अब हम कहानियां ही तो हैं. भूली बिसरी कहानियां, जिनके अतीत में गुनगुनाती भोर की रागिनियाँ कितना ही मुस्कुराएँ, वर्तमान धूसर रंगों की बनी वो कलाकृति है जिसे अब स्वयं भी परिभाषित करना चाहें तो नहीं कर सकते. यह वक्त का एक उकताया हुआ झुर्रीदार चेहरा है. आओ तुम और मैं मिलकर इस चेहरे पर कुछ क्षणों का उल्लास उगायें. आशा के बीजों का रोपण कर एक नया संसार रचाएं.
हाँ सहयात्री, अब यही तो हमारा हास विलास और परिहास है. हम इसी से बनायेंगे अपने वर्तमान को उज्ज्वल, जैसे ही कहा, दोनों ठहाका मारकर हँस पड़ीं और तुरंत मुद्दे पर आते हुए अपने आम अंदाज़ में संवाद करने लगीं.
चल छोड़ इन दार्शनिक बातों को, यह बता, रक्षा ठीक है न अब? पहले से उसे कुछ आराम आया या नहीं? मुई नामुराद बीमारी उसे ही लगनी थी. अभी तो उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं.
अं..आं..हाँ हाँ, अब पहले से ठीक है. आजकल विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि बड़ी से बड़ी बीमारी चुटकी में ठीक हो जाती है. वो तो अब ठीक भी है और घर व बच्चे भी संभालने लगी है. तू सुना, वो चाची जी के बेटे की मृत्यु के बाद कैसे उनका परिवार गुजर बसर कर रहा है? इकलौता कमाने वाला चला जाए, जीवनयापन करना आसान नहीं होता.
ओ…हाँ हाँ, सही कहा, बस जैसे तैसे खुद को सँभालने में लगे हैं सब. अब संभालना तो पड़ेगा ही न खुद को. आखिर जीवन चलने का नाम है तो चलना ही होगा, दुखों की गठरी पीठ पर लादकर. अच्छा अब मेरी दवाई का समय हो रहा है. बहुत देर हो गयी बात करते, बाद में बात करती हूँ, कहा, और फोन रख दिया. अपने पलंग से उठी, रसोई तक गयी, पानी ग्लास में डाला और थोडा बोतल में भरकर कमरे में आयीं मनोरमा और मेज पर रख दिया. इतने में ही हांफने लगीं. पलंग पर बैठ गयीं. साँस जब सम हुए तब दवाई निकाली और खा ली. उसके बाद स्वयं को न्युबेलाईज़ करने के लिए सामान निकाला, दवाई डाली और मुंह पर मास्क लगाकर बैठ गयीं. जब दवा खत्म हो गयी तब उसे उतारकर बाथरूम में जाकर साफ़ किया, खुद भी कुल्ला किया और सामान उठाकर रख दिया. इतने भर से थक गयी मनोरमा. टीवी चलाया और लेट गयी. देखते-देखते आँख लग गयी.
ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग की आवाज़ से मनोरमा की नींद खुली और उसने अपना मोबाइल कानों पर लेटे-लेटे ही लगाया और अलसाई आवाज़ में पूछा, “हाँ कौन?”
“मैं बोल रही हूँ पुष्पा”
“कौन पुष्पा?”
“अरी अब मुझे भी भूल गयी? क्या अब मुझे भी परिचय देना पड़ेगा? तेरी चचिया सास और कौन सी पुष्पा खानदान में पैदा हो गयी मेरे सिवा”
“ओह..हो, पांय लागूं चाची जी, वो नींद में थी लेकिन लग रहा था जैसे आवाज़ तो जानी पहचानी सी है. अब आपसे फोन पर बात ही कहाँ होती है. आज कैसे अपनी बहू की याद आ गयी?” उठकर बैठते हुए मनोरमा ने पूछा.
