होम ग़ज़ल एवं गीत शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ के पाँच नवगीत ग़ज़ल एवं गीत शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ के पाँच नवगीत द्वारा शिवानन्द सिंह सहयोगी - November 27, 2022 40 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet 1. कई कबूतर घर की छत पर पर्व मनाने आ जाते हैं कई कबूतर | यद्यपि इन्हें नहीं पाला है लेकिन पाले जैसे लगते, नई-नई लय की ध्वनियों से अभिधाओं को ज्यों हों जपते, पीड़ाओं के पैर दबाने आ जाते हैं कई कबूतर | छिटके हैं जो दाने चुगते अभिनव मंत्र सुनाते रहते, जिनकी मधुर अपरिचित भाषा उड़-उड़ जाते-आते रहते, थके हुए मन को बहलाने आ जाते हैं कई कबूतर | इनसे हँस परिचय करती है नवगीतों की भाषा-शैली, इनसे ही अनुभूति निरंतर भरती है बिंबों की थैली, सुधियों को रह-रह सहलाने आ जाते हैं कई कबूतर | 2. हम अनिकेत रहे जीवन बीता बनजारा-सा, सड़कों पर ही, हम अनिकेत रहे | जीवन-यात्रा की गलियों के हर आँगन का लेखा, चले अगर आगे तो पीछे मुड़कर कभी न देखा, आसमान का घेरा ही छत, महल समझ ही, हम अनिकेत रहे | एक ओर थे ऊँचे पर्वत एक ओर थी खाई, चलने के पदचापों में भी बजती थी शहनाई, थिरक उठे साहस के घुँघरू, झनन-झनन ही, हम अनिकेत रहे | नदियों की जलधाराओं से गाने का गुण पाया, झरनों की कल-कल ध्वनियों की मधुर गीत था गाया, भू-तल समझा सहज बिछौना, बिना कहे ही, हम अनिकेत रहे | 3. अच्छे दिन आए लघु रेडियो तरंगों के हैं अच्छे दिन आए | बिंबों के प्रतिबिबों का हर गट्ठर ढोती हैं, श्रव्य-दृश्य कणिकाओं के तल- घर में सोती हैं, उलझे हुए असंगों के हैं अच्छे दिन आए | वैज्ञानिक क्षमताओं का ध्रुव सूर्य उगाते हैं, सद्भावों की गरिमाओं का दीप जलाते हैं, उड़ती हुई पतंगो के हैं अच्छे दिन आए | धैर्य, शान्ति, समझौतों के नव गीत सुहाने हैं, खेलकूद हैं, समाचार हैं, नए-पुराने हैं, छाए हुए मतंगों के हैं अच्छे दिन आए | 4. सोचिएगा इस नए बदले समय में, आततायी हो गया है, आज खंजर, सोचिएगा | कहीं बादल बरसता है, शहर डूबा, कहीं सूखा, मुँहफटा तट, तंग सूबा, बिना बोले फटा बादल, कब हँसेगी गाँव वाली, भूमि बंजर, सोचिएगा | चंद्रमा पर खोजता जल, आदमी जब, भूख को भोजन मिलेगा, तब कहें कब, इस सहज परिवेश में भी, जीवनक यायावरी का, बना कंजर, सोचिएगा | खेत को अट्टालिका का, कल बुलावा, योजना करती रही है, छल भुलावा, इस विकट पर्यावरण में, क्या हँसेगा फुनगियों पर, मौन मंजर, सोचिएगा | 5. एक पीपल का फिर कल निधन हो गया अब कहाँ घंट टाँगेंगी, अगली सदी, एक पीपल का फिर कल निधन हो गया | ये बदलेगा मौसम, पता है किसे, वह न आया, बुलाया गया है जिसे, किन्तु की दुश्मनी ने गजब दलबदल, साँप का नेवलों से मिलन हो गया | क्या घटे, कब घटे, दुख रहा यह सता, रोज अपना बदलती, वसन जब लता, सूक्ष्म कपड़ों का ऐसा हुआ है चलन, अब दुकानों से गायब चिकन हो गया | अग्निबाणों से कब यह, डरा है गगन, बम गिरा, पर कहाँ यह, मरा है यतन, लौट आया उपग्रह गया चाँद तक, इस तरह से सफल है मिशन हो गया | संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं नीलम वर्मा की ग़ज़ल त्रिलोक सिंह ठकुरेला का गीत – मैं उजाला बाँटता हूँ, तिमिर में डूबे घरों में डॉ. रश्मि कुलश्रेष्ठ के दो गीत कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.