मुझे नहीं पता कि इस आधुनिक ज़माने में– जब इतने फैशनबल नाम प्रचलन में हैं , तब किसी ने अपनी सुंदरी–सुशील कन्या का नाम करजोरी क्यों रखा होगा ? कोई–कोई कहते हैं कि उसकी दादी का नाम इंजोरिया था। दादी थीं भी पूनो की चाँदनी –सी ही भक्क गोरी। उनकी “ऐंग्लो इंडियंस” जैसी गोराई के आगे करजोरी की भारतीय गोराई थोड़ी कमज़ोर ही ठहरती थी , इसीलिए लाड़ में दादी इंजोरिया, अपनी पोती को करजोरिया पुकारने लगीं, जो स्कूल में परिष्कृत होकर करजोरी बन गया। करजोरी के कोई बुआ तो थी नहीं, और पिता की वह अकेली संतान थी। इसीलिए दादी कदाचित अपनी सुन्दर पोती को बौड़म-सा कोई नाम देकर नज़र –गुज़र से बचा लेने के यत्न का संतोष पाती थीं। कुछ लोगों का मत था कि करजोरी ने दोनों हाथ जोड़े हुए जन्म लिया था, मतलब वह इतनी विनम्र–विनीत थी कि सबके आगे जैसे हाथ बाँधे खड़ी रहती थी। इसीलिए उसका नाम करजोरी रख दिया गया।
कुछ कानाफूसी वाली प्रवृत्ति के लोगों का कहना था कि करजोरी के निस्संतान पिता गर्मी के दिनों की एक अलसाई,मुँहअँधेरी सुबह को जब अपने खेतों की ओर निकले, तो वहाँ उन्हें किसी नवजात का रुदन सुनाई दिया। रुदन की दिशा में आगे बढ़ने पर उन्होंने पाया कि उनके जुते खेत की मेंड़ के क़रीबवाली कास की झाड़ियों में लाल कपड़े में बंधी मिट्टी की एक हांड़ी पड़ी है। रोने की आवाज़ उसी हांड़ी से आ रही है। उन्होंने सँभालकर बच्चे को निकाला। यह एक सुकोमल कन्या थी। भागते हुए घर आकर यह कन्या उन्होंने अपनी पत्नी की गोद में डाल दिया। उन्हें लगा कि जैसे ईश्वर ने उनकी उर्वरा भूमि का सारा कर जोड़कर उसे इस कन्या के रूप में उन्हें लौटा दिया है। इसीलिए कन्या का नाम करजोरी पड़ गया !
अब कारण चाहे जो हो , मगर हमारी कथा नायिका का नाम इस आधुनिक काल में भी करजोरी ही पड़ गया था। हम चूँकि करजोरी की जीवनकथा ज्यों–का–त्यों सुना रहे हैं , इसीलिए अब पाठकों की परिष्कृत रूचि के लिए उसे बदल देने का कोई उपाय नहीं है।
(2)
लखनऊ शहर विस्तार पाते –पाते पूरब की ओर चिनहट तक बढ़ता आ रहा है। तरह –तरह की नई बसी कॉलोनियों में अलग –अलग क़स्बों –गाँवों के लोग बसकर नए मिज़ाज़ से मेल– जोल , चाल –चलन गढ़ रहे हैं। इन नई बसी कॉलोनियों के पीछे का जंगल ज़रूर अपनी पुरानी ही धज में झाड़– झंखाड़ों से भरा ऊँघता रहता है।आधुनिकता की आँधी से अचकचाए एकाध जंगली जानवर कुसुमी के जंगलों से भटककर कभी – कभार इस ओर निकल जाएँ तो इन मटमैले जंगलों में कुछ हलचल मच जाती है, वरना ये वन विभाग की जंग खायी तख़्तियाँ उठाये हुए , यूँ ही सुस्ती से खड़े रहते हैं। हाँ ! सुबह –सवेरे कुछ उत्साही युवा और प्रौढ़ “स्पोर्ट्स शूज़”पहने इस ओर टहलते ज़रूर नज़र आ जाते हैं । इस तरफ के एकाध चक्कर लगाकर ये फिर पास के किसी पार्क की सीमेंट वाली पत्थर पर सुस्ताते हैं या व्यायाम करते समूहों का हिस्सा बनकर “ठहाका –व्यायाम”में नकली ठहाके लगाते हैं।
कुछ गृहस्थ और गृहस्थनें इन पार्कों के पीछे बन आये गड्ढेनुमा तालाबों के किनारे उगी झोंपड़ियों में बसे ग्वालों से दूध लेते जाते हैं । कुछ मुंशी की पुलिया के पास सजे ठेलों से सब्ज़ी – तरकारी खरीदते जाते हैं। कुछ लोग सुबह की ताज़ा हवा से स्फूर्ति पाकर कभी –कभार यहाँ से दो –तीन किलोमीटर दूर भूतनाथ के मंदिर तक भी हो आते हैं।खासकर तब, जब उन्हें भूतनाथ मंदिर के पास सजी दुकानों से कुछ ख़रीदारी करने का मन हो। आठ–नौ बजे तक मंदिर में दर्शन –ध्यान के बाद, पास के बाज़ार में धीरे –धीरे खुल रही दुकानों में सुभीते से खरीदारी की जा सकती है।
इसी तरह की एक सुबह ‘भगवद्भक्ति –कम –शॉपिंग’ का मन बनाकर भूतनाथ मंदिर जाने पर मैंने वहाँ पहले–पहल करजोरी को देखा था। लंबा क़द, छरहरी काया , खिलता रंग। उसके लम्बे चमकदार बाल उस समय खुले थे और केशों की उस बदरी से घिरा उसका मुखचंद्र किसी कालिदास को काव्य रचना के लिए प्रेरित करता हुआ – सा दिखाई पड़ता था। हालाँकि उसकी बड़ी, काली आँखों में गहरी उदासी की छाया एक झलक में ही दिख जाती थी।
उसने बड़े सलीक़े से बादामी रंग की लखनवी कढ़ाई वाली साड़ी बाँध रखी थी,जिसका पल्लू अपनी गर्दन में लपेटे वह हाथ जोड़े भगवान् भूतनाथ की प्रार्थना कर रही थी। भगवान के दर्शन करके पलटते ही मेरी निगाह उसकी तरफ यूँ गई कि फिर हटाए ही न हटी। इतनी पवित्र सुंदरता, ऐसा जोगन –सा वेश ! मेरा ध्यान तब भंग हुआ जब पाँचेक साल का एक लड्डू जैसा प्यारा बच्चा आकर उसके पैरों से लिपट गया और उससे प्रसाद के लड्डू देने की ज़िद करने लगा। ये प्रसाद के लड्डू मेरे हाथ में थे , जो अभी – अभी भगवान को चढ़ाने के बाद पंडितजी ने मुझे लौटाए थे। उसने अपने बच्चे को मना करने की नज़रों से देखा, मगर तब तक मैंने सचेतन होकर बच्चे को एक लड्डू पकड़ाते हुए पूछा –
“ आपका बच्चा है ? बहुत प्यारा है। लेने दें न , प्रसाद ही तो है !”
बच्चा तब तक लड्डू थाम चुका था और सहमति के लिए अपनी सुंदरी माता की ओर देख रहा था। माँ ने बच्चे को अनुमति –सी देते हुए कहा –
“ Say thanks”( धन्यवाद बोलो )
बच्चे ने बिल्कुल अमेरिकी अंदाज़ में तपाक से “thank you very much” (बहुत धन्यवाद ) कहा और मंदिर परिसर में दौड़ गया।
मैंने उस आकर्षक युवती से परिचय बढ़ाने की ललक में एक बेमतलब सवाल दुहराते हुए पूछा– “आपका बच्चा है ? बहुत प्यारा है।आप कहाँ रहती हैं ?”
