मैं सुबह ड्यूटी पर चढ़ी, अन्दर वाली बैरक में जाकर देखती हूँ कि सभी के चेहरों पर चिन्ता की लकीरें। पता लगा आज बत्ती अभी तक उठी नहीं है। सभी औरतें उसे जाकर देख आई हैं।
मुझे भी चिन्ता हो गई। बत्ती और अभी तक सो रही है। मैंने निम्मों की तरफ देखा। निम्मों बत्ती के नजदीक गई। उसके पीछे के कपड़ों पर हाथ फिराने लगी। उसका चेहरा चमक उठा। बोली-कपड़े गीले हैं।
सभी के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। मेरा जेल में यह शायद आठवा ट्रांसफर है। जब पहली बार आई तब भी बत्ती यहीं थी और आज तक यहीं है। पढ़ी-लिखी नहीं है पर ज्ञान का अतुल भंडार है उसके पास।
यह जेल है। जेल की इस बैरक में औरतें हैं, सिर्फ औरतें। उनका किसी से कोई रिश्ता नहीं। न माँ-बेटी, न सास-बहू, न ननद-भौजाई, न बहन-बहन, न बड़ी न छोटी। इनका रिश्ता है तो सिर्फ दर्द का। रिश्ते मनुष्य को सीमाओं में बांध देते हैं। उन सीमाओं में अधिकार हैं, दर्द के क्षितिज तक कर्त्तव्य हैं। लालच है, अंहकार हैं, सौन्दर्य का व धन का नशा है और सबसे ऊपर रिश्ते का मद। यहाँ पर कुछ नहीं है इसलिए यहाँ ये सभी औरतें हैं। सबके मन की सीप में दर्द के मोती हैं।
मैं देख रही थी बत्ती में हरकत हो रही है। निम्मों ने उसे हिलाते हुए कहा-बत्ती, ओ बत्ती, चल उठ, पेशाब करा लाऊँ। कपड़े गीले हो रहे हैं। फूलबती की पलकें ऊपर उठीं और उसमें से झांक रहे थे दो गहरे गड्ढे। निम्मों उसे पकड़ कर खड़ा कर रही थी।
मुझे याद आया। एक बार मैंने पूछा था, बत्ती, कहाँ की हो? घर गाँव का पता? उसने जवाब दिया था-क्या बताऊँ बिब्बी, महाभारत युद्ध होना था। श्री कृष्ण ने सोचा कि युद्ध स्थल ऐसी जगह को चुना जाए, जहाँ के लोग कर्मशील हों पर संवेदनशील नहीं। कृष्ण तमाम दुनिया घूम आए, वापस इन्दप्रस्थ की ओर जा रहे थे तब उन्होंने देखा कि एक खेत में दो आदमी हल जोत रहे हैं। अचानक उन दो में से एक गिर गया। दूसरे ने उसकी नाक के आगे हाथ रखा, कुछ देर देखता रहा फिर उस गिरे हुए को उठा कर मेड़ के दूसरी ओर फेंक दिया। खेत के पास से गुजरते हुए आदमी से उसने कहा-‘‘बाबा, नैक घर में खबर कर दियो, एक की रोटी लावैं।’’ वह आदमी आगे बढ़ा। उसे एक स्त्री खाना लाती दिखी, वह पहचान गया, उसने उस स्त्री से कहा-‘‘एक का खाना ले जा, वाने खबर भेजी है।’’ स्त्री वहीं बैठ गई। रोटी की पोटली खोली और बोली- कांई जाणे, कुण मरा हो? फिर रोवे-धोवे से फुरसत मिले ना मिले? एक का खाना मैं ही खा लूँ, बस बिब्बी वही। मेरा गाँव, वही मेरा देश।
