पहले चौपाल हुआ करती थीं लेकिन अब अड्डे होते हैं जहाँ चाय की चुस्की के साथ लोग बाग बैठकर गप्पें मारते हैं और दुनिया जहान की बातें किया करते हैं.
ऐसे ही एनसीआर के एक छोटे से पार्क में हर शाम अपने-अपने काम से रिटायर हुए कुछ लोग ज़िंदगी से रिटायर नहीं होना चाहते इसलिए नियत समय पर इकट्ठे होकर यहाँ बैठकर रोज़ाना गपियाते हैं. ठठ्ठा मारकर हँसते हैं और ज़ोर-ज़ोर से अटहास करते हैं. कभी बिना सिर पैर की बातों के भी बहस मुबाहिसों में मशगूल हो जाते हैं जिनका न कोई आदि होता है न अंत.
हँसते-बोलते, लड़ते-झगड़ते फिर एक दूसरे को मनाते हुए ये सब दुःख, पीड़ा बेबसी और अकेलेपन को ठहाकों में उड़ाते हैं. इनके पास दुनियाभर के विषय हैं. अनगिनत बातें हैं.
और भी बहुत कुछ है जिसे केवल यहाँ बैठकर, इनको सुनकर महसूस किया जा सकता है. हर शाम पार्क की इस जगह का यही नजारा देखने को मिलता है. यहाँ शाम गुलज़ार रहती है जो इनके एकाकी होने को बाँटती है. इनके भीतर झाँकती है. इन्हें सुनती सुनाती है.
मैं इनमें से एक नहीं हूँ. इनकी दोस्त भी नहीं हूँ और न ही इनकी उम्र की मगर मुझे इनकी बातों में रस मिलता है इसलिए मैं भी नियत समय पर आती हूँ. अकसर एक्सरसाइज़ करते हुए इनसे थोड़ी दूरी पर बैठकर इनकी बातों का आनंद उठाती हूँ.
ये समझते हैं मैं एक्सरसाइज़ कर रही हूँ जबकि वह तो बहाना है. मैं इन्हें सुनने और समझने के लिए ऐसा करती हूँ. क्यों? यह तो मैं भी नहीं जानती लेकिन हर बात में क्यों ही हो क्या यह आवाश्यक है? कुछ मनचिन्हे कार्य बिना बात भी कर लेने चाहिए केवल स्वयं को ख़ुश रखने के लिए जैसे ये कर रहे हैं ऐसे ही मैं भी इनके साथ-साथ वही कर रही हूँ.
ये सब अनुभवों की खान हैं, इनके सफ़ेद बाल, चेहरे की ताम्बई रंगत इनके संघर्ष की कहानी कहती हुई प्रतीत होती है. यहाँ न जात है न धर्म केवल इंसानियत जो ढूँढे से भी नहीं मिलती.
यूँ तो ये पाँच हैं मगर एक आज अनुपस्थित है शायद आउट ऑफ स्टेशन होने के कारण. जिसे ये चारों मिस कर रहे हैं.
कभी किसी समय ये सब एक दूसरे के लिए अजनबी थे मगर अब रोज़ मिलते-मिलाते अच्छे-ख़ासे दोस्त बन गए हैं. लीजिए, शाम की बतकही शुरू हो चुकी है.
साइलेंस. चुपके से सुनिए मेरे साथ और गर्मागर्म बहस का मज़ा लीजिए.
“अरे, तौबा तौबा…. क्या कह रहे हो गुप्ता जी. इतने परेशान क्यों हो? घोटाले ही तो हैं. ये तो रोज़ की बात हो गए हैं. अख़बार पढ़कर या टी. इतना डिसटर्ब होने की क्या वजह है आख़िर. किसी का मर्डर तो नहीं हुआ ना. मतलब, थोड़ा दूरंदेशी से काम लो और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए ठंडे दिमाग़ से सोचो ज़रा, आख़िर ये घोटाले क्यों होते हैं?”
अशोक झा ने कहा.
हाँ में हाँ मिलाते हुए शर्मा जी भी बोल पड़े
“हाँ, गुप्ता जी, पहेलियाँ क्यूँ बुझा रहे हो? सीधे-सीधे अपनी बात कहो ना.”