मेरे सहज सख्य के आमंत्रणपूर्ण सवाल को टाल देना धृष्टता नहीं तो असभ्यता ज़रूर होगी , शायद यही सोचकर युवती ने जवाब दिया –
“मैं यहीं मंदिर के साथ लगे मकान में रहती हूँ। पुजारी जी मेरे चाचा लगते हैं। उन्हीं के साथ रहती हूँ अपने बच्चे के साथ ।”
“अच्छा!अच्छा !”मैंने जवाब देते हुए कहा – “मेरा घर यहीं कुसुम विहार में है। आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। आप यहाँ कहीं काम करती हैं ?”
बाल –बच्चेदार स्त्री के पास चाचा के साथ रहने की और क्या वजह हो सकती है–सोचकर मैंने पूछा।
इस प्रश्न और इसके पीछे छिपे आशय से उसकी अक्सर ही मुठभेड़ होती रही होगी , क्योंकि मेरे प्रश्न के साथ ही उसके चेहरे पर एक दीप्ति बुझी और बुझकर क्षणांश में ही उसकी लौ संयत कर ली गई। उत्तर संक्षिप्त “हाँ”में देकर वह ऊधम करते अपने बच्चे को पुकारती उसकी ओर बढ़ गई।उस दिन मुझे उसका नाम पूछे बगैर ही लौटना पड़ा।
(3 )
इसके कुछ ही दिनों बाद एक दिन वह फिर दिखाई दे गई । वह मेरे घर के पास वाले चौराहे की साईकिल की दुकान पर अपने लड्डू के लिए साईकिल खरीदने आई थी। मुझे भी अपनी भतीजी के जन्मदिन पर उपहार देने के लिए तिपहिया साईकिल खरीदनी थी। उसे देखते ही मैं चहककर उसके पास पहुँची और पहले की ग़लती का परिमार्जन करते हुए पहले सवाल में ही उसका नाम पूछ लिया – “उस दिन आपका नाम पूछना ही भूल गई थी …”
उसने दोनों हाथ जोड़कर मंद स्मिति से जवाब दिया – “ करजोरी ! मेरा नाम करजोरी है !”
“कर जोरी ? अच्छा ?” मैंने ज्यादा कुछ नहीं पूछा , क्योंकि अपने किसी सवाल से उस दिन जैसा परिचय की पनपती बेल को मैं सुखाना नहीं चाहती थी। इसीलिए केवल इतना कहा – “एकदम अलग – नाम है !”
फिर जोड़ा – “ मेरा नाम अमुदा है !”
“हूँ” कहकर वह साईकिल देखने में लग गई। मुझे उससे उसके पति के बारे में जानने की इच्छा भी हुई , मगर इतने लघु परिचय के बाद ही यह प्रश्न मुझे उचित नहीं लगा। मैं साईकिल खरीद चुकी तो फिर उसकी तरफ मुखातिब होती हुई बोली– “मेरा घर यहीं चार मकान छोड़कर है।आइये , चाय पीकर चली जाइएगा।”
उसे कोई साईकिल पसंद नहीं आई थी। उस निराशा या थकन में या मेरे निश्छल सख्य के आमंत्रण में , उसने मेरे साथ चलने की हामी भर दी। इस तरह मेरा करजोरी से मेलजोल शुरू हुआ।
उसके बाद फिर कई बार मिलना हुआ। कभी मैं जाकर मंदिर के अहाते में उसके साथ गप्पें लगाती , कभी वह मेरे घर आ जाती। कभी –कभी हम दोनों साथ – साथ बाज़ार हो आते। इसी मेलजोल में मुझे करजोरी की जीवन कथा या यों कहें कि जीवन व्यथा जानने का अवसर मिला।
(4)
करजोरी के पिता अपने क्षेत्र के “कहवईता”( नामदार ) ज़मींदार थे और करजोरी उनकी दुलारी इकलौती। करजोरी जैसी दिखने में अद्वितीय सुंदरी थी , वैसी ही निपुण वह घर के कामों में थी। घर के भारी –से – भारी काम भी वह चटपट कर डालती। हालाँकि घर में नौकरों की अच्छी संख्या में मौजूदगी थी , लेकिन वह फिर भी घर –गृहस्थी के काम बड़े उत्साह से करती। यही वजह थी कि घर की माइयाँ उससे अत्यंत स्नेह रखती थीं। करजोरी पढ़ने में भी बहुत होशियार थी, इसलिए अपने शिक्षकों की चहेती थी। वह पिता के साथ खेतों में भी जाती। फलतः कृषि कार्य की बारीक़ियों से भी परिचित होने लगी थी। उसकी बहुमुखी प्रतिभा पिता को उत्फुल्ल भी करती थी , साथ ही उसके जोड़ का वर ढूँढ सकने के लिए चिंतित भी।
गाँव के आख़िरी छोर पर स्थित पुराने मठ के महंत ब्रह्मचारीजी ने करजोरी के आठवीं – नवीं में पहुँचते ही उसकी प्रतिभा को पहचानकर पिता को साफ चेतावनी दे डाली थी –
“कन्या साक्षात् लक्ष्मीस्वरूपाहै। इसका विवाह मुझसे पूछे बिना किसी के साथ मत कर देना , वरना अनिष्ट होगा।”
ब्रह्मचारीजी की भतीजी का लड़का उनके साथ रहकर ही पढ़ाई करता था। वह भी उसी स्कूल का विद्यार्थी था , जिसमें करजोरी पढ़ती थी। बल्कि , दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे। ब्रह्मचारीजी का यह नाती पढ़ने में तो बहुत होशियार था, लेकिन था बहुत ख़ुराफ़ाती। अक्सर गुरुजी की बेंत उसकी पीठ की मालिश किया करती थी। लेकिन इससे उसकी खुराफातों में कोई कमी आती नहीं थी, बल्कि बढ़ती जाती थी। उसका दिमाग़ चलता ही शैतानी कामों के लिए था। तरह – तरह के उत्पातों की योजना बनाता रहता।वह एक ही बार में दस उत्पातों में दिमाग़ लगा सकता था। इसीलिए तो उसे कुछ सहपाठी “दसमुरिया”कहकर चिढ़ाते थे!
मास्टर साहब कक्षा में होते कि यह “दसमुरिया” बीच में ही चिल्ला पड़ता – HMT !कई बार यह पद सुन लेने के बाद मास्टर साहब ने छड़ी से खबर लेते हुए इस HMT! की पुकार का मतलब जानना चाहा, लेकिन उसने मुँह न खोला। बाद को क्लास के मॉनिटर ने स्टाफ़ रूम में जाकर चुपके से मास्टर साहब को बताया – HMT माने वह कहता है – half mind teacher!(अधदिमाग़ी मास्टर )! इस तरह के क़िस्से उसके अनेक थे। अभी उन पर सविस्तार चर्चा करने का अवकाश नहीं।
हम तो बता रहे थे कि उसी ख़ुराफ़ाती दसमुरिया का मन नवीं में पहुँचते – पहुँचते हमारी कथा नायिका करजोरी पर आ गया। हालाँकि दसमुरिया स्वयं इस बात से अनभिज्ञ था। उसे इतना पता था कि करजोरी को देखते ही किसी को चिढ़ाने के लिए लगाई जानेवाली उसकी आवाज़ बंद हो जाती है , कि उसके सामने पिटने से उसे अत्यंत लज्जा आती है , कि करजोरी अगर स्कूल में नहीं दिखाई पड़ती तो फिर वह स्कूल से अचानक छुट्टी कर अनमना घर लौट आता है!
