‘लड़कियां रूई के फौहे सी नाजुक होती हैं।’ उन्हें घर के कामकाज सिखाए जाते हैं जिससे वे घरों में रहें और जिस तरह ख़ुद को सजाती हैं वैसे ही घर–परिवार को सजाया करें। यूं बेवजह उछलना ठीक नहीं, चलो घर के अंदर।‘ उसे याद आता है कि बचपन में दौड़–भाग मचाते बच्चों की टोली के बीच से हाथ पकड़ कर घर की ओर खींच कर ले जाती हुई दादी हर बार घुमा–फिरा कर ऐसा ही कुछ कहा करती थीं।
‘मुझे भी भाईजान के साथ खेलना है।‘ जब–जब उसने मचल कर कहा, घर की औरतों से उसे झिड़कियां ही मिलीं।
‘घर की औरतें… हाँ संयुक्त परिवार में सदस्यों की गिनती इसी तरह होती है। उसके घर में अम्मी की उम्र के आसपास की चार औरतें थीं। उस उम्र से ऊपर–नीचे भी बहुत सारी महिलाएं थीं ऐसे ही बाक़ी रिश्ते भी थे।
‘वो मर्द है। बाहर की दुनिया में घूमना, अपनी पहचान बनाना, नाम, पैसा और शोहरत कमाना ही काम है उसका। वो दुनिया तुम्हारे लिए नहीं है मेरी बच्ची। तुम घर सम्हलना सीखो। खाना बनाना और रिश्तों को निभाना सीखो। यही सब सीखा हुआ आगे काम आएगा तुम्हारे।‘ वह मन मसोस कर रह जाती। बाहर खेलने का मन होता पर खिड़की में बैठ कर सबको खेलते देखने के सिवा कुछ कर ना पाती।
‘नाज़ुक उम्र से यही बातें मेरे दिमाग में भरी जा रही थीं। घर की हर औरत अपनी–अपनी तरह से सलीक़ेदार बनाने की ट्रेनिंग देने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी। उन्हें भी उनके बचपन में कड़ाही–कड़छे पकड़ा दिए गए होंगे। तिल्लेदार काढाई और पशमीने की कारीगरी सिखने में लगा दिया गया होगा… हुंह।‘ वह अकेली बैठी–बैठी बड़बड़ा रही थी।
‘स्कूल जाया करो। ख़ूब मन लगा कर पढ़ाई करना। ये हमारे ज़माने की बात नहीं है कि बस घर सजा कर, बन–संवर कर शौहर को रिझाने से काम चला लोगी। ज़माना बदल रहा है। सिर्फ बीवी बन कर घरों में दुबके रहने से काम नहीं चलेगा। अच्छी तालीम हासिल करो वही बदलते वक़्त में काम आएगी।‘ ना जाने किस वक़्त अम्मी ने यह कहा था जो बीतते समय के साथ शब्द–शब्द सही साबित होता गया।
‘हमें अपनी बच्ची को तालीम दिलवाने के लिए बाहिर भेजना चाहिए।‘ स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद अम्मी ने ही हिम्मत करके अब्बू से कहा था।
‘बाहिर क्यों भेजना जब अपने वतन में एक से एक कालिज हैं।‘ पलट कर आए सवाल के लिए उन्होंने तैयारी कर रखी थी।
‘यहाँ आधी से जियादा बार तो कर्फ्यू ही लगा रहता है फिर पढ़ाई मुकम्मल कैसे होगी। हमें अपनी बच्ची को किसी सियासी पार्टी का शिकार नहीं होने देना है और साथ पढ़ने वालों की बातों में आ कर पत्थरबाज़ बनाने से भी रोकना होगा। बेवजह की बातों में पड़ कर ये अपनी ज़िंदगी बर्बाद ना कर ले। बस अपनी तालीम पूरी करे तब तक अशफ़ाक मिया़ भी लौट आएंगे फिर हम इनका निकाह पढ़वा देंगे।‘ अम्मी की बात उन्हें पसंद आ गई थी।
‘मर्द ज़ात कितनी अजीब होती है… बीवी की किसी बात को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया फिर सुनने या मानने का तो सवाल ही नहीं होता था पर औलाद की बात आई तो उसी औरत की बात सुन भी ली और मान भी ली!’ वह अपने आप से कह रही थी।
‘कहां भेजने की सोच रही हैं ज़ीनत को?’
