हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या अमरीका और तमाम नैटो देशों के संगठनों के राष्ट्राध्यक्षों पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिये? क्या उन सबने इस युद्ध का हिस्सा बनने से पहले अपने नागरिकों से पूछा था कि सुनो तुम सब को हमारे इस निर्णय का प्रकोप सहना होगा – क्या तुम तैयार हो। यदि बाइदेन ने अक्लमन्दी का सुबूत नहीं दिया तो नैटो देश मन्दी की मार के नीचे डूबते चले जाएंगे।

रूस और यूक्रेन में तनाव और युद्ध वैसे तो 2014 से ही शुरू हो चुका था। मगर 24 फ़रवरी 2022 को राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने पुरज़ोर तरीके से यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में दोनों पक्षों के लाखों सैनिकों और आम नागरिकों की जानें गईं। दस महीने के बाद भी युद्ध का कोई हल दिखाई नहीं दे रहा। लगभग 47 दिनों बाद हम इस युद्ध की पहली सालगिरह मना रहे होंगे।
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत विभाजन के बाद यह पहली लड़ाई है जिसमें इतने बड़े स्तर पर विस्थापन हुआ हो। लगभग 80 लाख यूक्रेनी नागरिक तो अपने देश में ही विस्थापित हो गये। उतने या उससे कुछ अधिक अपना देश छोड़ कर अन्य देशों में शरणार्थी बन कर पहुंच गये। 
2014 में रूस ने यूक्रेन के साथ हुए संघर्ष के बाद क्रीमिया पर अधिकार जमा लिया था और साथ ही डॉनबस्क इलाके के कुछ हिस्से पर भी कब्ज़ा कर लिया था। मगर वर्तमान स्थिति लगता है कि किसी के भी नियंत्रण में नहीं है। ऐसे में भारत का दृष्टिकोण सार्थक है कि किसी भी विवाद का हल युद्ध नहीं होता – बल्कि हर मुद्दे का समाधान केवल बातचीत के ज़रिए ही हो सकता है।
वैसे सोचा जाए तो ऐसा कौन व्यक्ति हो सकता है जो वर्तमान रूस-यूक्रेन युद्ध को केवल एक टेलिफ़ोन कॉल से ही रोकने की क्षमता रखता है।… हमारे विचार से यह काम केवल अमरीका के राष्ट्रपति जो. बाइदेन ही कर सकते हैं। यदि जो. बाइदेन रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन को फ़ोन मिला कर बस इतना कह दें कि अमरीका और युरोपीय देश यूक्रेन को नैटो का सदस्य नहीं बनाएंगे। युद्ध उसी समय रुक जाएगा।
दरअसल वर्तमान समस्या हमें सीधे-सीधे अक्टूबर 1962 के क्यूबा मिसाइल विवाद पर ले जाती है जब अमरीका और उस समय के सोवियत संघ के बीच लगभग परमाणु युद्ध शुरू होने के आसार बन गये थे। हालांक वो स्थिति भी अमरीकी शरारत के कारण उत्पन्न हुई थी। 
अमरीका ने 1958 में ब्रिटेन के बाद 1961 में तुर्की और इटली में 100 से अधिक मिसाइलों को यू.एस.एस.आर. के खिलाफ तैनात किया था। ये ऐसा दौर था जब शीत युद्ध अपने चरम पर था। उस समय सोवियत रूस के राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव थे और अमरीका के सार्वकालिक लोकप्रिय राष्ट्रपति थे जॉन एफ़. कैनेडी। 
क्यूबा भौगोलिक दृष्टि से अमरीका के निकट है मगर विचारधारा के तौर पर फ़िडेल कास्ट्रो वामपंथी सोच के थे। निकिता ख्रुश्चेव ने क्यूबा में रूसी मिसाइलें तैनात करने की जवाबी कार्यवाही कर दी। इसके तहत यूएसएसआर ने साल 1962 में यहां परमाणु मिसाइल तैनात की और दुनिया का ताकतवर देश अमेरिका इनकी जद में आ गया।
14 अक्टूबर 1962 को अमरीका के टोही विमानों को इन मिसाइलों की जानकारी मिली और तुरंत अमरीका हाई अलर्ट मोड में आ गया। शीत युद्ध में अचानक गर्मी आ गयी। इन दोनों ताकतवर देशों के इस टकराव ने पूरी दुनिया में बैचेनी बढ़ा डाली। इन दोनों महाशक्तियों के इस तरह से एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने से दुनिया पर परमाणु जंग का खतरा मंडराने लगा था। ऐसा लग रहा था कि किसी भी पल दुनिया में तीसरे विश्व युद्ध का आगाज़ हो सकता है। इतिहास इसी बैचेनी और डर के पल को आज क्यूबा मिसाइल संकट का नाम देता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने 28 अक्टूबर 1962 को सोवियत संघ को बातचीत का संदेश भेजा और निकिता ख्रुश्चेव क्यूबा से मिसाइलें हटाने के लिए राजी हो गए। ख्रुश्चेव ने दो शर्तों के एवज़ में क्यूबा से ये मिसाइलें हटाने की बात मान ली। उन्होंने अमेरिका के सामने क्यूबा पर हमलाव न करने और तुर्की में तैनात अमेरिकी मिसाइलों को हटाने को कहा था। यानी कि विवाद का हल बातचीत के माध्यम से ही हो पाया।