स्कूल के बाद बड़े पिता की प्रतिभाशाली पुत्री करजोरी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर भेज दी गई। उसकी अनुपस्थिति में दसमुरिया को भी नाना का गाँव वीरान लगा और वह अपने पिता के घर चला गया।
(5)
पता नहीं कि हमारी कथा के इस खल चरित्र का असली नाम क्या था ? उसके प्रति जो घृणा थी , उसके कारण करजोरी ने आपबीती बताते समय कभी अपशब्दों के सिवाय उसके लिए किसी नाम का प्रयोग नहीं किया, न मैंने नाम पूछकर कभी उसे कुरेदने की कोशिश की। हाँ ! कुछ शिक्षक उसके दसमुरिया नाम को सुधारकर उसे लंकेश भी कहा करते थे–ऐसा करजोरी ने स्वयं मुझे बताया था। अस्तु, पाठक उसके दसमुरिया नाम की बजाय उसके लंकेश नाम से संतोष कर सकते हैं!
लंकेश के पिता दक्षिण में कहीं के रंगदार नेता और व्यवसायी थे। उनकी रंगदारी का पूरा असर लंकेश में था। वह पढ़ने में होशियार था, इसीलिए बारहवीं के बाद ही उसका चयन किसी विदेशी विश्वविद्यालय में हो गया था। वहाँ से वह जब तक रिसर्च वगैरह पूरा करके एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर देश लौटा , तब तक उसके नित नए अनुसंधानों और उन पर विदेशी शोध पत्रिकाओं में छपते आलेखों के कारण उसके नाम का डंका बजने लगा था। हालाँकि पिता की संपत्ति और कुछ – कुछ रक्त के असर से उसके स्वाभाव की अकड़ अब भी नहीं गई थी। और न ही गई थी उसके मन से करजोरी की स्मृत्ति!
(6)
करजोरी की सौम्य छवि उसके मन पर छपी रह गई थी। इसी छवि को देख लेने की ललक में विदेश से आते ही उसने सबसे पहले नाना के घर की राह ली। अपने स्कूल के दिनों के मित्रों से मिला। उद्दंड स्वभाव के बावजूद करजोरी के बारे में सीधे किसी मित्र से पूछ लेने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। सभी मित्रों की चर्चा में यों ही अनमनापन–सा दिखाते हुए उसने करजोरी की खबर भी पूछी। पता चला कि करजोरी की मँगनी हो चुकी है और जल्द ही विवाह होनेवाला है।
इस शुभ समाचार को सुनकर उसके हृदय की धड़कन एक क्षण को अचानक बंद होकर फिर इतनी तेज़–तेज़ क्यों चली , यह बात नाना विषयों पर तरह–तरह के अनुसंधान कर विदेश से लौटे लंकेश को समझ न आई।न ही उसे भरी दोपहरी में एकाएक अमावस्या का अन्धकार छा जाने का रहस्य समझ में आया।यह अवश्य हुआ कि उस असमय घिर आये अंधकार में किसी तरह घर पहुँचा और मुँह ढँक कर सो रहा।
शाम तक उसे उसी एक अवस्था में पड़े देखकर नानी के मन में आशंका हुई। बुढ़िया ने हिलाया–डुलाया और सशंकित होकर कुशल पूछी, मगर दसमुरिया निश्चेत –सा पड़ा रहा। बाद को चाँदनी रात में जब छत पर यूँ ही लेटा हुआ आकाश ताक रहा था, बड़ी मामी एक लोटे में पानी लिए उसके सिरहाने रखने आई और उसे यूँ एकटक चाँद देखते पाकर उसके पास बैठती हुई बोली –
“कोई चाँद दिख गई है क्या चाँद में ?”
उसने हल्के –से मुस्कुराकर करवट बदल ली ! मामी को बीमार की बीमारी का पता चल गया। तो अब औषधि भी ढूँढ़ने की तरकीब करनी होगी , सोचकर मामी बोली–
“भला है कौन यह चाँद ? ज़रा मैं भी तो सुनूँ ?देश में है कि विदेश में ?”
दसमुरिया – “देश में”
मामी ने बात की गोपनीयता अपने तक सीमित रखने की ग़रज़ से आवाज़ को एकदम मद्धम करते हुए पूछा –
“अच्छा ? कहीं नाना के देश में ही तो नैना नहीं लड़ गए छबीले बबुआ के ? तभी मैं कहूँ कि विलायत से आते एकदम नानी – मामी से मिलने क्यों दौड़ पड़े ? हूँ ?”
लंकेश के अंतस से निकले मंद्र हास ने मामी की बात की तसदीक़ की।
मामी – “ हूँ ! कौन हैं ये महोक्खा देवीजी ?”
फिर दसमुरिया के बचपन की किसी घटना को याद कर खुद ही उत्तर दिया –
“ कहीं जनकधारी सिंह की बेटी करजोरिया तो नहीं ? लेकिन उसकी शादी तो पक्की हो चुकी है बाबू साहब जी ! अब वे अंगूर खट्टे हो चुके हैं , समझे ? मेरी भतीजी मंदिरा तो करजोरिया से भी ज्यादा सुंदर और गुणवंती है। अब तो कहो तो वही अंगूर मंगवाऊँ मामा से कहकर। इससे ज्यादा और क्या हो सकता है ? वैसे भी छतरी –रजपूत की लड़की बर्रहामन के घर में ?”
सरला मामी अपने विदेश से लौटे , अति संपन्न , बड़ी डिग्रीधारी भाँजे को प्रसन्न करने के लिए इससे बड़ा और क्या ऑफर दे सकती थीं ? मगर भाँजे ने प्रसन्न होने की बजाय जब मुँह फेर लिया तो उन्हें चिंता हुई। उसके मुँह को अपनी तरफ़ मोड़ते समय मामी ने लक्ष्य किया कि भाँजे का चेहरा तो आँसुओं से गीला है।मामी के हाथ का स्पर्श पाकर आँसू और विकल हो बहने लगे हैं!
मामी ने भाँजे की हालत मामा से बताई , मामा ने नाना से और नाना ने अपने बड़े ब्रह्मचारी भाई महंत जी से। हालाँकि छोटकी मामी ने जब यह बात सुनी तो विद्रूप से बोली भी – “कल के पानी कल में जाय ! बाभन छौंड़ी बभने के भाय !”
