प्रिय बुड्ढि माँ,
कहते हैं न मन में सच्ची लगन हो, श्रद्धा हो तो बात पहुँच जाती है जिन तक पहुँचानी होती है इसीलिए शायद मीलों दूर बैठे जब किसी अपने को याद किया जाता है तो उन्हें हिचकियाँ आ जाती हैं । शायद सच होता होगा । स्पंदन तो अवश्य पहुँच जाते हैं । और हाँ जो सामने न कह पाए तो उनके लिए तो शब्दों का सहारा लेने में क्या हर्ज है? तो बुड्ढि मां, इसीलिए आज आपको पत्र लिखने बैठ गई । अब कुछ देर तक आप मूक श्रोता बनकर वो सब सुनिये जो मैं आपको बताना चाहती हूँ । जो मेरे मन में था, है और रहेगा ।
जानती हैं – मैं आपको ‘बूढ़ी मां’ क्यों कहती हूँ ? आप बूढ़ी ही हो न इसलिए ! अट्ठावन की थी तब जब हम मिले थे लेकिन आप लगती थीं सत्तर की तो इसमें मेरा क्या दोष ? अब मैं और स्पष्टीकरण नहीं देना चाहती । आप बूढ़ी ही लगती थीं और है भी । अब स्वीकार करें या नहीं आपकी इच्छा । और हाँ, तब मैंने आपको ‘मां’ की संज्ञा भी नहीं दी थी । अंजान लोगों से रिश्ता बनाने का मेरा कभी शौक नहीं रहा है । तो आपसे कैसे रिश्ता जोड़ लेती?
याद है आपको हमारी पहली मुलाकात ? हम रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे । दरअसल तब मेरी पोस्टिंग उस छोटे से गाँव में हुई थी जो आपके शहर से लगभग चालीस कि.मी दूर था । बात यूँ हुई थी कि उस समय मैं हिंदी साहित्य की शोधार्थी थी और विषय था नारीवाद् । जब संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर मुझ जैसे उच्च श्रेणी अनारक्षित को सरकारी नौकरी का बुलावा आया तो मैं खुशी से पागल ही हो गई थी । क्यों न होती ? यह तो बहुत बडी उपलब्धि थी । मन में नारीवाद उछालें मारने लगा था । फिर क्या, मैंने परिवार से लड़-झगड़ सात सौ कि.मी पार यहाँ गाँव में आकर नौकरी करने का साहसिक निर्णय ले लिया था ।
वार्षिक परीक्षाओं के बाद उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच हेतु केंद्र लगते थे और वहाँ जाकर हम अध्यापिकाओं को उन उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचना पड़ता था । उसी सिलसिले में मैं गाँव से बस पकड़कर आपके शहर आई थी और फिर वहाँ से परीक्षण केंद्र जाने के लिए रेलगाड़ी का सफर करना था क्योंकि वह केंद्र एक सौ पचास कि.मी की दूरी पर था ।
सुबह सात बजे की ट्रेन |
