लोग उसे हाकल डाइन से लेकर कुटनी मन्थरा तक कहते। ब्याह के पहले ही महीने में गर्भ रह गया…..अगले महीने पति ट्यूबेल पर मरा मिला और भगा दी गयी नइहर । यहाँ  आठ माह बाद बेटी हुई ….भावजें देखते किवाड़ भिड़का लेतीं। बेवा माँ किसी तरह जब तक रही पर्देदारी बनी रही,पर मरते सब ऐसे उघड़ा ज्यों कच्ची सिलाई उघड़ती हैं। भाई अलग हो गये….. एक कोठरी तक न दी बेवा बहन को….दिनअछते बेटी समेत उठा कर दुवार पर फेंक दिया। आठ साल की बेटी संग सिहरती पूस की रात में कहीं ठौर ठिकाना नहीं मिला। रिसइ लाल के बरदउल  में पुवाल के ढ़ेर पर जाकर चुपके से बेटी संग रधिका फुआ ने शरण लिया।सुबह रिसइ लाल की नज़र पड़ी और दोनों बरदउल से घर में पहुँच गयीं। रधिका फुआ रिसइ को चाचा कहती थीं लेकिन जिस दिन घर में बैठी उस दिन से रिसिया बो कहाने लगीं ,जब्कि आज तक वह उन्हें चाचा और बेटी नाना ही कहती है।
रिसइ के बेटे गाँव छोड़ शहर जा बसे…. घर अन्न से भरा पर रोटियाँ सेंकने और सहेजने वाला कोई नहीं था। …..रधिका का कोई पूछनहार नहीं।दोनों को दोनों की जरुरत थी,एक हुए और खबरें पूरे गाँव में बताशे की तरह बटने लगे। ….आठवीं पास रधिका फुआ को ना जाने कहाँ से हनुमन्त का बल मिल गया कि तन कर चलने लगीं ….लोग ताना कसते ,वह मुसकी तान लेतीं। लड़के कभी कभार पीछे छिप कर रिसिया बोsss टीss ली ssलिल्ली करते ,वह राग पंचम में गाती …..मोरी साड़ी अनाड़ी ना माने राजा sss और चल देतीं ।यह राह का गीत उनके मुखर प्रतिरोध का देखते -देखते नारा बन गया।
रधिका की पनिली आँखों के स्याह समुन्दर में रात भर सपनों के कतरन फड़फड़ाते और भोर होते चिड़ियों की चिहुंक नाद सुनकर ऐसे जागती जैसे नन्हा शिशु माँ का आँचल ढ़ूढ़ता जागता है।बेटी पवित्रा को देख कर उसका दिन चढ़ता,शाम ढलती।बस एक ही धुन थी रधिका फुआ को,…बेटी को ज़मीन में रोप कर आसमान तक फैलाने की। आठवीं पास फुआ को सुलेमान बाउ साहब ने उकसाया आगे पढ़ने को।सुलेमान स्वभाव से घोर रसिक कवि मिज़ाज आदमी थे।चौड़े पाटे की बंगाली धोती और सिल्क का कड़कडहवा कुर्ता पहने पान चबाए जब अपनी फटफटिया से गाँव में घुसते..औरतें घूँघट तान कनखियों से निहारे बगैर नहीं रह पातीं। हुवा यह कि पवित्रा का प्राईमरी में नाम लिखाने फुआ स्कूल पहुँचीं…सुलेमान बाउ साहब हेडमास्टर….पूरे इलाके की खबर लड़कों से रखते थे।उनको बरामदे में दाखिल होते देख भतीजे ने उछल कर कहा….अरे बाप रेsss इ तो रधिकवा फुआ इहों आगयी।
सुलेमान चौंके….कुछ और कहा सुनी होती दोनों में कि रधिका सीधे सुलेमान के चरणों में ओलर गयीं।पाय लागूं गुरुजी।
 हे हे हे हँसते सुलेमान कक्षा के एक कोने में पच्च से पान थूक कार्यालय में आने का इशारा कर कुर्सी पर आकर बैठ गये। रधिका फुआ ने करजोर विनय किया….बुचिया का नाम लिखाना है।
जरुर लिखाइए भाई…सरकार आपे लोगों के लिए न खोली है  स्कूल।
…का नाम है तुम्हारा बेटी? सुलेमान बोलते कम ,मुस्कुराते ज्यादा।
पोबित्रा…कह लड़की माँ के पीछे छिप गयी।
माँ ने सुधारा….पवित्रा। सुलेमान रजिस्टर पर लिखे…पवित्रा।
पिता का नाम?
मर गया….रधिका ने बेरुखी से कहा।
आ त स्वर्गीय लिखाइए..सुलेमान ने तन कर कहा।
स्वर्गीय विनय सिंह …लड़की माँ का आँचल पकड़ झूलते हुए बोली।
गाँव….
माधोपुर
राशनकार्ड की नकल दीजिए…
रधिका फुआ हाथ जोड़ गिड़गिड़ाईं ….नहीं है गुरु जी।भाई कुल नाम कढ़वा दिए हैं।
सुलेमान  मुँह ताकने लगें….औरत मजबूत थी …शरीर और मन दोनों से।
हाथेलियों को गोल घूमा कर कहा सुलेमान ने…बिना उसके कैसे दाखिला होगा? …उ तो जरुरी है।कौनों उपाय करके बनवाइए। तब तक पवित्रा पढ़ती रहेगी।….पवित्रा की ओर देख कर ,क्यों बेटी?
