Friday, October 11, 2024
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शीला मिश्रा की कहानी – मन की भटकन

उस दिन इंदौर से भोपाल जाने के लिए विजया वाल्वो बस में कुछ जल्दी ही आकर बैठ गई। उसने आसपास नजर घुमाई, सात-आठ यात्री बैठे हुए थे।पर्स से मोबाइल निकालकर उसने पति को मैसेज भेज दिया कि वह चार बजे की बस से निकल रही है फिर उसकी निगाह खिड़की के बाहर गई; पास ही बना बगीचा ताजी हरी घास से भरा हुआ था और छोटे-छोटे पीले -नीले- बैगनी-गुलाबी फूल चारों और खिले हुए थे ।नौकरी की भागमभाग में बगीचे से जैसे उसका नाता ही छूट गया था ।इस समय प्रकृति की सुन्दरता देखकर उसका मन प्रसन्नता से भर उठा‌। तभी एक युवक व युवती उसकी बगल की सीट पर आकर बैठ गए।शायद पति -पत्नी होंगे। लड़का तीस  साल के आसपास का होगा ;ऊंची -पूरी देह व सम्मोहक व्यक्तित्व था उसका।लड़की सत्ताईस -अट्ठाईस साल की लग रही थी ;चंपई सा रंग, हल्के गुलाबी गाल,बड़ी बड़ी आंखें व रेशमी बाल थे उसके। परफ्यूम की भीनी -भीनी खुशबू उसके पास से आ रही थी।बाहर की सुन्दर प्राकृतिक छटा तथा पड़ोस के सुन्दर सहयात्री देखकर विजया का मन आनंद से सराबोर हो गया ‌।
जब से विजया का ट्रांसफर भोपाल से इंदौर हुआ है ,तो सप्ताह के अंत में वह दो दिन के लिए भोपाल आ जाती है।थकान अवश्य हो जाती है किन्तु घर पहुँच कर पति व बच्चों से मिलकर अगले हफ्ते के लिए नई ताजगी व ऊर्जा लेकर लौटती है। चूंकि उसके पति की भोपाल में सरकारी नौकरी है और दोनों लड़कियां भी कॉलेज में हैं; बड़ी बेटी काम्या एम बी ए फाइनल में तथा छोटी सौम्या इंजीनियरिंग कर रही है, तो उसे इस तरह का सामंजस्य बिठाना ही पड़ता है । बच्चियों की फ़िक्र लगी रहती है किंतु छोटे भाई का परिवार पड़ोस में ही रहता है तो थोड़ी निश्चिंता भी है ।उसके दो बेटे हैं ,अभी छोटे हैं ,स्कूल में पढ़ रहे हैं। उनकी याद आते ही विजया के चेहरे पर मुस्कान आ गई। कल राखी है और राखी पर प्रत्येक वर्ष एक अलग ही धूम रहती है। पिछले साल का राखी का दृश्य उसकी आंखों के सामने घूम गया ।कितनी दुकान घूमने के बाद  मोहित व रोहित को राखी पसंद आई थी।खाने में भी जहाँ मोहित के लिए कचौड़ियां बनीं थीं ,वहीं रोहित ने अपने लिए  पाव -भाजी बनवाई थी।मुख पर मुस्कान लिए विजया वर्तमान में लौटी और सोचने लगी कि इस बार अपने हाथ का बना कुछ नहीं खिला पाऊंगी , बहुत चाहकर भी दो दिन पहले छुट्टी नहीं मिल पाई। तभी विजया का मोबाईल बजा, काम्या का फोन था-” मम्मी आप कितनी देर में पहुंचेंगी!”
“बेटा! अभी बस चले आधा घंटा ही हुआ है।  तीन घंटे तो लग ही जाएंगे ।”विजया के इतना कहते ही काम्या बोली -” मम्मी,तब तक हम लोग बाजार हो आते हैं। आप सामान की सूची एसएमएस कर दीजिए। हम खरीदारी करके लौटते समय आपको ले लेंगे।”
विजया सूची भेजकर सोचने लगी -“काम्या कितनी समझदार हो गई है। कल राखी है, उसकी तैयारी में लगी हुई है। उसके इंदौर रहने पर वह घर- बाहर सब संभाल लेती है ‌।एक जिम्मेदारी का भाव उसके अंदर आ गया है। मुझे उसके लिए योग्य वर ढूंढना अब शुरू कर देना चाहिए।” तभी विजया का ध्यान अपनी बगल की सीट पर गया। युवक बहुत प्यार से युवती से पूछ रहा था -“फूड कोर्ट आने वाला है क्या खाओगी?”
