हिंदी के साहित्य जगत में नासिरा शर्मा को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। नासिरा जी के अबतक आधा दर्जन उपन्यास, दर्जन भर के करीब कहानी संकलन, कई लेख संकलन एवं आधा दर्जन से अधिक अनुवाद की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। अपने उपन्यास ‘पारिजात’ के लिए  नासिरा शर्मा को साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित हो चुकी हैं। वहीं पानी की समस्या पर केन्द्रित ‘कुइयाँजान’ के लिए कथा यूके का प्रतिष्ठित इंदु शर्मा कथा सम्मान भी आपको प्राप्त हो हुआ है तथा ‘कागज की नाँव’ उपन्यास के लिए व्यास सम्मान से भी आप विभूषित हैं। इतने बड़े औरा की लेखिका नासिरा शर्मा ने आज पुरवाई के लिए अपनी कहानी ‘कैदघर’ भेजी है, जिसे प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है।

वकीलन ख़ामोश बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठी थीं। उनके चेहरे पर उदासी थी। आँखें लोहे के बड़े से दरवाजे़ पर टिकी थीं। उन आँखों में ग़म, गुस्सा, इंतज़ार और बेबसी थी। बड़ा सा घर साँय-साँय कर रहा था। एक कमरे से दूसरे कमरे में कब तक फिरें? चारों लड़कियाँ गोरी चिट्टी सलीकेमंद थीं। लड़के वालों की लाइन लगी थी। हर खानदान चाहता था कि लड़की हमारे घर की बहू बने। वकीलन विश्वास से भरी ताश के पत्तों की तरह खानदानों को फेंटकर ‘इक्का’ तलाश करती। पालनहारे ने जाने कौन से करमों के फल दिए कि चार ‘इक्के’ राजा बन आए और लड़कियों को ब्याहकर ले गए। अब बात है तन्हाई की, लड़कियाँ ससुराल में, दोनों लड़के कभी दुकान या कॉलेज में और मियाँ कोर्ट-कचहरी में, अब यह अकेलापन बाँटे किससे, उस मुरदार क़ेसर से जो अंदर बावर्चीखाने में हंड़िया भून रही है?
एकाएक वकीलन की नज़र अपने हाथ पर पड़ गई। चौंककर उन्होंने हाथ को इधर-उधर घुमाया और आँखें हैरत में डूब गईं। दुःख से उन्होंने आह भरी और दिल ही दिल में कह उठी कि आखिर यह कैसे धब्बे हैं? पहले तो नहीं थे? कहाँ से आए? अभी तक मुझे दिखे क्यों नहीं, तौबा-तौबा, कोई देखेगा तो क्या सोचेगा कि वकीलन अपने हाथ रगड़कर नहीं धोती है जो मैल जमा पड़ा है? कल ही झाँवे से रगड़-रगड़कर धोती हूँ। तभी उन्हें याद आया कि केसर ने दूध उबाला कि नहीं, वहीं से बैठे-बैठे चीखीं।
‘केसर, दूध उबाला—नहीं तो फट जाएगा।’
‘उबाल लिया है’ जवाब मिला। जवाब सुनकर भी उन्हें चैन नहीं आया। ख़याल गुज़रा कि मुई ने ढक्कन भगौने पर लगाया या नहीं? आजकल छोटी-छोटी छिपकलियाँ चली हुई हैं एकआध टपक गई तो—मेरे मौल्ला हराम चीज़ से दूर ही रखना। हड़बड़ाई सी वह बावर्चीखाने में पहुँची। जिस बात का डर था वही हुआ। भगौना खुला पड़ा था। कै़सर बेगम बाल खोले आटा गूँध रही थी। बस लग गई आग वकीलन को, सारा घर सर पर उठा लिया आवाज़ वकील साहब के आफिस तक पहुँचने लगी जो बावर्चीखाने के पीछे सड़क की तरप़फ़ था।
वकील साहब पहले मोअक्किलों में उलझे चीख-पुकार सुन नहीं पाए मगर जब काम में खलल पड़ने लगा तो परेशान हो उठे। अपनी आवाज़ ही बेगम की चीख से कटती सी महसूस हुई। मोअक्किल पुराना था। चुपचाप चला गया पान लेने ताकि वकील साहब शर्मिंदगी से बचें और वह सरदर्द से। आज वकील साहब को बेगम का यह तेवर पहली बार नागवार गुज़रा। आखिर अब यह चीख-पुकार रोज़ का िक़स्सा बन चुकी है। इसका खत्मा कहीं तो होना चाहिए मुंशी को इशारे से बताया और कुर्सी से उठकर घर की तरप़फ़ गए। आवाज़ अब सीधे कानों में चुभने लगी दिमाग़ भिन्ना गया। एकाएक तेज़ चलते हुए आँगन में पहुँच गए। देखा बेगम अजीब तरह से बिगड़ रही है। चेहरा टेढ़ा सा हो रहा है। आँखें खूने कबूतर। यह हुलिया तो उन्होंने उनका पहले कभी देखा नहीं था ताज्जुब में पड़ गए। मियाँ को यूँ आँगन में आन खड़ा देखकर उनकी चिल्लाहट पर ब्रेक लगा मगर आवाज़ की तलखी कम न हुई।
‘यहाँ से चाय नहीं जाएगी। बाज़ार से मँगवाकर पिलवा दें। सारे वक़्त चाय बनाती रही कै़सर, तो खाना कब पकाएगी?’