मैं अक्सर सोचती, इतने अक्खड़ प्रदेश मे बत्ती जैसी नारी। शायद पिछले जन्म के कर्मों का फल भोग रही है। बत्ती के पास एक ही गहना था-प्रेम। वह हर एक का दर्द सुनती और गुनती। उसे सबसे प्रेम था। कभी उसकी गड्ढों वाली आँखों से आसू बहते थे तो कहती थी, दुनिया रो-रो कर अंधी होती है पर अंधों के आँसू? ऐसा नहीं था कि बत्ती जन्म से अंधी हो। उसने दुनिया के सभी रंग देखे हैं। बत्ती की भाषा भी मधुर थी, पर विधि का विधान। उसके अपने घर की सात पुश्तों ने भी प्रेम व मीठी बोली का स्वाद नहीं चखा था, इसलिए अक्सर वह परिवार में हँसी-मजाक का साधन बनती थी। एक दिन छोटी-सी बात पर देवर-जेठ लड़ पड़े। गालियाँ उनके मुँह से ऐसे झड़ रही थीं जैसे पतझड़ में पत्ते। भाषा में एक-एक शब्द विशेषण जड़े और आवाज फटे बांस को भी मात कर दे। बत्ती बीच बचाव करने गई, बस यही उसका दोष था। उसने समझाइश के जरिये पुरुष के अहंकार पर चोट करने का दुस्साहस किया। घर के मर्दो में औरत जात का क्या का काम। पहले तो पति परमेश्वर ने उसकी अच्छी ठुकाई की। तब तक लड़ने वाले देवर-जेठ एक साथ तेजाब लाए और उसके ऊपर फेंक दिया। चीख उठी थी बत्ती। महीनों दर्द से चीखती रही। औरत थी न। मरी नहीं, बिना इलाज के भी जी गई। बस जरा दिखना ही तो बन्द हुआ था। हाँ, इतना जरूर हुआ कि सात गाँव की औरतों को सबक मिल गया। भावुक बत्ती को अंधी होने से ज्यादा दर्द मन का हुआ। फिर अत्याचार भी बढ़ गए। बत्ती चुप हो गई।
बत्ती, अन्धी थी पर थी, तो वो औरत। पति मुख्यार को जब उसके शरीर की प्यास लगती वो वह उसे पीता, पशुता की हद तक पीता। वह कराह भी नहीं सकती थी। अक्सर पेट बढ़ने पर छिनाले कहती-अंधी का पेट बढ़ रहा है।
कोई कहती-कुत्ते बिल्ली-सी बिया रही है। वह खून के आसू रोती। सोचती-पेट क्या मेरे बढ़ाने से बढ़ रहा है? अंधी हूँ तो क्या पति अपनी जवानी के ज्वार को रोक लेगा। वो भी मुख्यार सा पति। जो रोटी की तरह औरत को खाता है। उसने अपनी आँखें रहते भोजाई के साथ नहीं देखा था क्या? औरतें उसे सांड कहती थीं। पता नहीं किस-किस का वंश उसने बढ़ाया तभी तो सांड की पदवी पाई। बत्ती ने भी उसे चार छोरे दिये। निहाल हो गया मुख्यार। अपनी सन्तान तो ये ही मानी जायेगी न।
बत्ती हर औरत के साथ घटने वाली को उसके मुख से सुनती, कई दिन बेचैन रहती, हमसे उसके विषय में कई प्रश्न ऐसे पूछती, जहाँ पुलिस की मक्कारी स्पष्ट नजर आती, और अन्त में कहती-भाई-बाप की बोझ, पति की बासी रोटी, अच्छा हुआ यहाँ आ गई।
जब क्रोध में होती तो कहती-देखो बिब्बी, तुम सरकारी मुलाजिम हो, पर तासै ऊपर औरत हो। हो न? बताओ क्या सास अत्याचार न करे? वा को बस चले तो बहू में भुस भर के खड़ा रखे। ससुर-जेठ का मौका लगे तो जोर-जबर कर हवस पूरी करे, आदमी जब चाहे वा का सौदा कर रंडी बणा दे। बस औरत ने चुप रेणों छावें। चुप औरत अन्नपूरणा कहावे।