हमें याद रखना होगा कि जब नैटो का गठन हुआ था तो उसके मूल सदस्य थे – अमरीका, युनाइटिड किंगडम, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ़्रांस, आइसलैण्ड, इटली, लक्समबर्ग, नीदरलैण्ड, नौर्वे और पुर्तगाल। मगर यह संख्या बढ़ते-बढ़ते 29 तक पहुंच गयी। यानी कि एक ओर सोवियत संघ का विघटन हो गया और नैटो का आकार और शक्ति बढ़ती चली गयी। 
ऊपर के मूल सदस्यों के अतिरिक्त जो देश नैटो से जुड़ते चले गये उनके नाम हैं – अल्बानिया, बल्गारिया, क्रोएशिया,  ग्रीस, चेक रिपब्लिक, एस्टोनिया, लाटविया, जर्मनी, हंगरी, लिथुएनिया, मॉंटेनेगरो, उत्तरी मकदूनिया, स्पेन, रोमानिया, पोलैण्ड, स्लोवाकिया, फ़िनलैण्ड, स्वीडन, एवं स्लोवेनिया। इसमें एक महत्वपूर्ण बात अवश्य जोड़ना चाहूंगा कि यूक्रेन ने भी नैटो देशों के समूह में शामिल होने के लिये अर्ज़ी दे रखी है।
इसी एक बात ने रूस को परेशान कर रखा है। 12 देशों की सदस्यता से बना एक संगठन 29 देशों तक जा पहुंचता है और रुकने का नाम नहीं ले रहा। भला रूस यह कैसे बरदाश्त कर पाता कि उसकी सीमा से सटा यूक्रेन नैटो समूह का सदस्य बन जाए और अमरीका की मिसाइलें रूस के दरवाज़े पर तैनात कर दी जाएं। इससे पता चलता है कि जॉन. एफ़ कैनेडी और निकिता ख़्रुश्चेव जैसे परिपक्व नेताओं की उपस्थिति, स्थिति को विकट होने से कैसे बचा सकती है। यहां तो जो बाइदेन जैसा नेतृत्व है और उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला बॉरिस जॉन्सन जैसा ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था। 
यूक्रेन के 44 वर्षीय  राष्ट्रपति वलॉदिमिर ज़ेलेंस्की ने भी अपरिपक्वता का परिचय देते हुए अपने देश को युद्ध की विभीषिका में झोंक दिया। उसने यह नहीं सोचा कि उसके देश और देश की जनता का क्या हश्र होगा। यानी कि अमरीका, ब्रिटेन, यूक्रेन और तमाम नैटो देश यह नहीं भांप पाए कि पूतिन यह बरदाश्त नहीं कर पाएगा कि रूस के दरवाज़े पर अमरीकी मिसाइलें अपना चेहरा दिखाना शुरू कर दें। 
नैटो देशों ने इस बात को भी नहीं समझा कि पेड़ की जिस डाल पर वे बैठे हैं उसी को काट भी रहे हैं। पूरा यूरोप, ब्रिटेन और बहुत हद तक अमरीका रूसी तेल और गैस पर अपने चूल्हे जला रहे थे। खाड़ी देशों के महंगे तेल के मुकाबले रूस सस्ते दामों पर यूरोप को तेल मुहैया करवा रहा था। बिना सोचे समझे रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिये। अपने पाँव पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारनी शुरू कर दी। आर्थिक प्रतिबंध लगते ही रूस ने गैस और तेल के पाइपों पर ताला लगा दिया। पूरा यूरोप और ब्रिटेन ठण्ड में ठिठुरने को मजबूर हो गया। बिजली, पेट्रोल और गैस के दाम आसमान को छूने लगे। इन देशों का आम आदमी पिसने को मजबूर हो गया। हर तरफ़ हड़तालें और चक्काजाम। 
याद रहे कि कोविद-19 ने तो पहले ही पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ रखी थी। ऊपर से रूस और यूक्रेन के युद्ध की मार। बात यहीं पर नहीं रुक रही थी। जो पैसा अपने देश के नागरिकों पर ख़र्च करना था उससे यूक्रेन को हथियार भेजे जाने लगे। यह शायद पहली बार हुआ होगा कि अपनों को भूखा मार कर दूसरों की मदद करना। समय आ गया है कि युरोपीय देश अमरीका को समझा दें कि वे उसकी लड़ाई लड़ने को तैयार नहीं हैं। 
हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या अमरीका और तमाम नैटो देशों के संगठनों के राष्ट्राध्यक्षों पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिये? क्या उन सबने इस युद्ध का हिस्सा बनने से पहले अपने नागरिकों से पूछा था कि सुनो तुम सब को हमारे इस निर्णय का प्रकोप सहना होगा – क्या तुम तैयार हो। यदि बाइदेन ने अक्लमन्दी का सुबूत नहीं दिया तो नैटो देश मन्दी की मार के नीचे डूबते चले जाएंगे।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

