बहन की शादी के बाद जब अम्मी रिश्तेदारों की शादियों में शामिल होने जातीं और वहां दिए या लिए गए दहेज को देखती तो उनकी आंखें चौंधियाती जाती. उन्हें चक्कर आने लगते और वह खुद से ही बुदबुदाती हुए कहती, “लोग आजकल कितना ज्यादा दहेज देने लगे हैं. इस तरह तो हम जैसे लोगों को अपने घर ही बेचने पड़ जाएंगे.” फिर वह अपनी सगी, खलेरी, ममेरी और रिश्ते में लगने वाली दूसरी बहनों की बाते सुनती, जो आपस में एक जगह बैठी हुई जवान होते एक दूसरे के बेटी-बेटियों के रिश्तों और शादियों के बारे में बाते करती रहतीं. उनमें से जब कोई किसी दूसरे से कहती, “सरवरी, तू अपनी बेटियों की शादी कब कर रही है? उनकी तो उम्र भी हो गई है. क्या रिश्ते नी मिल रे?”
“मिल तो रहे है लेकिन समझ नहीं आ रे… जहां समझ आते हैं वहां दहेज का मसला अड़ जाता है. समझ नी आता कि लोगों की फरमाइश को कैसे पूरा करुं?”
“फरमाईश?… कैसी फरमाईश? वरीसा को देख कैसे उसने जवान होते ही झट अपनी बेटी की शादी कर दी. और लड़का भी ऐसा अच्छा कि बस पूछो मत.”
“उसकी तो तुम बात ही मत करो… उसकी जैसी शादी तो ला मैं आज कर दूं. दिया क्या है उसने…? ना बाईक, ना फ्रिज, ना वाशिंग मशीन, ना टी.वी. और न ही दूसरी चीज़ें. बस चार कुर्सी और एक पलंग. चार जोड़ी कपड़े और दो चीज़े सोने की. बाकी क्या? कुछ नहीं. और क्या करता है उसका दामाद…? छोटी सी परचून की दुकान. ऐसे लोगों से तो शादी न करो तो ही अच्छा. अच्छी शादी करने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है… जो उसके बस का है नहीं.”
अम्मी अपनी बहनों की इस तरह की बातों को सुनकर अंदर ही अंदर जल-भुन जातीं. वह वहां तो कुछ नहीं कहतीं. लेकिन घर आकर बड़ा बखेड़ा खड़ा करतीं. बहनों को कोसतीं, गालियां बकतीं और नफरत भरी आँखों से घूरती रहतीं.
शाम को जब अब्बू जी काम से लौटते तो वह उनके साथ भी झगड़तीं. उन्हें अपनी बहनों की कही बातें सुनाती और कहती, “तुम्हारी ही वजह से ये झाड़ मेरे गले बंधे हैं. तुम्हें ही बेटों की चाह थी. अल्लाह ने  बेटा तो दिया नहीं पर ये कंजड़ियां हमारे गले बांध दीं. अब मैं भी देखती हूँ कि तुम इनकी शादी कैसे करते हो…? जितना तुम कमाते हो इतने में तो घर भी नहीं चलता. वो तो बस मुझे ही पता है कि मैं कैसे मर-खप के इस घर की गाड़ी खींच रही हूं. अगर मेरी जगह कोई दूसरी होती तो कब का छोड़कर भाग गई होती. एक दिन भी न टिकती.” 
अब्बू जी अम्मी की किसी बात का कोई जवाब न देते. बस चुपचाप उनकी बातों को सिर झुकाए सुनते रहते. वह भी जानते थे कि आज के इस महंगाई के दौर में जितनी उनकी तनख्वाह है उसमें आठ सदस्यों के परिवार का खर्च चलना आसान काम नहीं है. उस पर रिश्तेदारों का आना जाना, ईद-त्यौहार, एक शादी-शुदा बेटी और तीन बहनों का खर्च अलग से. 