उस दिन मैं उस डिब्बे में चढी जहाँ भीड़ अधिक न थी । मैं हमेशा भीड़ से कतराती हूँ, तब भी और अब भी । आप कोने में बैठी थी… अकेली । आपने आत्मीयता से मेरा स्वागत किया और मैंने…महानगरीय सभ्यता से लिप्त औपचारिक कृत्रिम मुस्कान से । आपको पहली बार देखकर हंसी छूट गई । छवि थी ही आपकी ऐसी । साठ की उम्र रही होगी , चौडा माथा क्योंकि बाल खोंपडी के बहुत पीछे खिसक गए थे । और बालों का इतना झीना आवरण कि कंकाल भी स्पष्ट नजर आ रहा था । एक इंच अंदर धंसी हुई बटन जैसी छोटी गोल आंखे, पिचके हुए गाल, आवश्यकता से अधिक उठे ओंठ, टूंटी जैसा पतला गला ,आगे की ओर झुके हुए कंधे , पतले अस्थि पंजर जैसे शरीर पर लटकती दो भुजाएं, कमर तो मानो जैसे थी ही नहीं । साधारण सी वॉयल साडी में लिपटा जर्जर शरीर । हाँ मुझसे तीन चार इंच आप लंबी थी पर रीड की हड्डी के झुक जाने से आप इतनी लंबी भी न लगती थी बुढी माँ । पूरा का पूरा हड्डियों का ढांचा थीं आप । । अगर कुछ आकर्षित करने की वजह थी आपमें तो वो थी आपकी आत्मीय मुस्कान …पर वो मुझे अधिक आकर्षित न कर सकी क्योंकि मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि अंजान लोगों से मेल मेरी डायरी में नहीं ।
मैंने जल्दी ही आपसे मुंह फेर लिया क्योंकि रेलगाड़ी के साथ दौड़्ते हरे-हरे खेत मुझे आपसे अधिक लुभावने लग रहे थे । आठ बज गए । मैंने अपना डिब्बा निकाला और नाश्ता करने लगी । आपसे पूछने की जरूरत मुझे महसूस ही नहीं हुई । तब तक आप भी बैग से किताब निकाल कर पढ़ने लगी थी । अचानक नजर पडी । आप तो हिन्दी की किताब पढ़ रही थी । मेरी आंखों में प्रश्न देखकर आपने कहना शुरु कर दिया था, ‘मेरा नाम डॉ. कन्या कुमारी है…हिंदी की आचार्य, शासकीय महाविद्यालय । और तुम’? आप मेरे बारे में जानना चाहती थीं । औपचारिकता वश मैंने भी अपना बहुत संक्षिप्त परिचय दे दिया था जिसे सुनकर आप खिल उठी थीं ।
‘ओह … तो आप भी हिंदी की अध्यापिका हो । आपका और हमारा तो मेल हो गया ‘। आप ने चहकते हुए कहा था ।
मुझे फिर हंसी आ गई थी । आपका और मेरा मेल ? कहाँ मैं सुसभ्य परिष्कृत संभ्रांत लावण्यवती आकर्षक युवा नारी और कहाँ आप गवार फूहड़ बूढ़ी हड्डियों का ढांचा । मेरी हंसी छूट गई ।
ट्रेन में फल बेचने वाला आया तो आपने दो केले खरीदे और एक मेरी ओर बढ़ा दिया था । परंतु मैं ने सुस्पष्ट शब्दों में आपको बता दिया था कि मैं अंजान लोगों से कुछ खाने की चीज नहीं लेती हूँ । हम महा नगर वाले अपरिचित पर विश्वास करना मूर्खता समझते हैं । सो मना कर दिया था । तो आपने भी नहीं खाए केले । फिर उसी बैग में अंदर रख लिए थे।
हम साथ-साथ मिलकर केंद्र पर पहुँचे | मेरा तो पहला अनुभव था पर आप तो काफी वरिष्ठ थीं और वहाँ सब आपको जानते थे । उस दिन मेरा चेहरा सबके लिए उत्सुकता का विषय बन गया था । सब के सब आपकी टेबुल पर मधुमखियों की तरह भिनभिनाने लगे थे मेरे बारे में जानने के लिए । उत्सुक और आतुर । एक ने तो यहाँ तक कह दिया था, ‘मैडम जी इस बार आप अपनी बेटी को लेकर आ गई?’