33 टिप्पणी

  1. रूस यूक्रेन युद्ध का कोई हल है ही नहीं, क्योंकि ये युद्ध रूस यूक्रेन के बीच है ही नहीं! ये युद्ध तो यूक्रेन के कंधे पर बंदूक रख कर कोई और ही लड़ रहा है। ये नई अंतरराष्ट्रीय दमन राज नीति की चाल है। जिस तरह घर के बागी सदस्य को अड़ोस पड़ोस गांव या शहर के असामाजिक तत्व बागी को अपनी तरफ मिला कर, परिवार से अपनी पुरानी रंजिशों का बदला लेते हैं। ठीक उस ही तरह ये विकराल रूप है। यूक्रेन तो दो पाटन के बीच चने के साथ घुन की तरह पिस रहा है और बचने का कोई चारा नहीं है।
    ज़माना बदल गया है !

    • ज़माना ही तो नहीं बदला। 1962 में क्यूबा और 20220 का यूक्रेन एक सी समस्या। बस कमी है तो परिपक्व लीडरशिप की।

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मानवता समाप्त हो चुकी है देश के प्रधान अध्यक्ष अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं जिनके वोट प्राप्त कर देश का नेतृत्व करते हैं उनके प्रति कोई लगावपूर्ण दायित्व नहीं निभाते।
      मुख्य मुद्दा अमेरिका और रूस की प्रतिद्वंदिता है यूक्रेन का हाल दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोय वाला है। फिर गेहूं के साथ घुन तो पिसता ही है।
      परंतु दोनों देशों के बीच का युद्ध वैश्विक परमाणु जंग में न
      बदल जाए यह शंका है।
      प्रार्थना है कि सर्वत्र शांति :शांति:

  2. बहुत बढ़िया संपादकीय, महोदय.
    आम नागरिकों को प्रायः अपने सनकी शासकों के गलत निर्णयों का खामियाजा भुगतना पड़ता है. जेलेंस्की यदि रूस की सरपरस्ती में रहते तो उनका क्या बिगड़ जाता. बल्कि कुछ फायदे में ही रहते. पड़ोसी से दुश्मनी कभी ठीक नहीं रहती.
    और सबल पड़ोसी से तो बिलकुल भी नहीं.
    इस ज्ञानप्रद संपादकीय के लिए बधाई.

