एक लड़की ने पूरे गाँव की नाक कटा दी| भागी तो भागी वो भी गैर जात-बिरादरी के लड़के के साथ l पूरा गाँव ब्राह्मणों का हैl मुई को सगरे गाँव कोई ना मिला की ब्राह्मण की लड़की ठाकुर के साथ भाग गईl कौन ब्याहेगा अब दो छोटी बहनों कोl अपने गाँव में तो कभी ना ऐसा देखा ना सुनाl शिव, शिव शिव l उसके माँ- बापू तो दौड़ते -दौड़ते ही हलाकान हो गए तब जा के पता चला की भाग के शादी की हैl
पड़ाइन चाची की बहु सरस्वती ने सर का पल्ला नीचे खींचते हुए सास से कहा, “अम्मा जरा अपनी लड़कियन पर भी नजर राखों | येहू तो पढ़त हैं ऊ मोबाइल पर|”
कोई और समय होता तो अपनी लड़कियों को कुछ कहने पर पड़ाइन चाची छठी -आठे का दूध याद दिला देती बहुरिया को पर आज खुद ही उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोलीं, “सही काहत हो | अब तो निगाह राखी के पड़ी|”
ननद सुनंदा के जब देवकी भौजी की मोबाइल हिस्ट्री से कुछ ऐसा निकाल कर सभी बहुओं की मंडली में दिखा दिया था, “देखो क्या देखते हैं भैया -भाभी, तो कितना शर्मसार हुई थी वो | सब देवरानियाँ खूब हँसी थी, “का जिज्जी तुमहूँ |” और उसके पास कोई जवाब नहीं था | आज उनका मौका था ननद के फोन की जांच करने का | एक -एक गाना, कॉल डिटेल, मेसेज की पड़ताल हो रही थी |
“ई देखो, ई सब गाना देखे जात है|” फिर पल्ला थोड़ा सरकाते हुए अपनी माँग दिखाते हुए बोलीं, “ई देखो हमरा तो दिल्ली से कलकत्ता तक का रेड सिग्नल है तबहूँ हमरी खिचाई करती रही अब अम्मा को तुमरी भी सब करतूत बतहिए|”
फुलेश्वरी दादी ने तो अपनी पोती के लिए सीधा -सीधा ऐलान कर दिया था, “टाँगे काट डालिबे अब अगर पढ़ाई की बात करी तो |”
पुरुषों की पंचायत में भी मुद्दा ऑन लाइन शिक्षा ही थी | जिसकी वजह से लड़कियों के नंबर लड़कों के पास गए और गिटिर-पिटिर शुरू हुई | वरना इतनी निगरानी से अलग-अलग पाले में पढ़ाई करने जाने वाली लड़कियों में ऐसा कैसे हो सकता था | ना ही ये कोरोना आता, ना ऑन लाइन शिक्षा ना ही लड़कियों के नंबर लड़कों के पास जाते और ये दुर्घटना होती |
सभी लड़कियाँ जानती थी की रजनी और राजाराम का चार साल पुराना प्रेम चल रहा है | जाति -बिरादरी के बाहर घर वाले कभी राजी ना होते, मजबूरन उन दोनों ने ये फैसला ले लिया | इससे पहले गाँव से कोई लड़की भागी नहीं थी | पूरे गाँव की इज्जत पर बट्टा लग गया था | अपनी मर्जी की शादी रजनी ने की थी पर सजा गाँव की सब लड़कियों को मिलनी थी | दोषी बना कर कटघरे में खड़ी की गई ऑनलाइन शिक्षा और मोबाइल | गाँव भर की लड़कियों के मोबाइल छीन लिए गए | छानबीन की इस राडार पर आभा का मोबाइल खासतौर पर था, क्योंकि गाँव से कॉलेज पढ़ने जाने वाली रजनी, निशा, रूपा, मोहिनी के साथ आभा भी थी| ऑन लाइन शिक्षा के नाम पर जिनके मोबाइल नंबर लड़कों के पास जाने की पूरी संभावना थी | वरना भाइयों के साथ कॉलेज गई और लौटी, और वहाँ भी निगरानी में रही लड़कियों को ये इश्क -मुहब्बत करने का समय कैसे मिल सकता था |
बाबूजी ने आँगन में खाट पर बैठ कर आभा का मोबाइल माँगा था | मासूम आभा ने बिना कुछ सोचे अपना मोबाइल पकड़ा दिया |
मोबाइल खोलते ही व्हाट्स ऐप पर गुड्डू का मेसेज चमक रहा था और बापू की आँखें गुस्से लाल हो रहीं थीं | एक दो क्या अनेकों मेसेज थे |
‘हमारी चुनमुनिया उदास है का? काहे की आज क्लास में नाही दिखी कैमरा ऑफ कर लिया था का | का बापू के कुछ कह दिया का | राम कसम हम से इ सब देखा नहीं जाता|”
मेसेज भेजने का समय रात के साढ़े बारह बजे | बापू का पारा सातवें आसमान पर था |
और आभा की सजा मुकर्रर हो गई |
…….