“जब बहूएँ याद नहीं करतीं तो हमें ही याद करना पड़ेगा न. अच्छा यह बता, तेरी बहन मोहिनी की नन्द के लड़के की शादी हुई या नहीं?
“नहीं, लेकिन क्यों?”
“अरी, वो प्रकाश के साले का लड़का है उसकी बेटी है. बहुत पढ़ी लिखी, सुन्दर. बस उनके रिश्ते के लिए ही पूछ रही थी. ऐसा कर उसका नंबर दे दे.
ठीक है चाची जी, देती हूँ…लिखो
हाँ बोल
आठ पांच नौ तीन छः एक शून्य शून्य शून्य पांच
वैसे एक बात है, तेरी याददाश्त है गज़ब की. इस उम्र में भी कैसे नंबर याद है.
बस चाची जी, एक यही तो बची है अब. बाकी तो सब छूटता जा रहा है. नंबर याद रहते हैं लेकिन कौन सा सामान कहाँ रखा है, क्या काम करने वाली थी, सब भूल जाती हूँ. याददाश्त ने भी मुझे भूलभुलैया बनाया हुआ है. कभी बिजली के खटके सी एक पल में ऑन हो जाती है तो कभी ऑफ.
इधर मनोरमा फोन पर बात कर रही थी उधर उसका पोता रोहन भुनभुनाता हुआ अपनी मम्मी के पास गया और बोला, “ममा, दादी सारा दिन बस फोन पर ही लगी रहती हैं. इन्हें और कुछ काम नहीं है. फिर बोलती भी कितना जोर से चीख चीखकर हैं कि सारा मोहल्ला सुन ले. आप उन्हें कहो न, थोडा धीरे बात किया करें. मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब होती है. इस घर में कोई भी काम चैन से नहीं कर सकता” सुन निशा भी बडबडाई, “अब क्या करें? उम्र ही ऐसी है. कुछ ही कहो न सुनना न समझना. बेटा झेलना ही पड़ेगा.”
“आखिर कब तक? मुझे बताओ मैं कहाँ जाकर पढूँ?” गुस्से से चिडचिडाते हुए रोहन ने अपनी खीज उतारी.
“तू अपना कमरा बंद करके पढ़ ले. मैं कहती हूँ उन्हें. थोड़ी देर तो शांति रहेगी. वैसे बीच बीच में तू भी टोक दिया कर” कहते हुए निशि मनोरमा के कमरे की तरफ बढ़ गयी.
“मम्मी जी, रोहन पढ़ रहा है. आप थोडा धीरे बात करिए”
“अच्छा अच्छा” कह बातों में मशगूल हो गयीं जैसे निशि ने कोई ख़ास बात नहीं कही. दूसरी तरफ से पूछा गया, “क्या हुआ”
“कुछ नहीं, वही रोज का एक ही राग, धीरे बोलो, धीरे बात करो. जैसे मैं चीख रही होऊं. अरे इन लोगों को और कोई काम नहीं. इनका बस चले तो मेरी जुबान भी बंद कर दें. इन्हें तो बैठी हुई भी बुरी लगती हूँ. अपने सब काम अपने आप करती हूँ. केवल दो रोटी खाने का गुनाह करती हूँ. बाकी किसी पर निर्भर नहीं हूँ तब यह हाल है. कल को इन पर निर्भर हो गयी तो जाने क्या हो” अपने मन की भड़ास निकालते हुए बोलीं, “चलो चाची जी, फिर बात करती हूँ नहीं तो कहीं बोलने पर ही पाबंदी न लग जाए” कह फोन रख दिया. निशि ने कमरे से बाहर निकलते हुए सब बातें सुन ली थीं लेकिन बोली कुछ नहीं. चुपचाप अपने कमरे में आकर अपने काम में लग गयी. अब रोज-रोज का यही माहौल हो तो कोई कब तक बोले और अपनी ऊर्जा व्यर्थ नष्ट करे. ‘मम्मी जी तो बदलने वाली नहीं इसलिए एक चुप सौ को हराती है वाली कहावत पर चलो’ अक्सर रमेश कहा करता. अब उसकी तो माँ है. कहीं फेंक थोड़े सकता है’ सोचकर मौन रह जाती निशि.