“तुम्हें ये पहेलियाँ लग रही हैं. तुम्हें कैसे समझाऊँ. ये घोटाले मर्डर से भी अधिक ख़तरनाक होते हैं. क्या तुम नहीं जानते? इनकी वजह से भीतर ही भीतर जाने कितने लोगों को हमेशा के लिए नींद की गोद में सो जाना पड़ता है. हद्द है यार नासमझी की भी.”
“क्या मतलब” अशोक झा ने कहा
“अरे,क्या यह देश अपना नहीं है? क्या इसमें घटित होने वाली घटनाओं से अपना कोई सरोकार नहीं? क्या इन घोटालों से हमारा जीवन प्रभावित नहीं होता? हम खाते इस मिट्टी का हैं लेकिन इसके लिए कुछ कर नहीं सकते. डिसटर्ब न होंगे तो क्या करेंगे.”
गुप्ता जी ने झुंझलाकर कहा
“किसने कहा नहीं है? यह देश हम सबका है लेकिन यह बताओ ज़रा. हम जो भी कार्य कर रहे हैं, वह देश की प्रगति के लिए नहीं है क्या? अच्छा, क्या कभी घोटालों को समझने का प्रयास किया है? एक बार नहीं बार-बार समझने पड़ेंगे तब जाकर कहीं इनके असल मंतव्य तक पहुँच पाओगे गुप्ता जी. नहीं तो वही ढाक के तीन पात हाथ में होंगे और हाँ, डिसटर्ब होने से क्या होगा. स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा जो इस उम्र में उचित नहीं है.”
शर्मा जी ने फिर से गुप्ता जी की तरफ देखते हुए कहा. शर्मा जी की बात सुनकर गुप्ता जी गंभीर हो गये और लगे सोचने. तभी साथ में बैठे अशोक झा ने टिहोका मारा
““उम्र की बात क्यों करते हो यार, ‘अभी तो वह जवान हैं. क्यों गुप्ता जी मैं सही कह रहा हूँ ना. चलिए छोड़िये भी और चाय पीजिये. यह कोई नई बात नहीं है. अब तो आदत सी हो गयी है, हमारा देश घोटालों का देश घोषित कर देना चाहिए. और यह हमें भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए बस. आप अपना मूड क्यों बिगाड़ते हो? छोड़ो यार, कोई नई बात करो यार.”
“सही कहते हो शर्मा जी. और भी ग़म हैं ज़माने में घोटालों के सिवाय” अशोक झा ने हो हो हँसते हुए कहा.
“बात करनी है तो उस स्वयं से विवाह (सोलोगेमी) करने वाली गुजराती लड़की पर करो जो समाज की दशा और दिशा दोनों को बिगाड़ने पर तुली है या वो नूपुर जिसने मुहम्मद साहब पर अपने बयान से विदेश तक खलबली मचा दी है या धर्म बनाम राष्ट्रवाद पर..”
शर्मा जी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा लेकिन गुप्ता जी अब झल्ला उठे थे. कुछ ग़ुस्से में भी दिखाई दे रहे थे. वह बोले
“अरे, रहने भी दो. हरेक की अपनी ख़ुशी जो चाहे करे. मुझे अब किसी पर बात नहीं करनी. कल करेंगे.
“अच्छा चलो चाय दो गुप्ता जी को.’ अशोक झा ने कहा
“अरे, हाँ, तुम ठीक कहते हो मगर यह चाय ठण्डी हो गयी जबकि अशोक आप जानते हैं ना कि गुप्ता जी गर्मागर्म चाय पीने के आदी हैं.
अशोक झा होठों ही होठों में मुस्कराए और फिर धीमे से बोले
“तभी तो गुप्ता जी गर्मागर्म विषय भी बटोर लाते हैं बहस के लिये और इस पार्क की हर शाम सुहानी हो जाती है. कोई मुद्दा तो चाहिए ही बातचीत के लिए. चलिए कोई बात नहीं. गुप्ता जी के लिए दूसरी चाय मँगवा देते हैं.”
यह कहकर अशोक झा ने उनका कुल्हड़ उठाया और एक बार में सारी चाय पी गया.”
