पिछले दिनों  साहित्य अकादमी के कार्यक्रम ‘साहित्य मंच’ में सोनाली मिश्रा, हीरालाल राजस्थानी और विवेक मिश्र की कहानियों का पाठ हुआ। सोनाली मिश्रा की पठित कहानी ‘अनुवाद’ आज हम पुरवाई के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कहानी अपने कथानक और शिल्प दोनों मामलों में अनूठी है।

नाइडा के अनुवाद सिद्धांत को पढ़ते पढ़ते वह खो जाती, सोचती क्या वाकई अनुवाद संभव है? 
अनुवाद क्या है? क्या अनुवाद केवल एक भाषा से दूसरे भाषा में भावों का सम्प्रेषण हैं या फिर अपनी ही कोई नई भाषा या कविता गढ़ना। वह सोचती पर, किसी भी नतीजे पर न पहुँच पाती। 
उसे याद आने लगती दादी की बात, काग भाषा कोई न जाने। तब उसे पता नहीं था, दादी कहती ये कांव-कांव शायद मेहमान के आने की आहट है। तो क्या दादी अनुवाद करती थी, काग भाषा का? सच में दादी अनुवाद ही करती थी, कभी काग भाषा का, कभी सांप की भाषा का। जब भी कभी बारिशों में सांप निकलता वह जैसे खड़े हो जाती, उसके सामने और कुछ सुनती, कुछ बुदबुदाती। और सांप चला जाता।
दादी ने तो नाइडा को पढ़ा था और न ही डॉ. पूरन चंद टंडन को। फिर भला वह अनुवाद कैसे कर पाती थी? वह समझ नहीं पा रही है। अभी पढ़ती है, अनुवाद एक वफादार पत्नी या बेवफा रखैल जैसा हो सकता है, वह बहुत हंसती है, ये साला वफादार शब्द केवल पत्नी के लिए ही है, और रखैल के साथ इतनी नाइंसाफी क्यों? आखिर रखैल वफादार नहीं हो सकती क्या? रखैल भी वफादार हो सकती हैं? 
हम देखते ही हैं, लोग अगर पत्नी को ही वफादार माने तो आखिर रखैल के जरूरत क्यों पड़े? पर रखैल ही बेवफा क्यों? वह हंसती और बच्चे उसे देखकर कहते “माँ, कोई जोक पढ़ रही हो क्या?” 
पति कहते “बेटा, आजकल तुम्हारी माँ खुद ही एक जोक बन गयी है” 
वह  उस समय इतनी गहन कन्दराओं की ओट में चली जाती है, कि उसे उसके बच्चे या उसके पति कोई भी दिखाई नहीं देता। बस रहते है तो अनुवाद के सिद्धांत और विचार। वह  अनुवाद से निकल कर हर बार अपनी दादी की दुनिया में चली जाती… उसे याद आता कि जब वे लोग छोटे थे तो घर के पीछे जमीन पर जो पेड़ उन्होंने लगाए थे, उनमें करोंदे के फूल हमेशा उन्हें अपनी ओर खींचते। कभी कभी जब फूल हलके आते तो उस समय वो कहती, “अरे करोंदा के फूल न छुईयो जा साल, जा साल जरा हरके आए हैं, झर जइयें” जैसे वह करोंदे की पौधे की भावनाएं समझ कर हमें सिखा रही हो। 
सब दादी से लड़ते, झगड़ा करते पर दादी टस से मस न होती, यही कहती रहती, नहीं हम न छुईयें दैयें, भाग जा मौडी” और सब भाग जाते, तो क्या वह करोंदे के पौधे की भावनाओं का हमारे सामने अनुवाद करती थी। सच में अनुवाद ही तो है, जो हम अपनी भावनाओं का करते हैं, ये हमारी भावनाएं ही तो हैं, जो अनूदित होकर आंसुओं के रूप में सामने आती हैं, सच में ये संवेग ही तो हैं जो हमारे आंसुओं के रूप में आते हैं, कभी कभी हमारी कुंठा अनूदित होकर दूसरे से झगड़े के रूप में सामने आती है। 