लेकिन नानी ने उसे बुरी तरह फटकार लगाते हुए चुप्प करा दिया। उसके इस व्यंग्य के बाद सबलोगों ने नज़रें झुका ली थीं और बड़े मामा थाली फेंककर आँगन से चले गए थे। विदेश से पढ़कर लौटे महाज्ञानी लंकेश महोदय इस पहेली को समझ न पाने से अचंभित से खड़े रह गए। वे चाहते तो थे कि बड़ी मामी से इस रहस्य के बारे में कुछ पूछें, लेकिन नानी की तेज़ नाराज़गी को याद कर चुप रहने में ही भलाई समझी।
महंत जी तक जब बात पहुँची तो उन्होंने जनकधारी सिंह को बुलवा भेजा। विवाह की तैयारियों के बारे में सामान्य बातचीत करते हुए एकांत में जनकधारी सिंह का हृदय टटोलने की कोशिश की। उनके सामने हल्के इशारे से बात उठाई कि उनका नाती जितने अमीर घराने का है, जितना बड़ा विद्वान् कि करजोरी जैसी अद्वितीय कन्या को उसी तरह का वर मिलना चाहिए। मगर जनकधारी जी ने बुरा–सा मुँह बनाते हुए इस बात की जड़ ही काट दी –
“आपका नाती ? वह ख़ुराफ़ाती दसमुरिया रावण ?कौन –सी शैतानी छूटी है उससे ? अरे वह तो गाँव का नाती था , ब्राह्मण था , वरना कोई दूसरा लड़का होता तो माथा मूंडकर , करिखा मलकर गाँव से निकाल दिया जाता।आज बड़ा नामवाला बनकर आ गया है तो क्या ? लच्छन –स्वभाव भी कहीं छूटता है ? अरे बाप का पैसा था , उड़ाकर देश-विदेश घूम आया । तो उससे क्या हमारी करजोरी के योग्य हो जायेगा ? आजकल कौन –सी डिग्री पैसों पर नहीं मिलती ? हमने तो जो दामाद चुना है उसका स्वाभाव ऐसा है कि लाखों में एक। वह भी बड़े बाप का बेटा है।ठाठ देखिये तो किसी राजा – महाराजा के जैसे।
महंत जी ने अपने अनुगामी जनकधारी सिंह के ये तेवर देखे तो हारे हुए –से मद्धम स्वर में बोले – “ राजा –महाराजा ! कितना भी बड़ा राजा महाराजा हो , जब सास सौतेली है तो अपनी लड़की को दासी ही बनाकर रखेगी।”
जनकधारी ने ब्रह्मचारी जी के पाँव छूकर कहा – “ उसके लिए आप निश्चिंत रहें महाराज जी ! लड़के की माँ ही मालकिन है। और फिर लड़का ही सभी भाइयों में बड़ा है। तो चिंता की क्या बात है?”
महंत जी – “ अरे ब्याहता पत्नी कितनी भी मालकिन रहे , सगही (दूसरी ) पत्नी के आगे मर्द हार जाता है भाई , इसीलिए चिंता होती है।”
जनकधारी ने स्वर में आग्रह भरकर ब्रह्मचारी जी को विश्वास दिलाया – “ सास श्वसुर कुछ रहें , पर लड़का तो अपना हीरा है न महाराजजी ! आप करजोरी को लक्ष्मीस्वरूपा कहते हैं न , दामाद ढूंढकर ऐसा सर्वगुण संपन्न लाया हूँ जैसे कि विष्णु का अवतार। ऐसा कि आप देखेंगे तो नैन जुड़ा जाएँगे ।आप नाती के मोह को त्यागकर देखिएगा तो पाइयेगा कि हमने उसकी शादी उससे सौ गुना अच्छे और संपन्न लड़के से ही तय की है। स्वभाव का तो इतना मीठा कि जो देखे सो लोभा जाए। और सबसे बड़ी बात कि करजोरी को भी पसंद है।”
महंत जी – “ पसंद है मतलब ? लड़का –लड़की मिल चुके हैं क्या पहले ?”
जनकधारी – “ अरे मिले क्या ? मंदिर में एक दूसरे को दिखा दिया गया था। आजकल यह सब तो चलन है। ठीक भी है। लड़का –लड़की एक दूसरे को देख लें तो सही ही है। और महाराज जी ! करजोरी तो मेरी लड़की है न ? तो क्षत्रिय की लड़की क्या ब्राह्मण घर जाती ? ”
महंत जी – “कौन छतरी है और कौन ब्राह्मण , यह क्या तुम नहीं जानते जनकधारी ?”
जनकधारी एक बार झटका –सा खाकर बोले –
“ महाराज जी ! अगले हफ्ते अब उसका ब्याह है। यह सब गड़ा मुर्दा उखाड़कर कोई फायदा है?
जनकधारी ने महंतजी को निश्चिन्त रहने के लिए आश्वस्त करते हुए पुनः चरण स्पर्श कर विदा ली – “ अब आज्ञा दीजिये महाराज ! शादी –ब्याह के घर में सौ काम होते हैं। आशीर्वाद देने अवश्य पधारियेगा।”
जनकधारी सिंह महंतजी की चिंता को समझते हैं। अपने कुल की शरणागत, किसी दूर के रिश्ते की पथ भ्रमित कन्या को प्राप्त इस वरदान को जब बरसों पहले मुँह अँधेरी सुबह में महंतजी ने जनकधारी को सौंपा था , तब थरथराती आवाज़ में बस इतना ही कह पाए थे – “इसे अपनी बेटी समझना”
जनकधारी सिंह तो अब लगभग इस बात को भूल भी चुके थे कि करजोरी उनकी अपनी कन्या नहीं है!
(7)
करजोरी ब्याहकर ससुराल आ गई। यहाँ महंत जी की आशंका सच निकली। करजोरी की सौतेली सास के आगे उसकी अपनी सास की एक न चलती थी। सास की ही क्यों , किसी की नहीं चलती थी। करजोरी के श्वसुर तो उसके आगे भीगी बिल्ली बने रहते थे। और करजोरी के पति अवधबिहारी सिंह ? वे तो सौतेली माँ से इतना डरते थे कि वह न चाहे तो भूखे रह जाते मगर सौतेली माँ की मर्ज़ी भांपे बिना खाना तक नहीं माँग सकते थे। असल में अवध बिहारी को अपने पिता की दयनीय स्थिति का अहसास था। अपनी किसी हरकत से वे पिता के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करना चाहते थे। ऐसे में करजोरी की स्थिति भी घर में कमज़ोर ही रही। बड़े पिता की इकलौती कन्या करजोरी को यहाँ अपनी हर ज़रूरत के लिए सौतेली सास का मुँहतक्का होकर रहना पड़ रहा था। वह स्वभाव से सहनशील थी ,लेकिन सहनशीलता की भी एक सीमा होती है। जब यह सीमा पार हो जाती, तब वह अवधबिहारी के सामने इतना भर ही कह पाती –
“आप तो पिता की संपत्ति का मोह त्यागकर अपने बूते कोई काम करें। मैं आपके साथ सूखी रोटी खाकर भी प्रसन्न रह लूँगी।तानों में सनी चुपड़ी रोटी से तो वह लाख दर्ज़े अच्छी होगी। वैसे भी छोटी माँ हमें संपत्ति में कोई हिस्सा लेने नहीं देंगी –बता देती हूँ। उनको हमसे चिढ़ ही इसलिए है कि हम उनके बेटे के हिस्सेदार हैं। पिताजी से इसी बात पर झगड़ा किया करती हैं कि वे सब कुछ उनके बेटे के नाम पर लिख दें।”
सचमुच ही एक दिन इस बात पर ज़ोरदार झगड़ा हुआ। अवधबिहारी की विमाता ने अपनी ज़िद में खाना–पीना त्यागकर अपने को कमरे में बंद कर लिया। अवधबिहारी का धैर्य भी अब चुक गया था। उसने पिता से कभी ऊँची आवाज़ में बात न की थी , लेकिन उस दिन कह बैठा –