….लड़की मुस्कुराने लगी।रधिका फुआ घोर चिन्ता में पड़ी घर लौट रही थीं….भाई प्रधान को पहले ही चढ़ाए हुए थे।आधा गाँव रिसइ के घर रहने से  नाराज था। वह किसी तरह भारी कदमों से घर लौटीं । आकर आँगन में धम्म से ज़मीन पर पसर गयीं,…पवित्रा उनकी पहली और आखिरी उम्मीद थी ,जिसे थामें वह जीवन रण में डटी हुई थीं। मरुआइ बेल सी पसरी रधिका को घर में घुसते देख रिसइ छटपटा गये ।
का हुआ रे रधिकवाs
कुछु नहीं चाचा…रधिका बेबसी छिपाते हुए बोलीं।
नाs  ना..कुछ तो जबर हुआ है बहिनी। तुम्हारा मुँह खुदे बोल रहा है।
रधिका की आँखें झरझरा कर बरस पड़ीं…हमरी बुचिया पढ़ नहीं पाएगी चाचा। रोते हुए सारा हाल कह सुनाया….
अरे!sssssअइसे कइसे नहीं पढ़ पाएगी।हम पढ़ाएगें उसको।
रिसइ ने जम कर ढ़ाढस बधाया और गाँव में निकल गये उपाय खोजने। चारो पट्टी खोज घूम कर थक गये पर दिल की बात समझने वाला कोई न मिला जिससे दर्द साझा कर सकते।हार कर घर की ओर लौटे….सामने से सुलेमान माट साहब की दूपहिया दनदनाती चली आ रही थी। देखते ब्रेक मार उतर गये…रिसइ को प्राण वायु मिली।
पा लागीं बाउ साहब..
.परनाम चचा!…अउर बताइए कैसे हैं ? सुलेमान ने दाँत निपोर कर पूछा।
बेचारे के उतरे चेहरे पर बेचैनी के बादल ताबड़ तोड़ उधम मचा  रहे थे…सुलेमान पारखी थे ,ताड़ गये।
हमसे कहिए चचा..का दिक्कत है…कुछ बताइएगा तभी न हल निकलेगा।
सहानुभूति के शब्द पा रिसइ  पसीज गये।कह सुनाया दिल का हाल….सुलेमान भी बड़ी ऊँची चीज थे….इ कौन समस्या है…चुटकी बजाते हुए…महराज जइसे घर में डारे माँ बेटी को दू चार बिस्सा खेत लिख कर गाँव का बासिन्दा बना राशन कार्ड बनवा दीजिए।समस्या जड़िये से खत्म।
हफ्ता भर में रिसइ लाल धा- धूप कर पाँच बिस्सा खेत रधिका के नाम कर दिए….महीने भर में राशन कार्ड और कुटुंब रजिस्टर सब बन गया । सरकारी व्यवस्था में पैसा फेंको तमाशा देखो का सिद्धान्त रिसइ खूब समझते थे…विरोध में रधिका के भाई डाल- डाल चलते तो वह पात -पात।लेखपाल ,पटवारी से लेकर प्रधान तक पर रुपया भारी रहा और रधिका ग्राम समाज की कानूनन सदस्य बन गयीं ।हाँ एक बात ज़रुर उनके विपक्ष में रही कि उनके और रिसइ के देह सम्बन्ध पर मुहर पक्की हो गयी पर रधिका भी बजर बेहया की जड़ थीं …लोग ठाढ़े रिसिsइया बो कहते और वह …मोरी साड़ी अनारी ना माने राजाss…गाती निकल लेतीं..
पवित्रा दिमाग की तेज थी…आठवीं की उम्र में पहली में दाखिला होने से कक्षा में सबसे बड़ी थी….बड़े लड़के दम भर चिढ़ाते।एक दिन माँ  के पास जाकर जोर -जोर से रोने लगी….रधिका समझती थीं,बेटी को पकड़ जी भर रोया….संयत हो पुचकार कर पूछा ….का हुआ बच्चा?.. मम्मीss उ रकेसवा कहता है तुम्हारी माँ छिनार है…..
रधिका दहल गयी,बेटी का हाथ पकड़ सीधे स्कूल पहुँची…गुस्से में हाँफ रही थी….हे माट साहब!…इहे पढ़ाते हैं का…?
उसकी आँखें अंगारे सी लाल जल रही थी…औरत के रौद्र रुप को देख सुलेमान सटक गये….अरे!sss तनी धीर धरिए…पान का पीक कोने में थूक कर गमछे से होंठ पोंछते हुए…. मामला तो बताइए…
कुर्सी खींच कर बैठने का आग्रह किया
रधिका शान्त हो बैठ गयीं…..सुबक -सुबक कहने लगीं। रकेसवा दो पहलवान लड़कों द्वारा पकड़ कर लाया गया।मन भर बाँस की कइन से मारने के बाद मुर्गा बना कर सुलेमान दहाड़े…..जो कोई आज से हिस्कूल में तनिको किसी के माई -बाप पर गये ससुर…खाल उधेड़ लुंगा।
रकेसवा भी कम न था…मार से बिलबिलाया घर पहुँचा….जग्गन बो लड़के का मुँह देखते बर्तन धोना छोड़ झट बेटे के पास पहुँचीं….का हुआ रे बाबू….इ मुँह काहें फुला है?
लड़का गुस्से में था….हटsss…….हाथ झटकते हुए…तुम तो कहती थी रधिकवा हे..हो…करती है,हाथ लहराते हुए,…बेहद अश्लिल इशारा,
अउर हम कह दिए तो सुलेमनवा साला बाँस की सिटकुन से मार- मार धोया….बारह साल का रकेसवा क्रोध और अपमान में सुलग रहा था। दिन -रात माँ के मुँह से बुआ के लिए गन्दे मनगढ़ंत आरोप सुनते वह बित्ते भर का लड़का सब समझने लगा था ,कुछ गाँव की बिगड़ी हवा का असर । पर जग्गन बो को नफरत में अपनी लुटिया डूबने का तनिक ग़म नहीं था।
जग्गन बो पर जैसे काली माई चढ़ गयीं…बाँह पकड़ लड़के को घसीटते रिसइ के दुवार पर पहुँची…..हाथ उठा ललकारते हुए….कहाँ है रे रण्ड़ीssssया….