दिन की एकरसमयी चर्या के बाद सांझ में मनोरमा अपना भक्ति संगीत लगा लेती. मनोरमा ऊंचा सुनने लगी थीं इसलिए कानों की मशीन भी लगवा दी लेकिन उसका प्रयोग करना भूल जाती और म्यूजिक तेज कर लेतीं. रोहन दनदनाता हुआ आता और आवाज़ बंद कर जाता, जिसे देख मनोरमा आपे से बाहर हो जाती. ‘रोहन, ओ रोहन, अरे मेरा टेप क्यों बंद कर दिया. अब मैं क्या अपने मन से जी भी नहीं सकती? मैं तुम सबके जीवन में हस्तक्षेप नहीं करती तो तुम लोग क्यों मुझे परेशान करते हो?” गिडगिडाने के से अंदाज़ में मनोरमा ने कहा.
“दादी, परेशान तो आपने किया हुआ है. इतनी ऊंची आवाज़ में सुनोगी तो आपको तो अब फर्क नहीं पड़ने वाला लेकिन हम सब जरूर बहरे हो जायेंगे. आपको कान की मशीन दिलवाई है न, उसका प्रयोग क्यों नहीं करतीं?” सपाट लहजे में मनोरमा से कहते हुए रोहन कमरे से बाहर निकल गया. मनोरमा के पास अब कम ही आता जबकि मनोरमा ने कितना लाड प्यार उसे दिया था. रोहन के लिए न दिन देखा न रात, जो उसे चाहिए होता तुरंत हाजिर कर देतीं. रोहन के लिए मोहल्ले पड़ोस में भी सबसे लड़ बैठतीं. मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है यह दादी पोते के प्यार को देखकर जाना जा सकता था. रोहन कुछ गलत भी करता तो उन्हें दिखाई न देता. हमेशा उसकी हिमायत करतीं. निशि और रमेश दोनों उनकी तरफ से माफ़ी मांगते लेकिन उन पर फर्क न पड़ता. आज वही रोहन कितना बदल गया था. अब क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ मनोरमा के व्यवहार में भी परिवर्तन आ गया था तो रोहन भी उनसे कटने लगा था. साथ ही उसकी पढ़ाई की वजह से भी एक दूरी बन गयी थी. ऐसा नहीं था रोहन मनोरमा को प्यार न करता हो लेकिन एक छोटे से घर में यदि कोई एक कमरे में बोले तो पूरे घर में सुनाई देता है. ऐसे में दो पीढ़ियों के अंतराल में स्वभाव में अंतर होना स्वाभाविक है तो उनकी आवश्यकताओं के अनुसार जीवनयापन करने में भी अंतर दृष्टिगोचर होता है. इन दो अंतरालों के मध्य अक्सर निशि फंस जाती.
