मन पाखी की क्या ही कहूंँ! बड़ा धमाल ली है रे! जब देखो यहांँ,वहांँ,जहाँ, तहांँ धमा चौकड़ी मचाता ही रहता है कल शाम फिर  अतीत की खिड़की पर जा चढ़ा का सामने देखा तो वो तो लड़का खड़ा था , आज भी वैसा ही भला – सा।तो जमाना रंग न चढ़ा पाया उस पर ! मैं विस्मित थी…
वो लड़का आज भी याद था मुझे…  कोई तीस साल पहले जब मैं किशोरावस्था की अंतिम पायदान पर खड़ी थी, तब मैंने एक भले लड़के का इंटरव्यू लिया था। जी हांँ, एक ऐसी भेंट वार्ता जिसे कभी भूला नहीं जा सकता समय में और पीछे जाने से पहले उसका नामकरण कर लेना बेहतर रहेगा शक्ल तो आज भी इतनी याद है कि स्केच बनाया जा सकता है।( कोई यकीन न करेगा कि एक शर्मीली लड़की ने इस कदर आंखें गड़ाकर  देखा था उसे!) बस नाम याद नहीं, रहता भी कैसे…!तब उसका नाम ‘वह लड़का’ जो रख छोड़ा था मैंने… उसके गाँव का नाम आज थी याद है …’उजासपुर’ कितना सुंदर है ना! बिल्कुल उसके मन कि तरह।  सच में बहुत सुंदर था नीलांश  का मन । नीलांश नाम अच्छा रहेगा न !
बाद में पता चला था कि उसके गहरे काले रंग की वजह से गाँव में सब उसे ‘चोटी धारी लिल्ला ‘ कहते थे । लिल्ला बहुत सुंदर और भला था… चेहरे पर बच्चों -सी मासूमियत और सिर पर चोटी साधारण , स्वच्छ प्रैस किये हुए कपड़े । (पैंट-शर्ट) बस उसमें एक कमी लगी थी मुझे, आत्मविश्वास की कमी… जिसकी सज़ा मैं एक बार  अपने आत्मविश्वास  को खोकर पा चुकी हूंँ। भाई ने मेरे व उसके  मिलने का दिन निश्चित किया । मैं, भाई और लिल्ला ( नीलांश )…!
दरअसल, दादी को मेरे ब्याह की चिंता थी और मुझे मेरी सपनों की। आसमान की देह को विमान में बैठकर नहीं चालिका होकर नापना था मुझे ।
सो, मेरी सहेली अमोली ने एक योजना बनाई जिसके तहत मुझे कुछ बेतुके और अटपटे सवाल पूछकर लिल्ले के श्री मुख से शादी के लिए मना करवाना था।
अमोली ने प्रश्नों की एक लंबी चौड़ी सूची मुझे थमा दी थी।
मैं साक्षात्कार के लिए  बहुत बार रिहर्सल कर चुकी थी। अमोली कहा था-,” श्री, देखना ! वो लड़का पहले एक-दो प्रश्न सुनते ही भाग जाएगा ।”
पर… वह भागा नहीं साहिब! जमा रहा मेरे बेहूदा  सवालों पर भी न‌ उसके चेहरे पर शिकन थी न मन में विचलन बड़ा धीरोद्दात था लिल्ला। “एक चुप सौ को हरावे” शायद उसके किसी पुरखे पर ही यह कहावत कही गई होगी। अब सोचती हूँ.. मैं उसकी जगह होती तो भाई का लिहाज करते हुए थप्पड़ मैं भी लगाती तो खरी – खोटी तो ख़ूब बढ़िया सुनाती। पर …वह हर सवाल का जवाब “येस सर” “नो सर ” कह  कर ही देता रहा था । भाई कुछ पूछते तब भी और मैं कुछ पूछती तब भी।
बहुत आवश्यक होने पर नपे – तुले शब्दों में।
एक बार तो मेरी हँसी छूटते- छूटते बची। वो तो शुक्र था कि मैंने अष्टावक्र जी की कहानी पढ़ रखी थी। (और मांँ भी हमेशा समझाती थी कि किसी की मज़ाक नहीं उड़ानी चाहिए।) वरना उसकी और भी बद्दुआएं लगनी थी मुझे ।
“क्या किया है आपने?” मैंने पूछा।
“एम एस सी सर !”
