Friday, October 4, 2024
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सुदर्शन रत्नाकर की कहानी – अपूर्णता की कसौटी

चैत्र मास में  पेड़पौधे नए परिधान पहन इठलाने लगते।आम्र के पेड़ों पर बौर महकने लगता और कोयल की मधुर आवाज़ गूँज उठती।चारों ओर प्रकृति की छटा छा जाती।विभिन्न रंगों के फूलों पर रंगबिरंगी तितलियाँ उन्हीं रंगों में एकाकार हो जातीं। मोतिया, मोंगरा, मधुमालती पूरे यौवन पर जाते।खिड़की के सामने लगे गुलमोहर के पेड़ पर मधुमालती की बेल फैल जाती और उसके केसर घुले रंग के फूल  पेड़ पर ऐसे लटकने लगते जैसे झूमर लटक रहे हों।जितने दिन मधुमालती खिलती है उस पेड़ की सजावट देखने वाली होती है। फूल समाप्त हो जाते हैं, तो पेड़ पीली पतियों के कारण बीमारसा दिखने लगता है।गौरी दीदी को यह मौसम बहुत अच्छा लगता था। घर में हरियाली और सुंदरता के नाम पर बहुत कुछ था; लेकिन दीदी को इस पेड़ पर फैली मधुमालती की लटकन बहुत भाती थी।सारा पेड़ फूलों ऐसे ऐसे लद जाता था, जैसे ये फूल उसके अपने हों ।दीदी खिड़की के पर्दे हमेशा खोलकर रखती थी ताकि मधुमालती सदा उनकी आँखों के सामने रहे।इन्हीं दिनों परीक्षाएँ भी होती थीं ।वह सब कुछ छोड़ कर कमरे में बंद हो जाती और उनका एकमात्र साथी रह जाता वह पेड़ और उस पर लिपटी मधुमालती की झीनीझीनी फूलों से लदी लताएँ। दीदी घर में सबकी लाड़ली थी।होती भी भी क्यों , वह थी ही ऐसी! आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी, मधुर भाषिणी, व्यवहार कुशल थी वह।उन्होंने विलक्षण बुद्धि पाई थी। हर क्षेत्र में आगे रहतीं। पढ़ाई के साथसाथ स्कूलकॉलेज में  सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेती। राज्य स्तर पर बैडमिंटन खेलती थी।हम सबका बहुत ध्यान रखती। वह आसमान की ऊँचाइयाँ छू लेना चाहती थी।प्रकृति प्रेमी दीदी ने स्वच्छंद स्वभाव पाया था, पर वह अपनी सीमाएँ भी जानती थी उनकी कोशिश रहती कि वह कोई ग़लत काम करें, जिससे उसे माँ या पिताजी से डाँट पड़े।पर गलती होती है तो पूछ कर नहीं होती, बस हो जाती है।पता नहीं उन्हें किस बुरी घड़ी में प्यार हो गया था।वैसे तो कोई घड़ी बुरी होती है और ही प्रेम हो जाना बुरा होता है। प्रेम अकारण है, प्रेम अनुभूति हैपूजा है, होता है तो बस हो जाता है, किसी भी पल, किसी के भी साथ
नाना वो वाला प्यार नहीं था। यानी लड़केलड़के वाला नहीं।लड़कों की कम्पनी से हमेशा दूर रहती थीं। सारी शिक्षा उन्होंने को.एड में ली थीं। पर कही भी कोई मित्र नहीं रहा।लड़कियों का सानिध्य तो रहा; लेकिन मित्रतासमय बिताने तक ही सीमित रही। किसी से प्रगाढ़ता हो ही नहीं पाई। स्कूल ,कॉलेज की सहपाठियों से ऐसे ही सम्बंध रहे बस; लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उनकी कोई मित्र नहीं थी। थी और वह भी एक नहीं तीनतीन लड़कियों से मित्रता रही। उनके पापा का स्थानांतरण हमारे शहर में हुआ तो उन्होंने हमारे पड़ोस में  किराये पर मकान लिया था।दीदी खुश हुई थी  क्योंकि वह चार बहने थीं। बड़ी लड़की तो दीदी के बराबर ही थी शायद। दूसरी एक साल छोटी और 