बेचैनी को अपनी आँखों में समेट आभा अपने कमरे के जिंगले पर खड़ी हो गई | यही एक ऐसी जगह है जहाँ घर के अंदर की आवाजें बाहर की आवाजों के साथ जवाबी तान मिलाती हैं | वरना कहीं सिर्फ अंदर की आवाजें हैं तो कहीं सिर्फ बाहर की आवाजें|
अभी भी कितनी आवाजें उस के कान में पड़ रही हैं ..भाभी के कपड़ा फटकारने की आवाज, अम्मा के पूड़ी छानने की आवाज, बाहर खेत से लौटते आपस में बतियाते किसानों की आवाज, सोलर प्लांट से घर लौटते कामगारों की आवाज .. पर उसके कानों में बस एक ही आवाज ठहर रही थी |दूर से किसी बच्ची की जोर -जोर से पहाड़ा रटने की आवाज .. दो एकम दो, दो दूनी चार, दो तियाई छ : , दो .. | उसे अपना बचपन याद आने लगा | दालान पर बाबूजी नीम की संटी लेकर बैठे होते औ वो चारों भाई -बहन पहाड़ा रटने में लगे होते | छोटा भाई गोरे इस समवेत स्वर में ये सोच कर बोलना टाल देता था की बाबूजी जान थोड़ी ही पाएंगे | बस होंठ हिलाता रहता |
तभी बाबूजी की जोर की एक संटी पड़ती, “ई ससुरा ठिठुलियाव करत है | पढ़ाई में तिलुआ नाहीं लागत है| ई नाहीं की पढ़ें लिखे, और बड़ा होई के कौनहू नौकरिया मिल जाए | या बात समझे में ना आवत है की ई खेती किसानी में कुछों नाही रखो है |”
और गोरे जल्दी-जल्दी रटने लगता |
बाबूजी चाहते थे की बड़े भैया और गोरे पढ़ लिख के नौकरी करें | गाँव में का रखा है | विकास तो जरा भी नहीं है | ऊपर से गाँव की राजनीति, नौकरी करेंगे तो चार पैसे और इज्जत साथ होगी | लड़कियों के लिए उनका सपना नौकरिया दामाद का था | हाँ! थोड़ा पढ़-लिख जाएँ | इतना काफी है |उनकी अम्मा तो काला आखर भैस बराबर रहा| आभा की माँ रामायण बाँच लेती हैं | कागज -पत्तर पर दस्तखत कर देती हैं | लड़कियाँ थोड़ा और पढ़ लिख जाएंगी, काफी है | करनी तो रोटी -पानी ही है|
पर उन्हीं दिनों स्लेट -पट्टी और अपनी बोरी लेकर गाँव की पाठशाला में पढ़ने जाते हुए वो भी सबसे छुप कर एक सपना पालती थी, पढ़ लिख कर नौकरी करने का | सपना उसकी नन्हीं हथेलियों को देखते हुए बड़ा था … बहुत बड़ा | क्योंकि गाँव में तो प्राइमरी पाठशाला ही थी | बच्चों को उतरी या पूरा जाना पड़ता आगे पढ़ने के लिए | यानी पूरे चार किलोमीटर आना और जाना | सुबह तो कैसे भी चले जाओ पर साँझ घिरते ही लौटने में मुश्किल हो सकती थी |लड़के ही जाते थे पढ़ने, लड़कियाँ नहीं | ऐसे में भविष्य में बाबूजी को मनाना भी मुश्किल होता |पर सपने पालते समय ये थोड़ी ना देखा जाता है की उसमें दिक्कतें कितनी आती हैं |
ये वो दिन थे जब गाँव में सड़क पानी बिजली कुछ भी नहीं थी| पास के गाँव उतरी और पूरा तक बिजली आ गईं थी पर उसका अपना गाँव डुडवा रोशिनी से महरूम ही था| सबसे पास के शहर कानपुर से आने वाली रेलगाड़ी भी उतरी स्टेशन तक ही रुकती थी| वहाँ से गाँव की धड़कन, सिचाई के एकमात्र साधन बंबा के दोनों ओर बसे गाँव तक जाने का साधन बैलगाड़ी पर हिचकोले खाते हुए जाना या बंबा किनारे चलते हुए खेतों-खेतों पैदल जाना था| गाँव की नई बहुएँ और मायके आई हुई बेटियाँ बैलगाड़ी से ही आतीं बाकी तो सब तो अपने पैरों की 11 नंबर बस का ही सहारा था | गाँव आस -पास के इलाकों में अपने गेंहू की उन्नत किस्म के लिए जाना जाता| उतरी से गाँव में घुसते ही बंबा के किनारे -किनारे गेंहू के खेत शुरू हो जाते | और शुरू हो जाती थी हवा में गेंहू की पकती बालियों की सौंधी -सुनहरी महक | ज्यादातर खेत बटाई पर उठे थे | सिंचाई और आधी फसल शहर में बैठे खेत के मालिकों की होती | काश्तकार (बटाई पर खेत लेने वाले किसान) को आधी फसल मिलती| शुक्ला चाचा जैसे उदार दिल मालिक कम ही थे जो गेंहू की कटाई और अगली बुवाई के बीच सब्जी-भाजी बो लेने की छूट दे देते| उससे थोड़ी राहत हो जाती| बाकी के लिए तो साल में एक बार जब गल्ला मंडी में गल्ला बिकता तभी जो पैसा आ जाता उसी से साल भर चलाना पड़ता |
जो बड़े जमींदार थे वो तो नौकरी पर शहरों में रहते थे, और खेत बटाई पर उठे रहते | साल-छमाहे आते| उनके घर पक्के थे | बाकी मिट्टी लीप -पोत कर काम चला लेते | आभा के पिता भी एक मामूली किसान ही थे | कुछ खेत ऊसर ( बंजर) थे | वहाँ से तो कोई आशा नहीं थी | बाकी छोटे खेत से जो कुछ मिल जाता उससे से साल भर का दाना-पानी चलता| वो भी दिन थे जब घर में अभावों का साम्राज्य था, गरीबी का रोना था| उसे अभी भी वो साल याद है जब भयंकर सूखा पड़ा था| बंबा का पानी जो सिंचाई का एकमात्र सहारा था भी सूख गया था| तभी शुरू हुआ था छोटे किसानों का भी शहर की ओर भागने का दौर और गल्ले की खेती करने वाले किसानों ने सूरजमुखी की खेती करना शुरू कर दिया|