वह युवती अपनी पसंद बताने लगी। उनकी आपस की प्यार भरी बातें सुनकर  ऐसा लग रहा है मानो नई शादी हुई है, तभी इतना प्यार है उनमें, ,वे दोनों अपनी ही  दुनिया में गुम ,फुसफुसाकर बातें कर रहे थे ।कभी मंद-मंद मुस्कुराते तो कभी जोर से ठहाका लगाते। नहीं चाहते हुए भी विजया का ध्यान उनदोनों पर चला ही जाता था।
डोडी पहुंचकर बस रुकी ।सभी सवारियां नीचे उतरकर फूड कोर्ट की ओर बढ़ने लगीं। विजया चाय लेकर एक टेबल पर बैठ गई। पास की टेबल पर ही वह जोड़ा भी आकर बैठ गया। युवक बड़े प्यार से युवती को जलेबी खिला रहा था। विजया के चेहरे पर मुस्कान आ गई । ऐसे दृश्य प्रत्येक महिला को अपने मीठे अतीत की याद दिला देते हैं। शादी के बाद कुछ सालों तक पति-पत्नी में ऐसा ही आकर्षण होता है ,अपने आसपास के लोगों से निर्लिप्त हो वे एक दूसरे में गुम रहते हैं। चाय खत्म करके विजया बस में आकर बैठ गई।कुछ ही देर में वे दोनों भी आ गए। विजया को अपनी तरफ तकते  देख लड़के ने बातचीत शुरू करते हुए पूछा-” आप भोपाल  कैसे जा रही हैं ?”
” मेरा घर तो भोपाल में ही है ।वहीं के सरकारी कॉलेज में पढ़ाती थी ।दो महीने पहले मेरा ट्रांसफर इंदौर हो गया है चूंकि परिवार भोपाल में ही है, इसलिए प्रत्येक सप्ताह के अंत में वहां चली जाती हूँ। तुम लोग कैसे जा रहे हो?” विजया ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए पूछा।
“हम लोग भोपाल के इंजीनियर कॉलेज में पढ़ाते हैं, इंदौर में हमारा दो दिन का सेमिनार था, वहीं से वापस लौट रहे हैं ।”युवक ने जवाब दिया।तभी युवती का मोबाइल बजा,वह बात करने लगी तो विजया व युवक की बातचीत पर विराम लग गया। युवती बहुत आत्मीयता के साथ फोन पर बात कर रही थी फिर अपने पहुँचने की जानकारी देकर उसने फोन बंद कर दिया । विजया खिड़की के बाहर देखने लगी।श्वेत -शुभ्र आकाश धीरे-धीरे काले बादलों से
घिरता जा रहा था। उन बादलों को देख उसे अपनी माँ की कही बात  याद आ गई।’ जब शाम हो और अचानक काले बादल घिर आएं तो शीघ्र घर आ जाया करो ।’ न जाने क्यों वे काले बादलों को भय के साथ जोड़ देतीं थीं। इस क्यों का जवाब तलाशते हुए विजया ने आँखें बंद कर ली। युवती की मीठी आवाज सुनाई पड़ते-पड़ते धीमी होती गई और विजया की नींद लग गई । कुछ देर बाद मोबाइल की  आवाज से विजया चौंककर उठी -“हेलो….!”