तीसरी दूसरी से केवल दस महीने छोटी थी। कहने का अभिप्राय यह कि सबकी आयु लगभग एक समान थी। हाँ, चौथी लड़की तीनों से दस वर्ष छोटी थी। शायद मातापिता ने लड़के की चाह में एक और प्रयास किया होगा; लेकिन केवल चाहने से ही कुछ नहीं होता। पता नहीं लड़कों की ही चाहना क्यों रहती है। बहुत कम सुनने को मिलता है कि किसी मातापिता ने दोचार लड़कों के बाद लड़की की भी चाहना की हो और प्रयास भी किया हो। अपवाद तो रहते हैं; लेकिन दाल में चुटकी भर नमक के बराबर।पर मेरा विषय यह  नहीं है।मुझे दीदी और उन नई लड़कियों के विषय में बात करनी है। दीदी उन लड़कियों रिया, सिया और प्रिया का साथ पाकर बहुत खुश थी। हमारे घर में तीन लड़कों के बीच दीदी अकेली लड़की थी। बड़े भाई दीदी से बहुत बड़े थे और मैं दीदी से बहुत छोटा था। दीदी घर में अकेली पड़ जाती। स्कूल में भी सबसे अलगथलग रहती थी इसलिए उन बराबर की लड़कियों के जाने से वह खुश रहने लगी थी।पहले तो वह शर्माती रही; लेकिन धीरेधीरे खुलने लगी। दीदी उन बहनों को एक साथ खेलते, मस्ती करते देखतीं तो उनका मन भी ललचाने लगता।बाद में वह उनके क्रियाकलापों में सम्मिलित होने लगी थी। दोनों घरों का एक ही आँगन था, जिसमें दिन में सभी मिलकर गीटे और छटापू खेलतीं, गुड़ियों के विवाह रचातीं  और रात में एक साथ चारपाइयों पर लेटे खुले आसमान में छिटके तारों को गिनती। उनकी बातों का कोई अंत ही नहीं होता था।तारों को गिनतेगिनते कब चाँद को देखकर कल्पनाओं में खोने लगीं उन्हें पता ही नहीं चला।मैं तो दीदी से बहुत छोटा था।कभीकभी दीदी के साथ सो ज़ाया करता था। उनकी बातें सुनता पर  वे क्या क्या बातें करती हैं, मैं समझ नहीं पाता था लेकिन इतना समझ आने लगा था कि वे तीनों  बहनें दीदी को बहुत पसंद करने लगी हैं और तीनों की यही इच्छा रहती कि दीदी उसके साथ अधिक समय बिताये दूसरी बहनों के साथ नहीं।दीदी उनके बीच पिसती रहती।             मैंने देखा था, वे तीनों दीदी को हग करने की कोशिश करतीं।रिया तो ज़बर्दस्ती किस भी कर लेती थी। अब दीदी भी भला क्या करती, उनका व्यक्तित्व बचपन से ही ऐसा था कि जो कोई भी उनके सम्पर्क में आता खिंचा चला जाता।फिर वे चारों घरस्कूल में एक साथ ही रहती थीं।अपनी पढ़ाई और घर के काम में सहायता भी करती थी, इसलिए उनकी इस आकर्षण की ओर ही किसी का कभी ध्यान ही गया ही कोई डाँटता था।दीदी और बड़ी बहन रिया का स्कूल ख़त्म हुआ तो दोनों कॉलेज एक साथ जाने लगीं, सिया और प्रिया का साथ कम हो गया और उन दोनों का बढ़ गया।स्कूल में तो कई बंधन होते हैं; लेकिन कॉलेज में स्वच्छंदता थी। खेल, विचार, क्रियाकलाप बदलते गए और  उनकी मित्रता बढ़ती गई। दोनों की इच्छा रहती कि वे हमेशा साथसाथ रहें, उन्होंने कॉलेज में विषय भी एक जैसे लिए थे ताकि क्लास में भी एक साथ रह सकें। पर ऐसा होता नहीं है ना।  