पर दादी, वह न जाने किस मिट्टी से बनी थी, कभी कुंठा को, निराशा को अपने पास न आने दिया। वो पढ़ती, गलत अनुवाद, कवि ने कुछ कहा और अनुवादक ने कुछ प्रकट किया, उस अनजान स्थान पर जो मूल से अनजान है, जो मूल से एकदम जुदा है। वह केवल अनुवादक पर ही कविता के लिए निर्भर रहता है, और अनुवादक जो कहता है वह उसे ही सत्य मान लेता है। 
ऐसा तब ही होता था जब दादी, छोटी दादी माने बाबा की दूसरी पत्नी से कुछ ऐसा तीखा सुन लेती थी, कि शायद उनका दिल छलनी हो जाता होगा, पर वे हथेली पर पत्ती की तम्बाकू रगडती हुई ऊंची आवाज़ में नौकरानी को आवाज़ देने लगती, या उन लोगों  के साथ खेलने लगती। उस समय उनकी आँखें कुछ और बोलती थी पर उनके शब्द कुछ और। वह दादी से पूछते “दादी, आप रो रही हैं” दादी उसका मुंह चूम कर कहती “नहीं लाडो”। 
उसे  दादी के मुंह से आती बदबू बहुत बुरी लगती थी, पर क्या करे, दादी इतना प्यार ही करती थी कि वह  कुछ खास कर नहीं पाती थी। अब लगता है दादी कितनी बुरी अनुवादक थी, जो अपनी भावनाओं का इतना खराब अनुवाद करती थी कि बच्चों को भी पकड़ में आ जाए। सच में अनुवाद, कितना मधुर शब्द लगने लगा है, अब वह  लोगों के शब्दों पर नहीं उनकी आँखों में देखती है, उसे  मज़ा आने लगा है शब्दों से परे की दुनिया में झाँकने में। 
उसके पति कभी कभी कहते भी है “तुम रहस्यमयी हो गयी हो” वह  हँसती है, बस यही कहती है  “वह  अनुवादक है, अनुवाद करने लगी है” ये बोलते हैं, इतने सारे लोग ये काम करते हैं तो क्या सब ऐसे ही हैं। उफ़! क्या समझाऊँ इन्हें, जैसे जब उसने शॉर्टहैण्ड सीखा था तो उसकी टीचर कहती थी, सच्ची विद्या वही जब आप वह आपकी रग-रग में रम जाए, कुछ भी कोई बोले तो आप लोगों के दिमाग़ में अक्षर नहीं बल्कि, शॉर्टहैण्ड की रेखाएं आनी चाहिए। 
उसने मेहनत की और वाकई में जब तक नौकरी की तब तक उसके दिमाग से क, ख और ग या एबी सी सब गायब, हो गया था… रह गयी थी तो बस लकीरें। ऐसे ही जब एम.ए. कर रही थी तो शेक्सपीयर सपने में आकर ओथेलो जैसे सुनाते थे। अब उसका दिमाग है ही ऐसा। अब अनुवाद करती है, जो लोगों का अनुवाद करने का मन होने लगता है। 
उसके मन ने दादी को चुना, दादी, जैसे जैसे वह सिद्धांत पढ़ती, उसे अपनी दादी की हर बात जैसे मन्त्र सी नजर आने लगती। हर बात रहस्यमयी लगती। दादी अनुवाद के सिद्धांतों में खोने लगती, दादी खुद ही एक सिद्धांत हो जाती। 
गौरैया के आने की आहट से ही वह बता देती कि गौरैया को कब खाना होगा, कब वह पंखे से होकर गुजरेगी, कब पंखा बंद करना है, गौरैया के घोंसले में जब बच्चों की चूं चूं सुनाई देती तो वह, फिर कहती, अरे बहू, घर में नए मेहमान आए। वो जैसे गौरैया या यूं कहें सृजित करने वाली स्रष्टि के हर क्षण का अनुवाद करती। क्या ऐसा कोई हो सकता है? 