तब बंबा के दोनों किनारों पर सूरज मुखी के खेत लहलाहने लगे थे | स्कूल से लौटते समय उसे ये सूरज मुखी देखना बहुत अच्छा लगता था | सूरजमुखी जो सूरज की ओर मुड़ जाता है जैसे व्यक्ति ज्ञान की ओर | पर ममता मिस समझाती थी की सूरजमुखी का मुड़ना होता है एक जड़ चेतना के कारण …उसे पता नहीं होता की क्यों मुड़ रहा है पर ज्ञान हमें हर बार परिस्थिति को सोचने समझने और मुड़ने, हटने या आगे बढ़ने का विवेक देता है|
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तब कहाँ समझी थी की लड़कियों के लिए ज्ञान की ओर मुड़ना इतना आसान तो नहीं होता ..| पूरे घर, गाँव, कुनबे- खानदान की इज्जत उन्हें अपने नाजुक कंधों पर ढोनी होती है| बारहवीं से ही उसकी मुसीबत शुरू हो गई थी | जब गुड्डू ने उसे छेड़ना शुरू किया था | गाँव के श्यामलाल चाचा का बेटा है गुड्डू | कहाँ श्याम लाल चाचा जिनकी ईमानदारी की कसम खा ली जाए और कहाँ ये .. एक नंबर का आवारा निखट्टू | यूँ तो स्कूल में पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था पर पर आता रोज था | उम्र में उससे दो साल बड़ा होगा पर अभी तक हाई स्कूल में जमा बैठा था | हालांकि गाँव के स्कूल में लड़कियों और लड़कों की पाली अलग थी | पर छुट्टी के समय टकराना हो ही जाता था | फिर .. वही | उसकी सहेली ने ही बताया था कि उसने उसका नाम रख दिया था चिनमुनिया | पढ़ाई में धँसी रहने वाली उसकी आँखें और दुबले -पतले नाजुक शरीर को देखकर उसने उसे ये नाम दिया था | इसी नाम से आते जाते या किसी समारोह में दोस्तों से बात करते हुए छेड़ देता था | लाली बुआ के यहाँ कितना मजाक बनाया था उसकी लिपस्टिक का …अपने दोस्तों के बीच गप्प गोष्ठी में |
“सुनो, राजेश्वर, कॉनहुँ लिपस्टिक की दुकान जानत हो | हमरी चिनमुनिया के लिए एक ठो खरीदे का है | जाने कौन -कौन से रंगन का लागावे रहत है | जाने खात है की चाट जात है जब देखो तो नई लिपस्टिक माँगत रहत है |”
तो एक बार जुकाम में नाक लाल हो जाने पर खूब मजाक उड़ाया था उसका |
“अरे ओ राजेश्वर, हमें लागत है हमरी चिनमुनिया को उसकी अम्मा मारी हैं आज | बहुत रोई है | हमरा तो कलेजा ही बैठा जा रहा है | आज तो हमें जाई के पड़ी उनका घरे |”
पर इससे ज्यादा हरकत उसने करी नहीं थी और वो भी केवल उसके साथ ही ये करता हो ऐसा भी नहीं था| उसकी तो आदत थी हर लड़की का नाम रखने की और फालतू बकवास करने की | फिर ये उस की बात नहीं थी जिन किसानों ने पैसा -कौड़ी देखी नहीं थी | अचानक से इतना पैसा पा के उनकी अगली पौध बौरा गई थी | कई जवान लड़कों ने पढ़ाई -लिखाई से तौबा कर शराब की लत लगा ली थी| इसलिए इसे नजरंदाज ही करती रही | उसे पढ़ना था, नौकरी करनी थी | खामखाँ में पिटाई हो जाती उसकी, फिर शायद और उग्र हो जाता |
पर ना बता के भी तो .. अचनक उसकी जीभ का स्वाद खट्टा हो गया |
वो जिंगले से उतरी और अलमारी में अपना पुराना सलवार सूट ढूँढने लगी| टीचर्स डे का कार्ड उसके कपड़ों की तहों के नीचे से निकल कर उसके ठीक सामने गिर गया| जिस पर एक जलती हुई मोमबत्ती के साथ लिखा हुआ था…
“शिक्षा अंधेरे से प्रकाश की ओर चलने का नाम है”
अब उसकी आँखों से दो आँसू टप से टपक कर कार्ड में प्रकाश शब्द के ऊपर गिर गए|प्रकाश, बिजली, रौशिनी.. जिसके आते ही गाँव के दिन बहुर जाते हैं.. पर क्या सबके?
“गाँव के दिन बहुर गए, भैया” पिछले सात सालों में उसने कितनी बार ये शब्द सुना है| तब 12 साल की थी वो | इस दिन बहुरने से सबके अपने-अपने सपने जागे थे| बूढ़े बरगद के ठीक सामने के घर में रहने वाले ननकू के दादाजी को आस थी कि अब गाँव के अस्पताल में डॉक्टर बैठने लगेगा |अभी तक तो कंपाउंडर ही सबके आला लगा कर दवाई बता देता है| बीमारी जरा भी बढ़ी तो कानपुर अस्पताल ले जाना पड़ता है| कई बार देरी में मरीज की जान पर भी बन आती है| ननकू की दादी तो ऐसे ही चली गईं थीं| साँस लेने में थोड़ी दिक्कत हुई तो कंपाउंडर ने नाक में डालने वाली दवाई देते हुए कहा, “इ ले जाओ दादाजी, दो बूँद दादी की नाक में टपका देना| अंदर की नली खोल देगी तो आराम आ जाएगा| दो बार तो दवा डालने के बाद तो आराम रही, तीसरी बार इधर दवा अंदर गई और उधर दादी .. | कानपुर ले के दौड़े थे फिर भी … पर डॉक्टर ने कहा ओवरडोज हो गई| नली ज्यादा चौड़ी खुल गई|