जो हम चाहें वह पूरा होता रहे। दीदी और रिया की ग्रेजुएशन का दूसरा वर्ष आरम्भ हुआ ही था कि पता चला कि उसके पापा का ट्रांसफ़र  दूसरे शहर में हो गया है।उन सबके लिए यह कितनी कठिन घड़ी थी विशेषकर दीदी के लिए। वह कई दिन तक छुपछुप कर रोती थीं। उन्हें रात को नींद नहीं आती थी।  इसका साक्षी मैं रहा हूँ। बचपन में मैं और सौम्या एक साथ खेला करते थे मुझे भी उससे अलग होना अच्छा नहीं लग रहा था।पर हम सब एक दूसरे से अलग हुए। साथ छूटा था; लेकिन मित्रता नहीं।सम्पर्क हमेशा बना रहा पर दीदी अब पहले जैसी नहीं रही थी। बोलती तो पहले ही कम थी ,अब और कम हो गया।कॉलेज जाती और आकर अपने कमरे में बंद हो जाती और गुलमोहर को देखती रहती और जब मधुमालती खिलती तो उनकी खिड़की दिनरात खुली रहती।
 उन सबके बीच पत्राचार चलता रहता था।जब रिया का पत्र आता तो दीदी बहुत खुश नज़र आती पर  वे आपस में फ़ोन पर कम बात किया करती थीं। इतने वर्ष एक ही घर ,एक ही आँगन में रहने के कारण अच्छे सम्बन्ध थे। एक दूसरे से विश्वास की डोर से बँधे थे और सबसे बड़ी बात  दूर जाकर भी उनका आकर्षण दीदी के प्रति कम नहीं हुआ था।  इसलिए शुरूशुरू में छुट्टियों में वे सब बहने दीदी से मिलने आती रहती थीं।मुझे भी उनका आना अच्छा लगता था क्योंकि कभीकभी सौम्या भी उनके साथ आती थी। 
अगला वर्ष दीदी की ग्रेजुएशन का फ़ाइनल था। वह पढ़ाई में व्यस्त हो गईं। वे सब भी धीरेधीरे अपने नए शहर, नए वातावरण में ढल रही थीं। समय बीते पलों को भुलाने में सहायक होता है। फिर वह बचपन और किशोरावस्था का आकर्षण था, जहाँ किशोर मन कल्पनाओं में पता नहीं क्या क्या सोचता है, जिसे वह पसंद करता है वह उसका हीरो बन जाता है। यह प्यार नहीं फैंटेसी होती है।पाने से अधिक खोने का डर होता है।सिया प्रिया भी कॉलेज में गई थीं। आकर्षण मित्रता और प्यार, में अंतर समझने लगी थी शायद इसलिए नए मित्र बनाना स्वाभाविक था।सभी व्यस्त थे, धीरेधीरे मिलना कम हो रहा था। दीदी तो उनको मिलने एक बार भी नहीं जा पाई। ऐसा लग रहा था किशोरावस्था के मन की उफनती लहरें नीचे उतरने लगी हैं।एक ठहराव गया है।स्थिर ,शांत सागरसा मन।सौम्या और मैं अभी भी सम्पर्क में थे।
लेकिन यह शांति तो समुद्र में तूफ़ान आने से पहले वाली शांति थी।जहाँ नीचे विकराल लहरें उफनने के लिए तैयार बैठी थीं, जिसके आगमन से बहुत कुछ बह जाता है, टूट जाता है।और उसके बाद दूरदूर तक दिखाई देता है विनाश जो  लील जाता है धरा का रूप। ऐसा ही कुछ तूफ़ान आया था हमारे घर में। जिसकी विनाशकारी लहरों ने हमारे घर की खुशियाँ ही छीन ली थीं। दीदी ने  अपने शहर में  रह कर बी. कॉम. ऑनरज़ में ग्रेजुएशन किया था लेकिन एम. कॉम. वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से होस्टल में रहकर करना चाहती थी। मम्मीपापा, बड़े भैया सबने सहर्ष स्वीकृति दे दी थी। वे भी तो यही चाहते थे दीदी अच्छा पढ़लिख कर अपने पाँवों पर खड़ी हो जाए। 