“आप छोटी माँ की बात ही मानिये , मेरी चिंता न करिये। आपने जो शिक्षा दिलाई है , उसके बल पर अपना पेट तो पाल ही सकता हूँ।”
यह कहते हुए वह तीर की तरह घर से निकल पड़े। उन्हें बाहर जाते देखकर करजोरी भी पीछे लपकी। अवधबिहारी ने उसे लाख मना किया कि पहले वह अपने रहने की कोई जुगत कर ले , पीछे उसे ले जायेगा –मगर करजोरी नहीं मानी। उन के साथ ही चल दी। न कोई सामान , न कोई ठिकाना ! कहाँ जाना है , यह सब तय किये बिना दोनों आवेश में निकल पड़े।
(8)
नासिक में अवधबिहारी के एक सहपाठी रहते थे– पवन। उन्हीं के यहाँ पहुँचकर उन्होंने काम की तलाश शुरू की।उस समय पहली प्राथमिकता आजीविका की थी , इसीलिए जो काम मिल गया , उसी में कुशल जानकर पकड़ लिया। जेब में जितने रूपये घर से चलते समय पड़े थे , उन्हीं से मित्र की मदद से अपने लिए एक झोंपड़ीनुमा मकान देखा और अपनी गृहस्थी बसा ली। मज़े की बात यह थी कि करजोरी इस अल्प सुविधा वाले घर में ससुराल के महलनुमा मकान से अधिक प्रसन्न रहती थी। इस घर की वह मालकिन थी। और उससे बढ़कर अवधबिहारी काम से लौटने के बाद पूरी तरह उसके थे। वह नासिक आने के बाद चहकने लगी थी। उसका रूप भी निखर आया था।
एक दिन की बात है। अवधबिहारी सुबह उठे तो उन्होंने देखा कि करजोरी रसोई में प्याज काटते हुए अपने आँसू पोंछ रही है। आँसू चाहे कटे प्याज के कारण निकल रहे हों , लेकिन यह दृश्य देखकर उन्हें अपने ऊपर ग्लानि भी हुई और क्रोध भी आया। इस बड़े घर की बेटी को कोई सुख न दे सके , उल्टा उनकी वजह से वह दुःख उठा रही है। इस वजह से दिन भर उनकी तबीयत कुछ उचटी –सी रही। काम से जल्दी लौट आये। लौटने पर उन्हें अपनी कोठरी से हँसने की आवाज़ सुनाई दी। अंदर जाने पर देखते क्या हैं कि करजोरी अपने मायके के उसी व्यक्ति से बातें कर रही है , जो उन्हें एक दिन बाजार में मिला था। उस दिन वह सपत्नीक था। बाजार में करजोरी को देखकर वह कितना प्रसन्न हो गया था? पत्नी से परिचित कराते हुए उसने कहा था – “ यही है करजोरी”
जैसे पहले भी पति – पत्नी के बीच करजोरी की चर्चा होती रही हो!
पता चला कि वह करजोरी का उत्पाती सहपाठी था।उनके अत्यंत ख़ुराफ़ाती स्वभाव के कारण सभी उन्हें दसमुरिया लंकेश कहते थे – करजोरी ने बताया तो सभी ठठाकर हँस पड़े थे। फिर लंकेश ने ज़रा झेंपते हुए कहा था – “बचपन की बातें थीं। अब तो सुधरकर पक्का गृहस्थ बन गया हूँ। बचपन में हुई नादानियों के लिए अब तो माफ़ी मिल जानी चाहिए कि नहीं ? और माफ़ी की तस्दीक तब होगी , जब तुमलोग सभी मेरे घर आओगे।”
लंकेश सपरिवार नासिक में ही रहता था। उसके पिता का यहाँ पहले ही काफ़ी फैला कारोबार था।अब जब वह विदेश से नए ज्ञान-अनुसंधान ले आया , तो उसके बल पर और नए व्यापार खड़े कर लिए। आज वह देश का सुप्रतिष्ठित कारोबारी बन चुका था। उसके व्यवहार में भी बदलाव आ गया था। उसके बदले व्यवहार से करजोरी को लगा कि सचमुच उसकी पहले की गईं ख़ुराफ़ातें सब बचपने की बातें थीं। अब लंकेश सद्गृहस्थ हो गया है।
करजोरी को यह न मालूम था कि महंत जी ने कभी लंकेश का मन पहचानकर उसके और लंकेश के परिणय की बात भी चलायी थी !
एक दिन उनके विशेष आग्रह पर करजोरी और अवधबिहारी उनके घर गए। उनकी सुखी गृहस्थी देखकर करजोरी के मन में एक कसक उठी।मंदिरा कितनी सुखी है। वैभव उसके क़दम चूमता है। सास तलहथियों पर रखती है। साम्राज्ञी है वह अपने परिवार की ! एक वह है , पति के लिए सब त्यागकर आई , उसी पति को उसकी कोई चिंता नहीं…
(9)
आज वही महाशय घर पधारे हुए थे– अकेले। उन्हीं की किसी बात पर करजोरी हँस रही है। वैसे तो अवधबिहारी को अभावों में भी प्रसन्न रहने के करज़ोरी के इस गुण पर प्रसन्न होना चाहिए था , मगर जाने क्यों उनका चेहरा उतर आया। उन्हें आजकल करजोरी के हरदम प्रसन्न रहने का भी इस तरह ध्यान आया जैसे कोई रहस्य मालूम पड़ गया हो। करजोरी ने जो उनका उतरा मुँह देखा तो उसे बात थोड़ी समझ में आयी। उसने चेहरा गंभीर बना लिया। इससे अवधबिहारी के आगे रहस्य जैसे थोड़ा और खुला।
उस रात पति –पत्नी में कोई बात न हुई। स्त्री सोचती थी , मैं इनको पाकर झोंपड़ी को महल समझे बैठी हूँ , लेकिन इन्हें मेरा विश्वास नहीं। पुरुष सोचता था कि झूठ–मूठ प्रेम का बहाना लेकर मेरे पीछे चली आई। वास्तविकता यह है कि इसे स्वच्छंदता प्रिय है। उस दिन अवधबिहारी के मन में पड़ा यह संदेह का बीज फिर कभी न मुरझाया। बल्कि अभाव के गोबर रूपी खाद से बीच–बीच में और अंकुरित ही होता रहा। करजोरी जितना ही उनसे प्रेम की आकांक्षा दिखाती , वे उसे नाटक समझकर उसकी अवहेलना ही करते जाते।
(10 )
एक तो अभावों से आहत , ऊपर से पति का उखड़ा व्यवहार। करजोरी का मन व्यथित हो आता। लेकिन फिर भी उसने सोच लिया कि वह आगे अब मंदिरा या उसके पति से कभी नहीं मिलेगी। अपनी तरफ से उसने अपना संकल्प निभाया भी , लेकिन न जाने यह संयोग था या और कुछ कि वह जब भी कभी किसी काम से बाहर निकलती , उसे लंकेश मिल ही जाता। वह कन्नी काटकर निकलने की भी कोशिश करती तो वह जैसे रास्ता रोककर बातें करने लगता। अब तो वह उसकी अभावग्रस्त ज़िन्दगी पर भी कुछ कहने का साहस करने लगा था।वह यह तक कहने का साहस करने लगा था कि करजोरी को इस अवस्था में वह देख नहीं सकता।
इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए करजोरी ने अब लगभग घर से निकलना ही बंद कर दिया था। एकाध बार अपने कमरे की खिड़की से उसने लंकेश को अपने घर के आस–पास दो–तीन बार चक्कर–सा लगाते भी देखा , लेकिन यह बात उसने पति को बताई नहीं। व्यर्थ शंका बढ़ाकर क्लेश को न्यौता देने में क्या लाभ ?