“खेती है ?” भाई ने पूछा।
“येस, सर “
“कितनी?”
“अस्सी बीघा”
” सुना है अपना कोचिंग सेंटर चलाते हो ?”
“येस ,सर “
” लखनऊ में ही रहते हो?”
“नो ,सर “
“फिर …?”
“शाम को उजासपुर लौट जाता हूंँ।”
“जमीन बेच कर लखनऊ में कोठी बना पाओगे?”
“न..नो ,सर”
“फिर…”
“कमाकर बनाऊंँगा “
“अच्छा हमसे घर का कोई काम धाम नहीं आता ! चलेगा?”
“नो,सर! येस ,सर चलेगा।”
“ब्याह के  बाद भी ये लड़कों वाले कपड़े ही पहनूँगी मैं, कोई एतराज़?”
“येस,सर ! नो,सर।”
“कोई लड़की है जीवन में…? मेरी इस सवाल पर वह लड़कियों से भी अधिक लजा  गया साथ उसके शब्दों में हकलाहट उतर आई…
“न, न…नो, सर !”
उसका बायोडाटा हमारे पास था ।सब कुछ लिखा हुआ था उसमें फिर भी हम प्रश्न पर प्रश्न पूछ रहे थे ।
मैं सोचती रही थी कि सवाल  और उनको पूछने के लहज़े से उसके दिमाग का तापमान बढ़ जाएगा और वह “नौ दो ग्यारह” हो जाएगा पर उसने सभ्यता और शालीनता से साक्षात्कार की सभी औपचारिकताएंँ  पूरी की और अभिवादन कर धीमे-सधे  कदमों से वापस चला गया फिर कभी मेरे जीवन में न लौटने के लिए।
उसके माता-पिता बाद तक भी  उत्तर की प्रतीक्षा में रहे। काफी दिनों तक हम भाई-बहनों के परिहास का केंद्र बिंदु रहा “वो लड़का” फिर एक समय हम भाई-बहनों का परिहास तो रुक गया,पर… अमोली  अभी भी लगातार छेड़खानी करती ही रहती थी कभी कहती-,”कैसी हो लिल्ले की बहू?”
मेरे न सुनने या अनसुना  करने पर कहती-,” श्री श्री एक हज़ार आठ लिल्ले की बहू! सुन भी ले माते श्री!”
मैं आँखें तरेर कर उसको देखती तो वह क्षमा याचना वाली मुद्रा बनाकर टुकुर-टुकुर मुझे देखती और कुछ पल बाद ही ठहाका मारकर हँस पड़ती। उसकी ज्यादतियों से तंग आकर जब मैं सच में नाराज़ होती तो वह पास खिसक आती। कहती-,” माफ कर दे श्री! मैं तो तुझे हंसा रही थी कुछ गलत कहा क्या गाँव में सब यही तो कहते तुझे ….मैं तो बस छेड़ रही थी तुमको मेरी प्यारी सखी।”
“चलो, अब माफ़ी माँगो कान पकड़कर ।”
मेरी यह कहने  पर वह उठकर मेरे दोनो कान पकड़कर कहती-,” कुकडू कूँ…!” उसकी इन बचकानी हरकतों पर मेरी हंसी छूट जाती ।
अब सोचती हूँ… कितना परिश्रमी,साफ दिल और स्वाभिमानी था ‘वो लड़का’ जो पढ़ते समय भी अपना सारा खर्च स्वयं उठा रहा था और साथ ही बचत भी कर रहा था मेरी ही तरह सादा जीवन उच्च विचार का पक्षधर !
 क्या वो‌ मेरे गौरव में कोई कमी आने देता कभी …?
” नो,सर!”
संप्रति : भावातीत ध्यान शिक्षिका, लेखन : तुकांत -अतुकांत कविताएँ, लघुकथा, कहानी, लघु नाटक, निबंध इत्यादि। संपर्क - chandelsuman143@gmail.com

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