दो वर्ष शांत निकल गए थे। टॉप किया था दीदी ने। वहीं कॉलेज में नौकरी भी लग गई थी साथ ही पी. एच.भी शुरू कर दी थी। हम सब बहुत खुश थे। इस बीच पिताजी दीदी के लिए अच्छे वर की तलाश में रहते थे। एकदो पसंद भी कर रखे थे। दीदी जिसे पसंद करेगी उससे उनका रिश्ता पक्का कर देंगे।यही नहीं, वक्त की नज़ाकत को देखते हुए बड़े भैया ने तो यह भी सोच रखा था कि दीदी को ये लड़के दिखाने से पहले उनसे पूछ लेंगे कि उनकी कोई अपनी पसंद तो नहीं है।पर दीदी ने तो किसी को कोई अवसर ही नहीं दिया।वह रोज़ फ़ोन पर बात करती थी पर अपनी इच्छा की भनक तक नहीं लगने दी। घर आती थी तो भी किसी ने उनकी मंशा को नहीं जाना। मैं तो बचपन से ही उनके बहुत नज़दीक रहा था। फिर भी क्यों अनजान रहा 
दीवाली पर दीदी का घर आने का प्रोग्राम था। हम सब खुश थे कि इस बार उससे विवाह की बात करेंगे। लेकिन उससे चार दिन पहले ही डाक से एक पार्सल आया जिसमें उनके विवाह की फ़ोटो  कोर्ट मैरिज कीं डुप्लीकेट कॉपी और एक लम्बा पत्र था। फ़ोटो में उनके साथ जो दूल्हे के रूप था वह और कोई नहीं रिया दीदी थीं। पत्र में उन्होंने अपने दिल की बात और विवाह का सारा घटनाक्रम लिखा था। माँ ने ही पैकेट खोला, सारी बात को समझते हुए वह वहीं सिर पकड़कर बैठ गईं।पापा ने चुप्पी साध ली और भाई का तो खून ही खौलने लगा।हमारी लाड़ली बहन जिस पर हम सब गर्व करते थे। उनके विवाह के कई अरमान थे। उन्होंने यह क्या कर दिया , क्यों किया! यह कैसा प्रेम है, कैसा विवाह है, प्रकृति के विरूद्ध जाकर भला संसार चलता है।क्यों किया? यही प्रश्न बार बारबार सबके  मन में उठने लगा। इसका उत्तर तो दीदी ही दे सकती थी और दीदी के साथ उसके बाद किसी ने सम्पर्क ही नहीं रखा।सौम्या के द्वारा मुझे पता चला था कि रिया दीदी भी घर नहीं गई थी। बस सूचना दे दी थी। दोनों ने एक फ्लैट ले लिया है और वहीं रहती हैं।विवाह की बात उन्होंने अपने सर्कल में छुपा कर रखी है। 
इस सूचना के बाद एक लम्बा अंतराल गया था।  कोई जताता नहीं था।दीदी की याद तो सब को आती थी पर उन्हें क्षमा कोई भी नहीं कर पाया।न किसी ने उन्हें बुलाया और ही वह स्वयं आईं। प्यार में  मनुष्य कितना स्वार्थी हो जाता है।अच्छाबुरा, नातेरिश्ते, अपनों का प्यार सब कुछ भूल जाता है।जहां तक मुझे याद आता है सिया  प्रिया और रिया दीदी ही उनके आगेपीछे घूमती थीं।दीदी तो हमेशा ही अपने में ही मग्न रहती थी। बस साथ थाकिशोरावस्था में सम वय का आकर्षण, साथ की एक ज़रूरत बस इतना भर। निर्लिप्त रहने वाली, प्रकृतिप्रेमी, इतनी समझदार  दीदी कब मानसिक रोगी हो गई जो एक लड़की के आकर्षण में बँध कर मित्र से  जीवन साथी बन गई। कॉलेज में आने पर ही दोनों की मित्रता बढ़ी थी लेकिन बाद में क्या और कैसे यह सब हो गया कोई नहीं जानता। प्यार पात्र नहीं देखता ,समय, परिस्थितियाँ नहीं देखता। समान सेक्स के प्रति झुकाव, प्यार क्या इतना हावी हो जाता है कि सामाजिक मान्यताएँ भी भूल जाती हैं। ईश्वर प्रदत्त नियम भी खोखले हो जाते हैं। लेकिन कुछ भावनाएँ तो हैं जो कभी कभी इन्सान को उसकी वास्तविकता दिखाती है। वह भावना थी एक औरत के भीतर बसी माँ और  मातृत्व की भावना का एहसास होना।उसके बिना वह अधूरी है, अस्तित्वहीन है। वह उन्नति की कितनी भी सीढ़ियाँ चढ़ ले, आकाश में उड़ने की होड़ में कितनी भी ऊँची उड़ ले, पर जब तक वह माँ नहीं बन जाती वह पूर्ण नहीं हो पाती। ईश्वर ने  उसे बनाया ही ऐसा है।बचपन में जब दीदी और सब मिल कर गुड़ियों का विवाह रचाती थीं, तब भी वह अनजाने ही सही उनकी माँ ही तो बनती थीं। 
