पुस्तक: ‘ओवर द टॉप: OTT का मायाजाल’ लेखक: अनंत विजय प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन
जरूरी नहीं है कि जो अच्छा हो, वह सच्चा भी हो। स्वतंत्रता एक बहुत अच्छी चीज़ है मगर हर किसी से स्वतंत्रता के समझ की अपेक्षा करना कुछ ज़्यादा की अपेक्षा करना है। समाज में हर प्रकार के व्यक्ति हैं, हर प्रकार की सोच है। हर समाज में लोगों को संचालित करने के विधि विधान भी भिन्न-भिन्न हैं, मगर वे अपरिहार्य भी होते हैं। यह एक सुंदर कल्पना ही मात्र हो सकती है कि जब कोई समाज व्यक्तियों के समूहों से बिना किसी नियम के सुव्यस्थित और सुसंगठित रहने की उम्मीद करता हो।
भारतीय समाज सदियों से चली आ रही खास व्यवस्था और प्रणाली का प्रतीक है। इसके मूल में ‘अनेकता में एकता’ का दर्शन समाविष्ट है। भारतीय समाज अलग-अलग काल-खण्ड में अलग-अलग मूल्यों पर जीता चला आ रहा है। ऐसे में बहुत से मूल्य ऐसे भी समाज में निर्मित हो जाते हैं जिन्हें दो अलग-अलग ध्रुवों से देखने पर दो अलग-अलग मानदंड प्रकट होकर सामने आते हैं। पर भारत के समाज को देखने का नज़रिया भारत की दृष्टि से ही आ सकता है, कोई अन्य दृष्टि भारतीय समाज के साथ केवल अन्याय ही कर सकती है।
भारतीय समाज के मुद्दों और मसलों को जब सिनेमा के पृष्ठ पर उकेरने का प्रश्न आता है, तो हिंदी सिनेमा का ख़्याल अनायास ही जेहन में उतर आता है। विदित है कि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो संभवतः सामान्य जन-मानस पर सबसे प्रबल प्रभाव छोड़ता है। सिनेमा के ज़रिए वे बातें भी बहुत बार लोगों तक पहुंचा जाती हैं जिनके बारे में शिक्षा जैसे सशक्त माध्यम से भी पहुंचना एक दुरुह कार्य-सा होता है।
भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बीच का द्वंद का होना एक ऐसी सच्चाई है जो हर काल-खण्ड में प्रकट होती है। भारतीय शैली और भारतीय समाज की समरसता को एक खास तरीके से हिंदी सिनेमा के माध्यम से परोसने की जो कवायद विजातीय विचारधाराओं से प्रभावित लोगों द्वारा की गई और जिसके कारण भाषा से लेकर विचार तक पश्चिमी धारा के अधीन हो गया, को अमूमन न तो कभी समझा गया है, और न ही कभी निष्पक्ष रूप से विश्लेषित किया गया है।
वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘ओवर द टॉप: OTT का मायाजाल’ इस परिप्रेक्ष्य से एक बेहतरीन पुस्तक है जो अपनी भूमिका से ही पुराने ज़माने से चले आ रहे जंजाल की पोल खोलकर सबसे सामने रख देती है। इस जाल को निर्मित करने में कैसे उस दौर की सरकार भी सहयोग करती है और कैसे उस जंजाल से किसी के लिए भी बाहर निकल पाना मुश्किल होता है, को बड़ी बारीकी और स्पष्टता के साथ उल्लिखित किया गया है। OTT प्लेटफार्म पर नियमों की अनदेखी कई कोर्ट केसेज के ज़रिए समझने और समझाने की भी एक सफल कोशिश की गई है।
यह पुस्तक आज के युवा वर्ग के लिए एक ज़रूरी दस्तावेज़ के रूप में परोसी हुई प्रतीत होती है क्योंकि इस पुस्तक के पृष्ठों को पलटते-पलटते सिर्फ़ यही नहीं पता लगता है कि हिंदी सिनेमा को किसी विचार धारा के अधीन किया गया, बल्कि यह भी पता लगता है आज के समय में उस विचार से प्रभावित होकर जिस प्रकार की वेब सीरीज या फ़िल्में या सिनेमेटिक कंटेंट्स OTT पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं, उनके पीछे क्या मंशा है और कैसी साज़िश छुपी हुई है।
यह पुस्तक सिनेमा में परोसी जा रही नग्नता, कामुकता, काल्पनिक नैरेटिव, यौनिकता के साथ OTT की वर्तमान चुनौतियों और संभावनाओं पर भी निष्पक्ष और सम्यक राय प्रस्तुत करती है; एक ऐसी राय जिससे न सिर्फ़ मायाजाल को समझा बल्कि काटा भी जा सकता है। यह पुस्तक फ़िल्मों के कंटेंट्स का एक ऐसा विशद विश्लेषण करती है कि उसके उपरांत भारत, भारतीयता, संस्कार, शील, सामाजिक समस्या इत्यादि पर सहज ही स्पष्टता और समझ उपलब्ध हो जाती है।
यह पुस्तक समय सापेक्ष मूल्य और दिशा निर्देशन से आविष्ट है जो भारतीय संस्कृति के मूल्यों को प्रतिस्थापित और विजातीय तत्त्वों को विस्थापित करने में समान रूप से दक्ष नज़र आती है। इस पुस्तक को लिखने के लिए इसके लेखक (अनंत विजय) बधाई के पात्र हैं क्योंकि इस पुस्तक के ज़रिए वे युवा वर्ग का मार्ग ठीक दिशा में प्रशस्त करते हैं जो इस पुस्तक के पढ़ने के बाद अनायास ही एक समझ के रूप में पाठक के भीतर से ही प्रस्फुटित होती है। इस पुस्तक को स्वयं पढ़ने के साथ-साथ हर घर की टेबल पर पहुंचाना भी प्रत्येक पाठक का धर्म है क्योंकि तभी जाकर इस पुस्तक को लिखने का मक़सद प्राप्त किया जा सकेगा, और लेखक के लिखने को सार्थकता भी सिद्ध हो सकेगी।
डॉ० प्रवीण कुमार अंशुमान असोसिएट प्रोफ़ेसर अंग्रेज़ी विभाग किरोड़ीमल महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल: pkanshuman@kmc.du.ac.in

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