“अरे बेटा, मैं भूल गयी. अच्छा मेरे लाल, मैं अभी लगाती हूँ” एकदम आवाज़ में नरमी लाते हुए उठी और मेज के ड्रावर में मशीन ढूँढने लगीं लेकिन नहीं मिली. अपनी अलमारी में देखा वहां भी नहीं मिली. घबरा गयी मनोरमा. ‘मेरी मशीन कहाँ गयी? इतनी महँगी मशीन है. खो गयी तो रमेश भी गुस्सा करेगा, कैसे नयी बनवायेगा. अरे मेरी माँ, मिल जा. कहाँ चली गयी’ बडबडाते हुए बिस्तर को उलट पुलट करने लगीं लेकिन तब भी नहीं मिली. एक-एक कर सब चीजें देख लीं. इतना सब करने में ही थकने लगीं तो पलंग पर बैठ गयीं और सोचने लगीं, ‘मैंने सुबह लगाई हुई थी. फिर कहाँ रखी? सब चीजें भी देख लीं. सुबह से सांझ तक के घटनाक्रम पर दृष्टिपात किया किन्तु इस कार्य में याददाश्त ने साथ नहीं दिया. थक हारकर, निराश हो बैठ गयीं. अब न मैं किसी से बात कर सकती हूँ न सुन सकती हूँ. हे भगवान्, मेरा वही सहारा है. वो भी खो गया तो जीवन और कठिन हो जाएगा. कुछ तू ही सहायता कर दे. यानि ईश्वर से भी अरदास लगा दी लेकिन उसने भी कोई सहायता न की. इसी सब में रात के खाने का समय हो गया. रमेश रोज रात का खाना स्वयं देने आता और कुछ समय उसके पास बैठकर, बात करता, हालचाल लेता तब जाता. रमेश का रोज का यही नियम था. बाकी कोई उसके पास आये या नहीं लेकिन रमेश यह नियम नहीं तोड़ता. उस दिन भी रमेश जब घर आया तो घर में शांति देख निशि से पूछा, “क्या बात है, आज इतनी शांति? माँ ठीक हैं न?” अन्यथा घर आवाजों का कोलाज बना मिलता था. कहीं भक्ति संगीत चल रहा होता तो कहीं डेली सोप. रोहन इस समय का सदुपयोग अपने मनपसंद स्पोर्ट्स प्रोग्राम देखते हुए करता था. ऐसे में संदेह लाजिमी था क्योंकि एक तरफ रोहन आज अपने दोस्तों से मिलने गया हुआ था वहीँ दूसरी तरफ मनोरमा की तरफ भी शांति थी. केवल निशि अपना प्रोग्राम देख रही थी तो उसकी आवाज़ इतनी थी केवल वही सुन सकती थी.
“हाँ, ठीक हैं” संक्षिप्त सा उत्तर देकर निशि अपने काम में लग गयी. रमेश के आने पर वो प्रोग्राम देखना छोड़ देती और सीधे किचन में घुस जाती. निशि मनोरमा के किसी कार्य में हस्तक्षेप न करती. वो कब क्या कर रही हैं, हर पल उनकी चौकीदारी न करती. हां, इतना अवश्य था, जब उन्हें जिस चीज की आवश्यकता होती उपलब्ध करा देती थी.
“अरे, इस समय माँ का भक्ति कार्यक्रम चल रहा होता है, आज क्या हुआ और रोहन कहाँ है?” कपडे बदलते हुए रमेश ने पूछा.
“पता नहीं, उन्हीं से जाकर पूछ लो. हम कुछ बोलेंगे तो बुरा मान जायेंगी. रोहन अपने दोस्तों से मिलने गया हुआ है”
“हूँ$$$…ठीक है, ठीक है, मैं ही पूछ लेता हूँ” कहता हुआ रमेश माँ के कमरे में चला गया. मनोरमा उदास बेजान सी पलंग पर बैठी थीं. उनके चेहरे पर उभरी म्लानता चुगली कर रही थी जरूर कुछ अघटित घट गया है. यह देख रमेश समझ गया कुछ गड़बड़ अवश्य है. मनोरमा के करीब पलंग पर बैठ गया और पूछा, “क्या हुआ माँ? तबियत ठीक है न? इतनी उदास क्यों हो?” लेकिन मनोरमा कुछ नहीं बोली. अब कैसे कहें मशीन नहीं मिल रही. अन्दर ही अन्दर घबरा रही थीं. उन्हें याद आ रहा था वो दिन जब घर में मेहमान आने थे. सारा घर उनकी मेहमाननवाजी के लिए जुटा हुआ था और रसोई में से अपने लिए कुछ खाने को लेते हुए उनके हाथ से डिनर सेट की प्लेट टूट गयी थी तब कैसे उन्हें सबने बुरा भला कहा था. पिछली बार उनसे दवाई गिर गयी थी तो रमेश ने ही कितना सुना दिया था. अब मशीन का सुनकर आग बबूला हो जाएगा. इसी गम में उन्होंने कुछ नहीं खाया और न ही बताया. रमेश जिद करके पूछता रहा लेकिन मनोरमा ने चुप की डाट जुबान पर लगा ली तो लगा ली.