रिया और गौरी दीदी भी आख़िर थीं तो नारी ही। उनके भीतर बैठी माँ को तो जागना ही था। कुछ वर्ष तो सभी को भूल कर  दोनों एक दूसरे के आकर्षण में बँधी रहीं। भरपूर स्वच्छंद जीवन जिया।विदेश भी घूम आईं लेकिन उनके भीतर का ख़ालीपन कभी भरा नहीं। सौम्या ही उनके बारे में जानकारी कहीं से लेती थी और उससे मुझे पता चल जाता था। उसने बताया था कि दोनों इस बात को लेकर परेशान रहती हैं वे चाहतीं तो किसी बच्चे को गोद ले सकती थी क्योंकि इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था उनके पास। ऐसी राह पर चलने वाले लोग यही तो करते हैं। पर रिया दीदी नहीं मानी।उन्हें चाहिए था अपना बच्चा जो उनकी कोख से जन्म ले और वह उस बच्चे को जन्म देने के सुख कोमातृत्व को महसूस कर सकें।रिया की बातें सुनकर दीदी के मन में भी वही भावनाएँ जन्म लेने लग गई थी।कुछ भी तो ग़लत नहीं था स्वाभाविक था सब।दोनों माँ बनना चाहती थी पर अपनी अपूर्णता को कैसे पूरा करें।क़ायदे से गौरी दीदी को माँ बनना था और उसके लिए ज़रूरत थी डोनर की।एक ऐसा इन्सान जिसके बारे में वे कुछ नहीं जानती होंगी।जो उनके बच्चे का पिता होकर भी पिता नहीं होगा।नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती।दीदी के संस्कार जाग उठते थे।और रिया दीदी को समलैंगिक विवाह की अपूर्णता समझ आने लगी थी। कितना बचकाना था जीवन में लिया गया यह निर्णय। प्रकृति को चुनौती देने वाला। बेल को विकसित होने को लिए पेड़ का, दीवार का सहारा चाहिए। दो बेलें मिल जाएँगी तो धरती पर दोनों औंधे मुँह पड़ी रहेंगी।गुलमोहर पर फैली मधु मालती की बेल ही तो गौरी दीदी को पसंद थी। जिसे वह अपने कमरे से हरदम निहारा करती थी।दोनों के रंग मिलकर कितने खिलखिल उठते थे।पक्षियों का जमघट लगा रहता था, जो चुनचुन कर पराग खाते, चहचहाते और हमारे जीवन में रंग भर देते थे। 
समय तो गतिमान है ,चलता रहा है, चलता रहेगा। कितना कुछ पीछे छूट गया है, आगे का कुछ पता नहीं है। दीदी इस भीड़ में जाने कहाँ खो गई।
कई बार मन किया, किसी भी तरह दीदी से मिलूँ। उनके दर्द को समझूँ छोटा होकर भी कुछ समझाऊँ।पर अवसर ही नहीं मिला।दीदी तो कब की दिल्ली छोड़कर कहीं और चली गई थीं।कहाँ गईं सौम्या जानती है और ही मैं कुछ जान पाया।  हर मौसम में जबजब गुलमोहर पर मधु मालती आकर लिपटती है।मुझे दीदी की बहुत याद आती है। बस प्रतीक्षा कर रहा हूँ। शायद किसी मौसम में वह  मधु मालती के फूलों से झांकती नज़र आकर मुझे चौंका दे। 