अब्बू जी जब अम्मी की बातों का जवाब न देते तो वह इसे उनका मौन समर्थन समझतीं और अगले दिन अब्बू जी के फैक्ट्री जाते ही बुर्का पहनकर अपने मायके चले जातीं. वहां उनके घर के सामने मस्जिद वाली गली के आखिर में अरशद सैय्यद का घर था. वह पिछले पंद्रह सालों से सऊदी अरब में रह रहा था. वहां रहते हुए उसने अपनी पांच बहनों की शादी बड़े धूमधाम से की थी और घर भी बड़ा आलिशान बना लिया था. इसके साथ ही उसने दो कारें और तीन अलग घर खरीद भी लिए थे. इसके अलावा उसने अब तक अपने गांव के बहुत से लड़कों को सऊदी अरब भिजवाया था. अम्मी को उनकी भाभियों और भतीजियों से कहा था कि यदि वह भी फुप्पा जी को सऊदी अरब भेज दें तो वह भी अपनी बेटियों की शादी सैय्यद की तरह धूमधाम से कर सकती हैं. साथ ही अपने पुराने और खस्ताहाल घर को भी दोबारा बनवा सकती हैं. इसलिए अम्मी पिछले तीन सालों से, जब अरशद पिछली बार अपनी बेटी की शादी करके वापस गया था तब से उसके घर के चक्कर लगा रही थीं. वह वहां उसकी गोरी-चिट्टी और हर वक्त सोने से लदी रहने वाली बीवी से मिलने जातीं, जो साफ-सुथरे पत्थर लगे घर में जिसकी मलिका की तरह चलती फिरती. उसके पास हर हफ्ते अरशद का फोन आता था. अम्मी चाहती थीं कि वह अपने शौहर से बात करके अब्बू जी के लिए भी एक वीजा मंगा दे. 
शुरुआत में तो वह अम्मी के साथ ऐसे ही टाल-मटोल करती रही. उन्हें बताती रही कि सऊदी का वीजा मिलना इतना आसान नहीं है. कि वहां का वीजा बहुत महंगा होता है और बहुत मुश्किल से मिलता है. साथ ही वहां काम का भी कुछ भरोसा नहीं. आपको यहां से जिस काम के लिए तय करके ले जाया जाएं जरूरी नहीं कि वहां वही काम मिले. हो सकता है कि रेगिस्तान में ऊंट चराने पड़े, किसी होटल में साफ-सफाई करनी पड़ी या फिर अस्पतालों में पोंछा लगाने पड़ जाए. पर ये सबके साथ नहीं होता. अगर किस्मत अच्छी हो तो काम भी अच्छा मिल जाता है. साथ में रहन-सहन और खाना भी मुफ्त. लेकिन चाहे जो हो, वहां छोटे-छोटे कामों का भी बहुत पैसा मिलता है. वह भी इतना कि बाप कमाएं और बेटों को ज़रूरत न पड़े (कमाने की). 
वहां से आकर अम्मी जब अब्बू जी को सऊदी अरब जाकर काम करने और ज्यादा तनख्वाह के बारे में बताती तो अब्बू जी उन्हें झिड़क देते, “अरे हां, दिमाग खराब होरा तेरा… कौन अपने घर और बच्चों को छोड़कर इतनी दूर जाकर पड़ेगा… जैसे भी हैं यहीं अच्छे हैं. अपने घर से बेहतर कुछ नहीं होता… चाहे वहां रहने के लिए सोने के महल ही क्यों मिले.” 
“वैसे यहां भी झोंपड़ी में ही पड़े हैं”, अम्मी मुंह फुलाकर गुस्सा होते हुए कहती, “वहां जाओगे तो कुछ पैसे जुड़ जाएंगे. ढंग से इनके हाथ पीले हो जाएंगे… ये घर भी बन जाएगा. कल को बेटे पढ़-लिख जाएंगे तो इनकी नौकरी के लिए भी तो कुछ देना दिलाना पड़ेगा… या नहीं. जितना आप यहां कमाते हैं उससे ज्यादा तो खर्च हो जाता है. एक पैसा भी नी जुड़ता. जुड़ने की छोड़ों… अब तक कुलसुम की शादी में लिए कर्ज की किश्त तक नहीं गई. मुझे तो रातों को भी नींद नहीं आती… सारी-सारी रात सिर में पुट-पुट होती रहती है. तुम वहां चले जाओगे तो हालात कुछ अच्छे हो जाएंगे.”