अवधबिहारी लगातार नौकरियों के लिए आवेदन दे रहे थे , लेकिन अब तक उन्हें अपनी प्रतिभा और योग्यता के अनुरूप कोई अच्छी जगह मिली नहीं थी। जिस जगह अभी काम कर रहे थे , वहाँ की तनख्वाह से गृहस्थी के ख़र्चे पूरे नहीं पड़ते थे। कभी– कभी तो महीने का अंत आते –आते फ़ाकाकशी की नौबत आ जाती थी। करजोरी पति को खिलाकर भेज देती और एकाध शाम ख़ुद भूखी ही रह जाती।
एक दिन तो ऐसा भी आया कि घर में शाम का खाना बनाने के लिए कुछ भी न था। करजोरी हारकर पास की दुकान से उधार लेने गई। इतने दिनों में दुकानदार से थोड़ा परिचय हो गया था। फिर भी उसे बहुत संकोच हो रहा था।जिस समय वह उधार ले रही थी , उसी समय लंकेश वहाँ आ पहुँचा। वह जैसे करजोरी के बाहर निकलने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। उसे देखते ही करजोरी ग्लानि से भर उठी और बिना कुछ लिए ही वापस आ गई। थोड़ी ही देर बाद लंकेश भी पहुँच गया और दरवाज़ा खोलने की मिन्नतें करने लगा। शोर से अगल–बगल के लोगों के बीच कोई तमाशा न बन जाए , यह सोचकर करजोरी ने दरवाज़ा खोल दिया। लंकेश के हाथ में घर के ज़रूरत की बहुत सारी चीज़ें थीं, उन्हें वहीं पास पड़े टेबल पर रखते हुए उसने करजोरी से कहा – “मुझे देखते ही भाग क्यों आईं?”
करजोरी ने तल्ख़ी से साफ जवाब दिया – “ इन्हें अच्छा नहीं लगता कि मैं सबसे बोलती फिरूँ।”
लंकेश – “ सबमें और मुझमें अंतर नहीं है ? मैं तुम्हारे मायके का हूँ , तुम्हारा सहपाठी हूँ। तुम्हारे दुःख –सुख से मेरा वास्ता है।”
करजोरी – “ नहीं, मेरे दुःख–सुख से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं है। और यह जो दया का सामान ले आये हो , उसे उठा ले जाओ। हमें तुम्हारी दया की कोई आवश्यकता नहीं। सहायता ही लेनी होगी तो अपने पिता से नहीं ले लूँगी ?”
लंकेश – “ वही तो मैं पूछता हूँ कि इतनी तकलीफें उठाने की क्या ज़रूरत है ? जब तक सब सही नहीं हो जाता है तब तक तुम्हारे पिताजी से सहायता लेने में क्या हर्ज़ है ? वे कोई पराये तो नहीं ?”
करजोरी – “ आपके सुझाव के लिए धन्यवाद !मुझे क्या करना है , क्या नहीं , मैं खुद सोच सकती हूँ। अब उठाइये अपनी भीख और लीजिये अपना रास्ता !”
लंकेश – “ भीख ? क्या क़ायदे से बात करना भी भूल चुकी हो ? तुम्हारी तल्ख़ी बताती है कि तुम कितनी परेशान हो।ज़िद छोड़ो , और चलो मेरे साथ। तुम्हें तुम्हारे मायके छोड़ आऊँ। जब अवध जी की कोई अच्छी नौकरी हो जाये और वे तुम्हारे रहने लायक़ सब प्रबंध कर लें , तब लौट आना।”
करजोरी – “ मैं विपत्ति में पिता के घर हरगिज़ न जाऊँगी। जब सब ठीक हो जाएगा , तभी जाऊँगी। और अभी ही कौन–सी तकलीफ है ? दुनिया में धन तो कम– ज्यादा होता ही रहता है। उसे दुःख नहीं कहते।”
लंकेश – “ जब इसे सुख ही कहते हैं तो फिर तो तुम्हारे सिद्धांत से भी देखें तो सुख में पिता के घर जाने में कोई हर्ज़ की बात नहीं है। तो चलो। हम और मंदिरा कल निकल ही रहे हैं नानी को देखने , तो तुम्हें साथ लेते चलेंगे। कहो तो अवध जी से बात करूँ ?”
करजोरी ने बिगड़कर कहा – “ उनसे कुछ कहने की कोई ज़रूरत नहीं। मैं अभी कहीं न जाऊँगी। अब जाओ यहाँ से , और यह सारा सामान भी उठाते जाओ।”
लंकेश ने बड़ी बेबसी के भाव से करजोरी को देखकर जवाब दिया – “ऐसा क्या बिगाड़ा है मैंने कि धकिया रही हो ? जा रहा हूँ।”
करजोरी ने सामान उठाते हुए कहा – “ सामान तो लेते जाओ”
लंकेश ने अपने पीछे धड़ाम से दरवाज़ा बंद करते हुए कहा – “ फेंक दो” और अपनी लम्बी गाड़ी स्टार्ट कर दी।
उधर से असमय ही अवधबिहारी आ रहा था !
उसने टेबल पर रखा ढेर सारा सामान देखा।अनमने –अनजाने से एक बिस्किट का डब्बा उठाकर उसे देखता रहा ,फिर चुपचाप उसे टेबल पर रखकर घर से बाहर निकल गया।पूरा दिन बीत गया , आधी रात बीत गई , अवधबिहारी न लौटा। करजोरी आशंकाओं में डूबती– उतराती बैठी थी। सुबह से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी न गया था। इसी हालत में जाने कब उसकी आँख लग गई कि दरवाजे पर हुई आहट से उसकी नींद खुली। अवधबिहारी के सिवाय इस समय और कौन हो सकता है ? फिर भी उसने सुरक्षा के लिहाज़ से पूछा –
“ कौन?”
उधर से अवधबिहारी का व्यंग्यबाण छूटा – “ इस समय मेरे अलावा तो और कोई नहीं !”
और अंदर आकर बिना कुछ बोले मुँह लपेटकर पड़ रहा।
व्यंग्य बाण से घायल करजोरी ने एक बार फिर प्रेम की ढीली डोर को कसने की कोशिश की – “ दोपहर से कहाँ रहे ? कुछ खाया तो होगा नहीं ? रोटी बना दूँ ?”
अवधबिहारी ने विद्रूप से किंचित हँसकर कहा – “ मेरे भी कुछ मित्र हैं मालगोवा परोसनेवाले, वहीँ से छककर आ रहा हूँ। आप को फ़िक्र का दिखावा करने की ज़रूरत नहीं।”
दिखावा ? करज़ोरी दिखावा कर रही है ?इस आदमी के साथ रण –वन में भटक रही, वह दिखावा है ? अपने सुखों का त्यागकर इसके प्रेम में मगन रही है – वह दिखावा है ? सुबह से अगर यह भूखा है , तो मैंने कौन से छप्पन भोग उड़ा लिए हैं, जो ताने दे रहा है ? मुझे ताने दे रहा है मित्र का ? यही क़द्र है मेरे प्रेम और त्याग की ? मंदिरा बुलाने आये तो उसके साथ सचमुच कल पिता के घर चली जाऊँ। इन्हें तो ऐसे भी कलंक लगाना है, वैसे भी।
सोचते–सोचते उसे नींद आ गई। अवधबिहारी पहले तो क्रुद्ध हुआ , लेकिन फिर सोती हुई उसकी उदास सूरत देखकर उसे करजोरी पर दया आ गई और अपने पर ही क्रोध आ गया। बेचारी उसकी वजह से ही तो इतनी तकलीफें उठा रही है ? लगता है , यह भी भूखी ही सो गई है। भूखी ही सोई होगी। बिना उसको खिलाये वह खाती कब है ?