और लल्लन काका जिनका घर तलैया के पास है| गाँव के बीचों-बीच की तलैया, जिसमें पहले कभी कमल के फूल खिलते थे अब जलकुंभी से भर गई है| साँप के फन के पत्तों वाली जलकुंभी ने पूरी तलैया का पानी छेक लिया है| तलैया का पानी अब गाँव के इस्तेमाल का नहीं रहा| उसके नीचे साँप रहते हैं| वैसे साँप, मोर और नेवला इस गाँव की पहचान हैं| यहाँ वहाँ झड़े मोर के पंखों का आसान, बीजना, बुहारन यहाँ हर घर में मिल जाएगा | सावन में तलैया के आस-पास नाचते मोरों की छटा ही अनुपम होती है |इसी तलैया के पास ही है लल्लन काका घर, जिन्हें दिन बहुरने से एक ही आस है कि उनके इकलौते लड़के राधेलाल भैया को नौकरी मिल जाए, वो भी सरकारी|
बूढ़े बरगद के पास रहने वाली, बड़े गेट वाली कमलेश्वरी दादी को आस थी कि दिन बहुरने के बाद एक चार चक्का उनके बड़े से दरवज्जे पर भी खड़ी होगी| अभी तक गाँव में केवल मुखिया जी के पास ही चारचक्का गाड़ी है| वो भी कानपुर में रहती है|वहीं मुखिया जी रहते हैं|शुक्ला खानदान के पुराने रईस हैं, बड़े आदमी ही नहीं बड़े दिल वाले भी है| वो जब कभी गाँव आते हैं तो गाड़ी गाँव आती है| माटी की सड़कों पर धूल उड़ाती सरपट भागती जाती और उसके पीछे-पीछे भागते जाते गाँव भर के बच्चे| कमलेश्वरी दादी का खानदान गाँव में बसने वाले शुरू के परिवारों में रहा है| कहते हैं इस परिवार की जड़े बूढ़े बरगद से भी ज्यादा पुरानी है| शायद इसीलिए कमलेश्वरी दादी की गाँव में बहुत इज्जत थी| कमलेश्वरी दादी जानती थीं पर सोचतीं…. चार चक्का होती तो …|
गाँव के कभी जमींदार रह चुके पांडे कुनबे के गाँव में बचे एकमात्र वारिस मुनऊआ भैया को आस थी कि उनके खानदानी मंदिर का जीर्णोद्धार हो जाए| पुरखों द्वारा बनवाए गए इस मंदिर में दादा-परदादा के समय बहुत रौनक रहती थी| मंदिर के कुए से गाँव भर की औरतें पानी भरने आतीं| पूरे गाँव में उतना मीठा पानी किसी और कुएँ का नहीं था| शाम को संध्या वंदन के बाद नीम के पेड़ों के नीचे चौपाल जमती| तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ होते| ढोलक की थाप पर लोकगीतों फुहार, जेठ की शामों को शीतल कर देती| वर्षा, घाम सहते-सहते कब मंदिर की छत गिरी कब मूर्तियाँ मुख्य स्थान से हट कर कोने में स्थानतारित कर दी गईं, मंदिर के आगे उजड़े बाग से कब लोगों की बैठकी ने कोई और स्थान खोज लिया, ये तो उसे याद नहीं|
याद है तो बस इतना कि उसने बहुत कोशिश की पर खानदानी मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए किसी ने पैसा-कौड़ी खर्च नहीं करी| वारिस सब गाँव छोड़ कानपुर, दिल्ली, मुंबई में बस गए| उसने कानपुर, दिल्ली तक की दौड़ भी लगाई पर ऊंची-नौकरी ओहदे वाले होने के बावजूद किसी ने साझे के इस मंदिर के लिए टेंट ढीली कर एक दमडी भी ना निकाली| मंदिर उनके नाम होता तो शायद कुछ.. पर साझे की खेती में कौन पैसा खर्चा करे| इक बार उसने मंदिर के आगे की जमीन साफ कर आम के पेड़ लगाए थे, जब फरने लगे तो सब दौड़े चले आए थे हिस्सा-बटाई करने| मेहनत उसकी सिचाई उसकी पर मजाल है कि आम एक भी ज्यादा खा सका हो| मंदिर में भी सबको डर भी था रहेगा तो यह ही ना जाने कब कब्जा कर ले| मार्के की जमीन है| पर उसका एक ही अरमान था कि मंदिर का जीर्णोद्धार हो जाए| उसके पिता इसी आस को लिए -लिए भगवान के घर चले गए| अब उसका यही सपना है| खुद के पास पास पैसा कौड़ी होती तो काहे दिल्ली-कानपुर की दौड़ लगाता|
इस तरह से दिन बहुरने की सबकी अपनी -अपनी आस थी| आभा को भी आस थी… उसकी आस सबसे अलग थी, सबसे जुदा| उसको आस थी कि गाँव में इंटर कॉलेज खुले| बाहर गाँव ना जाना पड़े पढ़ने के लिए| कई साल पहले तक तो बस प्राइमरी तक पाठशाला थी| जिसमें गाँव के बच्चे खाना पूरी करने जाते | लड़कियाँ तो ना के बराबर ही जाती| गाँव की सोच भी यही थी, पढ़ के करना ही क्या है, पढ़-लिख कर भी करना तो चूल्हा -चौक ही है| समय बदला और आठवीं तक का सरकारी स्कूल बना| सावन शुरू होते ही बी.टी. सी द्वारा चयनित शिक्षक और शिक्षक मित्र आते और घर-घर जा कर दाखिले की प्रक्रिया पूरी कर लेते| फिर तो जब मर्जी हुई आए/नहीं आए| पढ़ाया /नहीं पढ़ाया| तीसरी कक्षा में थी वो जब ममता मिस स्कूल में आईं| ममता मिस अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थीं |एक बच्चा भी क्यों ना आये पूरी मेहनत से पढ़ातीं| पढ़ने में आभा शुरू से अच्छी थी पर जुनून की हद तक अलख ममता मिस ने ही जगाई| तभी से आज तक ममता मिस से उसका रिश्ता गहरा दर गहरा होता गया | उन्होंने ही उसे बताया था मैत्रेयी, गार्गी से लेकर कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स तक का इतिहास| और “वो सच्ची मिस, सच्ची मिस” कह कर मुँह बा कर सुनती|
