साहित्य अकादमी के ‘साहित्य मंच’ पर पिछले दिनों पढ़ी गई हीरालाल राजस्थानी की कहानी ‘रिवर्स गियर’ पुरवाई के पाठकों के लिए प्रस्तुत है :

कुणाल दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में बतौर कला अध्यापक के पद पर कार्यरत था। जिसमें ज्यादातर दलित बस्ती के गरीब परिवार से ही बच्चे पढ़ने आया करते थे। कुणाल का मानना था कि कलाशिक्षा द्वारा बच्चों को व्यवहारिक और रचनात्मक बनाया जा सकता है। इसमें बच्चों की काल्पनिक दुनियां को प्रोत्साहित करने की क्षमता अन्यों विषय से ज्यादा होती है…।
कुणाल अपनी उम्र के पैंतीस साल पार कर चुका था और साथ ही पार चुका था आरक्षण व्यवस्था के ज़रिए अपनी पुश्तेनी गरीबी और जातिगत पेशे को भी। कुणाल स्वाभाविक रूप से प्रगतिशील सोच का व्यक्ति था। वह कभी-कभी अपने सहकर्मियों के बीच जाति-धर्म की खींचतान व कुतर्क बातों के जवाब में बस एक ही बात कहता- “अध्यापन अध्यापक का धर्म है और विषय उसकी जाति। इसके अलावा सब बेकार की घिसी-घिसाई बातें है।”  इन तेवरों के कारण कई अध्यापक उसे ‘आंबेडकर का ‘क्लोन’ तक कह देते थे। ये गर्मागर्म बहसें आमतौर पर सरकारी कार्यालयों की दिनचर्या का हिस्सा बनी रहती हैं जिससे बच पाना मुश्किल है।
कुणाल जैसे ही स्कूल में दाखिल होता। बच्चे उसे घेर लेते और गुरु सम्मान में गुड मॉर्निंग-नमस्ते जैसे अभिवादनों की झड़ी लगा देते। कोई आर्ट रूम की चाबी पकड़ता, कोई पानी की केतली तो कोई किताबें व कैटलॉग। मना करते-करते भी बच्चे नहीं मानते। कुणाल को उनमें अपना सात साल का बेटा कृष नज़र आता। जो घर पहुंचते ही उसके हाथ से सामान पकड़ने के लिए दौड़ पड़ता था। यूँ ऐसे ही बच्चों में होड़ लगी रहती। जिसके जो हाथ लगता, उसे लेकर दौड़ता हुआ सीधा आर्टरूम पर ही जाकर रुकता और इधर कुणाल हाज़री लगाने प्रिंसिपल रूम में। यहीं पर औपचारिकता निभाते हुए, एक बार तो अध्यापकों का ध्यान कुणाल की ड्रेसिंग सेंस पर ज़रूर जाता। जो अध्यापकों के बीच, रोज़ चर्चा का विषय बना रहता। इस तरह आपसी दुआसलाम, हाय-हेलो की व्यवहारिक प्रक्रिया विराम लेती।
इन सबके साथ ही रोज़ की तरह परंपरागत रूप से प्रार्थना सभा और ज़रूरी सूचनाएं जिसमें शिक्षा से जुड़े प्रशासनिक आदेश, नीतियां, अनुशासन और नैतिक शिक्षाओं के बड़े-बड़े उदाहरण विद्यार्थियों को मंच से प्रेषित किये जाते। बच्चे मन-बेमन बिना जाने-समझे तोते की तरह से रटा-रटाया गुणगान कर लेते। कभी-कभी विद्यालय के प्रधानाचार्य भी विद्यार्थियों को संबोधित करते और अनुशासित रहने की हिदायतें देने का क्रम जारी रखते। अध्यापक भी बिना उत्साह के यह कर्म अपनी जिम्मेदारी के तहत निभा जाते लेकिन जो कर रहे हैं या करवा रहे हैं। वो बच्चों तक पहुंच रहा है या नहीं। यह तो परीक्षाओं में ही पता चलता है। जहां बच्चे कई बार अनजाने ही अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं। लेकिन कुणाल इस पछड़े से कुछ अलग था। वह अच्छी तरह से जानता था कि बच्चों में आकृतियों और रंगों के माध्यम से कैसे कोई विचार पोषित किया जा सकता है।
कुणाल बच्चों से चित्रों के अलावा स्लोगन, कविता व आलेख लिखवाना भी अपने अध्यापन कार्य में शामिल रखता। उसका मानना था कि जब तक बच्चे विषय से जुड़ेंगे नहीं तो समझेंगे क्या और समझेंगे नहीं तो करेंगे क्या?