रात हुई तो मशीन के गम में खाना चाहे न खाया लेकिन दवाई लेनी तो जरूरी थी सो सोने के समय की दवाई लेने के लिए उन्होंने अपना दवाई का डब्बा खोला और दवाई निकालने लगीं, उसमें उनकी कान की मशीन भी रखी दिखाई दी तो ख़ुशी से नाच उठीं. अब उन्होंने चैन की सांस ली. उनका मन हुआ सबको पुकारकर मशीन मिलने के बारे में बताएं और अपनी ख़ुशी प्रकट करें किन्तु जानती थीं किसी पर फर्क नहीं पड़ेगा अपितु उन्हें ही दो बातें सुना जायेंगे. नींद ख़राब कर दी, अच्छा इसलिए शाम से घर में शांति थी. यही कारण था आज की भूख हड़ताल का आदि आदि. जैसे ही भूख हड़ताल शब्दों ने उपस्थिति दर्ज की, अब उन्हें भूख का अहसास भी हुआ. जब सब सोने जाने वाले थे तब उन्हें लगा, ‘अब कैसे कहूं? नाराज़ होंगे. चलो, मैं ही गरम कर लेती हूँ’ सोच धीरे-धीरे रसोई में गयीं. उनके लिए बनी रोटी निकाली और दाल गरम की. प्लेट में रखकर ले आयीं और खाने लगीं. खाते हुए मन में अनेकानेक ख्याल दबिश देने लगे, “कभी इस घर में मेरा साम्राज्य था. मेरी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था. लेकिन आज मेरी ये दशा है, सबसे डरना पड़ता है. कहीं कोई गलती न हो जाए. किसी को कुछ बुरा न लगे. सत्ता कैसे हस्तांतरित हो जाती है और वक्त कैसे रंग बदलता है. अपने ही घर में आप उपेक्षित हो जाते हो केवल शरीर से अशक्त होने की वजह से. अशक्तता कितना बड़ा अभिशाप है मनुष्य के जीवन में, शायद यही है जीवन का अंतिम सत्य” सोचते हुए उन्होंने भोजन कर दवाई ली और चैन से सो गयीं.
एक अटका हुआ धूप का टुकड़ा पेड़ की पत्तियों से कर रहा था झिकझिक, जाने दो, हटो राह से, मुझे चूमने हैं धरा के पाँव और होना है मुक्त, पवित्र, आत्मीय।
शशश मौन रहो, सारा दिन तुम्हारा ही तो है, जहाँ चाहे विचरण करते रहना। हमें दो पल अपनी सहजता के साथ जीने दो। फिर तो तुम्हारी तपिश से कुम्हला जाएंगी। केवल यही कुछ पल हमारे होते हैं जब हम हँसती हैं, खिलखिलाती हैं, अपने आप को तमाम दिवस की उठापटक के लिये तैयार करती हैं। इस मधुर चुहल से आनंदित व ऊर्जस्वित अनंत यात्रा के पथिक संवादरत हैं। पत्तियों ने जूड़े में बांधा टुकड़े को और नाच उठी प्रकृति।
यही है इनका समन्वय, सामंजस्यता और समर्पण, जहाँ अहम के बाट किसी पलड़े में रखे ही नहीं जाते। दोनों पथिक अपने पथ पर अग्रसर हैं साथ साथ अनंत से अनंत की ओर…मनोरमा घर के सामने वाले पार्क को खिड़की से निहार रही थीं और उस संवाद की गवाह बन रही थीं जो भोर के आगमन पर प्रकृति का कण-कण कर रहा था. यह मनोरमा का प्रतिदिन का नियम है. भोर के प्रथम कदम के साथ ही मनोरमा की दिनचर्या आरम्भ हो जाती. प्रतिदिन वह इसी तरह खिड़की पर खड़ी हो जातीं और अपना टेप रिकॉर्डर चला देतीं. भक्ति संगीत के साथ उनकी आत्मा भी जैसे प्रकृतिस्थ हो जाती. इसी बीच कुछ हलके फुल्के व्यायाम करतीं जो डॉक्टर ने बताये हुए थे. लगभग दो घंटे इस सब में व्यतीत होते. शायद यह संवाद ही उनकी ऊर्जा का स्त्रोत था तभी उम्र बढ़ने के साथ उन्होंने स्वयं को कभी असहाय नहीं बनाया.