रधिका के कान में आवाज पड़ी तो दनदनाते बाहर निकली,वह भी ताक में ही थी।
का है रे जगना बो…. घर दुवार छीन -झपट पेट नहीं भरा जो लड़के से करेजा फुंकवाती है।
ननद भौजाइ देखते- देखते वाक युद्ध से मल्ल युद्ध में कूद पड़ीं।बड़ी मुश्किल से टोले की औरतों ने छुड़ाया।
इधर रिसइ की शहरी बहुओं ने अपनी महान लडंका फुआ सास को खबर भेजी कि बाउजी ने रधिकवा को रख लिया है….सब जायदाद हाथ से निकल रही है।सास हैं नहीं….दर दयाद मजा ले रहे हैं….घर बचाइए फुआ और वह सरपट भाई के फटे में टांग घुसेड़ने भागी आईं……। आते सीधे गाँव प्रधान के दुवार पर हाथ लहराते पहुँची।
इ गाँव है की रण्डी बाड़ा ए परधान…बताऐंगे का ?….एगो साठ साल का बुढ़वा पचीस की लौण्डिया घर में बिठा लेता है और तुम्हारा गाँव समाज तमाशा देखता है।अरे थू है रे ssssss छिनरी रधिकवा ssss हमारे बूढ़े भाई से सटते तेरी जीभ नहीं जली का रे करम जली….
प्रधान के दुवार पर रिसइ की बड़ी बहन चम्पा का तांडव चल रहा था..रिसइ सकपकाए घर में छिपे बैठे थे..दोनों का घर आमने- सामने था।रधिका खाना बना रही थी। ….पवित्रा हांफती भागती आई….मम्मी फुआ प्रधान के दुवारे रांड मचाए हैं। मजमा बटुर गया है….वह रो रही थी ,चम्पा रोटी बनाना छोड़ खड़ी हो गयीं। बेटी माँ से जाकर चिपक गयी…रधिका कपार पकड़ कर खटिया पर धम्म से बैठ गयीं।ऊपर आकाश की ओर देखते हुए….का भगवान !…तुम्हारी कुल दुश्मनी हमसे ही है।
इधर जग्गन बो.ताली पिटते हुए…अब आएगा मजा चाची जी….छिनार बुढ़वा भतार रख इतना इतराती थीं कि जैसे अजोद्धा का राज मिल गया। अब देखते हैं कइसे गाँव में टिकती है।
चाची एक टक जग्गन बो का मुँह निहार रही थीं…अन्तर मन दुखी था। रधिका पर पहले ही बजर गिरा था ,अब इ चम्पा का कोप हुआ। चम्पा रिसइ की बड़ी बहन थीं..जवानी की विधवा पर भाग की तेज थीं की घर में सास नहीं थी …ससुर भी जवानी के विधुर,…जरुरत सब करती कराती है के सिद्धान्त पर चलती चम्पा दिन में ससुर से बित्ते भर का घूंघट तानतीं ,रात में पैर दबातीं।
चाची का धैर्य आज टूट ही गया। , गुस्से में कहा….
तर्जनी दिखाते हुए…वर मरे चाहे कन्या,हमके त दछिना से मतलब ….हूंsss ,आपना चरित्तर देखती नहीं लड़की पर अंगुरी उठाती है। न लाज है न हया तुमको जग्गन बो!….बेचारी लड़की को लिए कैसे -कैसे जी रही रधिकवा पर तुम्हारा करेजा उसको मार कर ही जुड़ाएगा।
वह आज पूरे सै में थी….काफी दिनों से जग्गन बो का जबानी अत्याचार रधिका पर देख रही थी…..अक्सर चुप रहने वाली रधिका की चाची का उबाल देख आस-पड़ोस की औरतें फुसफुसाती सरक लीं….जग्गन बो रधिका के लिए सहानुभूति देख आवाक ….माहौल बदल रहा था का प्रमाण था चाची का कथन।वह बगले झांकती …भनभनाती अन्दर चली गयी।
चम्पा भी जमकर अपना जलवा बिखेर घर की ओर बढ़ गयीं….प्रधान के साथ -साथ गाँव के लोग चम्पा का चरित्र जानते थे सो चुप चाप उसका रोना- पीटना देखते रहे…।…..चम्पा दरवाजा खुला देख सीधे आँगन में पहुँची,एक कोने में चूल्हे पर खना चढ़ा हुआ था …पास में रधिका बेटी को पकड़े रोती बैठी थीं….चम्पा को देखते माँ बेटी मारे भय के दहाड़े मार के रोने लगीं। चम्पा ने जाँच पड़ताल शुरु की ….घर के लगभग सभी कमरों में ताले लगे थे ,दो को छोड़ कर।एक में रिसइ रहते थे और बाहर की ओर बरामदे से सटे कोने के कमरे में रधिका।कमरे का एक दरवाजा बाहर की ओर खुलता था….रिसइ के पिता के ज़माने में यह कमरा उनके मरिजों से मिलने का हुआ करता था।पिता नामी वैद्य थे। इस कमरे की एक यह भी विशेषता थी की यह घर में होते हुए घर से कटा था….रधिका को कुछ राहत मिली देख कर। आँगन में चूल्हे की आग अभी सुलग रही रही थी ….कमरे में रधिका…..
दरवाजा भिड़का था….चम्पा ने धीरे से खोल कर कमरे में कदम रखा….खटिया पर माँ- बेटी बैठी सुबक रही थीं,…चम्पा थी तो औरत ही..मन पसीज गया…आवाज में नरमी ना जाने कहाँ से आ गयी….