तो आपने सबको कैसा करारा उत्तर दिया था मुझे आज भी याद है । आपने कहा था. ‘जी नहीं … ये भी मेरी तरह अध्यापिका हैं, नई नियुक्ति …और हाँ खबरदार जो शरारत की तो। आप लोगों ने मेरी बेटी कहा है तो बेटी ही मानिए । समझे”। और सब खिलखिलाकर हंसने लगे थे । वातावरण संभल गया था ।
मैं वहाँ घुल मिल गई थी अपने वय मंडली में । आपके साथ बैठना मुझे पसंद न था । और दोपहर को याद है, आप फिर मेरे पास आईं थीं । उन्हीं दो केलों के साथ…एक मुझे देने के लिए । और मैंने निर्लज्जता से तब लेकर खा लिया था क्योंकि अब मैं आपको थोड़ा बहुत जान गई थी न इसलिए ।
शाम को वापसी में हम फिर साथ-साथ ट्रेन में बैठे थे । आपने बातचीत आरंभ की थी । कहा था, “ट्रेन उतरकर फिर तुम्हें तो गाँव जाने के लिए बस पकड़नी पड़ती है । अभी सात बज रहे है । घर पहुँचते नौ बज जाएंगे न और फिर सुबह तुम्हें पाँच बजे वापस बस में बैठना है । है न ? और रात में सफर इतना सुरक्षित भी नहीं है’ ।
‘हाँ’। इतने बड़े प्रश्न का मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया था ।
‘बेकार है इस तरह रात केवल कुछ घंटो के लिए इतनी दूर सफर कर घर जाना …उत्तर पुस्तिका परीक्षण के दिन, तुम मेरे घर में रात गुजार सकती हो अगर तुम्हें ठीक लगे तो… समय भी बच जाएगा और ऊर्जा भी’ ।
बड़ी सहजता से आपने कह दिया था । कुछ सोचा भी नहीं था कि मैं इस आमंत्रण को मैं कैसे स्वीकार कर लूँगी ? मैं तो स्तब्ध रह गई थी कि कौन इस तरह मुझे अपने घर में रात बिताने का आमंत्रण दे सकता है । मेरी आंखों में अविश्वास और गुस्सा देखकर आपने तत्क्षण बता दिया था, ‘देखो चिंता मत करो । मेरे घर में कोई पुरुष प्राणी नहीं है । मैं अपनी माताजी के साथ रहती हूँ । तो तुम्हारी सुरक्षा कहीं बाधित नहीं होगी । मैं तो तुम्हारे लिए ही कह रही हूँ । गलत मत समझो’ ।
मेरी फिर हंसी छूट गई थी । ये ही इतनी बूढ़ी और इनकी माताजी भी अभी तक जिंदा हैं? हे भगवान ! आश्चर्य ! आपके निमंत्रण से मैं थोड़ा विश्वस्त तो हो गई थी लेकिन तब इतनी जरूरत नहीं लगी और बात आई गई हो गई।
परीक्षा कैंप खत्म हुआ और मैं वापस अपने घर । पर आपसे संपर्क बना रहा ।
मैं अब भी आपके बारे में ज्यादा कुछ न जानती थी या जानने की रुचि भी न रखती थी । इस गाँव में रहते तीन वर्ष हो रहे थे । बड़ी तकलीफ सह रही थी मैं । माँ को वापस भेज चुकी थी । नारीवादी ज्वर उतर चुका था । परिवार से दूर अब रहना दूभर बन गया था । मैं स्थानांतरण की जी-तोड़ कोशिश करने में लगी थी । अंततः निर्णय ले ही लिया । लंबी छुट्टी की अर्जी दी , घर खाली किया और बोरिया बिस्तर बांध वापस चली गई थी । पर दुर्भाग्य । कुछ ही दिनों में कॉलेज से बुलावा आ गया था कि नौकरी बचाना चाहती हो तो तत्काल रिपोर्ट करो । अब क्या किया जा सकता था ? नौकरी तो बचानी थी । आना ही था । पर कहाँ रहूँ? घर नहीं था । फिर घर ढूँढने की हिम्मत नहीं रही थी । । ट्रांसफर की आस भी बंधी रही । सोचा दस पंद्रह दिन यूँ ही गुजार लूँ । फिर अगर स्थानांतरण हो जाए तो घर वगैरह का भी सोचा जा सकता है । तो अब ये दस दिन गुजारने थे । कहाँ गुजारती? अकेली जवान औरत । क्या आसान था? परिवार में हम सब बड़े तनाव में थे । फिर क्या ? बस आपका ख्याल आया बुड्ढि माँ । एक बार फिर आपको संपर्क किया और आपने हमेशा की ही तरह सहर्ष स्वीकार कर लिया, बिना सोचे… बिना विलम्ब किए । डूबते को तिनके का सहारा । आ गई आपके घर रहने शरणार्थी बनकर …’मान या न मान…मैं तेरा मेहमान’ ।