भोर होते ही फिर मनोरमा का सुगम संगीत का कार्यक्रम आरम्भ हो गया, यह देख रमेश अचरज में पड़ गया. कल माँ ने सब बंद किया हुआ था, आज क्या हुआ? लेकिन कुछ नहीं बोला, न ही पूछा. उसे पता था कोई लाख कोशिश कर ले, यदि माँ को कुछ नहीं बताना होता तो कभी नहीं बतायेंगी. वह उनकी प्रकृति से अनभिज्ञ न था इसलिए प्रतिदिन की तरह ठीक नौ बजे ऑफिस निकल गया. रमेश के जाते ही मनोरमा ने फोन उठाया और नंबर मिला दिया जैसे उसके जाने के इंतज़ार में ही बैठी हों, “जीजी राम राम”
“आप कौन”
“मैं मनोरमा, जीजी”
“कौन मनोरमा? मैं किसी मनोरमा को नहीं जानती. आपको किससे बात करनी है?”
“अरे अपनी जीजी से बात करनी है और किससे करनी है”
“आपने कहाँ नंबर लगाया है” अब मनोरमा के दिमाग की बंद खिड़की खुली और उसने कहा, “क्या यह यमुनानगर नहीं है?”
“नहीं, यह तो प्रीत विहार है”
“ओह! माफ़ करना, शायद गलत नंबर लग गया” कह मनोरमा ने फोन काटा और दोबारा मिलाया, “हैलो, सुमित्रा जीजी से बात करनी है” उधर से तपाक से उत्तर आया जैसे मनोरमा के फोन का ही इंतज़ार कर रही थीं,
“हाँ, हाँ, मैं सुमित्रा ही बोल रही हूँ. तुम कौन? क्या उषा बोल रही है?”
“नहीं जीजी, मैं मनोरमा बोल रही हूँ. अभी गलत नंबर मिल गया था. अब बुढ़ापे में नंबर भी गलत लग जाते हैं. और सुनाओ जीजी, तुम्हारे गुठनों के दर्द का क्या हाल है? ऑपरेशन कब करवा रही हो?”
“सावन हरे न भादों सूखे मनोरमा, अपना तो वही हाल है. बस जल्दी ही ऑपरेशन करवाउंगी. वैसे तूने सुना क्या ज्योति के बारे में?”
“कौन ज्योति?”
“अरी वही जो हमारे पीहर के घर के सामने अम्मा जी रहती थीं उनकी लड़की ज्योति”
“अं…अं…हाँ, हाँ, याद आया, क्या हुआ ज्योति को?” चौंकते हुए मनोरमा ने पूछा.