ममता मिस उसके सर पर मीठी सी चपत लगाते हुए कहतीं, “पढ़ोगी, लिखोगी तो तुम भी सब कर सकती हो|”
तभी से दिन बहुरने का अर्थ उसके लिए लड़कियों के लिए खुलने वाला उच्च माधमिक स्कूल था| एक बार बारहवीं पास कर ले फिर डिग्री कॉलेज के लिए तो पिताजी को मना ही लेगी | छोटी सी हथेली में छोटे से सपने थे उसके और उनको पूरा करने का दिल से किया हुआ वादा|
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एक दिन सच में वो दिन आया जब गाँव के दिन बहुरना शुरू हुए|
उस दिन से पहले कानपुर देहात की तहसील बिलहौर के डुडवा जामौली का नाम विश्व तो क्या उत्तर प्रदेश के मानचित्र की राडार में दूर -दूर तक कहीं नहीं था| पर उस दिन ये खबर आग की तरह फैली जब ऐनटीपीसी के अधिकारी गाँव आए और जमीन की नाप जोख शुरू हुई |
गाँव के रमई काका हाँफते -दाफते भोरे-भोरे उसके घर के बाहर आ कर उसके पिता को आवाज देने लगे, “महेसर, ओ महेशर, देखो तो ह्मरे गाँव की जमीन नापी जा रही है | सरकारी आदमी आए हैं | चालों.. देखो चाल के |”
और बाबूजी रोटी हाथ में लिए ही चल पड़े थे | वो भी पीछे -पीछे भागी थी |
गाँव के बाहर ऊसर वाले इलाके में सारा गाँव इकट्ठा हो गया था |
“का भैया, का होय वाला है इहाँ” राजेंदर चाचा ने पूछा |
“ये जमीन सरकार लेगी” सरकारी आदमी ने जोर से कहा |
“सरकार लेगी, इसका का मतलब है, ऐसे कैसे हमरी जमीन सरकार ले लेगी? का दोबारा चकबंदी हुए का है क्या?” बाबूजी ने पूछा | पिछली चकबंदी में उपजाऊँ जमीन का हिस्सा गँवाने का दर्द अभी भी उनके कलेजे में टीस की तरह गड़ता था |
“नहीं चकबंदी, नहीं, इस जमीन पर बिजली का कारखाना बनेगा | गाँव को ही नहीं पूरे प्रदेश को बिजली मिलेगी |” सरकारी आदमी ने समझाया |
“पूरे परदेश को बिजली देने की खातिर हमहीं का गाँव काहे चुना ? ई तो सोना माटी है, हम सब का पेट पालित है | इ चली जहिए तो हम सब का करिहे, का खइये” राजेन्द्र चाचा ने जोर से पूछा |
“ देखिए ये सरकारी काम है | हम कुछ नहीं कर सकते हैं | 600 ऐकड़ भूमि का अधिग्रहण होगा | बहुत बड़ा प्लांट बनेगा | आप सब को सरकार उचित मुआवजा देगी |” सरकारी आदमी ने कहा |
उनके जाने के बाद गाँव में चक -चक शुरू हो गई | जितने मुँह उतनी बातें |
“बिजली बनेगी, पर हम का तो खेती किसानी ही आवत है, मुआवजा भी कितने दिन चलिहे | खाए के डकार लेवे सब … फ़ीर का होव?”
“हमरी मौसी की ननद के गाँव मा प्लांट लागा है | कोयला, धुआँ से जौन खेत कब्जा में नाही आए वोहु बर्बाद हो गए राहे |”
“पर सुने हैं की या तो सूरज देवता की रोशिनी से बिजली बनाइहिए|”
“ऊ सब छोड़ो सबसे जरूरी तो देखे का है की मुआवजा मिली तो कितना मिली |”
कुछ किसान विरोध कर रहे थे पर ज्यादातर मुआवजे के बारे में तसल्ली कर लेना चाहते थे |
बिजली का कारखाना एक आश्वासन था विकास का तो मुआवजा एक स्वप्न था बेहतर भविष्य का | वैसे भी कानपुर शहर से सटा गाँव होने के कारण ज्यादातर खेत मालिक शहरों में बैठे थे, वो सब जानते थे, सरकारी काम है | रोड हो, रेलवे लाइन हो, या कुछ और जिनके खेत आ जाते हैं उन्हे देने ही पड़ते हैं | अब सारा खेल मुआवजे का है | शुक्ला चाचा ने आ कर सबको समझा दिया था | अगर कोई अपना खेत नहीं देगा तो सरकार के पास इतने इंजीनीयर हैं की वो उस खेत को छोड़ कर अपने डिजाइन में तबदीली कर लेंगे | अब खेत तक जाने की मुश्किल किसान को आएगी | पर गाँव के बाहर खेतों में काम करने वाले मजदूरों की चिंता अलग थी | खेत के मालिक को तो पैसा मिल जाएगा पर उनका क्या होगा ?
गाँव की चौपालों में, छोटे मंदिर और पाठशाला या फिर फुलवा दादी के घर लगने वाली औरतों की जमघट, हर तरफ एक ही मुद्दा रहता की मुआवजा मिलेगा तो कितना?