अवधबिहारी सोचकर तो यह लौटे थे कि लौटकर दोपहर के व्यवहार के लिए क्षमा मांग लेंगे और कहाँ फिर से ज़हर उगल बैठे। क्या हो जाता है उन्हें ?
यही सब सोचते –सोचते उन्हें भी नींद आ गई।
सुबह तड़के उठकर वह पवन के घर की ओर चले ताकि उससे कुछ आर्थिक मदद लेकर गृहस्थी का थोड़ा सामान ले आएँ। पवन ने मदद भी की और चाय पिलाने के बाद अपनी गाड़ी में घर तक छोड़ने भी आ गया। घर में ताला पड़ा था।अवधबिहारी को लगा कि उन्हें घर में न पाकर करजोरी उन्हें ढूँढ़ने आसपास कहीं गई होगी। इसीलिए वे कहीं और न जाकर कल की घटना की भरपाई करने की इच्छा से स्वयं रसोई बनाने बैठ गए। सोचा , जब करजोरी आएगी तब उसे मनाकर खिलाएँगे। मगर दस बजे तक भी जब करजोरी न लौटी, तब उन्हें चिंता हुई। वे उसे ढूँढ़ने निकले। आसपास के किसी घर में उसका कोई पता न मिला। शाम हो आई। न करजोरी लौटी , न उसका कोई पता ही चला। अवधबिहारी के मन में एक हल्की आशंका हुई – “कहीं लंकेश के घर तो नहीं गई ?”
मन गवाही तो नहीं दे रहा था , लेकिन फिर भी झुँझलाहट हुई – “ जाने दो! जब असली सोने की परख किये बिना किसी का मन गिलट ही देखकर ललचाये तो कोई रोक सकता है क्या?”
फिर अगले ही क्षण इस विचार को खुद ही असंभव समझकर अन्य तरह की आशंकाएं सर उठाने लगीं। बहुत सोच –विचार के बाद फिर पवन के पास जाकर सारी बात सुनाई। पवन को यह भी बताया कि करजोरी का एक सहपाठी इसी शहर में रहता है। हो न हो , वहीं गई हों।
पवन ने कहा – “हो न हो क्या ? वहीँ गई होंगी। दुखी स्त्री को मायके के भाई – बंधु ही पहले याद आते हैं। तुम्हें तो सबसे पहले वहीँ देखना चाहिए था।”
और फिर गाड़ी निकालकर दोनों लंकेश के घर की ओर चले। लेकिन वहाँ न लंकेश था , न करजोरी। मंदिरा ने बताया कि लंकेश अपने ननिहाल गए हैं। वह भी जानेवाली थी साथ में , लेकिन माताजी की तबीयत अचानक खराब हो जाने के कारण उसे यहीं रुक जाना पड़ा है।
जाने क्यों अवधबिहारी के मन में बात आई कि करजोरी भी लंकेश के साथ अपने पिता के घर चली गई है , लेकिन इस बात को उसने खुद ही अपने तर्कों से काटा – “ अगर पिता के घर जाना होता तो यूँ चुपचाप न जाती। चुपचाप जाती भी तो लंकेश के साथ तो हरगिज़ न जाती। जिसने इतनी तकलीफों को सहकर भी लोकापवाद के डर से पिता के घर जाना मंजूर न किया , वह किसी और के साथ पिता के घर जाकर उनको असमंजस में डाल सकती है क्या ? न ! ऐसा नहीं हो सकता। तो क्या करजोरी दुखों से ऊबकर लंकेश के साथ कहीं और…? न , ऐसा वह नहीं कर सकती है। पति के प्रति उसकी निष्ठा ही उसके अभावों का कारण है , फिर उस निष्ठा को वह छोड़ दे –यह संभव नहीं है। तो क्या वह किसी आफत में पड़ गई है ?”
यह सोचते–सोचते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। पवन ने उन्हें ढाढ़स बँधाया और अपने घर चलने के लिए राज़ी कर लिया। अगले रोज़ वे करजोरी को ढूँढ़ने उसके मायके जायेंगे। अगर वहाँ न मिलीं , तब पुलिस में रिपोर्ट लिखाएँगे – यह तय हुआ।
अगली सुबह करजोरी के मायके के लिए निकलने से पहले दोनों ने सोचा कि क्यों न एक बार उसके डेरे की तरफ से होता चले , क्या पता कि वह लौट आई हों ? घर में तो ताला पड़ा था, लेकिन पास ही रहनेवाले गरुड़ध्वज से उनकी भेंट हो गई। उसी ने बताया कि कल सुबह उसने करजोरी को लंकेश की गाड़ी में बैठते देखा था।
अवधबिहारी और पवन दोनों चुपचाप गाड़ी में बैठकर निकल लिए। करजोरी अपने पिता के घर पर भी न मिली। वहाँ से लौटते समय अवधबिहारी जाने करजोरी के प्रेम में या कि उसके बिना बताये किसी के साथ चले जाने की ग्लानि और क्षोभ में फफककर रोने लगे। किसी तरह पवन ने उन्हें चुप कराया और करजोरी को तलाश करने का बीड़ा उठाया।
(11)
उस दिन सुबह जब खिन्न मन से करजोरी मंदिरा के पास जाने के लिए निकली थी तो बाहर ही उसे लंकेश मिल गया था। वह अकेला था। उसने करजोरी को मायके जाने के लिए मनाकर बताया कि वे मंदिरा को साथ लेकर फिर उधर ही से ननिहाल के लिए निकलेंगे। रात की कड़वाहट के आवेश में करजोरी उनकी गाड़ी में बैठकर मायके चलने को तैयार हो तो गई थी , लेकिन रास्ते में उसने पाया कि गाड़ी लंकेश के घर की ओर न जाकर किसी और दिशा में जा रही है। पूछने पर पहले तो लंकेश ने कुछ बहाने बनाये , लेकिन जब गाड़ी बिलकुल सुनसान हाई वे पर दौड़ने लगी, तब करजोरी को लंकेश की दुष्टता का विश्वास हो गया। पहले तो उसने लंकेश को समझाने की बहुत कोशिशें कीं, लेकिन उसने गाड़ी रोकी नहीं। उल्टा वह करजोरी को ही समझाने की कोशिश करने लगा – “क्यों दरिद्र अवध के साथ अपना जीवन बर्बाद कर रही हो ?
करजोरी ने क्रोध से पूछा– “मतलब तुम मुझे अगवा करके ले जा रहे हो ?”
लंकेश ने भारी स्वर में कहा – “ नहीं ! तुम्हारे प्रेम में पड़कर तुम्हें मुसीबत से निकालकर ले जा रहा हूँ।”
करजोरी – “प्रेम में ? प्रेम का मतलब यह होता है कि मुझसे धोखा करो ? मुझे किसी के सामने मुँह दिखाने के लायक़ न छोड़ो ? अगर ज़रा भी इंसानियत है तुममें तो मुझे वापस मेरे घर छोड़ दो। या गाड़ी रोको , मैं ख़ुद चली जाऊँगी।”
लंकेश – “ज़िद न करो।मैं तुम्हें कलंकित करने नहीं , तुम्हारे साथ विवाह करके तुम्हें सम्मान और सुख का जीवन देने लाया हूँ। यह दुनिया सम्पन्नों के हर दोष को भुला देती है । संसार की नज़रों में संपन्नता सबसे बड़ा गुण है और दरिद्रता सबसे बड़ा दोष ।”
करजोरी क्रोध में भरकर बोली – “ अपनी नीच सोच को दुनिया की सोच क्यों बताते हो ?तुम नीच हो , यह तो मुझे अंदाज़ा था , लेकिन इतनी नीचता पर उतर आओगे–यह कल्पना मैंने नहीं की थी । किसी स्त्री को उसकी मर्ज़ी के बग़ैर अगवा कर लाना ? छिः ! तुम राक्षस हो राक्षस ! मंदिरा जैसी देवी स्त्री के संसर्ग से भी तुम ज़रा नहीं बदले। मंदिरा को जब तुम्हारी इस हरक़त का पता चलेगा तो उसे क्या जवाब दोगे ?”