कक्षा सातवीं सी में रोज़ ही कुणाल का पहला पीरियड ‘हैप्पीनेस कॅरिकुलम’ का होता। जिसमें बच्चों को सहज भाव से विषय पर ध्यान केंद्रित कर अध्ययन करना सिखाया व समझाया जाता लेकिन उनके परिवेश की थाह कोई नहीं लेता।
क्लास में घुसते ही कुणाल ने ब्लैक बोर्ड पर नज़र डाली, वहां कुल बयालीस में से चौतीस बच्चे उपस्थित और आठ अनुपस्थिति थे। यह आंकड़े लिखना मॉनिटर के हिस्से का, रोज़ का काम था। इसी बीच बच्चों ने कुणाल के घुसते ही उसके स्वागत में ‘सरजी जी गुड मॉर्निंग, वैलकम टू दा क्लास रूम सेवेंथ सी’ जो अंग्रेजी को महत्व देने के लिए हर स्कूल में रटाया जाता है, जिसे अध्यापक के आने पर औपचारिक अभिवादन के रूप में बच्चों द्वारा दोहराया  जाता है। “गुड़ मॉ..र्निंग।” कुणाल ने प्रतिउत्तर में लयबद्धता के साथ वात्सल्य भाव से लंबा खींचते हुए कहा था। आज हैपिनेस की क्लास में बारी थी कहानी की। कुणाल ने कहा “आज हम कहानी पढ़ेंगे, नहीं-नहीं हम सब मिलकर एक कहानी बनाएंगे। आप पूछेंगे कैसे? तो इसके लिए हमने कुछ नियम और अनुशासन तय किये है और वो ये कि एक शीर्षक आपको दिया जाएगा। उस पर एक वाक्य, एक विद्यार्थी को बोलना है और मैं उसको अपनी इस डायरी में उसके नाम के साथ लिख लूंगा। जो सबसे पहले हाथ ऊपर उठाएगा वही कहानी की शुरुआत का पहला वाक्य बोलेगा और अपना वाक्य बोलकर वह दूसरे किसी बच्चे की ओर इशारा करके अगले वाक्य के लिए आमंत्रित करेगा। अगली बारी उसी की होगी। वह उस विषय को आगे बढ़ाते हुए अपना वाक्य बोलेगा ताकि कहानी का क्रम न टूटे। ऐसे ही क्रम जारी रखते हुए हर बच्चा अपना-अपना एक वाक्य बोलकर कहानी को आगे बढ़ाएगा।”
कुणाल ने कहानी के नियम- कायदे बता दिये थे। बच्चों में उत्सुकता थी कि आज कुछ, अलग तरह से खेल जैसा कुछ होगा।
“तो ठीक है”
कुणाल ने कहानी शुरू करने के इरादे से कहा था।
“यस सर”
सभी बच्चे एक सुर में बोल पड़े या कह सकते हैं कि चिल्ला उठे।
“ओके-ओके! तो कहानी का शीर्षक है ‘माँ’।”
कुणाल ने जैसे ही शीर्षक बताया। वैसे ही बच्चे एक-दूसरे की तरफ उत्साहित होकर देखने लगे। इस पर कुणाल ने फिर से नियम याद दिलाते हुए कहा- “देखो जिसको भी अपना वाक्य बोलना है। वह पहले हाथ ऊपर उठाएगा। फिर जिसको कहा जाए वो अपना वाक्य बोलकर कहानी को आगे बढ़ायेगा। जिसे मैं लिख लूंगा।”
यह अनुभव और प्रयास कुणाल के लिए भी नया था। जिसका परिणाम वह खुद भी नहीं जानता था लेकिन इसके ज़रिए बच्चों में सोचने और बोलने की क्षमता का विकास होना निश्चित था। यह कुणाल अच्छी तरह से जानता था। “तो शुरू करें?”