पंचायत बैठी और तय किया गया की सर्किल रेट का चारगुना पैसा, एक लड़के को नौकरी, और जिंदगी भर की पेंशन की माँग की जाए तभी गाँव के दिन बहुर सकते हैं| शुक्ला चाचा ने एक माँग और जोड़ दी थी की खेत में काम करने वाले जो लोग बेरोजगार होंगे | उन्हें प्लांट में नौकरी मिले |
इधर किसानों ने अपनी माँग सरकार के आगे रखी उधर हर घर में झगड़ा होने लगा | सरकारी नौकरी किस लड़के को मिले | उसके घर में भी तो गोरे और बड़े भैया में उस दिन बहुत ही हाथापाई हुई | बड़े भैया का कहना था की नौकरी उन्हें ही मिलनी चाहिए क्योंकि वो घर के बड़े हैं और छोटे इस बात को नकार कर खुद के लिए नौकरी की माँग कर रहा था | बाबूजी जिसके पक्ष से बोलते दूसरा उनके सर चढ़ जाता | अंत में यही तय हुआ की पहले सरकारी फैसला तो आ जाए |
किसानों की मांग और सरकार के बीच फैसला होने में समय लग गया | आखिरकार सर्किल रेट पर नहीं बाजार मूल्य पर चार गुना पर बात तय हुई | बाकी किसानों के पुनर्वास के लिए डेढ़ -दो लाख रुपया मिलना तय हुआ | कई घरों ने ये फैसला महज इसलिए स्वीकारा की चलो घर के लड़कों में झगड़ा तो नहीं होगा |
अधिग्रहण का काम शुरू हो ही गया |
कागजों के सत्यापन के बाद मुआवजा मिलना शुरू हुआ | किसी को 20 लाख, किसी को पचास, किसी की उपजाऊ जमीन गई तो किसी को ऊसर वाली जमीन | बाप -दादों की जमीन थी | नया कानून से बेटियों का भी हक था पर ज्यादातर बेटियों से अपनी इच्छा से अपना हक भाइयों को दे दिया | कुछ को समझ बुझा दिया गया | आभा तो छोटी ही थी पर ने भी तो हस्ताक्षर कर दिये थे बाबूजी के कहने पर, ताकि आगे कोई दिक्कत भाइयों को ना आए |
वो दिन था की गाँव के दिन बहुरने शुरू हो गए |
सोलर पावर प्लांट बनने के साथ -साथ गाँव में विकास आने लगा | सड़क बनी, बिजली आई , बाजार में रौनक आई, कुओं की जगह बोरिंग शुरू हुई, घर -घर संडास बने, कई घरों में दुपहिया गाड़ी आई तो कई घरों के आगे चार चक्का खड़ी हुई, हर हाथ में नया महंगा मोबाइल आया | मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और कच्चे घरों की जगह तिमंजिले तन गए | शुक्ला चाचा के प्रयासों से पहले दसवीं तक माध्यमिक सरकारी स्कूल भी बना | |फिर उच्चतर माध्यमिक विधालय भी | आभा का पढ़ने का सपना साकर होने लगा और वो एक के बाद एक कक्षा की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बारहवीं पास कर गई |
आभा गाँव की पहली ऐसीविद्यार्थी बनी जिसके बारहवीं में 90 प्रतिशत से अधिक अंक आए | पूरे गाँव में उसकी तारीफ़ थी | बाबूजी ने भी खुशी -खुशी कानपुर से कॉलेज की पढ़ाई करने की अनुमति दे दी | बड़े भैया भी उसे कॉलेज में पढ़ रहे थे | निगरानी की कोई चिंता बाबूजी को नहीं थी | आभा का निश्चय था की ग्रेजुऐशन के बाद उसे बैंक में अफसर बनना है | अपने पैरों पर खड़े होकर अपना आसमान पा लेने कए सपना बस मुट्ठी भर दूर ही था |
आभा ने कानपुर के कॉलेज में एक साल भी नहीं बीत पाया की चीन और यूरोप में तबाही मचाने वाले कोरोना ने भारत में दस्तक दी | लॉक डाउन लगते ही गाँव में भी भय का माहौल बनने लगा | मोदी जी के भाषण के बाद घर -घर चर्चा आम थी की, “विदेश से कोई बीमारी आई है हवा में फैली है | एक दूसरे के घर नहीं जाना है, बोलना बतियाना नहीं हैं |”
पर इसका गाँव के रहन -सहन पर कोई खास फ़र्क पड़ा नहीं | फ़र्क पड़ा तो रजनी के भाग कर शादी कर लेने से और इसकी दोषी करार दी गई, ऑन लाइन शिक्षा | जिसकी वजह से लड़कियों के नंबर लड़कों के पास गए और ये प्रेम के ये सब कांड शुरू हो गए | आभा ने भी तो गुड्डू को अपना नंबर नहीं दिया था | वो तो कॉलेज में भी नहीं पढ़ता था, पर उसने उसके साथ कॉलेज में पढ़ने वाले अपने दोस्त रामधन से उसका नंबर ले लिया था | रामधन के पास भी नंबर तो ऑनलाइन क्लास से ही पहुंचा था | नंबर पाते ही गुड्डू की बदतमीजियाँ जो कभी -कभी आते -जाते ही होती थीं अब फोन पर मेसेज के रूप में होती | एक नहीं ढेरों मेसेज | कुछ लिखित मेसेज और कुछ चिनमुनिया के नाम से बनाए गए उसके टिक-टॉक विडीयोज जो टिक -टॉक के बैन होने पर यू ट्यूब शॉर्ट्स में डाल दिये थे | ना जाने कितनी लड़कियों को वो ऐसे मेसेज करता था | कभी -कभी कॉल भी करता | ना वो कभी कॉल रिसीव करती, ना कभी मेसेज देखती, बस नजर अंदाज कर देती |
पर आज दोषी वो मानी गई, गुड्डू नहीं |
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आभा की सजा मुकर्रर हो गई थी |
गुड्डू के मेसेज देखते ही बाबूजी ने निर्णय ले लिया था, “तो ई सब चलत रहे मोबाइल मा, पढ़ाई के नाम पर | अब नहीं करानी पढ़ाई -वढाई | बस जल्दी से जल्दी नीक लड़का देख के ब्याह कर दी जाई|”
आभा ने रो-रो कर कितनी दलीले दी, “बाबूजी देखो, हमने तो कोई भी जवाब नहीं दिया है | वो तो ऐसी ही लफंगई करता है | हम तो देखते भी नहीं मेसेज | हाँ, इस फालतू बकवास करने से ज्यादा कुछ किया ही नहीं | फिर हमारी पढ़ाई काहे रोक रहे हैं ? इसमें हमारी क्या गलती है ? बाबूजी इसमें हमारी क्या गलती है ?
पर हफ्ते भर के अंदर बाबूजी ने उसकी शादी चौबेपुर गाँव के माधव के साथ तय कर दी | पुरानी जान -पहचान थी | अब इतनी जल्दी और कोई घर कैसे मिलता | ब्याह तो करना ही था | आखिर घर की इज्जत का सवाल था | नाक थोड़ी ना कटानी थी | सात दिन बाद तिलक चढ़ना था और दसवें दिन शादी | अब कोरोना काल में ज्यादा लोगों का जुटान तो होना नहीं था | तो गाँव वालों के आसरे निपट ही जाएगी का भाव था | माँ -बाबूजी के लिए खुशी की बात थी | कोई बात बिगड़े उससे पहले इज्जत से अपनी बेटी विदा कर दे | कम से कम रजनी जैसी मुँह पर कालिख पोत कर तो ना भाग जाए | माधव बारहवीं तक पढ़ा है | इसी सोलर प्लांट में नौकरी करता है | खाता-पीता परिवार है | और क्या चाहिए एक लड़की को खुश रहने के लिए?