“बहुत बुरा हुआ उसके साथ. उसका कल शाम एक्सीडेंट हो गया. पति और बच्चा खत्म हो गए. वो आई सी यू में है”
“अरे राम राम, यह तो बहुत ही बुरा हुआ”
“जवान जा रहे हैं और हम बैठे हैं. जाने हमारा अंत कैसे होगा मनोरमा, कभी कभी सोचकर सहम जाती हूँ. मृत्यु अंतिम सत्य है, जानती हूँ लेकिन इसके भी कितने वीभत्स रूप देखने को मिलते हैं तब डरती हूँ. तुम जानती ही हो मुझे दर्द से कितना डर लगता है. मृत्यु आये तो पल में, पता ही न चले, सड़ सड़ के नहीं मरना चाहती. एक सम्मानजनक अंत चाहती हूँ मैं तो अपना” सुन मनोरमा ने दार्शनिकता के अंदाज़ में अपने ज्ञान की बघार देनी आरम्भ कर दी मानो कितना बड़ा ज्ञानी ध्यानि उपदेश दे रहा हो, शायद जो वो अध्यात्मिक किताबें पढ़ती है उसका असर था,
अंतिम कुछ भी नहीं होता. हर अंत एक आरम्भ है. जीवन भी और मृत्यु भी. सुबह भी और साँझ भी. धूप भी और छाँव भी. फिर किस अंत की ओर भागते हैं? फिर किस आरम्भ की बात करते हैं? यह तो एक चक्र है, एक वृत्त है जिसका न आदि है न अंत. जैसे समय. जिसका न आदि है न अंत. निरंतर गतिमान. बिल्कुल मन की तरह, जिसका कोई छोर पकड़ में ही नहीं आता. निरंतर चलायमान. कभी मंथर गति से तो कभी तीव्र. कभी सारा संसार पाना चाहता है तो कभी निर्लिप्त हो जाता है और वैराग्य की माला जपने लगता है. मौन में भी संवाद करता है. एक ऐसी रेल में बैठे हैं जिसके गंतव्य का न आदि पता है न अंत. बस स्टेशन आये तो उतरना है और चढ़ना है. काल की गति संग नृत्यरत रहना ही मानो जीवन का उद्देश्य है. फिर क्यों पड़ें आरम्भ और अंतिम के फेर में, जब न आरम्भ का पता न अंत का, न ही हाथ में वो अदृश्य डोर है जिसे जैसे चाहें खींच मनानुसार कर सकें या चाह सकें. छोड़ दो स्वयम को प्रकृति की गोद में एक बालक की भांति हो जाओ निर्लेप तटस्थ, परम शांति का अनुभव करोगी.
आओ प्रिये बहना! वृत्त बन जाएँ, गोल गोल घूमें और घूमते जाएँ कि घूमता दिखे सारा ब्रह्माण्ड और न पा सके कोई हमारा छोर. न हम अंत में मिलें न आरम्भ में, यूँ समा जाएँ सृष्टि के कण कण में.
पदचाप की दस्तखत से पाट दें काल के अंतराल…
इधर इनका वार्तालाप चल रहा था उधर रोहन का कुढ़ना चालू था. परेशान हो निशि के पास गया और बोला, “मम्मी एक बात बताओ, दादी आखिर रोज-रोज किस से बात करती हैं? इतनी बातें आखिर ये लाती कहाँ से हैं? सबसे बड़ी बात, उधर भी लोग फ्री होते हैं क्या, जो रोज इनकी बातें सुन लेते हैं?” रोहन ने एकसाथ प्रश्नों की बमवर्षा कर दी.
“रोहन, बेटा, यह बुढ़ापा ऐसा रोग है जिसका कोई इलाज नहीं. जब तक जीवित हो तब तक स्वयं को बहलाने को कुछ तो चाहिए न. अब इस उम्र में और कुछ कर नहीं सकते इसलिए बातों से ही अपना मन बहला लेती हैं तुम्हारी दादी. ऐसे छोटी छोटी बातों से परेशान नहीं होते”
“ठीक है ममा, लेकिन किन लोगों से बात करती हैं दादी? ये हमारे कौन से रिश्तेदार हैं?” बालक मन में प्रश्नों का अम्बार लगा था. माँ के कहे को समझते हुए उसने फिर अगले प्रश्न रख दिए. एक जिज्ञासा उसके मन में दस्तक देती रहती थी. आज उसने अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की ठान ली थी.