कुणाल ने बच्चों का ध्यान आकर्षित करते हुए पूछा।
“यस सर।”
बच्चों ने एक बार फिर हाँ में हाँ मिला दी थी।
“तो सबसे पहले कौन बोलेगा?”
कुणाल ने खेल का बिगुल बजा दिया था। कई बच्चों ने हाथ ऊपर उठा लिए थे। कुणाल ने सबसे पहले शिवम से पूछा। जो सबसे पीछे बैठा हुआ हलचल कर रहा था।
“हाँ तो पहला वाक्य तुम बोलो शिवम।”
कुणाल अब अध्यापक से संचालक की भूमिका में आ गया था। शिवम ने कहा- “मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती है।” कहकर उसने पवन की ओर इशारा कर दिया था। यह पहला वाक्य कुणाल ने अपनी डायरी में लिख लिया था और अब वह बारी-बारी से सभी के वाक्य लिखने वाला था। बच्चे अब पवन की ओर देख रहे थे और सभी माँ को सोचने लगे थे। बच्चों के बीच अब शोर कम होता जा रहा था। सभी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। पवन के अपने वाक्य में कहा- “वो मेरा बहुत ध्यान रखती है।”
पवन ने बिना देर किये ही एक सामान्य सा वाक्य बोल दिया था और देख रहा था कि अब किसको दारोमदारी दी जाए। उसने रोशन की ओर ऊँगली कर दी। रोशन जैसे तैयार बैठा था।
“माँ घर का सारा काम करती है जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन मांझना, घर की साफ-सफाई करना और घर पर रहकर हम सब परिवार वालों का ध्यान रखना।”
कहकर रोशन ने तुरंत ही तरुन का नाम घोषित कर दिया। अब बच्चे खेल को समझ गए थे और गंभीर भी हो चुके थे। “वह एक दिन बीमार पड़ जाती है।”
तरुन ने उदास होकर कहा। शायद उसकी माँ बीमार रही होगी। कुणाल ने पूछा- “क्या तुम्हारी माँ सच में बीमार है?” “जी सर। दो दिन पहले हुई थी।”
तरुण से धीरे से कहा था।
 “ओह।”
 कुणाल ने बस इतना ही कहा था। तरुन ने इमरान की ओर ऊँगली कर दी थी।
 “बीमारी में भी वो हमारा ख्याल रखती हैं।”
इमरान ने झट से कहानी में जोड़ा। क्लास का वातावरण माँ के आवरण में ढक चुका था। अब गौतम की बारी थी। जो इमरान के सामने ही बैठा था। जिसके कंधे पर हाथ रख इमरान ने अपनी मशाल गौतम को थमा दी थी। गौतम खड़ा हो गया। उसने बहुत भरे मन से कहा- “मेरी माँ कम पढ़ी लिखी है और फेक्ट्री में काम करने जाती हैं। वापस आकर घर का काम भी करती है। पापा उनसे जबरदस्ती लड़ाई झगड़ा कर, माँ को मार-पीट कर उनसे पैसे छीन, उसकी दारू पी जाते हैं।  वह रोज़ रोती हुई सो जाती है और सुबह जल्दी उठ मुझे तैयार कर लंच पैक कर स्कूल के लिए भेजती है।”
गौतम एक सांस में सामने दीवार पर लगे मदर टेरिसा के फोटो को, जो गौरव ने ‘मदरस डे’ पर क्लास रूम में लगाया था, देखते-देखते अपनी आँखों देखी कह गया तथा इसके साथ ही वह कक्षा में बनाए कहानी के नियम भी तोड़ गया था लेकिन कुणाल बिना खलल डाले गौतम की बातें सुनकर लिख रहा था। पूरी क्लास में सन्नाटा पसर गया था। गौतम की आंखों में आँसु भर आये थे, घने बादलों की तरह चूने लगे थे। कहानी के नियम की तरह ही गौतम के सब्र का बांध भी टूट चुका था और आंसु उसके गाल पर लुढक रहे थे। नियम टूटने के बावजूद एक अलग तरह का अनुशासन बन गया था, कहानी कई मोड़ों से गुज़र रही थी। अचानक पीयूष बोला- “माँ हमारे लिए सब कुछ करती है फिर भी मार खाती है।”
पीयूष का दर्द भी जैसे आह भर रहा था। उसने बेझिझक ही कहा। तुरंत बाद साहिल बोल पड़ा था।
“तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए।”
साहिल ने सुझाव दिया।
“किस तरह की मदद?”