दो दिन पहले माधव अपने परिवार के साथ उसे देखने आया था और उसकी अम्मा ने साफ कह दिया था, “देखो, पढ़ाई लिखाई जितनी कर ली हो उत्ती बहुत है | ह्मरे घर बहुओं की कमाई खाने का रिवाज नाही है | वैसे भी आजकल लड़कियों के दिमाग पढ़ लिख के बहुते खराब हो गए हैं | दो पैसे का कमान लागत है, सोचत हैं पूरा परिवार ही खरीद लिया | जमीन जयदाद तो ससुराल की चाहत है पर ई दो कौड़ी के पाछे हुकूम अपना बजावा चाहत हैं | हमरी ननद का तो घर ही बिगाड़ दी | डोली से उतरी और रानी बने चाहत हैं | मूढ़ (सर) भी नाही ढकना चाहत हैं |”
माधव ने भी बातों -बातों में कह ही दिया, “ह्मरे घरे हमरी अम्मा का ही हुकूम चलिहे | पूरा परिवार ले के चली हैं अब उनका भी तो सेवा -टहल मिली की चाही |”
कहना चाहती थी की पढ़ने -लिखने और नौकरी करने का ये अर्थ नहीं की लड़कियाँ घर तोड़ देंगी | कह तो तब भी कुछ नहीं पाई जब दान दहेज तय किया जा रहा था | जहाँ उसकी शिक्षा और सपनों का कोई मोल नहीं था |
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तभी अम्मा ने बाहर से कुंडी खड़काई, “आभा दरवजजा खोलो| देखो कौन आया है मिलने खातिर|”
आभा ने विचारों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में प्रवेश किया | नम आँखों को पोछ कर होंठों पर नकली हँसी चिपकाई और दरवाजा खोला |
सामने मिस ममता खड़ी थीं |
“आभा, सुना तुम्हारा ब्याह हो रहा है” कहती हुई मिस ममता अंदर आ गई |
बीते कई दिनों में पहली बार उसने शब्दों में ऐसा प्रेम सुना था | गले लग कर फफक पड़ी |
“मिस, पढ़ाई छूट रही है मेरी | आप ही ने राह दिखाई थी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स की | पर कॉलेज भी पूरा नहीं होगा, इन्टर ही पास रह जायेगे मिस | नाक तक घूँघट और चूल्हा-चक्की के धुआँ में सब बर्बाद हो जाएगा, क्या फ़र्क पड़ता है बारहवीं में टॉप किये की फेल हो गए | सब मेहनत बर्बाद |”
मिस ममता चुपचाप उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगीं |
“मिस क्या बहुर गए गाँव के दिन .. बिजली आ गई, सड़क बन गई, घर बन गए, स्कूल, कॉलेज भी बन गए | पर लड़की तो अभी भी नाक ही रही ना घर की | घर की इज्जत, जिसे बचाना जरूरी है | गुड्डू ने गलती की पर सजा हमको मिली | उसकी तो बात भी बाहर नहीं आने देंगे वरना लोग कहेंगे की कुछ तो बात थी जो जल्दी ब्याह कर दिया | हमारे सब सपने जल गए मिस | इन सपनों की राख पर गृहस्थी बसानी है | भरी माँग और कलाई भर चूड़ियाँ देख कर लोग कह देंगे, “सब सही है|” बस इतना सुनने की खातिर| किसान कभी कच्ची फसल नहीं काटता पर बेटियाँ तो फसल से भी गई गुजरी है .. जब चाहे काट दो, जहाँ चाहे बो दो , कोई मतलब नहीं.. कोई मतलब नहीं|” इतने दिनों का भरा मन अपने को संभाल नहीं पा रहा |
“ वो इसलिए आभा, तकनीकी विकास, आर्थिक विकास, सुविधाओं में विकास, जरूरी नहीं की सोच में भी विकास ले कर आए | सोच में विकास की लड़ाई लंबी होती है, कठिन होती है | फिर भी किसी ना किसी आभा को इसके खिलाफ उठ खड़ा होना होता है |”
“पर बाबूजी, इज्जत …” आभा हिचकिचाई |
“देखा, तुम भी तो शब्दों के उसे फेर में पड़ी हो | जिसमें तुम्हारे बाबूजी है | तुम चाहती हो पहल बाबूजी से हो पर तुम से क्यों नहीं ? ये तुम्हारी लड़ाई है, कमान संभालो या सारी जिंदगी बाबूजी को कोसते हुए काट लो|” ममता जी ने आभा की आँखों में झाँकते हुए कहा |
“मैं ..मुझसे …मतलब मुझे क्या करना होगा ?” आभा की आँखों में आशा की चमक आई |
“तुम्हारे सपनों को मैं अच्छी तरह जानती हूँ आभा, इसीलिए मैंने शुक्ला जी से बात करी है | उनका कहना है किसी तरह आभा मदद माँगने उनके घर आ जाए | फिर वो संभाल लेंगे | आभा बालिग है उसकी मर्जी के बिना उस पर शादी का दवाब नहीं डाला जा सकता | अगर वो यहाँ आए तो तुम्हारे बाबूजी इनकार कर देंगे और उनके सामने तुम भी मुकर जाओगी | अधिकतर लड़कियां मुकर जाती हैं| ऐसे में सारी फजीहत उनकी हो जाएगी | सोच लो फैसला तुम्हारे हाथ में है |”
“पर कैसे?” आभा ने पूछा |
“किसी सहेली से मिलने का बहाना बना कर निकलो | मेरे पति गाड़ी ले के पहले सोलर पैनल के पास खड़े हैं | मैं भी आगे से साथ बैठ जाऊँगी | 45 मिनट में शुक्ला जी के घर पहुँच जायेंगे फिर वो संभाल लेंगे |” मिस मीता ने कहा |
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दो घंटे बाद बाबूजी के पास शुक्ला जी का फोन आया, “काहे महेशर, बिटिया की मर्जी के बिना उसका ब्याह कर रहे हो?”