सुदर्शन रत्नाकर  हरियाणा साहित्य अकादमी से महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना पुरस्कार’ ‘श्रेष्ठ महिला रचनाकार’ श्रेष्ठ कृति पुरस्कार ,शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार तथा अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित ,सामाजिक सरोकारों संबंधित हिन्दी में लेखन।दस कहानी संग्रह, दो उपन्यास, पाँच कविता, तीन हाइकु संग्रह , एक लघुकथा संग्रह, एक ताँका संग्रह, सेदोका संग्रह, संस्मरण ।एक ताँका संग्रह एवं हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा का दो बार सम्पादन ।आठ दर्जन से अधिक संयुक्त संकलन प्रकाशित। कुछ रचनाओं का भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद एवं पाठ्य पुस्तकों में रचनाएँ संगृहीत, विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा शोधकार्य सम्पन्न।
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1 टिप्पणी

  1. सुदर्शन रत्नाकर जी की कहानी “अपूर्णता की कसौटी” अपने शीर्षक को 100% सार्थक करती है।
    कहानी अपने मध्यान्ह तक संकेत भी नहीं देती कि यह समलैंगिकता पर आधारित कहानी है, लेकिन उत्तरार्द्ध में आश्चर्यजनक रूप से कहानी मोड़ लेती है। घर की बेहद संयमित, बेहद टैलेंटेड और तीन भाइयों में एकलौती बहन गौरी का यह निर्णय परिवार पर वज्रपात की तरह रहता है।
    लेकिन समलैंगिक विवाह जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं कर सकते। बच्चों की चाहत उन्हें बच्चों के गोद लेने से ही पूरी हो पाती है।
    गोरी और रिया के संबंध में भी यही बात रही दोनों ही अपने ही बच्चों की माँ बनना चाहती थी गर्भधारण करना चाहती थीं। प्राकृतिक व जायज रूप से।
    तब उन्हें अपने जीवन की अपूर्णता का आभास हुआ। अपनी गलती महसूस हुई।
    यौवन का उन्माद और आवेश हमारे विवेक को कुंद कर देता है। एक स्वप्निल दुनिया में इंसान इतना खो जाता है कि वह सही और गलत का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं ले पाता है ।वह सिर्फ वर्तमान को देखता है। जो आज है ,जो अभी है, वही सत्य है ,वही श्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं, बस यही एक नशा उस पर तारी रहता है। भविष्य की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ती।
    और जब उन्माद और आवेश खत्म होता है तब जीवन के धरातल की वास्तविकता से परिचय होता है। तब तक उम्र और वक्त दोनों ही रेत की तरह हाथ से फिसल चुके होते हैं। यह बिल्कुल सही है कि एक स्त्री के लिये पूर्णता की कसौटी उसका माँ बनना है।
    कहानी एक अच्छा संदेश देती है।काश लोग संभल पाएँ।
    हमें तो एक आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता यह भी महसूस हुई कि अगर वर्तमान ऐसा है तो भविष्य कैसा होने वाला है। क्योंकि यह भले ही कहानी है लेकिन सच्चाई से अलग भी नहीं।
    कहानी की भाषा शैली प्रभावशाली है।
    बेहतरीन और सामयिक कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

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