गुप्ता जी अशोक झा को देखकर मुस्कराने लगे. वह तो मन ही मन घोटालों के विषय में बड़े मनोयोग से चिंतन मनन में लगे थे और उँगलियों की पोरों पर चलता हुआ अँगूठा बता रहा था कि वह घोटालों का हिसाब-किताब लगा रहे हैं मगर बीच में ही नए नए विषय आ जाने से उनका ध्यान भंग हो गया और वह असहज सा महसूस करने लगे.
तभी अफ़रीदी मियाँ बोल पड़े
“मैं इंटरनेट पर अभी एक मूवी देखकर आ रहा हूँ ‘इरादा’ स्कैम विषय पर ही है. अब तो पुरानी हो गयी है लेकिन अच्छी मूवी है. देखना तुम सब भी. एक लेबोरेट्री है जिसमें अत्यधिक कैमिकल्स के इस्तेमाल के कारण वहाँ के स्थानीय लोग कैंसर के शिकार हो जाते हैं. सत्ता यह सब जानती ही नहीं बल्कि उस स्कैम में शामिल भी है.”
“अच्छा,. फिर तो ज़रूर देखूँगा.” गुप्ता जी बीच में ही बोल पड़े. अफ़रीदी मियाँ ने फिर बोलना शुरू किया.
“ज़रूर देखना. आपको अच्छी लगेगी. सच बात तो यह है कि जनता केवल वोट बैंक है या वह साधन मात्र है ऐसे घोटालों की भरपाई के लिये. उनके सुख-दुख से किसी भी पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है. हाल यह है कि वे घोटालों की भरपाई के सबसे आसान रास्ते भी खोज लेते हैं. जैसे प्रोवीड्ंट फ़ंड, फ़िक्स डिपोजिट आदि में इंटरेस्ट रेट कम कर देते हैं जो नौकरी पेशा या आम लोगों की ख़ून पसीने की कमाई होती है. यह तय है कि लगातार घोटाले हो रहे हैं और होते रहेंगे. वसूली तो जनता से ही होनी है. जनता बेचारी गाय है जिसके दूध का दोहन होना ही होना है.”
“अफ़रीदी मियाँ देखते नहीं गुप्ता जी तल्लीन है हिसाब किताब में. आप उन्हें क्यों डिस्टर्ब कर रहे हैं.”
अशोक झा ने फिर से चुटकी ली. गुप्ता जी ने उन्हें घूरकर देखा जैसे अशोक की बात उन्हें अच्छी न लगी हो. फिर उसे इग्नोर करते हुए अफ़रीदी मियाँ से बोले
“सही कहते हो अफ़रीदी मियाँ, घोटाले और दंगे ये सब राजनीति के हथियार बन गए हैं. मेरा हृदय इन दंगों को देखकर पीड़ित होता है और घोटालों पर दुखी और आक्रोशित भी क्योंकि इन सबसे हार तो आम आदमी की ही होती है. उसके ही खून पसीने की कमाई का यह हश्र देखकर मन पीड़ा और क्षोभ से भर जाता है मगर हम कुछ कर नहीं पाते तो यहाँ पार्क की बेंच पर हर शाम पाँच बजे दोस्तों के बीच में मन को हल्का करने के लिए चले आते है.”
बात अब गम्भीर हो चली थी. सबने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर गुप्ता जी की तरफ देखकर उन्हें ध्यान से सुनने लगे.
“और फिर मैं तो अकेला भी हूँ. परिवार में कोई बचा नहीं. दोनों जवान बेटे एक साथ कार में आग लगने से ख़त्म हो गये. एक बेटे की तो नयी नयी शादी हुई थी. जब लड़का ही न रहा तो वह लड़की क्या करती उसे उसके माता पिता ले गए और दूसरा विवाह करवा दिया. मेरी बीवी उनका सदमा न सह सकी तो सालभर बाद वह भी मुझे छोड़कर चली गयी.“
यह कहते-कहते अध-रोयी सी उनकी आवाज़ लरजने लगी.
सभी का हृदय एक साथ पिघल उठा. कुछ क्षणों के लिए खामोशी छा गयी उसके बाद एक सामूहिक आवाज़ सुनाई दी
“हम हैं ना गुप्ता जी. आप अकेले नहीं हैं.“
“हाँ, मैं जानता हूँ. यह अशोक मुझे कितना भी चिड़ा ले मगर उसकी चुटकी में भी प्यार होता है. यह मैं समझता हूँ इसलिए कभी बुरा नहीं मानता.”
