एक सदी से
तिरस्कार का बोझ
निज कन्धों पर उठाये हुए है
वह रूप-लावण्या
हो चुकी है
अब कृशकाया
कहीं किसी किनारे
आत्मविस्मृत सी बैठी हुई
तट पर कभी जाकर
जो गौर से देखोगे
धूमिल-छाया
अतिशय वेदना से भरी
रसहीन-अधरों पर पीर धरी
कहाँ खिलखिलाती है?
वह चमचमाती
दुग्ध-दन्तिका-माला
अब कहाँ दिखलाती है?
जल-आँगन-द्वार
वह उर्मि-नूपुर की झंकार
पवन-गीत पर झूमती, थिरकती
उस नृत्यांगना को
जाने कबसे
न देखा विधु ने
मैली-काली साड़ी
कालिन्दी तन लपेटे हुए
अति अवाक चाँदनी
पूर्णिमा-पावन-पर्व पर भी
ओज का टीका लगा
वह नहीं सँवरती
किरण की ओढनी न ओढे
न तारों की बिंदिया
भाल सजती
कर शृंगार का तर्पण
उसके आँचल में अर्पण
कर दिया गया है
निरा प्लास्टिक
अनगिनत कूड़ा-कचरा
पानी में गरल भरा
नित पी रही
जीवनदात्री नदी
यूँ ही जी रही
उसके सर नहीं रही
अब जरा सी भी छाँव
तट छोड़ तरु
नगरों में जा खड़े हैं
उखड़ जड़ों से अपनी
दरवाजों में जड़े हैं
इधर अट्टालिकाओं में
कृत्रिम हिम
उधर हिमानी पिघल रही है
अवहेलना, अनदेखी से
चिंता में ढल रही है
मुहाने का हलक
सूख रहा है
नदी का धैर्य अब
धीरे-धीरे टूट रहा है
ताप से झुलसी
जल रही है
रेत पर नंगे पाँव
अहर्निश चल रही है
आह्वान करती हुई
“आओ भगीरथ!
पुन: ले चलो गंगा को
उपेक्षाओं के इस नगर से
कैलाश पर शिव की जटाओं में”।

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