काहें मेरे भाई का घर बुढ़उती में नास रही हो तुम माई ..धिया रे रधिकवा?
चम्पा चौखट पर पसर कर बैठ गयीं ….रिक्शेवाला समान अन्दर रख पैसे ले चला गया, रिसइ अभी भी  कोठरी में पटाए बैठे थे।
रधिका को दम मिला…उठ कर खड़ी हो गयी।
हम काहें को किसी का घर नासेंगे ए फुआ?…दू रोटी बना कर …सेवा टहल कर घर में सरन लिए हैं चाचा के …
रोते -रोते हिचकियाँ बंध गयी थीं।
कम से कम तुम तो मत कहो फुआ….आकर सामने लद्द से बैठ कर झकझोरने लगी। …इ जो विधवा की जिनगी है न फुआ ,…कुकुरो ले गइल है। सबकी आँख पेटीकोट- ब्लाउज में झांकती है….इ जो देह है नsss मन करता है करिखा ले पोत कर बैठें ,नाही त गू मल लें .कि  लोग घिना कर थूक दें….सिर धुनती हुई…तर्जनी दिखाते हुए…
ऐ फुआ!….कुत्ते जानती हो तब भी जीभ लपलपाते चले आऐंगे। वह जार -जार रोए जा रही थी। चम्पा भी रोने लगीं….आँचल से आँसू पोंछने लगीं।….सिर पर हाथ रख ढ़ाढस बधाया। औरत पारखी थी…घर में चारों तरफ लटके ताले देख समझ चुकी थी घर में रधिका की हद ….भाई का दयालु स्वभाव भी जानती थी।राहत मिली कि बहुऐं नाहक लोगों से सुनकर चिन्तित हैं की घर लुट रहा है …उल्टे घर न केवल सुरक्षित था बल्कि बीमार बूढ़े भाई को ढंग से दो रोटी समय से मिल रही थी।
कायस्थ गाँठ के पक्के होते हैं…रिसइ लाल भी कम न थे ,गाँव की बीस बिगहे की जोत छोड़ बेटों के पास शहर जाने से इन्कार कर दिया।बहुऐं जब तक सास रहीं आती -जाती रहीं पर मरते ससुर पर शहर चलने का पतियों से दबाव बनवाने लगीं। अपनी मिट्टी का गजब मोह था रिसइ में …दो रोटी कच्ची -पक्की खुद सेंक लेते पर गाँव नहीं छोड़ा..डट कर खेती कराते और रुपये लड़कों को समय -समय पर भेज देते।बड़ा लड़का इलाहाबाद में मास्टर था ..वहीं मकान बना बस गया।छोटा बनारस में दवाओं का व्यापारी…वह ज़मीन खरीद मकान बनवाने की तैयारी में था। गाँव बनारस से सटा होने से सारी खबर उसकी पत्नी तक आए दिन पहुँचती थी….कान की पूरी कच्ची…इतनी की कउवा कान लिए जाए सुनकर बिना सोचे सरपट पीछे भागे ,अपना कान न देखे। उसको गाँव से जग्गन बो का फोन आया…जयदाद जा रही है रानी !,सुनते सुलग गयी और अपनी चण्डी फुआ सास चम्पा से सब कह सुनाया। चम्पा अगली सुबह ही गाँव पहुँचीं और पड़ताल शुरु हो गयी…..घर में सब सुरक्षित देख संझा को खेत की ओर निकलीं …पता लगाया कौन सा खेत भाई ने रधिका को लिखा है …देखते कुटिल मुस्कान संग मगन हुईं…..मन में कहा…चलो बलाए टली।
रिसइ ने पुरखों से परती पड़ी लगता ज़मीन रधिका को लिख जग जीता था। चम्पा जानती थीं इस ज़मीन पर ब्रह्म बैठा है जो पूरे घर को नचाता है हल जोतते ,सो खुश हो भतीज बहू को निश्चिंत किया की चैन से रहो सब ठीक है।चम्पा महीने भर रधिका से सेवा करवा अपने घर लौट गयीं।जग्गन बो का कलेजा सुलगता रहा। समय करवटें लेता रहा…..रधिका कहंरती  – सिहरती जीवन रण में डटी रही  ।
                                                                      (2)
सुलेमान ने कनखियों से देखा….सांवली सलोनी गदराई रधिका के देह में गजब का आकर्षण था….मन में एक साथ कई रस तरंगे हिलोरे मारने लगीं। रधिका सुलेमान के सह पर दसवीं की परीक्षा में बैठी थीं …आज आखिरी पेपर था और सुलेमान रास्ते में टकरा गये….पता नहीं ये संयोग था या सुनियोजित ,संसय था पर आकर्षण का सूत्रपात दोनों तरफ हो चुका था।मोटरसाइकिल पर बैठ रधिका सुलेमान संग गाँव की ओर चलीं…एक आग्रह पर मान गयीं वरना कभी किसी के साथ सटके दूपहिया पर नहीं बैठतीं। उबड़- खाबड़ रास्ते पर गाड़ी भागी जा रही थी ….रधिका ने मौन तोड़ा….हे माट साहब …इ मुसलमानी नाम काहें रखें जी ?…….