पर उसे बहुत बुरा लगता जब दादी अपने आंसू छिपा कर, रात में पंखा झलते हुए वह अपने आंसू पोंछती जाती, बाबा जब दादी से कहते “क्या हुआ?” वो कहती “कुछ नहीं, लग रहा जुगनू ज्यादा होय गए आंगन में” बाबा कहते “अरे, अब तुम्हें जुगनू भी चुभने लगे” दादी कहती “का करें, जब जीवन अंधेरो, तो जुगनू सेओ आँखें धुंधलाय जात हैं” उसे कुछ समझ नहीं आता, बस उसे ये लगता कि कुछ तो है पर क्या वह समझ नहीं पाती।
“माँ, माँ, भूख लगी है, खाना दो न” बच्चों ने टोका तो देखा शाम का धुंधलका होने लगा था, बैठे बैठे उसे दो तीन घंटे से भी ज्यादा हो गया था और बच्चों को छोटी मोटी भूख लगने लगी थी।
उसके अन्दर बस यही एक कमी है… वह अपने ही काम में मग्न हो जाती है, कुछ नहीं सोचती। उसके दिमाग में इस समय केवल अनुवाद ही अनुवाद घुस गया है… पर हां केवल इंसानों का अनुवाद। वह मन ही मन में खूब हंसती है। ऐसे में उसके मन में ऐसी भावनाएं आतीं जिनका अनुवाद उसे असंभव लगता। वह खुद सोचती, उसमें ग्लानि है या उसमें अपराधबोध है! 
पर खैर, बच्चों ने अपनी तमाम फरमाइशें उसे दे दीं, और उसने फिर उसमें से कुछ उठा ली पूरी करने के लिए, बाकी समय पर उधार दे दीं, और बच्चों को खाना देने के बाद फिर से आ गयी अपनी स्टडी टेबल पर। बच्चे खुश हो गए थे क्योंकि उनका मनपसन्द मोटू पतलू आने लगा था, और बच्चों की माँ, वह खुश सी हो गयी। बच्चों के सर पर हाथ फेर कर, उनसे चुप रहकर ही तमाम बातें करने के बाद जैसे ही चलने लगी, बिटिया बोली “माँ आपको पता है न कि आप ही मोस्ट बियुटिफुल हो” मैं हँस पड़ी, और उसका बेटा बोला “माँ, आई लव यू” दोनों ने ही अपने शब्दों में जैसे अपने भाव व्यक्त कर दिए, शायद उनके मनपसन्द चोकोज़ खाने के बाद उनकी भावनाएं इस तरह अनूदित होकर सामने आई थी। 
वह अधिक देर तक टिक नहीं पाई। उसकी टेबल उसे बुला रही थी, और वह सच में ही जाना चाहती थी… उसपर एक नशा है, दादी की अनकही बातें उसे बुला रही थी। जब वह अनुवाद पढ़ती तो व्यक्तित्वों को अनुवाद में जोड़ देती। ऐसा वह क्यों करने लगी थी? आखिर क्या गुत्थी थी, जो उसे इतना व्यग्र कर रही थी। इधर वह अपने अध्याय में आगे बढ़ रही थी तो साथ ही दूसरी ओर वह अपनी दादी के जीवन को भी पढ़ती और अनुवाद में गढ़ती जा रही थी। 
इधर हुम्बोल्ट कहते हैं “All translation seems to me simply an attempt to solve an unsolvable problem” मतलब “अनुवाद ऐसी समस्या है, जिसका कोई समाधान ही नहीं” और कोई कहता है कि अनुवाद कालीन का उलटा हिस्सा है। पर दादी तो रामचरित मानस के मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सुदसरथ अजर बिहारी, को बहुत ही सहज तरीके से सुनाती 
जो मंगल करने वाले और अमंगल हरने वाले हैं,
दसरथ पूत राम हम पर कृपा करने वाले हैं,