जा दिन वा बोले बिब्बी बस वाई दिन सो कुटे। लतियाई जावे। और जो म्हारे सरीखी, मरदा के बीच में बोले तो अंधी, लूली बणा दी जावे, ता पर भी चुप न रेवे तो जेल पहुँचा देवे। जब तक चुपचाप सहे तब तक बाप-भाई की लाडली, पति की सुघड़ पत्नी और जुबान खुलते ही सब रिश्ते खत्म। कभी कृष्ण मिले तो बोलूँगी या तो औरत की दशा सुधार या उसको जुबान मत दे। एक तो मान मेरे कृष्ण।
बत्ती सभी औरतों को प्यार और इज्जत देती है। उदास और निराश को दूसरों का उदाहरण देकर सम्बल देती है। वह निम्मो को थोड़ा अधिक प्यार करती है। करे भी क्यों नहीं निम्मो ही उसका नहलाना, धुलाना बाल बनाना सभी काम करती। पढ़ी लिखी निम्मो भी हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा पर है। वह यहाँ अपराधिनी कम, समाज-सेविका ज्यादा लगती है। न उदास होती है, न रोती है, बस मुस्कराती रहती है। सबकी सेवा करती है।
अंधी बत्ती कभी-कभी अपनी बात करती है। बताती है कि दादा की तेरहवीं पर थाली में बिठा कर उसकी शादी हुई थी। ससुराल में पली-बढ़ी। बचपन से ही लड़ना-झगड़ना, पिटना-रोना होता रहा। छोटा था, मुख्यार अपने दद्दा के साथ कहीं शादी में गया था, उसी रात उसके जेठ ने उसके साथ जबर की। वह कितनी बीमार रही, कितना खून गया। पर किसी को सहानुभूति नहीं हुई। यह तो हर लड़की के साथ होता है, ताने और सुनने पड़े।
बत्ती जिस माहौल में पली-बढ़ी वहाँ प्रेम, ममता जैसे शब्द निरर्थक थे। हमें पढ़ाया गया था कि इन्सान जो भी बनता है वह गुण-अवगुण माता-पिता से आते हैं या माहौल से, पर बत्ती में उस महौल का एक भी गुण नहीं था।
वह कहती-बिब्बी युद्ध हमेशा जर, जोरू और जमीन के लिए होता है। मैंने बहुत कोशिश की कि हमारे परिवार में लड़ाई न हो। मुख्यार को अपने चचा जाद भाइयों से जमीन को लेकर टंटा चल रहा था। अक्सर गाली-गलौज और हाथापाई होती। बत्ती उस परिवार की औरतों व बच्चों को उतना ही प्यार करती जितना अपने परिवार की औरतों-बच्चों को। इस बात पर एक-दो बार मुख्तार से पिट भी चुकी थी। मुख्तार जब चिल्लाता-यह मेरे बाप दादों की जमीन है इसका एक इंच टुकड़ा नहीं दूंगा। तो अंधी बत्ती के दिमाग में दुर्योधन घूमता। वह कभी-कभी कहती-कृष्ण आ जाएँ तो भी क्या इस युद्ध को रोक पाएंगे, नहीं। जहाँ मन है ही नहीं। बुद्धि है ही नहीं, बस इतना पता है कि जमीन हड़प लो साम, दाम दंड भेद। फिर कहती-नहीं कान्हा अब नहीं आएगा। ये सब लड़-लड़कर मर जाएंगे। बत्ती जब भी कभी घटना सुनाती अंत में एक लम्बी, निःश्वास लेकर कहती है कृष्ण, कब आओगे।