हँस कर सुलेमान ने कहा…..हमारी अम्मा की किसी पीर की मनौती थी …बस समझ लो हो गये मुसलमान हम…कह कर सुलेमान जोरदार ठहाका लगाए…धीरे से पूछा….बनोगी मुसलमानीन?…वह लजा गयी ..पीठ पर जोर की धौल लगाकर चुप रह गयी।
रधिका बेवा तो सुलेमान की बीबी ब्याह के पहले साल में ही छोड़ कर नैहर जा बैठी थी…वह शहर में रहना चाहती थी और सुलेमान गाँव मरते दम तक न छोड़ने पर अड़े थे…दोनो जिद्दी और रास्ते अलग -अलग खुद ब खुद होते चले गये। सुलेमान भी जीवन के सुनेपन से दग्ध,रधिका अकेली औरत…..अकेली औरत के लिए दस हाथ बढ़ते दाँत निपोरो और अगले ही पल आँखें भेड़िये की तरह चमकने लगती ,शिकार देख कर।भय का आलम यह था कि रधिका जरा सी देर होने पर बेटी के स्कूल सरपट भागती और सुलेमान संग सुरक्षित आती देख कर रो पड़ती। औरत मर्द की आँख देख कर भाव ताड़ लेती है ….उसकी आँखों में स्नेह था….मुस्कुराता तो छाती जुड़ा जाती अपनत्व देख। पढ़ने पर खूब जोर देता….कहता….
जानती हो रधिका…जो औरत अपने पैर पर खड़ी हो औकात में आ जाए ,बड़े से बड़े विरोधी पस्त हो जाते हैं।अकेली औरत के सारे पुण्य तभी तक पाप हैं जब तक वह कमजोर है।सबल होते इस ज़माने में पाप भी पुण्य हो जाते हैं ।
रधिका खींची जा रही थी …जैसे गुड़ संग माटा। दसवीं नकल से सत्तर परसेण्ट नम्बर से पास कर गयी ……जग्गन बो इनार पर गमी के दसवें नहान में चचिया ससुर का रोना छोड़ अलगे राग अलाप रही थी…छिनरी जजियाई कर रही है चार भतार रख के …अपना तो कुले नसा गया इ भतार खउकी धिया पा के। चाची सास की जलती आँख देख चुप हुई वरना आज रधिका के चरित्र का पुराण बखान के छोड़ती।
खैर जग्गन बो की डाह चलती रही…..इधर रिसइ के पेट की तकलीफ बढ़ती जा रही थी …बड़ा बेटा दो बार आकर बनारस दिखा चुका था…इलाज जारी था।हाँ इस बीच बहुऐं ससुर की बीमारी देख गाँव आ तमाम जरुरी चींजें आपस में बांट शहर उठा ले गयीं। पवित्रा भी पाँचवी कक्षा में आ गयी….सुकोमल कली सी खिलने को आतुर लड़की हम उम्र लड़कियों संग किशोर उम्र की दहलीज पर खड़ी बसन्त गीत गुनगुनाने लगी तो रधिका के कान खड़े हो गये….आईने के सामने खड़ी मुस्कुराती बेटी को देख कर कलप उठीं………
                            मैंने तुम पर दांव खेला है बुचिया….अब चाहे जिता दे या हरा दे….उठेगी तो मेरी आँख भी उठ जाएगी…नहीं तो इसी गाँव माधोपुर में गर्दन गाडे़ मर जाउंगी रेss बुचिया ………
………कह रधिका फुआ आँचल से मुँह ढ़क रोने लगीं। …..अल्हड़ लड़की अभी -अभी फगुए की गन्ध में सनी पहली प्रेम पाती में नहाई थी कि जैसे किसी ने खटाई खिला कर नशा उतार दिया हो।माँ ने पूरे कमरे में एक से बढ़ कर एक तेजस्वी महिलाओं की फोटो सजा रखी थी..चाहती थी पवित्रा उन जैसी बनकर आकाश चूमे। इधर बेटी हम उम्र लड़कियों संग उफनते यौवन के मुहाने पर खड़ी प्रेम पगी बातें सुन- सुन हवा में लहराती पतंग सी हिलोरे ले रही थी।
आँसू में बड़ी ताकत होती है.. पवित्रा ने काँपते हाँथों से पहली प्रेम पाती स्कूल जाते समय लबालब भरी पोखरी में रुक कर बहा दिया….आँखें रुदन से ललिया गई थीं… कलेजा भींग कर डूबते प्रेम पत्र संग तलहटी में बैठा जा रहा था…..चुनाव उसका था सामने माँ का घनघोर संघर्ष और प्रेम पथ,…तेरह साल की लड़की एक दम से पत्थर हो गयी …उठ कर चल दी,सामने काली माई की पिंडी को देख दो मिनट मौन रही…. अन्दर कुछ उबल रहा था….माथा पिंडी पर पटक मन ही मन संकल्प लिया…तुमको इ बाजी हारने नहीं दूँगी मम्मी। साइकल तेज भगाती हुई भागी जा रही थी….पीछे से मोहन साइकिल की घण्टी दनादन बजाए जा रहा था कि वह जरा सा रोज की तरह पलट कर देख ले पर लड़की उफनती नदी सी बढ़ी जा रही थी। साइकिल स्टैंड में खड़ी कर बिना पीछे मुड़े वह क्लास में घुस गयी….मोहन सोच रहा था शायद चिट्ठी देने से नाराज है….पूरे दिन पछताता रहा की इतनी क्या जल्दी थी चिट्ठी की…लो …लड़की नाराज हो गयी। दिन भर रोनी सूरत लिए स्कूल में बैठा रहा। …..लड़की की गर्दन झूकी तो झूकी ही रही। प्राइमरी की पढ़ाई भी इस साल खत्म हो गयी और लड़कियाँ बगल के गाँव में बड़े स्कूल में पढ़ने जाने लगीं।मोहन के चाचा उसे अपने साथ शहर लेकर चले गये। हाँ इतना जरुर रहा कि मोहन जब भी छुट्टियों में गाँव आता पवित्रा की खोज खबर सहेलियों से लेता रहता।पहली प्रीत थी….आखिर छूटती भी तो कैसे? दिन का पहिया सरपट भागता चला जा रहा था और रात की अन्हिराई दुखों और संघर्ष की साक्षी बनी रधिका की जिन्दगी गेंद सी गोल- गोल लुढ़क रही थी।