“गुप्ता जी, मैं तो यूँ ही बस. आप अच्छी तरह जानते हैं कि मेरा मन एकदम साफ़ है. मुझे हँसी मज़ाक़ की आदत है तो हो जाता है ऐसा. फिर भी माफ़ी माँगता हूँ आपसे अगर आपका दिल दुखा हो तो.”
“अरे नहीं झा. माफ़ी-वाफ़ी मत माँगो यार. तुम सब ही तो मेरी फेमिली हो. वरना तो मैं एकदम अकेला हूँ. अब तक तो मर ही जाता अगर तुम सब ना होते.
अफ़रीदी मियाँ से रहा नहीं गया. वह बोले
“यार मरने-वरने की बात तो मत करना. तुम अलग तरह से अकेले हो मैं जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि बहुत मुश्किल है ऐसे जीवित रहना मगर एक बात याद रखो कि इस उम्र में हम सब अकेले हैं. शर्मा जी परिवार के होते हुए भी अकेले हैं. और यह जो अशोक है ना यह भी कम अकेला नहीं है. इसका एक ही बेटा है जो अमेरिका में रहता है. इनका वहाँ मन नहीं लगता इसलिए यहाँ रहते हैं. बीवी को कैंसर है. बस, उसकी तीमारदारी में लगे रहते हैं. मन से दुखी और बहुत अकेले हैं इसलिए यहाँ बैठकर थोड़ी सी चुहालबाज़ी करके अपने को खुश करते रहते हैं.”
“तुम अपनी नहीं कहोगे अफ़रीदी मियाँ. तुम्हारे दर्द से हम सभी परिचित हैं. बेटी का ब्याह किया मगर वह ससुराल में न रह सकी. उसकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है आप पर साथ में पाँच बच्चे हैं जिनके पालन पोषण का ज़िम्मा आपका ही है और यही नहीं ख़ुद को हाई शुगर, हाई बी पी है. किडनी ख़राब हो चुकी है. फिर भी दुःख है कि क्या मजाल जो चेहरे से झलक जाय. होठों पर सदा मुस्कराहट रहती है. सच बात तो यह कि यहाँ हरेक की अपनी एक अलग कहानी है. हर एक दुखी और व्यथित है मगर हर शाम ठहाकों में जीने वाले ज़िंदादिल इंसान हैं सारे.
“सही कहा शर्मा जी आपने.”
यह कहकर गुप्ता जी अचानक ख़ूब ज़ोर से खिलखिलाए और बोले
“छोड़ो ना यार ये उमर-शुमर और दुःख दर्द की बातें. कठपुतलियाँ नहीं बनना है हमें इसलिए जमकर हँसो मुस्कराओ. हर पीड़ा को ठेंगा दिखाते हुए. चलो आज मेरे घर पर एक-एक जाम हो जाए.”
गुप्ता जी की इस बदली हुई तस्वीर को देखकर सब अवाक रह गए. उनकी हँसी इतनी खनक़दार थी कि अभी भी जैसे चारों तरफ गूँज रही थी. क्षणभर पहले वह आकंठ दर्द में डूबे हुए थे और अब वह ख़ूब ज़ोर से हँस रहे थे.
कभी सुना था मगर आज प्रत्यक्ष देख भी लिया कि जो सबसे अधिक दुखी होता है वह खुलकर हँसता है. लोगों को उसकी हँसी तो सुनाई देती है लेकिन अंतड़ियों को तोड़ता हुआ दर्द नहीं दिखाई देता.
जबकि सच तो यह है कि जो सबसे ज़्यादा हँसता है, वही भीतर से सबसे अधिक दर्द में डूबा हुआ होता है. हँसी के ठहाकों में अपनी पीड़ा को उड़ाने वाले ये सभी शानदार दोस्त हैं और लगभग आठ नौ साल से इसी तरह मिलते और बतीयाते रहते हैं. एक दूसरे का दुःख समझते हैं और बाँटते भी हैं.
