मेरी आरज़ू   रही  आरज़ू, युँ  ही  उम्र  सारी  गुज़र  गई।
मैं कहाँ-कहाँ न गया मगर, मेरी  हर दुआ भी सिफ़र गई।।
की तमाम कोशिशें उम्र भर, न बदल सका मैं नसीब को।
गया मैं जिधर  मेरे  साथ  ही, मेरी  बेबसी  भी उधर गई।।
चली गुलसिताँ में जो आँधियाँ, तो कली-कली के नसीब थे।
कोई गिर गई वहीं ख़ाक पर, कोई  मुस्कुरा के सँवर गई।।
वो नज़र जरा सी जो ख़म हुई, मैंने समझा नज़र-ए-करम हुई।
मुझे क्या पता ये अदा थी बस, जो की दिल के पार उतर गई।।
मेरे दर्द-ए-दिल की दवा नहीं, मेरा ला-इलाज है ये मरज़।
मुझे देखकर मेरी  मौत  भी, मेरे  पास  आने  में डर गई।।
ये तो अपना अपना  नसीब  है, कोई  दूर कोई करीब है।
न  मैं  दूर  हूँ  न  करीब  हूँ, युँ  ही  उम्र  मेरी  गुज़र  गई।।
ये खुशी निज़ाम कहाँ से कम, कि हैं साथ अपने हज़ारों ग़म।
ये ही ज़िंदगी है ये सोचकर, हँसी आके लब पे बिखर गई।।

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