जिस तरह इधर 20वीं और 21 वीं सदी में पूर्व में कई आविष्कृत उपकरणों का बाद में और ज़्यादा आधुनिकीकरण हुआ और आम जन मानस तक बड़ी सुगमता और सहूलियत के साथ उपलब्ध हुआ, जैसे- हवाई जहाज़, बस, ट्रक, कार, रेल वगैरह। उसी तरह घरेलू उपकरण का भी इधर 15 सालों में ज़्यादा विकास और नवीनीकरण या फिर आधुनिकीकरण हुआ है। वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की मदद से ऐसी तकनीक बहुत आसानी से हर घर में सस्ते दामों पर उपलब्ध हो गयी है। जैसे कि वाशिंग मशीन, फ्रीज़, एयर कंडीशन, कूलर, रेडियो, टेलीविज़न, प्रिंटर, कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल फ़ोन वगैरह।
आधुनिक उपकरणों की सुगम उपलब्धता की बदौलत हमारे जीवन पर इसका गहरा असर पड़ा है। जीवन के तमाम क्षेत्रों पर इनका असर पड़ा है। भाषा और साहित्य भी इनसे अछूते नहीं रहे। मैंने अपने पहले लेख में भी इस बात की चर्चा की है कि कुछ सालों पहले तक हमने सोचा भी नहीं था कि हम देवनागरी और दूसरी भारतीय भाषाओं की लिपियों को मोबाइल और कंप्यूटर पर टाइप करेंगे। हमने यह भी सपना नहीं देखा था कि बूढ़े से बच्चे, नौजवान हर शख्स के हाथों में मोबाइल और लैपटॉप होंगे और वे इतनी आसानी से हिंदी भी टाइप कर लेंगे। एक उदाहरण के तौर पर आपको समझाता हूँ कि 2006-07 ईस्वी में मैं जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़ता था। उस समय बहुत कम बच्चों के हाथों में मोबाइल और लैपटॉप आये थे। हम सभी साइबरकैफ़े पर कुछ भी टाइप करवाने के लिए निर्भर थे।
घर कॉल करने के लिए पीसीओ के सामने लाइन लगाकर खड़े होते थे और मनमाने पैसे पर कॉल की सुविधा थी। 2008 ईस्वी से अचानक बहुत बड़ा परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा। हम सभी आहिस्ते-आहिस्ते लैपटॉप और मोबाइल ख़रीदने लगे। इसकी मुख्य वजह यह थी कि तकनीक और उपकरण अचानक सस्ते होने लगे और आसानी से उपलब्ध होने लगे। मोबाइल और इंटरनेट हाथों में आ जाने के कारण हम दुनिया से जुड़ गये। सस्ते कॉल की सुविधा हुई और सस्ते इंटरनेट पाने के बाद गूगल और यूट्यूब से बड़ी आसानी से हर जानकारी मिलने लगी। हम किसी के मोहताज नहीं रहे और हमारे बीच से बिचौलिये का सत्यानाश होता रहा।
जिस तरह राजनेताओं, कारोबारियों, अभिनेताओं, गायकों वगैरह ने सोशल मीडिया और आधुनिक तकनीक का उपयोग करके अपना सिक्का जमाया, उसी तरह साहित्यकारों ने भी हाल के वर्षों में सोशल मीडिया और आधुनिक तकनीक का सदुपयोग किया है और युवा पाठकों में लोकप्रिय हुए। कुछ बुज़ुर्ग लेखकों का कहना है कि इधर कुछ सालों में सोशल मीडिया पर युवा लेखक कुकुरमुत्ते या फिर बरसाती मेंढक की तरह पनप चुके हैं। सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर अवारे की तरह भटकते फिर रहे हैं। साहित्य का माहौल बिगड़ रहा है। अब हमारा मन ये सब देखकर खट्टा हो गया और साहित्यिक मज़ा किरकिरा हो गया है। प्रकाशक और पत्रिकाएँ युवा लेखकों की उज़ूल-फ़िज़ूल रचनाएँ छाप रहे हैं। इससे साहित्य का स्तर गिरा है। इसपर मेरे भी कुछ तर्क हैं। पहले भी साहित्य में लेखकों की बाढ़ रही है। यूरोप के साहित्य में लेखकों की बाढ़ रही है।
