पुस्तक – काला सोना; लेखिका – डॉ रेनू यादव; प्रकाशक – शिवना प्रकाशन
समीक्षक
प्रो.अवध किशोर प्रसाद
‘काला सोना’ रेनू यादव का पहली कहानी संग्रह है. यह शिवना प्रकाशन सीहोर से प्रकाशित हुआ है. इसमें बारह कहानियाँ संकलित हैं. संकलन की कहानियों में भूमिका लेखक नरेंद्र पुंडरिक के अनुसार “स्त्री संघर्ष की अभिव्यक्ति हुई है”. चाहे ‘काला सोना’ की सुलेखा हो,’वसुधा’ की वसुधा हो,’मुखाग्नि’ की राधिका हो, ‘अमरपाली’ की सोनवा हो या ‘मुँहझौंसी’ की रूपा हो ; सभी का जीवन संघर्षपूर्ण है.
संकलन की पहली ‘नचनिया’ शादी—विवाह में नृत्य करने वाली की दिलचस्प कहानी है.सम्पूर्ण कहानी में नृत्यांगना सोनपरी के हाव—भाव,दर्शकों की भंगिमाएं एवं शहरी बाबू के समक्ष सोनपरी का रहस्योद्घाटन ,सब कुछ अद्भुत है. ग्रामीण युवक राजन सोनपरी के रूप में नृत्य करता है,जिस पर शहरी बाबू फ़िदा हो जाता है. भावावेश में जब वह सोनपरी से लिपट जाता है, तब सोनपरी नामधन्य राजन अपने ब्लाउज के अन्दर के सॉफ्ट गेंद को निकालकर उसके हाथ में रखकर उसे भौंचक में डाल देता है.यह एक मनोरंजक, मर्मस्पर्शी और दिलचस्प कहानी है, जो नाचने वालियों के सच का उदघाटन करती है. शीर्षकनामा ‘काला सोना’ देहव्यापार की कहानी है.
इसमें सुलेखा नामक लड़की के जीवन के विवरण के बहाने कथाकार ने परिवार और समाज में होने वाले व्याधिचार का सटीक वर्णन किया है. कहानी में पात्रों की गहमागहमी के बीच घटनाओं का समुचित समायोजन हुआ है. ‘वसुधा’ चरित्र प्रधान कहानी है. इसमें वसुधा नामक ग्रामीण युवती के जीवन के उत्कर्षापकर्ष का वर्णन उसकी महत्वाकांक्षाओं ,प्रेम में विछलन और पुत्रवती होने की स्थितियों के सन्दर्भ में किया गया है.वसुधा अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए दिल्ली तो जाती है किन्तु वहाँ सूरज के संपर्क में आकर अपना आत्म संयम खो बैठती है और गर्भावस्था में घर लौटती है तथा सबके क्रोध का कारण बनती है.
‘मुखाग्नि’ विवरणात्मक कहानी है. इसमें पुलवामा में शहीद हुए जवानों को केंद्र में रखकर राधिका के पति मनोज की शहादत पर उत्पन्न दर्दनाक स्थिति का विवरण किया गया है. कहानी में राधिका के पति को मुखाग्नि उसके देवर से न दिलाकर उसकी पुत्री टिंकू , जिसे मनोज जान से भी ज्यादा प्यार करता था, के द्वारा दिलाया जाता है.इस कहानी में पुत्र के नहीं होने की स्थिति में पुत्री द्वारा मृतक पिता को मुखाग्नि दिलाये जाने की नवीन परिपाटी की शुरुआत की गयी है. शादी—व्याह एवं बच्चों के जन्म पर दिए जाने वाले उपहार के कारण मनुष्य शिकस्त में पड़ जाता है. कर्ज की अधिकता कभी-कभी जानलेवा बन जाती है.
‘छोछक’ शीर्षक कहानी में हरिराम के माध्यम से इसी सत्य की अभिव्यक्ति हुई है. यह प्राचीन परिपाटी गाँओं—देहातों में आज भी प्रचलित है. ‘कोपभवन’ शीर्षक कहानी में समलैंगिकता का समर्थन किया गया है.हरेन्द्र और रामलखन के बीच समलैगिक सम्बन्ध का संकेत किया गया है. ‘टोनहिन’ शीर्षक कहानी में गाँव में पनपते, फूलते—फलते अंधविश्वास का वर्णन किया गया है. कथानायिका फुलमतिया के वैधव्य एवं उसकी नि:संतानता के कारण गाँव वाले उसे अपशगुनिया समझ कर गांव से बाहर निकाल देने पर उतारू होजाते हैं.