  3. आपने आपने ज्वलंत संपादकीय ‘ रूस -युक्रेन युद्ध का विश्लेषण करते हुए एकदम सही लिखा है कि हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या अमरीका और तमाम नैटो देशों के संगठनों के राष्ट्राध्यक्षों पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिये? क्या उन सबने इस युद्ध का हिस्सा बनने से पहले अपने नागरिकों से पूछा था कि सुनो तुम सब को हमारे इस निर्णय का प्रकोप सहना होगा – क्या तुम तैयार हो।

    सर्वविदित सत्य यही है कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध के जरिये नहीं वरन आपसी बातचीत से ही संभव है। वैसे भी रूस- युक्रेन युद्ध सिर्फ युक्रेन के राष्ट्रपति जैलेंसकी की जिद तथा अमेरिका की रूस को नीचा दिखाने प्रवृति का परिणाम है। मुझे प्रारम्भ से ही लगता रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो. बाइदेन को अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनायें हटाने तथा कोविड की विश्वव्यापी को समस्या को ठीक से न संभाल पाने के कारण अपने देश में ही विरोध का सामना करना पड़ रहा था उन्होंने रूस युक्रेन युद्ध को हवा दी जिसका परिणाम पूरा विश्व भुगत रहा है।

  4. सुधा जी आपने समस्या की गंभीरता को सही समझा है। जो बाइडेन के बारे में आपकी टिप्पणी सटीक है।

  5. ज़माना ही तो नहीं बदला। 1962 में क्यूबा और 20220 का यूक्रेन एक सी समस्या। बस कमी है तो परिपक्व लीडरशिप की।

  6. सामान्य जन के हृदय की पीड़ा को रेखांकित करता संपादकीय!
    , आदिकाल से ही राजा की महत्वाकांक्षाओं की वेदी पर सामान्यजन बलि चढ़ता आया है,चाहे वह कलिंग का युद्ध हो हल्दीघाटी का।
    क्या नाटो,संयुक्तराष्ट्र अथवा अन्य ऐसे संगठनों ने यह ‘राजद्रोह’ का मुकदमा चलाने का दण्डविधान बनाया है?, काश ऐसा हो !

  7. पैसा है तो खर्च होगा
    शस्त्र है तो प्रहार करेगा
    मनुष्य पाल भर को सोचेगा के
    क्यों पैसा खर्च हुआ
    क्यों शस्त्र चला
    और फिर
    पैसा जोड़ने में
    और शस्त्र बनाने में
    व्यस्त हो जाएगा!
    ….
    ….
    आपके अगले संपादकीय की प्रतीक्षा रहेगी!

  8. असल में रूस को भी नहीं पता था कि यूक्रेन उसके सामने इतने लंबे समय तक टिका रह पाएगा। उसने सोचा था कि आप 10 दिन में ही मामला खत्म हो जाएगा और यूक्रेन नैटो का सदस्य नहीं बनेगा या फिर अमेरिका आश्वासन दिला देगा कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बनेगा परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ और युद्ध आज भी चल रहा है।

    ऐसा लगता है कि इस युद्ध से यूक्रेन ही नहीं रूस भी त्रस्त है यही कारण है कि उसने 36 घंटे का युद्ध विराम लिया है।

  9. जहाँ भी सिरफिरे शासक रहे हैं, उन्होंने देश को संकट की स्थितियों में खड़ा किया है।यूक्रेन और रूस का युद्ध परमाणु हमले की तरफ मुड़ सकता है जो दुनिया के लिए खतरा है। अब लड़ाई जीतने के लिए नहीं बल्कि न हारने के लिए लड़ी जा रही है । युद्ध विराम होना चाहिये ,जिन देशों ने इसे जारी रखने में मदद की उन्हें बंद करने की पहल करनी ही चाहिए ।सम्पादकीय में युद्ध के इतिहास पर अद्भुत टिप्पणी है ।
    Dr Prabha mishra

    • आपने एकदम सही कहा है कि – अब लड़ाई जीतने के लिये नहीं, बल्कि न हारने के लिये लड़ी जा रही है।

  10. गंभीर समस्या ! इतने लंबे समय तक इस युद्ध का चलना बहुत कष्टप्रद है। रूस भी इस प्रकार नहीं सोच पाया होगा कि यूक्रेन इतने दिन टिक सकेगा।
    युद्ध का स्थगित होना कोई समाधान नहीं हो सकता। युद्ध की शुरुआत ही भयंकर परिणाम का आग़ाज़ है। युद्ध किसी भी प्रकार से, किसी के लिए भी हितैषी कैसे हो सकता है?
    हर बार की भाँति चिंतनशील संपादकीय के लिए बधाई।