शायद प्रेमचंद के ज़माने में भी यह बाढ़ रही होगी। बस हमें दिखता नहीं है। क्योंकि हमारी (जनता की) याददाश्त कम दिनों की होती है। पहले सोशल मीडिया और संचार का कोई मज़बूत ज़रिया नहीं होने की वजह से हमें लेखकों की बाढ़ नहीं दिखती थी। चिट्टी-पत्री और अख़बार-पत्रिकाएँ ही संचार का सबसे बड़ा ज़रिया थीं। संचार माध्यम की नगण्य उपस्थिति की वजह से लेखकों की पहुँच उनके इलाक़े तक ही सिमटकर रह जाती थी। ग्रामीण जीवन और देश के दूर-दराज़ के इलाक़े से आने वाले बेबस लाचार लेखकों को दिल्ली के बड़े प्रकाशकों और पत्रिकाओं में छपने के लिए नाक रगड़नी पड़ती थी। एक बड़ी तपस्या के बावजूद उनके सपने उनकी मृत्यु के बाद भी मंज़रे आम पर नहीं आ पाते थे। एड़ी-चोटी के पसीने एक करने पड़ते थे। बेचारे लेखक घाट-घाट के पानी पीकर साहित्य साधना करते थे। फिर भी वे अभागे रह जाते थे।
कोई सौभाग्यशाली होता था, जिसका सिक्का संयोगवश जम जाता था और रेस में आगे निकल जाता था। कहा जाता है कि फणीश्वरनाथ रेनू जी को मेला आँचल पटना में पैसे देकर छपवाना पड़ा था। बाद में लोकप्रिय होने पर दिल्ली के किसी प्रकाशक से उनका उपन्यास छपा। ऐसी कई कालजयी रचनाएँ हैं, जिनको शुरू में बदक़िस्मती से या पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर दिल्ली के महान प्रकाशक और पत्रिकाओं का आश्रय नहीं मिला। बाद में जब इन बेचारे लेखकों की रचनाएँ मशहूर हुईं तो बड़े प्रकाशक मलाई खाने के लिए मैदान में बाज़ की तरह कूद पड़े।
आज कई बड़े प्रकाशक ऐसी किताबों को रॉयल्टी फ़्री होने की वजह से छाप रहे हैं और मक्खी से मक्खन चूस रहे हैं। हिंदी में पाँडुलिपि पढ़कर छापने की परंपरा नहीं है। हमारे यहाँ लेखक की लोकप्रियता के आधार पर किताब छापने का रिवाज़ है। एक लेखक की कोई किताब चमक जाये तो बाद में बड़े-से-बड़े प्रकाशक इन महान लेखक के कूड़े-कचरे भी छापने से नहीं हिचकते और कॉल करके भी भीख माँगते हुए प्रतीत होते हैं। आम युवा पाठकों के पास सबकी जन्मकुँडली है। आज सोशल मीडिया और संचार के क्षेत्रों में क्राँति आने के बाद यह दुनिया संकुचित हो गयी है और हम दूर-दराज़ में रहकर भी एक दूसरे के नज़दीक हैं। देश-विदेश के लेखक मुफ़्त में बड़ी आसानी से एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो रहे हैं और आपस में विचार का आदान-प्रदान भी कर रहे हैं। कोरोना महामारी आने के बाद हमारी जीवन-शैली में अहमतरीन तब्दीली आ गयी है।
आज हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर बड़ी आसानी से ऑनलाइन परिचर्चा और सेमिनारों का आयोजन कर रहे हैं। ऑनलाइन प्लेटफ़ार्म ज़ूम, गूगल मीट, फेसबुक, स्ट्रीमयार्ड वगैरह पर किताब का लोकार्पण और परिचर्चा का भी आयोजन कर रहे हैं। अगर आपके किताब में दम है और कंटेंट नया है तो युवा पाठक प्रकाशक और लेखक का नाम तक नहीं देखते हैं और फट से किताब का ऑर्डर देकर मंगाते हैं और बड़े चाव से पढ़ते भी हैं। पढ़ने के बाद सीधा ऑनलाइन कॉल करके अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। आज पाठक और लेखक के बीच कोई दीवार नहीं है, कोई मठाधीश नहीं है, कोई ठेकेदार नहीं है।
मैंने अपनी किताबों का प्रचार करते समय ऐसा अनुभव किया है। पढ़कर सीधे फेसबुक और कई ग्रुपों में समीक्षा डाल देते हैं। फिर किताब अपने आप आगे चल पड़ती है। अगर किताब में कुछ भी नयापन नहीं है और कंटेंट में दम नहीं है तो आप ज़रूर पैसे के दम पर बेस्टसेलर बन सकते हैं, जुगाड़ के देश में जुगाड़ से सरकारी पुरस्कार ले सकते हैं, देश के बड़े-बड़े अख़बारों में समीक्षा छपवा सकते हैं। मुफ़्त में पूरे जीवन किताब बाँटते फिर सकते हैं। किंतु लंबे दौर में आपके दिल में एक टीस रह जायेगी और फिर आपके मन में ईर्ष्या भी पनपने लगेगी। साहित्य फ़िल्म नहीं है।