“मम्मी आपको पहुँचने कितने में कितना समय लगेगा?”सौम्या फोन पर पूछ रही थी।
“क्यों , अब क्या हो गया?”विजया के स्वर में चिंता झलक आई।
” अगर आधे घंटे से ज्यादा लगेगा तो हम-दोनों मेंहदी लगवा लेते हैं।”सौम्या ने कहा।
” हाँ, हाँ,आराम से लगवा लो,अभी कम से कम चालीस मिनट और लगेंगे।”विजया ने घड़ी की ओर देखकर कहा।
“दीदी.sss…., जल्दी चलो मेंहदी लगवाने। मम्मी को आने में अभी वक्त है।”सौम्या की चहकती हुई आवाज विजया को सुनाई दी।
ममता व स्नेह के भाव से विजया भावुक हो उठी और अतीत की प्रत्येक वर्ष की राखी की तैयारी उसकी आँखों के सामने चलचित्र की भांति घूमने लगी।कुछ देर बाद वत्सल भाव से उमड़ती  अश्रु धारा को उसने धीरे से रुमाल से पोंछा।
विजया की निगाह बगल की सीट पर गई, वे दोनों एक-दूसरे से सिर टिकाए आंखें बंद किए हुए थे। नींद व थकान में भी वे एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे। विजया ने हल्की सी मुस्कान के साथ सिर पीछे टिकाया और आंखें मूंद ली।
कुछ देर बाद एक झटके से बस रुकी, भोपाल आ गया था ।विजया ने बस से उतरते हुए यहाँ- वहाँ निगाह दौड़ाई ,उसे अपनी गाड़ी नहीं दिखी तो वह एक तरफ खड़ी हो गई। उसके पीछे वे युवक -युवती भी उतरे। विजया ने सौम्या को फोन लगाया तो हड़बड़ाती-सी सौम्या की आवाज कानों में पड़ी -“मम्मी, बस…. हम पांच मिनट में पहुँच रहे हैं।” विजया एक किनारे खड़ी हो गई, फिर उसने जो देखा उससे उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं ।एक कड़वी सच्चाई उसे मुँह चिढ़ा रही थी‌। जिसे वह पति -पत्नी समझ रही थी, वे वास्तव में पति- पत्नी थे ही नहीं। उस युवती को शायद उसके पति लेने आए थे क्योंकि एक पति के अंदाज में उन्होंने गाड़ी से उतरकर उसको गले लगाया फिर गाड़ी का दरवाजा खोला, पहले वह बैठी फिर उसके बगल की ड्राइविंग सीट पर वे स्वयं ,फिर वे दोनों चले गए। युवती ने पीछे पलट कर देखा तक नहीं । युवक की गाड़ी थोड़ी दूर थी, जैसे ही वह अपनी गाड़ी के पास पहुंचा; पीछे की सीट से करीब पांच साल का छोटा बच्चा,”पापा”, “पापा”, कहते हुए उससे चिपक गया ।युवक ने उसे गोदी में लेकर बहुत प्यार किया ।शायद उसकी पत्नी गाड़ी चला कर आई थी। युवक आगे की सीट में उसके बगल में बैठा और वे दोनों भी चले गए‌।
विजया के आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा ।समाज में आया खुलापन व मर्यादा विहीन होते रिश्ते उसके मन मस्तिष्क को चोटिल करने लगे। वह हाथ में पर्स दबाए ,शून्य आंखों से जिस तरफ युवक की गाड़ी गई थी ,वहीं देखे जा रही थी ।तभी सौम्या “मम्मी” , “मम्मी” कहती लगभग दौड़ती- सी उसके पास आई और बोली -“हम कब से हार्न बजा  रहे हैं, आप सुन ही नहीं रही हैं, क्या हो गया…,जो आप उस तरफ  देखे जा रही हैं?”
विजया ने  बिना कुछ कहे सौम्या को गले से लगा लिया,वह कहती ही रह गई -” मम्मी मेरी मेहंदी ….मेरी मेहंदी….!” तब तक काम्या भी गाड़ी से उतर कर बाहर आ गई। विजया ने उसके करीब जाते हुए उसे जोर से अपने सीने में भींच लिया। वह टोकती ही रह गई-” मम्मी संभल कर…. आप के कपड़ों में मेहंदी लग जाएगी…..!” पर विजया को तो जैसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था। वह ऐसे डर गई थी मानो उसने अपनी  बच्चियों का डरावना भविष्य देख लिया हो।
गाड़ी में बैठते ही सौम्या-काम्या विजया को बड़े उत्साह से अपनी शॉपिंग के बारे में बताती जा रही थीं ,साथ ही एक-दूसरे दूसरे की शिकायत भी करती जा रही थीं पर विजया सिर्फ ‘हां’ व ‘हूं’ में जवाब दे रही थी। मां को इस तरह चुप देख वे दोनों शांत हो गईं। विजया ने पीछे की तरफ अपना सिर टिका लिया। बाहर तेज हवा के साथ काले बादल धुंए की तरह उड़ रहे थे ।विजया का मन भी प्रकंपित हो रहा था, घबराकर उसने आँखें बंद कर लीं।