‘अब्बू ने मना करने की बजाय जब यह सवाल किया था, मैं तो ख़ुश हो गई थी मगर अम्मी इसके बाद की बातों का रूख़ भांप गई थीं।‘
‘दिल्ली भेजना चाहिए।‘
‘दिल्ली ही क्यूं? कोई ख़ास वजह!’ अब्बू ने पलट कर पूछा था।
Curfew is one of my all-time favorite short stories. An absolute masterpiece!
I fully agree with you Shivani. Bless you.
वन्दना यादव जी की कहानी कर्फ्यू पढ़ी भाषा और शैली के हिसाब से अच्छी भी लगी। पर दो बातें समझ नहीं आईं कि माँ साफ़-साफ़ बेटी को क्यूँ नहीं बता पाई उसके होने वाले शौहर के बारे में?दूसरी बात अशफ़ाक अपनी सास के मना करने पर 10 साल तक काश्मीर नहीं जाता पर ऐसे लोग कभी रोकने से रुके हैं?
—-ज्योत्स्ना सिंह
काफी अच्छी कहानी है वंदना जी! वैसे भी आपको पढ़ना अच्छा लगता है. आपकी श्रृंखला का तो इंतजार है। शायद आपका उपन्यास पूरा हो गया हो।
मां के प्रति बेटी का व्यवहार अनजाने में ही दुराभावों से भरा था।
अंत में यह बात समझ में आई कि उम्र कच्ची होने के कारण माँ बच्ची को यह बात बता नहीं सकती थी और अशफाक से विवाह को रोकने की क्षमता भी उसमें नहीं थी सामूहिक परिवार और पति की वजह से। इसीलिए वह चाहती थी कि बेटी को बाहर पढ़ने भेजा जाए। और वह सक्षम बने ताकि अपने हिस्से के दुख को भोगने की ताकत उसमें रहे।
“क़ीमत औरतों को ही चुकानी होती है… मैं अभी से तैयारी शुरू कर दूं।‘ अम्मी के ये शब्द मेरे वज़ूद पर हावी होने लगे थे। अगर वो जानती हैं कि क़ीमत चुकानी होगी तो उस रास्ते मुझे भेज ही क्यों रही हैं? यही सोचती रही थी कितने वर्षों तक।”
इस कथ्य का राज बाद में खुला। और उसके बाद पछतावा ही हाथ में रहा।
अपने बच्चों के प्रति माँ का समर्पण सिर्फ माँ ही समझ सकती है।
अशफाक का10 साल तक ससुराल नहीं जाने का कारण हमें संदेहास्पद नहीं लगा। इस क्षेत्र में बहुत सारी संभावनाएं रहती हैं। शायद वह यही चाहती थी कि अशफाक भी ना आए क्योंकि वहां जाने से उसकी जान को भी खतरा रहता।
इस तरीके की घटनाएं बड़ी संवेदनशील होती है और बहुत तकलीफ दे जाती हैं। मां की मजबूरी थी कि बेटी को कह नहीं पाई और बेटी ताउम्र उनसे नफरत करती रही।
इस तरह की घटनाओं की सच्चाई जब अंत में सामने आती हैं तो पछतावे की सिवा कुछ नहीं रह जाता।
कहानी में एक माँ की पीड़ा महसूस हुई ।
वंदना जी सशक्त कहानी लिखी है आपने। बहुत से प्रश्न भी उठाती है आपकी कहानी। साथ ही साथ माल की मजबूरी और उसकी ममता के कवच की विशालता भी दर्शाती है। शुभकामनाएं।