अब जानती हूँ कि ये गलत हो सकता हुआ होगा, पर उस समय राम को हमें समझाने के लिए वे हमेशा हमें ये सुनाती। सच में अनुवाद ही तो था यह, पर उसमें भावनाओं का पुट अधिक था, उसमें सिद्धांत नहीं थे, उसमें बच्चों को राम के बारे में समझाने के बारे में आतुरता थी। 
भला यह कैसे हो रहा है… वह पढ़ अनुवाद रही है और छा रही हैं उसकी दादी। बीच-बीच में उसे अपनी स्टडी-टेबल से उठकर घर के भी सारे काम निपटाने होते हैं, और उस समय दादी की रहस्यमई मुस्कान उसे और रहस्यमई लगने लगती। उसे दादी की मुस्कान के पीछे का दर्द बहुत कुछ बोलता हुआ सा लगता, पर वह कभी पूछ न पाती। 
वह दादी से पूछती तो डांट खाती, “जे मौडिया बहुत अजीब है, जब देखो तब, दादी तुम जब हंसती तो रोती काहे हो, जे मौडिया एक दिन कहे देत हैं, बहू जी, हमाई जान ई ले लिए” फिर मम्मी भी उसे खूब डांटती। दादी और मम्मी की डांट खाकर वह उसी जगह आकर बैठ ज़ाती जहां पर दादी ने मंदिर बना रखा था। और उन मूर्तियों से बात करती। 
दादी की उस रहस्यमई हँसी का मतलब बहुत ही जल्द पता चल गया। हुआ यूं, कि किशोरावस्था में कदम रखते हुए, अपनी तमाम कल्पनाओं के साथ वह जीने लगी, बढ़ने लगी थी। ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर दादी बेहद सजग हो गयी थी। उसका भाई आए दिन घर पर किशोरावस्था के झगड़ों के साथ आने लगा। वह अधिकतर चुप ही रहता मगर दादी उसकी चुप्पी भी अनूदित कर लेती और कहती “काहे, आज फिर” और वह गर्दन झुका लेता। 
वह रोती, वह माफ़ी माँगता पर अगले दिन वही गलती करता। एक दिन रात में ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, “मुझे छोड़ो, मुझे छोड़ो, दादी मुझे कोई खींचे ले जा रहा है” घर वालों ने उठकर बत्ती जलाई, बल्ब की पीली रोशनी फैल कमरे में फैल गयी… उसकी चादर नीचे गिरी पड़ी थी, और जगह से जो पपड़ी उपट आई थी, उस सीलन वाले कमरे में, वह उसके भाई के शोर मचाने के कारण और भी भयानक लगने लगी थी। नीले रंग की पुताई वाला वह कमरा एकदम से कांपने लगा। 
दादी की आँखों में भयानक डर देखा, बोली “बहू, देखना जे मौडा अपएं बाप की जगह न सोए” और अव्यक्त से भय का अनुवाद दादी ने जैसे किया। भाई का बिस्तर बदल गया और वह दूसरी जगह सोने लगा, उस जगह वह सोने लगी। 
दो दिन बाद उसने दादी से कहा “दादी, आज एक बच्चा मेरे सपने में आया” दादी ने उससे कहा “अरे मौडी, कौन आओ हथो” वह बोली “एक लडका, उसने कहा, मेरे साथ चलो,मैं तुम्हारे डैडी के पास ले चलूँगा, पर हमने मना कर दिया” उसकी चीख ने वीभत्स रूप ले लिया जैसे उसने कुछ बुरा सुन लिया हो। वह रो रही थी, और आज उसके आंसू और उसके बोल एकदम एक थी थे, उसके आंसूं एक कुशल अनुवादक की तरह उसकी भावनाओं का अनुवाद पूर्णता से कर रहे थे। 