तीन महीने आपने मुझे शरण दी । अजनबी को रेलगाड़ी में देखा …बातचीत की… जान-पहचान हुई । मेरी कही हर बात पर विश्वास कर लिया और सहायता का आंचल फैला दिया था आपने । जानती हैं आप … महानगरीय सभ्यता में आपको तो मूर्ख ही कहेंगे बुड्ढि माँ ।
इस अवधि के दौरान आपके बारे में जानने का अवसर मुझे मिला …आपसे नहीं आपकी माताजी से जिनकी उम्र अस्सी के आस-पास थी लेकिन आपसे अधिक जवान तो वे ही थीं । चुस्त दुरुस्त गोल मटोल हट्टी-कटट्टी , अविरल धारा प्रवाह बोलने वाली वाचाल वाक-शक्ति । कभी किसी को मुंह खोलने का अवसर ही नहीं देती थी माताजी । पोपला मुंह नाटी सी काया । लेकिन गजब की स्मरण शक्ति । कानी आंख से अखबार का एक-एक अक्षर पढ डालती थी । सामयिकी पर उनका ऐसा ज्ञान तो सिविल परीक्षा के अभ्यर्थी को भी न हो । माताजी का बिना एक भी दांत के कठोर से कठोर खाद्य पदार्थ का मसूड़ों से चबा-चबा कर खाना तो मेडिकल के छात्र का संभावित शोध का विषय हो सकता था । आपका पूरा वंश पुराण मुझे माताजी ने समझा दिया था । दरअसल हम दोनों की खूब पटती थी । मैं एक अच्छी श्रोता जो थी इस लिए । मेरे लिए तो यह भूमिका विवशता थी और माताजी के लिए मनोरंजन । तो हर दिन वे कुछ न कुछ किस्सा मुझे सुनाती रहती थी । हर घटना ब्योरेवार…साल, महीना, तिथि, समय की प्रामाणिकता के साथ ।
और आपके बारे में मुझे सब बताया गया। आप अविवाहित थीं। यह विकल्प स्वैच्छिक था या अनिवार्यता…इसका भेद तो आप तक सीमित था । परिवार के लिए किया गया समर्पण या त्याग ? पहली संतान होने की सजा आपने भुगती थी । पिता सरकारी मुलाजिम … आपको खूब पढ़ाया, आपके बाद तीन भाई और एक बहन । नौकरियाँ आपके कदमो में बिछती चली गईं और जब पिता ने खाट पकड़ ली, घर की जिम्मेदारी आपके कंधों पर आ गई । बेटे अपनी मन पसंद लड़की से विवाह कर अलग हो गए | आपने छोटी बहन का विवाह सम्पन्न किया । उस जिम्मेदारी से भी मुक्ति पाई और तब तक आप चालीस पार कर चुकी थीं। पिता की मृत्यु के बाद आप परिवार का सहारा बन गई थीं तो आपके विवाह का विचार किसी के मन में अगर नहीं आया तो क्या गलत था ? कैसे आता? आप ही तो पालनकर्ता थीं उस परिवार की । यही कारण था आप रह गई हमेशा के लिए ‘कन्या कुआंरी । इन तीन महीनो में मैंने आप के घर का पूरा इतिहास और भूगोल जान लिया । वैसे मैं आई थी दस दिन के लिए पर तीन महीनों तक प्रतीक्षा की थी ट्रांसफर के लिए । सगे भी इतना सहारा नहीं देते । आपने तो ‘एक अजनबी’ को घर में पनाह दे दी थी । शरणार्थी को आपने अपना बना लिया था …पूरे विश्वास के साथ… पूरे मान-सम्मान के साथ ।
अब तो इस घटना को पच्चीस वर्ष बीत चुके हैं।
अभी पंद्रह दिन पहले भी आपसे बात हुई थी । आपकी काम वाली बता रही थी कि आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है । और हाँ ,वह मेरे बारे में सब जानती है। कह रही थी कि आप ने उसे सब कुछ बताया है । वैसे आप भी कितना जानती हैं मेरे बारे में?? बिना जाने-बिना पहचाने मुझे मेहमान बना लिया था आपने… बिना किसी स्वार्थ के …बिना किसी प्रत्याशा के?