गुप्ता जी के शब्द सुनकर सबने हाँ में सर हिला दिया. उनके निमंत्रण पर सबकी स्वीकृति की मोहर लग चुकी थी तो उठते हुए गुप्ता जी बोले
“अच्छा मैं चलता हूँ. तैयारी भी तो करनी है तुम सबके लिए. अभी छ बजे हैं. ठीक सात बजे हम सब एक साथ हमारे घर पर मिल रहे हैं.”
अशोक झा ने उन्हें रोकते हुए कहा
“गुप्ता जी, टेंशन क्यों लेते हो. यहाँ से सीधे एक साथ आपके साथ चलेंगे और तैयारी जो भी करनी है मुझे बता दीजिएगा. मैं कर लूँगा.”
“अरे नहीं अशोक, तुम क्यों परेशान होते हो. मैं कर लूँगा.”
“ठीक है तो अभी बैठिए थोड़ी देर और.”
“ठीक है तो साथ ही चलेंगे.”
तभी चाय वाला चाय ले आया और साथ में समौसे और जलेबी भी जिसे देखकर अशोक झा ने कहा
“सबसे पहले गुप्ता सर को दो.”
“अरे, मुझे ही पहले क्यों? और फिर मैं सर कब से हो गया?”
“आज तो सर कह लेने दीजिए. आप उम्र में हम सबसे बड़े हैं.”
“हाँ, वो तो हूँ मगर तुम सबका दोस्त हूँ भई. वही रहने दो. दोस्ती में उम्र, शुम्र का क्या काम?”
“हाँ, वह तो सही है मगर”
“मगर क्या? और यह क्यों कहा तुमने कि आज तो सर कह लेने दो?”
अशोक झा, शर्मा जी और अफ़रीदी ने मुस्कराकर एक दूसरे की तरफ देखा और एक साथ बोले
“हैप्पी बर्थडे टू यू,
हैप्पी बर्थडे टू यू,
हैप्पी बर्थडे टू डीयर गुप्ता,
हैप्पी बर्थडे टू यू…
आश्चर्य से गुप्ता जी उन तीनों की तरफ़ देखा और मुस्कराकर बोले.
“ओह, तो तुम सबको मेरा बर्थडे याद है.”
केवल आठ शब्द बोलने में ही उनकी आवाज़ भर्रा गयी.
“सर हम फ़ैमिली हैं तो भूल कैसे सकते हैं. चलिए अब आपके साथ चलते हैं. आज की शाम हमारी फ़ैमिली के नाम.”
अशोक ने कहा और सारे उठकर साथ चलने लगे.
गुप्ता जी की चाल में एक गमक थी मगर आँखों में नमी और दिल बल्लियों उछल रहा था.
मैं अभी तक उन सबकी बातों का आनंद ले रही थी मगर आज गुप्ता जी की बर्थडे है यह जानकर मुझेसे रहा नहीं गया. मैं लगभग दौड़ती हुई सी उनके पास गयी और बोली
“कोंगरेट्स सर.”
“थैंक्स अ लॉट.”
“मे आय जॉइन यू अंकल?”
उन चारों ने आश्चर्य से एक दूसरे की तरफ देखा फिर मेरी तरफ़ देखकर गुप्ता जी बोले.
“तुम जॉइन करोगी हमें?”
“ज़रूर, देखिए ना, अनजाने ही सही मैं भी आपकी आपकी दोस्त हो गयी हूँ. हम हर दिन यहाँ मिलते हैं. हेलो हाय तो होती ही है. दूर बैठी एक्सरसाइज़ करते हुए मैं आपकी बातों को सुनती रहती हूँ यानी बिना हिस्सा लिए भी आपकी बातों की भागीदार बनी रहती हूँ. इस तरह मैं भी इस फेमिली की मेम्बर हो गयी ना.”
“हाँ, हाँ, क्यों नहीं, क्यों नहीं. आओ, आ जाओ. पहले हम पाँच दोस्त थे. अब छ: हो गए. बहुत अच्छे.”
“थैंक्स अंकल.”
“दोस्त मानती हो तो अंकल क्यों? नाम लो या गुप्ता जी कहो फिर”
“ओके. दोस्त अंकल.”
सबके चेहरे खिल उठे थे. आँखें आह्लादित थीं.
चाल की गमक थोड़ा और बढ़ गयी थी.