साहित्य कछुए की चाल से मंद गति के साथ चलकर अपनी मंज़िल तक पहुँचता है। समय और कालचक्र के साथ वही रचना टिकती है, जिसमें कुछ बात और दमखम हो। वैसे तो अपना दही हर किसी को मीठा ही लगता है। आप ख़ुद देखते होंगे कि कुछ किताबें हाल के वर्षों में बड़े प्रकाशकों से प्रकाशित होकर आयीं, बेस्टसेलर बनीं, पुरस्कार भी मिले और आज के दौर में पाठकों के सामने ऐसी किताबों का कोई नामोनिशान तक नहीं है। कुछ रचनाओं ने छोटे प्रकाशकों से अपना सफ़र शुरू किया और अपने दम और साहस पर बड़े प्रकाशकों का सफ़र भी पूरा किया। वे रचनाएँ आज भी कई सालों बाद भी पाठकों के सामने लोकप्रिय हैं।
सोशल मीडिया और तकनीक के युग में युवा लेखक की बाढ़ को मैं सकारात्मक तौर पर लेता हूँ। हमें हीरे पाने के लिए ढेर सारे पत्थरों को उलटना-पलटना पड़ता है। हीरे कहीं भी छुपे हो सकते हैं। कीचड़ में भी कमल उग जाता है। गुदड़ी के लाल कहीं भी छुपे हो सकते हैं, इसीलिए हमें पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए। आप भी तो कभी अपने से पहले वाले लेखकों को पढ़कर उनसे प्रेरित होकर लेखक बने हैं। हम मानव हैं, इसीलिए हमारी प्रवृत्ति भी एक जैसी है। युवा लेखक भी आपको पढ़कर आपसे प्रेरित होकर लेखक बनना चाहते हैं, तो बनने दीजिये। उनमें दम और प्रतिभा होंगे तो आगे निकल जायेंगे, नहीं तो कालचक्र में पीसकर घुन बन जायेंगे। एक-न-एक दिन हमें भी तो यह धरती ख़ाली करनी है। यह धरती हमारे लिए किराये का मकान है, एक-न-एक ख़ाली करनी ही पड़ेगी। यही तो इस संसार और जीवन की सच्चाई है। बच्चों को भी अपने पैर पर खड़े होने चाहिए। वे अपने दम पर टहलना सीखेंगे, आपके दम पर नहीं।
जितने युवा लेखक पनपेंगे, उतने पाठक भी बढ़ेंगे। उन्हीं में से कोई आपकी किताब भी ख़रीदकर पढ़ सकता है। इससे हिंदी का दायरा भी तो बढ़ेगा। आपको पता ही है कि अपने देश में मध्यम वर्ग के कुछ गिनेचुने लोग ही साहित्यिक किताब पढ़ते हैं। सभी परीक्षा पास करने और नौकरी पाने तक पाठ्यक्रम की किताबें ही पढ़ते हैं। आज सोशल मीडिया के युग में भी पाठक और लेखक दोनों बढ़ रहे हैं। यह भाषा और साहित्य के विकास और विस्तार के लिए शुभ संकेत है। ऐसा न होने पर बड़ी-से-बड़ी भाषा मर जाती है। आपके लिए संस्कृत एक जीता जागता उदाहरण है। आप मेरी मातृभाषा मैथिली से ही एक मिसाल लें। आठवीं सदी से मैथिली साहित्य का समृद्धशाली इतिहास रहा है। हमारी भाषा में विद्यापति जैसे महान कवि हुए थे। हमारी अपनी लिपि थी। नेपाली, असमिया, मणिपुरी, बंगला, उड़िया जैसी भाषाओं की जननी रही।
असमिया और बंगला ने तो मैथिली की लिपि अपनायी और उनका साहित्य भी समृद्ध हुआ। किंतु संविधान की आठवीं सूची में मैथिली को डाल देने के बावजूद आज यह भाषा पतन की ओर अग्रसर है। बताऊँ, क्यों। क्योंकि युवा लेखक इस भाषा में साहित्य रचने से कतरा रहे हैं। इस भाषा में साहित्यकारों की संख्या नाम मात्र की है। आठ करोड़ की आबादी वाली भाषा में पाठक भी सिकुड़ चुके हैं। बगल में बंगला को देखें। मैथिली से निकलकर उन्होंने आधुनिक युग में अपने साहित्य को समृद्ध बनाया और आज बंगला विश्व साहित्य को टक्कर दे रही है।
तर्कसंगत आलेख। लेखकों की संख्या बढ़ने से किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। मेरा भी यही मानना है कि अगर लेखक अच्छा होगा तो पढ़ा जायेगा नहीं तो विस्मृत कर दिया जाएगा।
बहुत सही बाक कहा है आपने।
एक तर्कपूर्ण आलेख।
धन्यवाद
तर्कसंगत आलेख। लेखकों की संख्या बढ़ने से किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। मेरा भी यही मानना है कि अगर लेखक अच्छा होगा तो पढ़ा जायेगा नहीं तो विस्मृत कर दिया जाएगा।
बिलकुल सही