“अरे खामखा पागल नी बना करते…” अब्बू जी अम्मी को समझाते हुए कहते, “वहां जाकर न जीते का पता चलता है और मरतो का. यहां जैसे भी है अपने बच्चों में तो हैं. दिन गुरजरने के बाद शाम को घर आते हैं. फिर यहां सब चीज़े अपने सामने हैं. रही बात कर्ज की तो वह भी उतर ही जाएगा… और अल्लाह ने चाहा तो इनके हाथ भी पीले हो जाएंगे. थोड़ा सब्र कर अल्लाह की बंदी. तुझे तो हर बात में हड़बड़ी मच रहती है. बस जिस काम को एक बार सोचे लिया, चाहे वह अच्छा हो या बुरा उसे करना ही है. ज़रा सोच तो सही अगर मैं वहां एक बार चला गया तो फिर दो-चार साल से पहले नहीं आ सकूंगा.”  
लेकिन अम्मी अब्बू जी की एक न सुनती. उन्होंने उनसे ऊपर होकर अरशद से एक-दो बार फोन पर बात करके उसकी बीवी के साथ आजाद वीजे का सौदा तय कर लिया. पूरे एक लाख दस हजार रुपये में. आजाद वीजे का फायदा ये है कि वहां आपको मर्जी के मुताबिक काम करने की आजादी होती है. इसके साथ ही उन्होंने धीरे-धीरे अपनी छोटी-छोटी बचतों में से उसे रुपये देने भी शुरु कर दिए और तय वादे के मुताबिक आधी रकम दे दी थी. आधी वीजा लगने और डॉक्टर होने के बाद दी जानी थी.
अरशद उस बार जब लौटा तो वादे के मुताबिक अब्बू जी के लिए वीजा लेकर आया था और अम्मी ने भी शादी में अपनी मां से मिले ज़ेवर बेचकर उसे आधी रकम अदा कर दी थी. अब्बू जी सऊदी चले गए और हम दोनों भाई, तीनों बहने और अम्मी अकेले रह गए. 
सऊदी अरब में अब्बू जी के शुरुआत दिन बहुत बुरे गुज़रे. वहां जाते ही उनके कफिल (इंचार्ज) ने उनका पासपोर्ट और बाकी कागज़ात अपने पास रख लिए और उन्हें काम करने के लिए दूसरे शहर में भेज दिया. वह वहां अपनी मर्जी से काम तो कर सकते थे लेकिन बिना किसी दस्तावेज के इस तरह काम करना गैरकानूनी था जो खतरे से खाली नहीं था. उन्होंने वहां जाने के बाद तीन महीने तक घर कोई पैसा नहीं भेजा. इधर बिना किसी आय के घर चलाना अम्मी के लिए बड़ा दुश्वार साबित हो रहा था. ऊपर से आए दिन कर्ज वालो का तकादा. पिछले साल खरीदा अनाज भी खत्म हो गया था. नई फसल खेतों से कटकर बाज़ारों में आ चुकी थी. भूख से बचने और साल भर खाने के लिए अनाज़ खरीदाना ज़रुरी था. नहीं तो भूखो मरने की नौबत आ जाती. ऐसे वक्त में अम्मी ने अपना दिमाग दौड़ाया और अपने चचेरे भाई से पांच हजार रुपये उधार मांग लिए. उनमें से उन्होंने तीन हजार का अनाज खरीदा और बचे रुपए कर्ज के सूद में दे दिए. 