अंधी बत्ती जब उस रात की बात करती है तो लगता है वह अंधी थी ही नहीं। वह एक-एक घटना ऐसे बताती मानो सभी कुछ उसके सामने घट रहा हो। पर एक बात है पहले दिन से आज तक उसकी बात में कभी वाक्य व शब्द का भी परिवर्तन नहीं हुआ। वह पूस की अंधेरी रात थी। शाम से ही लोग घरों में घुसने लगे थे। बच्चे चूल्हों के आस-पास, बड़े रजाई में और बूढ़े खेस ओढ़कर हुक्का गुड़गुड़ा कर सर्दी से लोहा लेने का निरर्थक प्रयास कर रहे थे। रात गहराई। गाँव में सन्नाटा। मुख्यार अपने बीस-पच्चीस साथियों को लेकर चल पड़ा अपने चचा जाद भाई जगदीशवा के खेत की ओर। खेत में फसल खड़ी थी और चौकन्ना जगदीशवा पहरेदारी कर रहा था। उस सर्द अंधेरी रात में तलवार, लाठियाँ और पदचाप के शोर से बत्ती की नींद खुल गई। घरों की औरतें दुबक गईं। आदमी अपने-अपने पक्ष की ओर भागे। बत्ती स्वयं को रोक न सकी, चल पड़ी शोर की ओर। उसे न सर्दी लग रही थी न रात का भय। पदचाप सुनती। पूछती कूण है। तब तक पदचाप आगे बढ़ जाती।
अचानक उसे लगा यह तो अपने ही घर का झगड़ा है पूरी ताकत से आवाज देने लगी-मुख्यार रुक जा। रुक जा महेन्दरवा। पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। धीरे-धीरे शोर बन्द हो गया। अब उसे सर्दी का एकसास हुआ, रात का डर लगा। अकेली औरत जात। चारों ओर गिद्ध। वह कहाँ, किस दिशा में है, समझने में असमर्थ थी। जोर-जोर से मुख्यार व छोरों को आवाजें लगाने लगी। उसका गला सूख गया। वह कब बेहोश हो गई उसे नहीं पता। उस नीम बेहोशी में भी उसे लगा कि कोई उसे उठा रहा है। वह कृष्ण को पुकार रही थी। कृष्ण को द्रौपदी का वास्ता दिया था। पांचाली। कृष्ण की सखी। उसका भोग करने वाले पाँच-पाँच वीर पति परन्तु कौरवों की सभा में जहाँ पितामह भीष्म थे, गुरु द्रोण थे, धर्मराज युधिष्ठिर थे, महादानी कर्ण थे, वहाँ पांचाली की चीर हरण हुआ था। सारे महान, वीर पुरुषों ने उस समय आँखें झुका लीं। बाद में कहा गया कि किसी ने धर्म की रक्षा के लिए आँखें झुकाई थीं, तो किसी ने आदर्श अनुज बनकर। किसी ने कौरवों के राजदण्ड के वचन से बंधे रहने के लिए मुँह फेरा तो किसी ने राज गुरु का चोला पहन लिया। सत्य का पक्ष किसी ने नहीं लिया तभी तो कान्हा को आना पड़ा। उसे भी अपने पति और चारों छोरों की याद आई। उसने सोचा था ये ही मेरे रक्षा कवच हैं। पर… पर… कोई नहीं आया। वह होश में है या बेहोश उसे नहीं पता। वह तो कृष्ण, कृष्ण रट रही थी।
आगे कहती… होश ही तो नहीं था बिब्बी। मरी तो नहीं थी। क्योंकि उसके कान में गर्म-गर्म सीसे की तरह शब्द पड़ रहे थे-‘‘बड़ी जीवट औरत है साब। एक ही बार में जगदीशवा की गर्दन धड़ से अलग कर दी इसने।’’
उसने एक हाथ से दूसरे हाथ को चिकोटी काटी थी। जब विश्वास हो गया कि जो सुन रही है वह सत्य है तो वह रोई, चीखी, चिल्लाई पर नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता। सारे सबूत उसके खिलाफ थे। उसके हाथ में खून भरा गंडासा था, और वह जगदीशवा से थोड़ी दूर ही झाड़ियों में पड़ी मिली थी।
