सुदर्शन रत्नाकर हरियाणा साहित्य अकादमी से महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना पुरस्कार’ ‘श्रेष्ठ महिला रचनाकार’ श्रेष्ठ कृति पुरस्कार ,शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार तथा अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित ,सामाजिक सरोकारों संबंधित हिन्दी में लेखन।दस कहानी संग्रह, दो उपन्यास, पाँच कविता, तीन हाइकु संग्रह , एक लघुकथा संग्रह, एक ताँका संग्रह, सेदोका संग्रह, संस्मरण ।एक ताँका संग्रह एवं हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा का दो बार सम्पादन ।आठ दर्जन से अधिक संयुक्त संकलन प्रकाशित। कुछ रचनाओं का भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद एवं पाठ्य पुस्तकों में रचनाएँ संगृहीत, विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा शोधकार्य सम्पन्न।
सुदर्शन रत्नाकर जी की कहानी “अपूर्णता की कसौटी” अपने शीर्षक को 100% सार्थक करती है।
कहानी अपने मध्यान्ह तक संकेत भी नहीं देती कि यह समलैंगिकता पर आधारित कहानी है, लेकिन उत्तरार्द्ध में आश्चर्यजनक रूप से कहानी मोड़ लेती है। घर की बेहद संयमित, बेहद टैलेंटेड और तीन भाइयों में एकलौती बहन गौरी का यह निर्णय परिवार पर वज्रपात की तरह रहता है।
लेकिन समलैंगिक विवाह जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं कर सकते। बच्चों की चाहत उन्हें बच्चों के गोद लेने से ही पूरी हो पाती है।
गोरी और रिया के संबंध में भी यही बात रही दोनों ही अपने ही बच्चों की माँ बनना चाहती थी गर्भधारण करना चाहती थीं। प्राकृतिक व जायज रूप से।
तब उन्हें अपने जीवन की अपूर्णता का आभास हुआ। अपनी गलती महसूस हुई।
यौवन का उन्माद और आवेश हमारे विवेक को कुंद कर देता है। एक स्वप्निल दुनिया में इंसान इतना खो जाता है कि वह सही और गलत का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं ले पाता है ।वह सिर्फ वर्तमान को देखता है। जो आज है ,जो अभी है, वही सत्य है ,वही श्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं, बस यही एक नशा उस पर तारी रहता है। भविष्य की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ती।
और जब उन्माद और आवेश खत्म होता है तब जीवन के धरातल की वास्तविकता से परिचय होता है। तब तक उम्र और वक्त दोनों ही रेत की तरह हाथ से फिसल चुके होते हैं। यह बिल्कुल सही है कि एक स्त्री के लिये पूर्णता की कसौटी उसका माँ बनना है।
कहानी एक अच्छा संदेश देती है।काश लोग संभल पाएँ।
हमें तो एक आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता यह भी महसूस हुई कि अगर वर्तमान ऐसा है तो भविष्य कैसा होने वाला है। क्योंकि यह भले ही कहानी है लेकिन सच्चाई से अलग भी नहीं।
कहानी की भाषा शैली प्रभावशाली है।
बेहतरीन और सामयिक कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।
सुदर्शन रत्नाकर जी की कहानी “अपूर्णता की कसौटी” अपने शीर्षक को 100% सार्थक करती है।
कहानी अपने मध्यान्ह तक संकेत भी नहीं देती कि यह समलैंगिकता पर आधारित कहानी है, लेकिन उत्तरार्द्ध में आश्चर्यजनक रूप से कहानी मोड़ लेती है। घर की बेहद संयमित, बेहद टैलेंटेड और तीन भाइयों में एकलौती बहन गौरी का यह निर्णय परिवार पर वज्रपात की तरह रहता है।
लेकिन समलैंगिक विवाह जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं कर सकते। बच्चों की चाहत उन्हें बच्चों के गोद लेने से ही पूरी हो पाती है।
गोरी और रिया के संबंध में भी यही बात रही दोनों ही अपने ही बच्चों की माँ बनना चाहती थी गर्भधारण करना चाहती थीं। प्राकृतिक व जायज रूप से।
तब उन्हें अपने जीवन की अपूर्णता का आभास हुआ। अपनी गलती महसूस हुई।
यौवन का उन्माद और आवेश हमारे विवेक को कुंद कर देता है। एक स्वप्निल दुनिया में इंसान इतना खो जाता है कि वह सही और गलत का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं ले पाता है ।वह सिर्फ वर्तमान को देखता है। जो आज है ,जो अभी है, वही सत्य है ,वही श्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं, बस यही एक नशा उस पर तारी रहता है। भविष्य की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ती।
और जब उन्माद और आवेश खत्म होता है तब जीवन के धरातल की वास्तविकता से परिचय होता है। तब तक उम्र और वक्त दोनों ही रेत की तरह हाथ से फिसल चुके होते हैं। यह बिल्कुल सही है कि एक स्त्री के लिये पूर्णता की कसौटी उसका माँ बनना है।
कहानी एक अच्छा संदेश देती है।काश लोग संभल पाएँ।
हमें तो एक आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता यह भी महसूस हुई कि अगर वर्तमान ऐसा है तो भविष्य कैसा होने वाला है। क्योंकि यह भले ही कहानी है लेकिन सच्चाई से अलग भी नहीं।
कहानी की भाषा शैली प्रभावशाली है।
बेहतरीन और सामयिक कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।