चार महीने बाद अब्बू जी ने पहला खत भेजा. साथ में कुछ रुपये भी. इस दरमियान हमें उनके बारे में कोई खबर नहीं मिली. चिट्ठी में उन्होंने शुरुआत में हमे, मोहल्ले वालों को और बाकी तमाम रिश्तेदारों को मयनाम के सलाम लिखा था और फिर बाद में अपने वहां के शुरुआती दिनों की मुसीबतों, जिनमें बिना कागज़ात के काम करने के जुर्म में पंद्रह दिन जेल में बीताना भी शामिल था, के बारे में लिखा था. उसके बाद उन्होंने कहा था कि अब खतरे वाली कोई बात नहीं है. अब वह एक मेडिकल फैक्ट्री में काम करते हैं और मज़े में हैं. चिट्ठी के आखिर में उन्होंने अम्मी के लिए बहुत अच्छे शेर लिखे थे और उनको याद करने के बारे में भी लिखा था. शेरो को सुनकर अम्मी खामोश और उदास हो गई थीं लेकिन वह रोई नहीं थीं. 
इसके बाद अब्बू जी हर महीने लगातार रुपये भेजने लगे. पर अम्मी उनमें से एक भी खर्च नहीं करतीं. जितने आते सभी को वहीं से वहीं बैंक में जमा करा देती. घर चलाने के लिए उन्होंने कई तरीके ईज़ाद कर लिए थे. साथ ही एक नया काम भी शुरु कर दिया था. सबसे पहले तो उन्होंने रिश्तेदारियों और उनमें होने वाली शादियों में आना जाना बिल्कुल बंद कर दिया, जो खर्चे बढ़ने की एक बड़ी वजह थी. इससे रिश्तेदारों ने भी हमारे यहां आना कम कर दिया. दूसरा उन्होंने हम सब भाई-बहनों के साल में एक बार यानी ईद को छोड़कर बाकी सभी अवसरों पर नए कपड़े बनवाने बंद कर दिए. रसोई से गैस हटाई दी और सारा खाना पकाना चूल्हे पर पकने लगा. 400 रुपये के गैस सिलेंडकर को वह 600 रुपये में में बेच देतीं. चूल्हे के ईंधन के लिए वह शहर में बढ़ती आबाद की रिहाईश की ज़रूरत को पूरा करने के लिए फसल कटाई के बाद जब आम, अमरूद, नीम, शीशम के बागों को काटा जाता तो मौहल्ले की दूसरी औरतों की तरह वह भी हम सब भाई-बहनों के लेकर वहां पहुंच जातीं और वहां से हमें पेड़ो के झंगाव की लड़कियाँ बांध-बांध कर उठवातीं. जंगल कि कटाई साल में सिर्फ हफ्ता या दस दिन ही चलती. पर उन हफ्ता-दस दिनों में इतना झंगाव हो जाता कि हमारी पूरी छत छोटी लकड़ियों और पत्तों से भर जाती. उनमें से भी अम्मी मोटी-मोटी लकड़ियाँ छांट कर अलग कर लेती और बाद में उन्हें किसी टाल पर बेच देतीं. इसके साथ ही उन्होंने शहर से बाहर फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के लिए टिफिन बनाकर भेजने का काम भी शुरु कर दिया. 30 रुपये प्रति टिफिन. शुरु में वह दस टिफिन भेजती थीं. बाद में जिनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते पचास तक चले गई थी. 
हालांकि घर के बाकी कामों के साथ हर रोज़ पचास टिफिन खाना बनाना और पैक करके भेजना एक थका देने वाला काम था. तो भी अम्मी ने कभी रसोई में कदम नहीं रखा. दोनों बहने ही सारा दिन रसोई में घुसी रहती. जब वह काम खत्म होता तो फिर घर के दूसरे कामों, मसलन-कपड़े धोने, झाडू पोंछा करना, घर वालों के लिए खाना पकाना, कपड़ों पर स्त्री करना और न जाने क्या-क्या. इस पर भी यदि कोई काम आगे पीछे हो जाता या फिर सब्जी में नमक तेज या मिर्च ज्यादा हो जाती या कोई काम समय पर न होता तो अम्मी उन्हें मरने-मारने के लिए चढ़ जातीं. गुस्से से पागल, कोसती, काटती और गालियां बकती हुईं  कहतीं, “सूरियों… तुम पैदा होते ही क्यों न मर गई. क्या मेरा ही घर मिला था तुम्हें पैदा होने के लिए… पता नहीं किस मनहूस का मुंह देख लिया था जब तुम पैदा हुईं. इससे तो बेहतर था तुम होते ही ना. तुम्हारी ही वजह से तुम्हारा बाप वहां इतनी दूर पड़ा है और यहां मैं दिन रात खटती रहती हूँ… तरह-तरह के काम करती हूं. जंगलों में फिरती हूं… लोगों के लिए खाना पकाती हूं… और तुम्हारे से एक काम भी ढंग से नहीं होता. इससे तो बेहतर था कि तुम होते ही मर जाती.” 