लंकेश – “ मंदिरा इतनी मूर्ख नहीं है। वह जानती है कि मेरे साथ में ही दुनिया में उसका मान है। इसीलिए मन मारकर वह मेरा निर्णय स्वीकार करेगी। थोड़ा अंदाज़ा तो उसे हो भी गया होगा।”
करजोरी – “ मंदिरा की मैं नहीं जानती , मगर इतना ज़रूर जानती हूँ कि मेरे पति तुम्हें छोड़ेंगे नहीं। तुम मुझे चाहे सात समंदर पार भी बंद करके रखोगे , तब भी वे मुझे ढूँढ लेंगे। फिर देखना तुम्हारी क्या गत बनाते हैं।”
लंकेश ने ज़ोर का ठहाका लगाते हुए कहा – “ जो एक स्त्री को सुखी न रख सके , वे नपुंसक क्या खाकर मुझे मारेंगे ?”
करजोरी ने फुफकारते हुए कहा – “ तुम्हें अपनी मौत प्यारी है, लगता है। अभी भी कहती हूँ, गाड़ी रोको। मुझे जाने दो। वरना कुत्ते की मौत मारे जाओगे।”
कहते हुए उसने गाड़ी की स्टीयरिंग पकड़ने की चेष्टा की , लेकिन लंकेश ने अपने एक हाथ में उसका गला दबोचते हुए दूसरे हाथ से गाड़ी चलाना जारी रखा। करजोरी सहायता के लिए चिल्लाई, लेकिन उस सुनसान सड़क पर किसी ने उसकी आवाज़ न सुनी। वह गला दबाये जाने से , या आगत की आशंका से बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तब उसने स्वयं को एक किसी निर्जन टापू जैसी जगह पर क़ैद पाया। एकाध दासियाँ जो करजोरी को खाना देने आती थीं , उनके सिवाय यहाँ कोई आता न था। एकाध बार दसमुरिया ज़रूर आया करजोरी से मिलने। आँखों में मिन्नत ,क्षमा प्रार्थना , प्रेम याचना के साथ स्वामित्व का मिला–जुला भाव लिए। उसकी आहट से भी करजोरी के मन में गहरी घृणा भर जाती थी। होश में आने के बाद उसने लंकेश की तरफ कभी देखा भी नहीं।
(12)
रो – धो चुकने के बाद अवध बिहारी को करजोरी की तलाश करने का ध्यान आया। यह तलाश करजोरी के प्रेम के कारण था या कि पौरुष को लगी ठेस के कारण,करजोरी से या लंकेश से बदला लेने के कारण था – कहा नहीं जा सकता। उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की।
लंकेश को अपने यश , प्रतिष्ठा , पैसों से ख़रीदे पुलिसवालों और राजनीतिज्ञों पर बड़ा ग़रूर था। उसने सपने में भी न सोचा था कि उसका कदाचार , अवधबिहारी की नैतिक लड़ाई के आगे हार जायेगा। उसने पूरा ज़ोर लगा लिया , लेकिन उसकी एक न चली। करजोरी को जबरदस्ती उठाये जाने की ख़बर जनता के बीच फ़ैल चुकी थी। शासन –प्रशासन में जनता का क्षोभ सहने की ताब न थी। उन्हें अवधबिहारी के पक्ष में आना ही पड़ा। उन्होंने रात–दिन एक करके करजोरी का पता लगा लिया।
पुलिस ने चारों तरफ से उस घर को घेर लिया, जिसमें करजोरी को क़ैद रखा गया था। लंकेश को सरेंडर करने की हिदायत दी गई। प्रेम में बार – बार ठुकरा दिए जाने के बावजूद अभागे को प्राण रहते यह गवारा न था कि करजोरी को अवधबिहारी के पास लौट जाने दे। उसके लिए यह असह्य था। अपनी मौत सामने देखकर भी जाने किस जुनून या ज़िद में वह पुलिस पर ही गोलियाँ दागने लगा और एनकाउंटर में ढेर कर दिया गया।
करजोरी दौड़ती हुई आकर अवधबिहारी से लिपटकर फूट –फूटकर रो पड़ी। अवधबिहारी सुन्न जैसे खड़े रहे। प्रिया के हरण का बदला लेने के लिए ज़मीन आसमान एक कर देनेवाले अवधबिहारी उसे देखकर काठ हो गए। बदला पुरुषार्थ था। जिसके लिए बदला लिया उसे अपनाने में उनका यही पुरुषत्व का अहं चट्टान बनकर खड़ा हो गया।
करजोरी की ओर देखते तो उन्हें लंकेश का चेहरा दिखता। करजोरी को देखकर प्रेम की नदी उमड़ती और फिर उसमें लंकेश का चेहरा दिखाई पड़ते ही घृणा से भरकर मुँह फेर लेते।अवधबिहारी विक्षिप्त से हो उठे थे।
इस बीच अवधबिहारी के पिता गुज़र चुके थे। विधवा माताओं में सुलह हो चुकी थी।माताओं ने सारा हाल सुना और आग्रह करके दोनों को वापस घर बुला लिया।
जिस समय करजोरी लंकेश के साथ घर से निकली थी , वह गर्भवती थी।उसने जल्दी ही डॉक्टर से मिलने का सोचा था। यह भी सोचा था कि डॉक्टर से मिलने के बाद जब पूरी तरह पक्का हो जायेगा , तभी यह ख़ुशखबरी अवधबिहारी को देगी। अब सास के पास पहुँचने पर उन्हें सारी बात बताई। सास बहुत ख़ुश हुईं। लेकिन अवधबिहारी के मन में संदेह का जो विषबेल पनप रहा था , वह उसे खुश नहीं होने देता था। पति ही क्यों , उसके गर्भ को लेकर ससुराल के कुछ और लोग भी कानाफूसी करते थे। करजोरी सबके सामने हँसती थी , अकेले में पति की अवहेलना पर आँसू बहाया करती थी।
अपमान से आहत करजोरी के पिता जब उससे मिलने आये तो वह उनके साथ हो ली। मायके में ही इस बच्चे का जन्म हुआ है। तब से वह पिता और चाचा के साथ ही रहती आ रही है।
और तुम्हारे पति ?
“एक दिन अपने अंदर–ही–अंदर संदेह की आग में जलते हुए , विक्षिप्तता में उन्होंने नदी में छलाँग लगा दी।उन्हें मेरे प्रेम का विश्वास न रहा था। मर तो शायद वे तभी गए होंगे , जब मेरे जाने की बात सुनी होगी। केवल उस अपमान का बदला लेने के लिए उनकी देह जीवित रही होगी ”
आँसू पोंछते हुए करजोरी ने बताया।
करजोरी की इस पूरी व्यथा–कथा को सुनकर मुझे दुख तो बहुत हुआ मगर इतना –सा संतोष भी है कि आधुनिक युग में सीताएँ आत्मनिर्भर बनकर खड़ी हो रही हैं। कम –से –कम इतनी तो नहीं हारीं कि धरती में समाकर दूसरों की गलतियों की सजा स्वयं को दें ।