“मर्जी के बिना काहे को | उसकी भी राजी खुशी है| लड़का देखा है उसने भी | फिर ऊपर वाले की किरिपा से खाता-पीता घर मिल गया है | पराई अमानत है, सौंपे का है |” बाबूजी ने सच्चाई से बेखबर हो कर कहा|
“पर तुम्हारी बिटिया तो हमरे ढिंग बैठी है | कही है जबरदस्ती ब्याह करा रहे है बाबूजी | का है की बालिग है बिटिया, थाना कचहरी में रिपोर्ट कर दी तो का करिहो “
“उकी इ मजाल” बाबूजी की आवाज में क्रोध था |
थोड़ी देर दोनों तरफ से बातों का दौर चलता रहा |
अंत में शुक्ला चाचा जोर दे कर बोले, “हमहूँ बिटिया के साथ हैं | रिपोर्ट लिखाइबे हमहूँ साथ जाइबे | सोचो महेशर पढ्न की खातिर ब्याह नहीं चाहत है | कैसन बाप हो तुम | बिटिया आपन पैरन खड़ी हुई जाई तो गांवों का नाम भी ऊँचा होई, तुमरा भी| है कॉनहुँ उसके बराबर की होशियार लड़की गाँव मा ?”
अब की बार बाबूजी चुप ही रहे |
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दो घंटे बाद फिर से आभा, शुक्ला चाचा -चाची के साथ वापस गाँव के घर में थी | बाबूजी से देर तक बातें होती रहीं | माधव के माता -पिता को फोन करके कह दिया गया की हमारी बिटिया तो आगे पढ़ेगी | फिर तो उधर से भी ना हो गई |
अगली सुबह, कई दिन बाद आभा ने गूगल मीट पर अपनी मीटिंग आई डी डाल कर फिर से ऑन लाइन क्लास जॉइन करी | आभा के चेहरे पर मुस्कान थिरक रही थी |
आभा गाँव की पहली ऐसी लड़की थी जो पढ़ाई के लिए घर से भागी थी |
आभा के साथ -साथ गाँव की लड़कियों को भी मोबाइल वापस मिल गए उनकी पढ़ाई फिर से शुरू हो गई | गाँव में फिर चर्चे थे |
“ अरे भैया, बिटिया बिटारू जितना काहे उत्ता पढे देओ, वरना अब तो वो पढ़ाई की खातिर भागे लागी हैं |
अच्छी कहानी है, विशेषकर इस समय में जब यह चर्चा प्रासंगिक है ही। लडकी भागी तो है, लेकिन पढ़ाई के लिए। पिता को भी मानना ही पड़ा।
कहानी बताती है कि लड़कियां सजग हैं अब । शादी ब्याह ही उनकी मंजिल नहीं है, उससे पहले कैरियर है।
बहुत बधाई वन्दना जी एक अच्छी प्रेरक कहानी के लिए।
वंदना जी ने इस कहानी के माध्यम से गांव वाले दिन और ग्रामीण बहकहियों की टेढ़ी मेढी ठसक याद दिला दी। खूब रोचकता से लिखी गई कहानी का प्रस्थान बिंदु शिक्षा का प्रकाश………भी सार्थक है। अनेक शुभकामनाएं और बधाई ️
Congratulations,dear Vandana,for this progressive story where the issue and valid emphasis on the education of girls is taken up most powerfully.
You always raise significant social issues and then resolve them in a very progressive manner.
Love n best wishes
Deepak Sharma
बहुत सहज और सरल भाषा में लिखी कहानी.…कहानी पढ़ते हुए लगता है बिल्कुल अपने आसपास की घटनाएं है…मीठी सी भाषा में सार्थक सन्देश देती हुई कहानी…हार्दिक बधाई
अच्छी कहानी है, विशेषकर इस समय में जब यह चर्चा प्रासंगिक है ही। लडकी भागी तो है, लेकिन पढ़ाई के लिए। पिता को भी मानना ही पड़ा।
कहानी बताती है कि लड़कियां सजग हैं अब । शादी ब्याह ही उनकी मंजिल नहीं है, उससे पहले कैरियर है।
बहुत बधाई वन्दना जी एक अच्छी प्रेरक कहानी के लिए।
बहुत बहुत आभार निर्देश निधि जी, आप को पसंद आई लिखना सफल हुआ l
बेहद खूबसूरत कहानी गांव का बेहू सटीक वर्णन
बहुत बहुत आभार सहित प्रणाम आशा दी, आप को पसंद आई लिखना सफल हुआ l
वंदना जी ने इस कहानी के माध्यम से गांव वाले दिन और ग्रामीण बहकहियों की टेढ़ी मेढी ठसक याद दिला दी। खूब रोचकता से लिखी गई कहानी का प्रस्थान बिंदु शिक्षा का प्रकाश………भी सार्थक है। अनेक शुभकामनाएं और बधाई ️
बहुत बहुत आभार कल्पना मनोरमा जी, आप को पसंद आई लिखना सफल हुआ l
Congratulations,dear Vandana,for this progressive story where the issue and valid emphasis on the education of girls is taken up most powerfully.
You always raise significant social issues and then resolve them in a very progressive manner.
Love n best wishes
Deepak Sharma
बहुत बहुत आभार दीपक शर्मा दी, आप का आशीर्वाद मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात है l मार्गदर्शन करती रहें l
बेहद खूबसूरत कहानी, बिलकुल सरल और सहज, बस अपने आसपास की कहानी. लगा ही नहीं कि कहानी पढ़ रही हूँ, लगा सब मेरे आसपड़ोस में घटित हो रहा है.
बहुत बहुत आभार ज्योति दी, आप को पसंद आई लिखना सफल हुआ l
बहुत सहज और सरल भाषा में लिखी कहानी.…कहानी पढ़ते हुए लगता है बिल्कुल अपने आसपास की घटनाएं है…मीठी सी भाषा में सार्थक सन्देश देती हुई कहानी…हार्दिक बधाई
आभार अर्चना बाजपेयी दीदी, आप को पसंद आई लिखना सफल हुआ l
आपने अपनी कहानी के माध्यम से लड़कियों कों स्वप्न देखना और उन्हें पूरा करना सिखा दिया। प्रेरक कहानी के लिए बधाई वंदना जी।
आभार सुधा जी, आप को कहानी पसंद आई लिखना सफल हुआ l