अम्मी उन्हें बद्दुआएं देती जातीं और बहने सिर झुकाएं सुनती रहती और काम करती जाती. 
वे यहीं नहीं रुकतीं. जब कभी मौहल्ले की औरतें उनके पास आ बैठतीं और वे उनके नंगे कान, नाक और चूड़ियों से खाली हाथ देखती तो हैरत जताते हुए पूछती, “हाय वरीसा, ये क्या? ना नाक में कुछ ना कानों में… हाथ भी तेरे बिल्कुल खाली. ऐसी क्या वारी गरीबी… वैसे भी तेरा तो शौहर साऊदी गया हुआ है… फिर भी इतनी कंजूसी. कम से कम हाथ में दो चूड़ी तो डाल ही सकती है?”
अम्मी अफसोस करती हुई कहतीं, “बस क्या बताऊं… न तो या गरीबी और न कंजूसी. या तो धियों की मार है. जिसके घर धी है वह अमीर भी गरीब और खर्च करने वाला भी कंजूस. और हमारे एक दो तो है नहीं… पूरी चार है. एक की कर दी… अब दो की बारी है. उनसे निपटेंगे फिर चौथी की बारी आ जाएगी. मेरी तो सारी ज़िंदगी इनके चक्कर में ही बीत जाएगी. अल्लाह बेटियां ना दे तो ही अच्छा… इनसे सिवा दुख और बोझ के कुछ नहीं मिलता.”
घर इसी तरह चलता रहा. जब तक कि अब्बू जी नहीं लौट आए. पूरे तीन सालों तक. और फिर वह लौट आए. हंसी-खुशी. तंदरुस्त और खूबसूरत. अब्बू जी के आते ही अम्मी ने सबसे पहला काम जो किया वह यह था कि उन्होंने उनके पीछे जितने भी बाहरी काम करने शुरु किए थे सब बंद कर दिए. फिर नए सिरे से घर को दोबारा बनाया गया. उसके बाद बहनों की शादी की गई. वो भी बड़े धूमधाम से. दहेज भी इतना दिया कि शायद ही उससे पहले अम्मी की रिश्तेदारी में किसी ने दिया हो. सब कुछ दिया- फ्रिज, वाशिंग मशीन, पैरो वाली सिलाई मशीन, डबल बैड, सोफा सेट, तीन अलमारी, छः संदूक, अनाज रखने की टंकी, इन्वर्टर, बैटरा, दुल्हे की पसंद की बाईक, बारह-बारह तौला सोना, आधी-आधी किलों चांदी और साथ ही एक-एक लाख रुपये नगद. दामाद भी दोनों बहुत अच्छे मिले. पहले वाले से भी सुंदर और खूबसूरत. जिसने भी देखे हर किसी ने तारीफ की. महीने भर तक घर में शादी जैसा माहौल रहा. उस दौरान घर के कामों के लिए अम्मी ने अपनी भतीजी को बुलवा लिया था. उसके जाने के बाद छोटी बहन ने घर संभाल लिया. बीच-बीच में दोनों बहने भी बारी-बारी से आती-जाती रहीं और घर पहली की तरह ही चलता रहा.                  