“बेटा, मैं तेरी दादी के मन को समझती हूँ. तेरे पापा से भी ज्यादा. तभी तो सब कितना ही नाराज़ हों, मैं नहीं होती. तुम भी बडबडाते हो, गुस्सा करते हो लेकिन इस उम्र के लोगों पर गुस्सा करने से बेहतर है उनको समझने का प्रयास करना. एक दिन देखना जब हम बूढ़े हो जायेंगे और तुम अपने जीवन के उस दौर में होंगे जिसमें उड़ान ही उड़ान होती है, तब हम भी इसी तरह अकेले पड़ जायेंगे. तुमसे बात करना चाहेंगे लेकिन तुम्हारे पास हमारे लिए समय नहीं होगा. तुम अपनी फॅमिली में इतने बिजी हो जाओगे कि शायद जितना समय आज तुम्हारे पापा देते हैं उतना भी न दे पाओ. तब क्या आप्शन बचेगी हमारे पास? या तो अभी से मैं अपनी कोई हॉबी डेवलप करूँ, नहीं तो इसी तरह जीवन गुजारना पड़ेगा”
“यानि बिना बात किये नहीं रहना”
“बात यह नहीं है कि बिना बात किये नहीं रहना बल्कि समस्या यह है कि मैं तुम या तुम्हारे पापा कितना समय दे पाते हैं दादी को? होने को हम एक ही घर में हैं लेकिन कितना बोलते हैं? बस कुछ जरूरी बातें और वो भी चंद वाक्यों में पूर्ण हो जाती हैं. कुछ उनका हाल चाल ले लिया, कुछ अपना दे दिया. अब रोजमर्रा में कोई इंसान बातें भी लाये तो कहाँ से लाये. फिर मैं भी सारा समय उनसे बतिया तो नहीं सकती न. घर के कामों के बाद कुछ समय मुझे भी आराम चाहिए होता है. ऐसे में वो तो अकेली पड़ जाती हैं. फिर अब तुम्हारे दादा जी भी नहीं रहे वर्ना पहले दोनों आपस में बातचीत कर लिया करते थे. जानते हो रोहन, ज्यादा मौन रहो तो जुबान में भी गाँठ पड़ जाती है” समझाते हुए निशि ने रोहन को उत्तर दिया.
“ओह! ममा आपने तो इतना लम्बा चौड़ा भाषण दे दिया लेकिन अब तक मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. दादी किन लोगों से बात करती हैं?” रोहन मुद्दे पर आता हुआ बोला. उसके मन की जिज्ञासा उसे मथ रही थी.
“बेटा, कोई भी इंसान हो, उसका भी मन करता है अपने हमउम्र से बात करने का, अपने सुख दुःख कहने सुनने का लेकिन इस उम्र में मिलना जुलना ख़त्म सा ही हो जाता है. ऐसे में उनके पास कोई और आप्शन बचती ही नहीं. तुम्हारी दादी अपने जैसों से ही बात करती हैं. कुछ रोज वाले नंबर होते हैं, जो उन्हें स्मरण रहते हैं तो वहाँ खूब खुश होकर बात करती हैं और कुछ नए मिलाती हैं. जब उस तरफ उन जैसा कोई नहीं मिलता तो रौंग नंबर कह काट देती हैं”
“यानि सारा दिन दादी रौंग नंबर पर बात करती हैं? हमारे ऐसे कोई रिश्तेदार हैं ही नहीं?” आश्चर्य के आठवें पायदान पर खड़े होकर विस्फारित नेत्रों से निशि को देखते हुए रोहन ने प्रश्न किया और निशि ने प्रत्युत्तर में भरी आँख से “हाँ” में सर हिला दिया.
आज के सामाज की सच्चाई बयान करती कहानी …अकेलेपन की समस्या के साथ और सकारात्मक राहनी की प्रेरणा देती है l बधाई वंदना जी
@vandana bajpai जी हार्दिक आभार आपको कहानी पसंद आयी लिखना सफल हुआ।
रिश्ते और समाज की लोक छवि पर अच्छी कहानी है।