कल शाम आठ बजे सोफे पर रखे फोन पर रोशनी आई । मेसेज आया… आपका था । हैरानी हुई । अभी हफ्ता भर पहले तो आपने घंटा भर बात की थी ।
मेसेज था,’
‘मेरी बड़ी बहन सौभाग्यवती कन्या कुमारी जी कल रात मृत्यु लोक छोड़कर ईश्वर के चरणों में समा गई हैं….।
सादर
भाई गोपीनाथ…।
मैं न विचलित हुई, न दुखी, न विह्वल । बस सन्न रह गई । कुछ क्षणों के लिए सब कुछ ठहर गया । हृदय भारी हो आया । फिर अचानक मैं हंसने लगी आपकी छवि को याद कर …हमेशा की ही तरह । सोचने लगी …मुझे भला दुख क्यों हो?
क्या रिश्ता था हमारा? रिश्ता तो आपने जोड़ा था बुड्ढि माँ , मैं ने तो अपनी जरूरत पूरी की थी । जिम्मेदारी तो आपने निभाई थी , मैं ने तो अपना स्वार्थ सिद्ध किया था । अपनापन तो आपने दिखाया था, मैं तो केवल दिन निकाल रही थी । फिर अब इन मूर्ख आंखों को क्या हुआ बुड्ढि माँ ? अरे ….महानगरीय सभ्यता भूलकर, गंवार बन कर आज क्यों बहने लगी ? क्यों लगा कि अंदर कुछ खाली हो गया है? कुछ टूट गया है । पागल हूँ मैं। क्या अजनबी के लिए कोई रोता है? आंसू बहाता है?
बस एक प्रश्न छैनी लेकर मन खोद रहा है… “कौन हैं आप मेरी…कौन”?
जो संबंध सगे संबंधियों से भी कभी नहीं बनता, वह आपने मुझसे बना लिया था । यहाँ तो अपने भी अगर कुछ करते है तो कितना अहसान जताते है कि हमने तुम्हारे लिए क्या न किया । और आप …! क्या कभी जताया कि आप ने मेरे लिए क्या किया? क्यों मेरी सहायता की? पहले दिन हास-परिहास में मुझे बेटी कहा और अंत तक जिम्मेदारी निभाई ।
और मैं … इस पत्र का आरंभ देखिए ….मैं ने आपको केवल ‘प्रिय’ का सम्बोधन दिया, ‘मेरी प्रिय’ का नहीं । मैं बेटी बन ही न पाई लेकिन आप बिन ब्याही माँ अवश्य बन गई बुड्ढि माँ । आपको मुझ पर गर्व होना चाहिए , है न … मैं ने आपको ‘माँ’ बना दिया । आपको भले ही मुझसे कोई शिकायत न हो पर मुझे आपसे एक शिकायत है । आप कुछ समय मेरे पास आकर बिताती तो मुझे अच्छा लगता और शायद मैं आपके ‘कर्ज’ के कुछ अंश से मुक्त हो जाती । पर नहीं… आप नहीं आईं । मैं तो अब तक मानती थी कि आपका ही कोई कर्ज रहा था किसी जन्म का जिसे आप चुका रही थी मेरी जिम्मेदारी लेकर…मेरी आश्रयदाता बनकर उन तीन महीनों की ।
लेकिन …आज डर लग रहा है कहीं आपने मुझे कर्जदार तो नहीं बना दिया ?
अगर बना भी दिया तो आज आपसे वादा करती हूँ , कितने ही जन्म लेने पड़े मैं आपका कर्ज चुकाने आपके पास अवश्य आऊँगी । और यह कर्ज चुकेगा केवल और केवल आपकी सेवा से । आप भी वादा करो ‘माँ’ आप भी आओगी न? हम मिलेंगे न? मुझे अपनी सेवा का अवसर दोगी न? मुझे विश्वास है मेरी सहायता करने आप हमेशा तैयार तत्पर मेरी प्रतीक्षा करोगी । मेरे लिए …एक अजनबी के लिए जो अपनों से ज्यादा करीब था, प्रिय था ।
अलविदा “माँ”… अलविदा !
एक बार फिर मिलन की आशा में ……
आपकी निवेदिता ……………।
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु. विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, जन कृति, अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , स्मृति लेख , साहित्यिक आलेख ,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन. राष्ट्रीय स्तर पर सी डेक पुने द्वारा आयोजित भाषाई अनुवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत. संपर्क - padma.pandyaram@ gmail.com

1 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.