रधिका इण्टर में भी फस्ट क्लास फस्ट पास हुई थीं….इसी बीच गाँव में शिक्षामित्रों की भर्ती निकली ….सुलेमान के जोर से प्रधान की एक न चली और सबसे मेरिटेड होने के कारण रधिका तमाम विरोधियों को पछाड़ते हुए शिक्षामित्र की कुर्सी पाने में सफल रहीं। दोनों के स्कूल एक हुए तो जमाने के ताने बढ़ने लगे। पाँचवी के मनबढ़ लड़के गली में छुप कर नारा लगाने लगे….सुलेमनवा बो टी लिलीssssली।और वह आँचल सम्हालती गुनगुनाती निकल लेती….मोरी साड़ी अनाड़ी ना माने राजाssssss।
                                                                       (3)
पण्डित जी मानस बांच रहे थे….जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू ,सो तेहीं मिलहीं न कछु सन्देहू… सुलेमान कुर्सी पर पैर रख स्कूल के बरामदे में बैठे सामने बाग में पेड़ों के नीचे चल रही कक्षाओं को देख रहे थे।कान में मानस की पंक्ति पड़ी तो सामने रधिका पर नज़र जाकर ठहर गयी। अनायास मुस्कुरा उठे….पण्डित जी प्रसाद देने के लिए जब सामने से आवाज लगाए तो तन्द्रा टूटी। स्कूल भी बड़ी सुहावनी जगह पर था…आम ,इमली, बेल ,अमरुद से लेकर नींबू ,करौंदे तक के घने पेड़….बीच में छोटा सा तालाब और कोठरीनुमा शिव जी का मन्दिर …गर्मियों में कक्षाऐं इसी बाग में चलती…इधर नई भर्ती के मास्टर खूब मन से पढ़ा रहे थे सो छात्रों की संख्या भी ब्लाक में सबसे अधिक स्कूल में हो गयी थी…रधिका बच्चों को पढ़ा रही थीं….
मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है….
छोटे बच्चे दोहरा रहे थे कि लंच की घण्टी बजी….बच्चे झोले में से थाली गिलास लेकर बरामदे की तरफ भागे। रधिका बाकी अध्यापकों के साथ आकर बैठ गयीं…चिन्तित थीं….क्या हुआ मैड़म !…तबीयत तो ठीक है न? एक शिक्षक ने पूछा तो कुछ नहीं ,…कह कार्यालय में आकर बैठ गयीं। सुलेमान अखबार पढ़ना छोड़कर रधिका का मुँह गौर से देखने लगे…सब कुशल तो है न?….झाँसी की रानी का मुँह काहें लटका है …वह गाल पर हाथ रखे मुस्कुरा रहे थे….।रधिका सुलेमान की मुँह लगी थीं…तुनक गयीं…देह मत जराइए माट साहब।इहाँ चिन्ता से नींद उड़ी है और आप को मजाक सूझा है।
अरे बताइएगा महराज ,तबे न हल निकलेगा की हमको सपना आया था।सुलेमान नाराज होकर बोले। रधिका आँखों के कोर से बहते आँसू आँचल से पोंछते बोलीं…चाचा को कैंसर हो गया है। लड़के ले जा रहे हैं…कल तक घर खाली करना है।कुछ समझ नहीं आता सयानी लड़की लेकर कहाँ जाऊं।
सुलेमान के चेहरे पर भी चिन्ता के भाव उभर आए…अच्छा…रोइए मत।कुछ हल निकालता हूँ।
अगली सुबह स्कूल का विशेष कक्ष साफ सुथरा करा कर रधिका के डेरे पर पहुँचे…दरवाजे पर जीप लगी थी रिसइ को ले जाने के लिए…इधर रधिका भी मोटरी गठरी बाँध कर किसी तरह बगल की सहुवाइन से दो दिन का ठौर माँग चुकी थीं।सुलेमान ट्राली लेकर पहुँचे तो पवित्रा दौड़कर माँ को खबर दी…मम्मी माट साहब ट्राली लेकर आए हैं…रधिका संकोच में पड़ गयीं…लाज से गड़ी जा रही थीं..मन में उफान मचा था कि सुलेमान कहाँ ले जाने आए हैं…अभी तक जो था मौखिक अभिव्यक्ति भर सिमटा था…आज दुसाहस देख दंग थी। सुलेमान लड़कों को लेकर अन्दर पहुँचे …भारी सामान ट्राली पर हल्के बच्चों के सर पर रखवा जुलूस की शक्ल में आगे बढ़े तो लोग तमाशा देखने लगें।रधिका यन्त्रवत पीछे -पीछे….रिसइ का पैर छू विदा लिया….।जुलूस स्कूल पर जाकर सभा में तब्दील हो गयी तो सुलेमान ने भाषण शुरु किया….हाँ तो बच्चों…अगले कुछ दिनों तक रधिका मैडम इसी कमरे में रहेंगी….और तुम लोगों को इनका ध्यान रखना है ….समझे…जोर से चिल्लाकर।बच्चे समवेत स्वर में…जी माट साबssss
राधिका की वैकल्पिक व्यवस्था तो तत्काल हो गयी पर दोनों जानते थे सरकारी भवन के दुरुपयोग की शिकायत पर मामला बिगड़ सकता है।वैसे ही रधिका का विरोध बहुत था। पुजारी जी से सुलेमान ने टोह लिया….महराज लचार औरत को ठिकाना देना कौनों गुनाह है का?