आज उनमें कोई छल, प्रपंच नहीं था, आज आँखों में आंसू थे पर चेहरे पर मुस्कान नहीं थी, बोली “अरे, जाई जगह सपना आओ हथो, कि हमाए आँगन में खूब पानी भरो है, एकदम हमाओ कमरा डूब रहो है, पानी ही पानी, समंदर जैसो पानी, केवल हमारे कमरे में, हम डूब रहे, तुम्हाए बाप डूब रहे, हमने तुम्हाए बाप से पूछी सपने में ही, काहे जे का होए रहो है, ऊ निर्मोही बोरा, मम्मी लग रहा परलय आय गयी लग रहो तुम्हाए लए, और चरो गओ एक दिन, एम्स के बाहर खड़े रहे हम, और आय  गयी प्रलय, चरे गए, चरे गए तुम्हाए बाप, कर गए गोद सूनी, बोले जात जात, – देखी मम्मी, तुम्हाए सपने में परलय आई थी, न तुम्हाए कमरा में, आज आय गयी परलय हम सबके जीवन में, देखो हम तो जाय रहे, पर सुनो, तुम्हाओ मोतियाबिंद का ओपरेशन भओ है, तुम रोइयो न, हम आज मरे या कल, अब ये तो बीमारी ही ऐसी है, हमें जाना ही है, पर तुम रोइयो नहीं, अगर तुम रोइयो तो जे दोय छोटे छोटे बच्चा और जे तुम्हारी बहू रानी का करिए, तुम हमाए जाने पे रोइयो नहीं और जैसे ही जे डॉक्टर बोल दें, कि हम नहीं रहे, तुम हमाई डेडबॉडी न देखियो, सुनो इस परलय को केवल अपईं आँखों में ही रहन दियो, आँखों से बहन न दियो, जिस दिन जे आंसूं बह गए, समझ लियो तुम्हाए जात भए मौडा को तुमने एक बार फिर मार दयो” और दादी चीख रही थी, रो रही थी, फिर से आय गयो सपना, कभी मेरे मौडा की आंखन में, कभी मौडिया की आंखन में, अरे, बहुरिया, गजब होई गयो, आज फिर सपना आय गयो, दादी रो रही थी और माँ भी। उस दिन बहुत कुछ बहा, कारण बहे और उसे भी यह पता चल गया कि आखिर उसकी दादी के दिल की भावनाओं का अनुवाद हमेशा ही गलत क्यों होता था। दादी तो सपनो का अभी अनुवाद करती थी, कौन सा सपना क्या कहता है, वह यह भी बता देती थी। दादी की एक आँख खराब होने का भी उसी दिन उसे पता चला। 
अरे वह स्टडी टेबल पर बैठी बैठी रो रही है और उसके बच्चे “माँ, रोओ नहीं” कहते हुए रो रहे हैं। सच में उसकी आँखों के सामने लिखा है पोएट्री इज अनट्रांसलेटेबल यानि कविता का अनुवाद ही नहीं हो सकता, पर उसे लगता है कि अपनी ही भावनाओं का अनुवाद सही से नहीं हो सकता क्योंकि वे होती हैं निर्भर कई वादों पर, कई भावों पर। 
सूरज के उगते समय और ढलते समय परछाईं बहुत लम्बी हो जाती है, और हमें पता ही नहीं चलता कि क्या वाकई में ही हम जो देखते हैं वही होता है या और कुछ परे भी होता है। 
सुनते हैं, कविता का अनुवाद इसलिए कठिन होता है क्योंकि जो लिखा होता है, उससे अधिक वह होता है जो अलिखित होता है, पर भावनाएं और शब्दों का घालमेल भी उतना ही अजीब होता है, आँखें कुछ कहती हैं, होंठ कुछ और कहते हैं, कुछ न कुछ तो अनकहा होता है, वही मूल होता है, जिसका अनुवाद असंभव होता है। वह शायद बंधा होता है कहीं, जो जब खुलता है, जब टूटता है बांध तो केवल प्रलय ही लेकर आता है, विनाश ही लेकर आता है। वह भी कह रही है, हां पोएट्री तो नहीं पर हां भावनाएं जरूर अनट्रांसलेटेबल हैं। वे अनूदित नहीं हो सकती। 
वह सोच में डूबी है और कविता की भावनाओं और संवेग का अनुवाद क्यों असंभव है, चैप्टर उसके पेन के नीचे छटपटा रहा है…

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