कुणाल ने साहिल से प्रश्न किया। तभी इमरान बोला- “गौतम को अपने पापा को समझाना चाहिए।”
“हां हां।”
कुछ बच्चों ने हां में हां मिलाते हुए एक स्वर में आलाप खींचा। क्लास अब पंचायत का रूप ले चुकी थी और कुणाल सरपंच की तरह गौर से माँ की व्यथा-कथा सुन व लिख रहा था। कक्षा का वातावरण उदासी से भरता जा रहा था।
“मैं जब बोलता हूँ कि माँ को मत मारो, तो इतना कहने पर पापा मुझे भी मारने लगते हैं।”
गौतम सुबकते-सुबकते कह रहा था।
“तो तुझे पुलिस हेल्पलाइन नम्बर पर फोन करना चाहिए।” शांत बैठे प्रशांत ने जैसे जेब से सब तालों की चाबी निकालकर गौतम के सामने रख दी हो।
“नहीं यह घर का मामला है। पुलिस को नहीं, अपने चाचा-ताऊ या मामा-नाना को बुलाना चाहिए।”
नकुल ने तपाक से कहा। गौतम अभी भी खड़ा ही था। उसने नकुल की बात का उत्तर देते हुए कहा- “माँ मना कर देती है, वो कहती है कि मामा-नाना को कभी मत बताना वो परेशान हो जाएंगे और चाचा-ताऊ को तो बिल्कुल भी नहीं। वो हमारी हँसी उड़ाएंगे।”
गौतम एक ही सांस में कह गया था, अपनी माँ के कहे गए शब्द।
“ज़ुल्म करने वाले से ज़ुल्म सहनेवाला ज़्यादा गुनहगार होता है।”
साहिल ने अपनी आवाज़ में दम लाते हुए कहा था। शायद यह उसने किसी कहानी की किताब में पढ़ा होगा या फिर किसी अध्यापक के व्याख्यान में सुना होगा। लेकिन बात तो बिल्कुल पते की थी और सही मौके पर कही गई थी। क्लास में पिन ड्रॉप साइलेन्स हो गया था। इस बीच पीरियड की घंटी ने इस अवसाद पर जैसे डंका मार दिया था। कुणाल क्लास से बाहर तो निकल आया था लेकिन उसके अंतस में बुआ की पंखें पर झूलती हुई लाश सादृश्य पुनः उभर आई थी…।

2 टिप्पणी

  1. रिवर्स गेयर एक बहुत ही अच्छी कहानी रही। मां के प्रति जुड़ाव और बालमनोविज्ञान पर आधारित कहानी।

  2. यह जेंडर सेंसिटिविटी पैदा करने वाली प्रयोगशील कहानी है। माँ को लेकर गौतम का दर्द सबका दर्द बन गया है। यही बात इस कहानी की ताकत है। यह शायद लड़कों का स्कूल है। कोई छात्रा कहानी निर्माण में हिस्सा लेती नहीं दिख रही है।
    कहानी अच्छी हैै। विराम चिह्नों के प्रयोग में थोड़ी सावधानी की दरकार है।

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