पंडी जी भी कम न थे…उसी टोन में बोले।एक दम नहीं जी,पर काहें सरकारी कमरा कबजियाते हैं ।अपने घर ले जाइए।और मुस्कुराते हुए निकल गये। सुलेमान समझ गये कि ज्यादा दिन ऐसे नहीं चल पाएगा …सोच में पड़े…रात में माँ के पास जाकर बैठे…इकलौती औलाद ,चेहरा देख कर हाल समझ लेती थीं।
बात उनके कानों तक भी पहुँच रही थी…बहू को कई कई संदेशा पठा चुकी थीं की आकर घर सम्हालो वरना निकल जाएगा हाथ से। बहू का हाल यह था कि सल भितरे के पैदा बेटे के गुमान में ऐंठी आज तक उम्मीद में थीं कि सुलेमान आकर पैर पकड़ कर बात मान लेंगे।मस्टराईन थीं…आर्थिक तंगी थी नहीं सो जिद पर अड़ी थीं।
अम्मा!….सो गयी क्या?
माँ बेटे की उदासी देख उठ बैठीं।
नहीं बाबू!…खाली लेटी थी।इ नींद तो न जाने बुढ़ापे में कहाँ बिला जाती है।
माँ का माथा छूते हुए…
तबीयत तो ठीक हैं न?…कुछ बताया नहीं?
माँ की नम आवाज सुन सुलेमान बेचैन हो उठे।
माँ भी बड़ी ऊंची चीज थीं…मौका दर मौका बेटे को भावात्मक दबाव देती रहती थीं। हाथ पकड़ रोते हुए…बारह बरस बीत गये बाबू…इ आँख तरस गयी तुम्हारा खून …तुम्हारा लाल ,देखने को। हाथ जोड़ कर…जाकर मना लाओ बाबू!…नहीं तो इ बुढ़िया जी नहीं पाएगी।
माँ का रुदन जारी था….सुलेमान क्या सोच कर आए थे क्या कपार पर पड़ा देख  उठ कर बाहर मड़ई में आकर खटिया पर पड़ गये।पूरी रात बेचैनी में बीती।इधर रधिका भी बेचैन ही थी….स्कूल गाँव के बीचो बीच होने से और कोई डर तो नहीं था फर अधिकारियों का खौफ जबर था।
सुबह पूरे दम से जाकर सुलेमान ने माँ से कह ही दिया….हम रधिका को घर लाऐंगे…
माँ को सुनते काठ मार गया। इस भयंकर तूफान की खबर पा सुलेमान बो बेटा लिए सरपट भागी आयीं ….सास पोते को पकड़ मन भर रोईं और बहू को समझा बूझा कर तैयार किया रण के लिए।
शाम को सुलेमान घर पहुँचे तो औरतों की भीड़ देख सहम गये…गाड़ी झट स्टैंड पर लगा अन्दर भागे…..माँ आँगन में पोते को खटिया पर लिए बैठी थी….गोतिन दयादिन…परजा पसारी जिधर से सुना भागे आए कि बुढ़िया के भाग जागे। लड़के ने दादी के कहने पर  पिता के पैर छुआ…छुअन अद्भुत थी,औलाद की…सुलेमान सिहर गये। आँखें सजल हो उठीं….औरत भी पीछे से आकर पैरों पर झूकी…पर सुलेमान न झूके,झट पीछे हट गये।मामला समझ चुके थे।कमरे में जा कपड़ा बदल बाहर दुवार पर मड़ई में चारपाई बिछा लेट गये। दिन डूबने लगा…अन्धेरा घिरने लगा तो माँ लालटेन जला मड़ई में रखने आईं…सुलेमान जब दुखी होते यहीं शरण लेते। बाँस की खूंटी पर लालटेन टांग सिरहाने आकर बैठ गयीं…सिर सहलाते हुए समझाने लगीं….
अपने राम अजोद्धया लौटे हैं बाबू ! …मुँह मत मोंडो। रोते हुए…इ बूढ़ी आँखों की आज जोत बढ़ गयी तुम्हारा लाल देख कर। हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा उठी…उस छिनार का मोह छोड़ कर अपना खून स्वीकारों तो बुढ़िया की उमर बढ़े। सुलेमान पहले से बेचैन थे…माँ का रोना देख कर और बढ़ गया। स्थिति बहुत नाजुक थी..दो राहे पर जिन्दगी …फैसला मुश्किल था।रोती हुई माँ को छोड़ कर बाहर निकल गये….टहलते गाँव के बाहरी छोर पर निकल आए,….सामने गंगा कल-कल ध्वनी करती निरवता में मधुर धुन सी बह रही थी। लोग नावों में बैठ उस पार शहर से हाट -बाजार कर लौट रहे थे। वह आकर ऊंचे बालू के ढूहे पर बैठ गये….मल्लाह दूर पूरे जोश में गा रहा था….
बरहो बरिस पर अईलें मोर बलमू हे रामाsss
जुलूम कइलें…..
संग सउती ले अइलें जुलूम कइलेंss
धीरे -धीरे नाव संग नाविक अदृश्य हो गये….आकाश में तारे टिमटिमाने लगे पर सुलेमान की समाधि न टूटी…इधर माँ की बैचैनी का आलम यह था की घर दुवार एक किए थीं। सुलेमान बो सास के कहने पर दलभरूई पूड़ी बखीर रसोंई में पूरे मनोयोग से बना पति का बाट जोह रही थीं….सुन्दर थीं ही…ऊपर से आज साज -श्रृंगार रूप में चार चाँद लगा रहा था। रात बढ़ रही थी….उस पार कुछ लोग चिता जलाने लगे तो सुलेमान को चेतना आई…. अग्नि मृत शरीर को भष्म किए जा रही थी इधर सुलेमान के अन्दर जीवन का मोह भष्म हो रहा था….सामने आशा और विश्वास से भरी रधिका का चेहरा नाचता तो दूसरी तरफ पैरों में पत्नी नाम की बेड़ियाँ खनक उठतीं। माँ का खयाल आया….वह बिना खिलाए कभी खाना नहीं खाती थी…भारी कदमों से घर लौटे। दरवाजे पर माँ लाठी टेके राह तक रही थी….देखते पूछ बैठी….कहाँ चले गये थे बाबू?…खाना क्या कुबेला से खावोगे?हाथ पकड़ अन्दर लेकर चली….सुलेमान बो आहट पा झट बरामदे की चौकी पर माँ बेटे का खाना परोस सामने खड़ी हो गयीं। पूरा घर नव बधू के गन्ध में नहाया गम गम गमक रहा था।सुलेमान चुपचाप नल चला हाथ धो चौकी पर बैठ गये….गला जैसे कण्ठ तक भरा हो महसूसते पहला निवाला मुँह में डालते उबकाई आने लगी।बड़ी मुश्किल से आधी पूड़ी खा हाथ धो बाहर निकल गये।माँ निहोरा करती रही…सुलेमान बो अपमान से जल उठीं….दनदनाती मड़ई में पहुँचीं …..