घर पहुंचकर जैसे ही विजया बाथरूम से मुँह -हाथ धो कर बाहर आई, सौम्या व काम्या ने बड़े चाव के साथ एक-एक सामान उसको दिखाना शुरू कर दिया ।बच्चों के चेहरे की खुशी देख विजया के साथ प्रतीक भी प्रफुल्लित हुए जा रहे थे ।उन्होंने प्रशंसित निगाहों से अपनी बच्चियों की तरफ देखते हुए विजया से कहा -“देख रही हो …. दोनों कितनी समझदार हो गई हैं , बिल्कुल तुम्हारी तरह ।”फिर बच्चियों से कहा -” माँ सफर से आईं हैं, थकी हुई हैं, पहले खाना खा लेते हैं।”
खाना खाते समय भी सौम्या व काम्या राखी की पूरी तैयारी के बारे में माँ को बताती रहीं। पुलकित मन से विजया व प्रतीक उनदोनों की बातें सुन रहे थे। प्रतीक की आंखों में अपनी बेटियों के प्रति प्रशंसा के भाव देख विजया गर्व से भर उठी।
खाना खाने के बाद जब प्रतीक -विजया अपने कमरे में आए तो विजया ने प्रतीक को अपने आज के अनुभव के बारे में बताया । प्रतीक ने इस बात को सामान्य ढंग से लेते हुए कहा -“यह सच है कि हमारे समाज में पाश्चात्य सभ्यता ने दस्तक दे दी है‌। इस तरह की घटनाएं सुनने में आ रही हैं और साथ में दिखाई भी पड़ रही हैं ,पर हम और तुम इसमें  क्या कर सकते हैं।”
“हमारी भी दो लड़कियां हैं मैं उनके बारे में सोच कर बहुत चिंतित हो रही हूं।” विजया ने अपना डर प्रतीक के सामने रख दिया।
“तुम ठीक कह रही हो किंतु हमने अपनी बच्चियों को नैतिकता व मानवीय संबंधों का पाठ बहुत अच्छे से पढ़ाया है ।ऐसे माहौल में बच्चों को दिए संस्कार ही उनके काम आते हैं‌। इसलिए हमें डरने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। ‌”प्रतीक ने बहुत विश्वास के साथ कहा।
अभी भी विजया को चिंता के बादलों से घिरे देख प्रतीक ने उसे समझाते हुए कहा-” अब तुम चिंता छोड़ो और आराम करो। दिनभर की थकी हुई हो । तुम्हें तो मालूम है न ,कल घर में कितनी धमाचौकड़ी होने वाली है‌। फिर परसों तुम्हें जल्दी निकलना भी है, इसलिए मेरा कहा मानो, शीघ्र सोने का प्रयास करो।”
विजया ने सहमति में हामी तो भरी पर कुछ अनमनेपन से। कुछ ही देर में सारा घर नींद के आगोश में डूब गया परन्तु विजया की आंखों से नींद कोसों दूर थी।अचानक बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश शुरु हो गई।भारी बरसात की आवाज से वह काँप उठी।ऐसा लगा मानो समंदर की लहरें अपनी हदों को तोड़कर शहर में घुसने को बेताब हो उठी हों और बादल शोर मचाकर सबको सावधान  कर रहे हों ठीक वैसे ही जैसे समय की फिसलन भरी रेत पर अपने पद चिन्हों को बनाते हुए स्त्री-पुरुष संबंध समाज की नींव को तोड़ने के लिए बेताब हो उठे हैं। वह उठ कर बैठ गई । चिंता की लहरों ने जहां उसके मन -मस्तिष्क को जकड़ लिया था वहीं एक कड़वा सच उसे मथे जा रहा था।जितना वह सोचती उतना ही डरावने काले बादलों से अपने को  घिरा पाती। सामाजिक ढांचे के चरमराने की आहट उसे अंदर ही अंदर भयभीत कर रही थी।
थोड़ी देर बाद बारिश रुक गई। विजया सोने का प्रयत्न करने लगी पर बाहर तेज हवा के झोंके सांय-सांय कर रहे थे। दरवाजे व खिड़कियों के पल्ले खड़खड़ा रहे थे। सारा वातावरण उसे डरावना सा लगने लगा ।उसने सहम कर करवट बदल ली। मेंढकों के टर्र-टर्र की आवाज गहरे सन्नाटे को चीर रही थी। बीच-बीच में एक भौंरा खिड़की पर सिर मार रहा था। धीरे-धीरे विजया को ऐसा लगने लगा कि मानो वह भौंरा मैं स्वयं हूँ।
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