रमज़ान से पहले ईद के लिए जब कुलसुम अपने घर की साफ-सफाई कर रही थीं तो उन्हें बिजली ने करंद मार लिया. वह भी इतना भयांनक की उनकी जीभ कट गई और वह बिस्तर पर पड़ गईं. उन्होंने फोन पर अम्मी से खुशमाद की कि वह छोटी बहन को उनके पास घर के कामों के लिए भेज दें. ताकि घर में जो काम फैला हुआ उसे समेटा जा सके. ईद के बाद वह उसे वापस भेज देगी. उन दिनों दोनों बड़ी बहनें अपनी ससुराल से आई हुई थीं इसलिए अम्मी ने छोटी बहन को बड़ी बाजी के घर भेज दिया. लेकिन उसके जाने के हफ्ते भर बाद ही छोटे वाला (तीसरे नंबर का) दामाद बहन को लेने आ गया. अम्मी ने उसे भी भेज दिया और अब सिर्फ कहकसा (दूसरे नंबर की बहन) बाजी घर में रह गई.
रमज़ान चल रहा था. हमेशा की तरह इस बार भी मौहल्ले में खूब रौनक थी. हालांकि दिन उदास-उदास होते लेकिन शाम होते-होते सब सड़के और गलियां गुलज़ार हो जाती. बहन सुबह तीन बजे ही उठ जाती. सबसे पहले तहाज्जुद की नमाज़ पढ़ती और फिर सहरी बनाती. उसके बाद जब सहरी का वक्त खत्म होने में बीस-पच्चीस मिनट रहती तब वह हम सबको उठाती. हम उठते, सहरी खाते, नमाज़ पढ़ने जाते और फिर आकर सो जाते. जबकि बहन अकेली घर की साफ-सफाई में लग जाती या कुरान पढ़ने बैठ जाती.
आधा रमज़ान बीत गया और तभी भाई साहब (बहनोई) उसे लेने आ गए. हालांकि जब उन्होंने फोन करके आने के लिए पूछा था तो अम्मी ने उनसे कहा था कि वह रेशमा (छोटी बहन) के आने तक उसे छोड़ दे. उसने हां भी कर दी थी लेकिन फिर भी वह आ गया. वह दोपहर में आया था और इफ्तार करते ही बाजी को लेकर चला गया. उनके जाने के बाद हम काफी देर तक उनके बारे में बातें करते रहें और फिर तरावीहये की (रमज़ान में पढ़ी जाने वाली एक खास नमाज़) नमाज़ पढ़कर सो गए. 
अगली सुबह तीन बजे अम्मी सहरी बनाने के लिए उठी. उठकर वह बैठ गईं. उन्होंने चारपाई से नीचे पैर लटकाए और रसोई की तरफ देखने लगीं. पिछले दस सालों में वह एक बार भी रसोई में नहीं गईं थीं और अब उन्हें वहां जाकर सेहरी के लिए खाना बनाना था. अचानक उनकी आँखें भर आई और वह सुबक-सुबक रोने लगीं. खुद से ही कहती हुई, “… हाय मेरी बच्चियां… मुझे कभी किसी काम को हाथ तक नहीं लगाने दिया… सब कुछ खुद ही करती रहीं… मेरी बेटियां… अल्लाह ऐसी बच्चियां सबको दे. मेरी बच्चियां… अल्लाह तुम्हें सुखी रखे और लंबी उम्र दे.”
बाहर बरामदे में बैठी अम्मी जब मलाल कर-कर के अपनी बिना किसी कर्ज या बोझ के पराई हो गई धीकड़ियों को याद कर रो रही थीं तब हम दोनों भाई यानी उनके पड़ोसी पूत मज़े से अंदर अपने-अपने बिस्तरों पर सो रहे थे.  

शहादत
शिक्षा- बी.ए. (हिंदी पत्रकारिता) एम. ए. हिंदी, दिल्ली विश्वविद्यालय.
संप्रति- एनडीटीवी
मोबाइल- 7065710789.
ईमेल- [email protected]
प्रकाशित कृतियां- हंस, पहल, नया ज्ञानोदय, इंडिया टुडे, पाखी, कथाक्रम, कथादेश, जनकृति.कॉम, समालोचन.कॉम, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, मधुमालती, विभोम स्वर, समहुत, वसुधा, अहा!ज़िंदगी, जानकपुल.कॉम और उद्भावना आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित.
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