‘अमरपाली’ उस औरत की कहानी है,जो ठाकुर के प्रेम में अंधी होकर सुहागरात की सेज पर से भाग आती है. ठाकुर उसे शरण और संरक्षण प्रदान तो करता है किन्तु उसके गर्भ से उसके दो बच्चों के जन्म लेने पर जब उसकी बदनामी होने लगती है, तब ठाकुर उसे छोड़ देता है तथा उसको घर और जमीन से भी बेदखल कर देता है. अंत में वह पुन: खेतों में काम करने वाली मजदूरिन बन जाती है. इस कहानी में ठाकुरों की अय्याशी और सोनवा जैसी लड़कियों की बदकिस्मती की अभिव्यक्ति हुई है.
‘चउकव राड़’ एक औरत नीलम की कहानी है,जो विवाह के बाद और गवना होने के पूर्व विधवा हो जाती है. परिवार के लोग उसका पुनर्विवाह एक पांच वर्ष के बालक के साथ कर देने का निर्णय लेते हैं, किन्तु नीलम इस विवाह को ,यह तर्क देकर कि ‘’वह उस लड़के के जीवन से खिलवाड़ नहीं करेगी’’,अस्वीकार कर देती है. कहानी में नीलम का चिंतन कहानी को मर्मस्पर्शी बना देता है. ‘डर’ शीर्षक कहानी में कोरोनाकालीन स्थिति का वर्णन कथावाचक सुधीर के स्वप्न के माध्यम से किया गया है. ‘खुखड़ी’ ग्रामीण परिवेश की कहानी है. इसमें बड़े परिवार की स्त्रियों की निरीहता,परवशता एवं निर्भरता की अभिव्यक्ति पाँच पुत्रों ,पाँच पुत्रवधुओं और दर्जनों नाती—पोतों से भरे परिवार की मलिकाइन के जीवन की रिक्तता के माध्यम से की गयी है, जिसे हमेशा अभाव का दंश झेलना पड़ता है. संकलन की अंतिम ‘मुँहझौंसी’ उस युग की कहानी है ,जबकि ग्रामीण औरतें न घर में सुरक्षित रहती थी,न बाहर में. घर में ससुर ,जेठ, देवर उनकी अस्मिता लुटने को व्यग्र रहते,तो बाहर शौच के समय गाँव के लुच्चे—लफंगे ,शोहदे घात लगाए रहते थे. इस कहानी में रूपा जब अम्ल अटैक से मुँहझौंसी बन जाती है, तब वह गंगाराम के संपर्क में आकर गाँव –घर की असुरक्षित औरतों की अस्मिता की रक्षा का अभियान छेड़ देती है. कहानी में मुँहझौंसी का वक्तव्य काबिले तारीफ़ है.
कहानियों की भाषा काव्यमयी है. छोटे—छोटे वाक्य सारगर्भित हैं. गोरखपुर की भोजपुरी बोली के शब्दों के बहुल प्रयोग से कहानियों की भाषा में आंचलिकता का समावेश हो गया है.
रेणु यादव के कहानी संग्रह “काला सोना” पर लिखी प्रोफेसर अवध किशोर जी की समीक्षा पढ़ी । इसमें स्त्री संघर्ष के विभिन्न कारणों से संबंधित कहानियाँ हैं। समीक्षा के माध्यम से संग्रह में संकलित 12 कहानियों से प्रारंभिक परिचय हुआ। लगभग सभी कहानियों से परिचय होने के बाद महसूस हुआ या कहें समझ में आया कि आज भी कई पिछड़े स्थानों में स्त्रियों की स्थितियाँ कुछ इसी तरह की हैं।
स्त्रियों को इसके लिए स्वयं जागरूक होना आवश्यक है। दो बातें तो बहुत ही ज्यादा तकलीफ देती हैं। एक-बेटे या बेटी के लिए अथवा संतान न होने के लिए बिना जाँच करवाए ही स्त्री को दोषी मान लेना, अपशगुनी कहना और दूसरा अंधविश्वास के चलते स्त्री को, फिर चाहे कोई भी कारण रहा हो, डायन कहना। पुरुष क्यों हर जगह सुरक्षित है? सारे कारणों का बोझ स्त्री पर डालकर पुरुष अपने आप को सुरक्षित रखता है। स्त्री को अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी होगी।
अच्छी समीक्षा के लिए आदरणीय अवध किशोर जी! आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।
बहुत ही सटीक समीक्षा है जो कहानी दर कहानी सार रूप में उठाए गए मुद्दों को बताती है।
यूं भी रेनू यादव जी की कहानियों में स्त्री की स्थितियों को भिन्न भिन्न अंदाज़ से बताया और दर्शाया गया है।