  11. सबसे पहले तो इतने ज्वलंत मुद्दे पर इतना सटीक टिप्पणी युक्त लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई। विश्व में यह घटना इतिहास में भुलाए नहीं भूलेगी। मुझे लगता है कि इस आलेख से और इस युद्ध से हमें एक चेतावनी मिली है: मनमाने निरंकुश राजशाही या गणतंत्र जो भी कहे उसका परिणाम निर्दोषों को, मासूमों को भुगतना पड़ता है! आखिर ऐसा कब तक चलेगा? यदि प्रश्न आपके मस्तिष्क में उथल-पुथल मचाता है तो विचार कीजिएगा…

  12. ढेर सारी जानकारी बढ़ाते हुए संपादकीय के लिए धन्यवाद, आभार। अमेरिका को चौधराहट की बुरी आदत है। अब बुरे फंसे हैं, 1: 29 में अगर हार गये, तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं बचेंगे। “भई गति साँप छछूंदर केरी” कैसे मान लें एक देश एक संगठन के ऊपर भारी पड़ रहा है। भस्मासुर बन गये हैं सभी। नाक आड़े आ रही है। जेलेंस्की तो कठपुतली बने हैं, जनता से ज़्यादा उन्हें अपनी चिंता है। काश ऐसे राजनेताओं पर राष्ट्रद्रोह का मुक़दमा वास्तव में चल सके, ऐसा होने लगे तो भविष्य में ऐसे युध्द न हों, ना ऐसे विनाश हों।

  13. समय सापेक्ष और बहुत सार्थक संपादकीय।काश वर्तमान के सत्ताधीश बाइडेन और पुतिन. पूर्व के अनुभवों का गंभीरता से विश्लेषण कर बड़प्पन दिखा पाते।आपने बहुत अच्छी बात लिखी कि ऐसे में भारत का दृष्टिकोण सार्थक है कि किसी भी विवाद का हल युद्ध नहीं होता – बल्कि हर मुद्दे का समाधान केवल बातचीत के ज़रिए ही हो सकता है।
    वर्त्तमान समय से सम्बंधित संपादकीय हेतु हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं .

  14. रूस यूक्रेन युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय दमन नीति का प्रतिफलन है। आपने संपादकीय के माध्यम से यह ज्वलंत एवं जरूरी मुद्दा उठाया साधुवाद आपको। युद्ध के कारण आम नागरिकों के विस्थापन का दर्द, उनका सहमा जीवन …….उभर आया फिर से आंखों में!
    युद्ध की विभीषिका!
    लीलती जाएगी यूं ही
    हंसी-खुशी
    बचपन-जवानी
    उजड़ते जाएंगे गांव -शहर
    तब्दील हो श्मशानों में
    राख के ढेरों में
    दो बाहुबलियों के अहं में
    जगमगाते शहर
    हो रहे हैं धुआं-धुआं !
    आंखिर कब तक???
    डॉ ममता पंत

  15. आपने युद्ध के मूल कारण का आकलन कर स्थिति का सटीक विवरण अपने सम्पादकीय में लिखा है। मैं लंबे समय से रूस में रहती हूँ और यहाँ यह बिलकुल स्पष्ट था कि नाटो की पहुँच यूक्रेन तक रूस बर्दाश्त नहीं करेगा। इस सिलसिले में २४ फ़रवरी २०२२ के पहले रूसी विदेश मंत्री लावरोव और उनके अमरीकी तथा अन्य यूरोपीय समकक्षों के बीच लंबी वार्ताएँ भी हुईं, पर पश्चिमी देशों ने एक बार भी यह आश्वासन नहीं दिया कि नाटो के बढ़ते क़दमों पर रोक लगाई जाएगी। किसी भी राष्ट्र-प्रमुख के लिए अपने देश की सुरक्षा पहला दायित्व होता है, सो पूतिन ने भी वही किया। यूरोपीय देश और अमरीका इस युद्ध में आग में घी डालने वाला काम कर रहे हैं जिससे समस्त विश्व का आमजन पिस रहा है।

    • प्रगति आप तो रूस में रहती हैं। ज़ाहिर है कि आप स्थितियों से बेहतर रूप से अवगत हैं। सच तो यह है कि नाटो देश अमरीका की लड़ाई लड़ रहे हैं और अपना नुक़्सान कर रहे हैं।

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