उस दिन… उस दिन उसे दो बात का दुख हुआ। एक अन्धे होने का और दूसरे औरत होने का। सारे गाँव के पुरुष एक थे। सबके बीच अपनी आवाज में मिसरी घोल मुख्तार कह रहा था-‘‘बत्ती ये का कर दियो तन्ने। मरदों की लड़ाई में औरत का क्या काम। हम निपटते। तूने फैलसा क्यों किया।’’
बत्ती की जुबान तालू से चिपक गई। उसने कृष्ण को भी याद नहीं किया। सारा गाँव जानता था कि बत्ती निर्दोष है। पुलिस जानती थी कि बत्ती निर्दोष है।
तीन दिन बाद मुख्यार थाने आया था। पीठ पर ऐसे हाथ फेरने लगा जैसे आज फिर वह बत्ती को पीयेगा। बत्ती ने परे धकेल दिया तो उसने बताया कि कैसे एक ही झटके से उसने जगदीशवा की गर्दन धड़ से अलग कर दी थी। उस अंधेरी रात में भी उसे जगदीशवा की आँख में भय और आतंक दिखा था। फिर धीरे-धीरे असल बात पर आया-देख जमीन के लिए जगदीशवा का कत्ल किया। मैं जेल जाऊँ तो जमीन पर गाँव भर की नजर है, तू औरत है और फिर अंधी। सरकार तुझ पर दया करके तुझे जल्दी छोड़ देगी। फिर मैं हूँ न। पानी की तरह पैसा बहाकर भी तुझे छुड़ा लूँगा। बत्ती चुप रही।
अगले दिन बड़ा छोकरा आया… रो-रो कर उसने कहा ‘‘माँ गुनाह कबूल कर ले। हम तुझे छुड़ा लेंगे।’’
भोली, निश्छल औरत। ममता फिर बिक गई। कीमत थी प्यार। संतान का प्यार और उसका विश्वास। उसने गुनाह कबूल कर लिया। कृष्ण पर भरोसा करके।
उसकी पैरवी में न कोई वकील आया, न घर वाले। आजन्म कारावास हुआ था उसे। उसके बाद उसे भूल गए सब, घरवाला, छोरे, बाप, भाई और कृष्ण भी।
बरसों बाद मुख्यार आया। बत्ती का दिल भर गया। छोरों की याद। मिलने की इच्छा। मुख्यार ने उसकी यह इच्छा पूरी की। छोरे आए। बालक जवान मरद बन कर आए। वह छू-छू कर उन्हें मन की आँखों से देख रही थी। बोली-कृष्ण ने चाहा तो मैं जल्दी घर आऊँगी। मेरे हाथ की रोटी खाकर और तंदरुस्त हो जाओगे।
भोली। उसकी सजा से पहले ही मुख्तयार जवान हट्टी-गट्टी औरत ले आया। भैंस की तरह उसने औरत के शरीर की परख की थी। अब फूलबती के लिए उस घर में जगह कहाँ थी?
वह बाट जोहती रहती। उम्र बढ़ती गई। आजादी की पचासवीं सालगिरह पर जिनको छोड़ने के आदेश आये थे उनमें फूलबती का भी नाम था। उसके घर भी खबर भेजी गई। मर्दो का वार्ड आधे से ज्यादा खाली हो गया। औरतों को लेने कोई नहीं आया। इस घटना से फूलबती पूरी तरह टूट गई। अब वह थी और उसके कृष्ण, जो उसे कभी लेने आएँगे। सभी औरतें सुबह से दोपहर तीन बजे का इन्तजार करतीं, बेसब्री से अपने नाम को सुनने के लिए लालायित रहतीं और पाँच बजे टूटी, हताश, उदास अपने बैरक में लौट आतीं।
बहुत दिनों बाद बत्ती उस दिन बोली-कह रही थी-बिब्बी, सतयुग हो या द्वापर, सीता हो या द्रौपदी, गौतम पत्नी अहिल्या हो या कंस माता पवन रेखा, गलती किसी की भी हो, सजा हमेशा औरत को ही मिलती है क्यों?
मैं देख रही थी, निम्मो बत्ती को हिला रही है, पर बत्ती।