ऐसा क्या है उस छिनार में जो मुँह लटकाए बैठे हो….. रोते हुए….सुन लो कान खोल कर गप्पू के पापा इ अपना घर दुवार हाथ से नहीं निकलने दूंगी और न ही तुम्हें तलाक दे उस कुत्ती संग घर बसाने दूंगी समझेsss
औरत क्रोध में उबल रही थी….इ मत सोचना की हमको कानून नहीं आता…जब तक मैं जिन्दा हूँ तुम्हें छोडूंगी नहीं।
वह रो रो कहे जा रही थी ,सुलेमान सिर झुकाए सुन रहे थे। जब वह चीख चिल्ला कर थक गयी धीरे से पूछा…आपको जायदाद ही तो चाहिए,हमसे कुछ लेना देना होता तो छोड़ जाती ही नहीं।इ सारा नाटक हम खूब समझते हैं इस लिए निश्चिंत रहिए अपनी जायदाद को लेकर। बाकी हमसे कुछ उम्मीद मत पालिएगा।जब मन आया दुत्कारा ,जब चाहा दुलारा यहाँ नहीं चलेगा। कह पीठ फेर खटिया पर सो गये….सुलेमान बो पायताने आकर पैर पकड़ बैठ गयी….मुझसे भी सुन्दर है ?
सुलेमान..मन बहुत सुन्दर है?
  सुलेमान बो…कौनो जादू टोना कर आपका मन बाँध ली है, अम्मा कह रही थीं।
रोना जारी था….
सुलेमान पैर झटक कर….कोई फायदा नहीं इ सब करने का।बारह साल परती रही तो अब का बरसा जब कृषि सुखानी। आप मन से उतर चुकी हैं …..जाइए जाकर सो जाइए। औरत भी कम न थी-…..ह तो कान खोल कर सुन लिजिए…जीते जी आपको उस राड संग बसने नहीं दूंगी …समझे!…कह पैर पटकते चली गयी। सुलेमान की नींद की चिड़िया नीड़ छोड़ उड़ चुकी थी…रात भर जागते,करवट बदलते रहे।सुबह किरन फूटते घर में से दो जोड़ी कपड़े और कुछ जरुरी चींजे झोले में ड़ाल निकल गये। स्कूल पहुँच मन्दिर के नल पर स्नान/ध्यान कर मौन घने बरगद के चबूतरे पर बैठे थे।रधिका सब देख रही थीं…समझने की कोशिश जारी थी कि आखिर इतनी सुबह सुलेमान यहाँ क्यों आए? सोच विचार करते खयाल आया की बेचारे बासी मुँह पड़े हैं…झट चाय बना लेकर चलीं।
इ लिजिए माट साहब चाय पीजिए….रधिका ने मुस्कुराकर स्वागत किया। सुलेमान चुपचाप चाय की प्याली उठा पीने लगे।
हे भाई !इ माजरा क्या है जो आपका मुँह इतना लटका है। बेचारी घबरा उठी।
सुलेमान-रधिकाss
रधिका- कुछ कहिए भी ,जी घबरा रहा है।
सुलेमान-साथ रहने के लिए ब्याह जरुरी है तुम्हारे लिए?
रधिका कुछ देर चुप रहीं… नहीं एक दम नहीं माट साहब। हमको मालिक नहीं साथी चाहिए।
सुलेमान-रहोगी बिन ब्याह के मेरे साथ।
रधिका तड़प उठीं…सब समझ आ गया कि हुआ क्या होगा।पास जाकर …काहें अपनी मुश्किल बढ़ाते हैं?
सुलेमान-अब दिल लग गया तो लग गया ,मुस्कुराते हुए हाथ बढ़ा दिया।
रधिका हाथ थाम फफक उठीं… आज हाथ थामते सुलेमान का उन्हें किसी का डर भय नहीं रहा। जैसे डूबते हुए आदमी को तिनके भर का सहारा उबार देता है,रधिका अपनी दुनिया के तमाम डूबती जड़ताओं से उबरने को तैयार हो उठीं। चल पड़े दोनों एक नयी दुनिया की ओर जहाँ मुश्किलों पहाड़ था पर जो साथ था उस पर भरोसा भी भरपूर था। पास के बाजार में किराए का घर ले सुलेमान ने रधिका संग गृहस्थी बसा ली….खूब हो-हल्ला मचा। सुलेमान बो आए दिन आकर बवाल काटती और सुलेमान को पुलिस थाने तक की धमकी दे जाती।सुलेमान ने हल निकाला…महीने भर के अन्दर अपनी पुस्तैनी सम्पत्ती बेटे के नाम कर चैन की साँस ली। औरत को भी सुलेमान के जायदाद से ही मतलब था…मिलते ठण्डी हो गयी। दोनों की गाड़ी गाँव की कच्ची- पक्की सड़कों पर हिचकोले खाते बढ़ने लगी।

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