‘आप ज़रा इधर आएँ’ वकील साहब ने बड़े शाइस्ता लहजे में कहा। वकीलन समझ गई कि जब मियाँ गैरों की तरह तमीज़ से बात करते हैं तो इसका मतलब है वह बहुत ताव में हैं। पीछे-पीछे वकील साहब के संग कमरे में गई!
‘बैठिए।’
‘क्या बात है?’
‘कहाँ से बात शुरू करूँ?’ वकील साहब कुछ नर्म लहज़े में बोले।
‘क्यों कुछ ज़रूरी काम था जो भूल गए?’ वकीलन ने चिंता दिखाई।
‘मैं—कहना चाहता हूँ कि मेरा काम ज़रा अलग तरह का है, तरह-तरह के लोग आते हैं तुम इस तरह क्यों गुस्सा करती हो? यह नौकरानी भी चली गई तो—’ बात घुमा दी वकील साहब ने।
‘तो? आपका मतलब है कि हम गंदगी खाएँ, कीड़े-मकोड़े निगलें?’ वकीलन ने उलटा सवाल वकील साहब से पूछा।
‘ज्यादा टोका-टाकी से वह टिकेगी नहीं और काम तुम्हें करना पड़ेगा, मैं तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूँ’ वकील साहब उनकी तेज़ आवाज़ से झुँझला उठे।
‘मेरे भले के लिए?’ वकीलन की आँखों में खून उतर आया। लगा दिल किसी ने हाथों में लेकर मसल दिया हो। उनकी इस हालत को देखकर वकील साहब घबरा से गए।
‘मेरी फिक्र है आपको कि उस मुई कै़सर की? आपको फुर्सत है अपने मुकदमों से जो मेरा भला सोचेंगे?’ वकीलन के चेहरे पर कटाक्ष था।
‘आहिस्ता बोलो आहिस्ता—’ वकील साहब ने हाथ हिलाया।
‘कहीं जाने देते हैं जो मैं आहिस्ता बोलूँ? पूरे तीस साल से मैं इस घर में कै़द हूँ। बचपन बीता, जवानी गुज़री, अब अधेड़ हुई कभी तो घुमाने ले जाइए? मायके मत जाओ, बहन के घर मत जाओ, बस दरोगा बन इस घर की रखवाली करो कौव्वा हकनी बनी’ वकीलन की आवाज़ भर्रा गई।
‘काम करना है—यही हमारी रोज़ी है। तुम चाहती हो कि भरी थाली पर लात मार दूँ और तुम्हारे पहलू से पहलू जोड़कर बैठूँ—क्यों सच कह रहा हूँ न?’
‘बस झूठी तो मैं हूँ। चैन से गड्डियाँ गिनो नोटों की, जब मैं ही िज़ंदा नहीं रहूँगी तो यह घर यह धन दौलत किस काम का?’
‘अब तुम चली जाओगी तो मैं घर बाहर कैसे सँभालूँगा? आखिर आदमी शादी इसीलिए तो करता है कि घर की मालकिन सारा बंदोबस्त सँभाले और वह चैन से कमाए। तुम मरना-जीना लेकर बैठ गईं।’
‘मैंने कब इनकार किया मगर काम के साथ तुम ताज़ा हवा खा लेते हो कुछ नए चेहरे देख लेते हो, हँस-बोल लेते हो मगर मैं—क्या इन दीवारों से सर फोड़ूईँ—बस मुझे मायके जाना है। कब से भाई बुला रहे हैं। अब्बा की तबीयत ठीक नहीं है।’
‘खत आया है?’
‘नहीं, मेरा दिल कहता है कि वहाँ कुछ हादसा हुआ है। मुझे जाना है। चाहे मैं एक दिन के लिए ही जाऊँ मगर जाऊँगी ज़रूर_ शुक्र कीजिए कि अभी आँखों की शर्म बाकी है जो इजाज़त माँग रही हूँ वरना नाफरमानी करने में कितनी देर लगती है।’
‘चली जाना—सब इंतज़ाम कर दूँगा।’
‘सुन रही हूँ पिछले पाँच सालों से, कब आएगा वह मुबारक दिन जब मैं मायके जाऊँगी। मानती हूँ पहले जवान लड़कियाँ थी। उनकी जिम्मेदारी थीं। मगर अब किसको ताकूँ अपने को या आपको?’
‘बस, बहुत हो चुका, मैं चलता हूँ तुम ज़रा अपने को सँभाले’ सख़्त लहजे से कहते हुए वकील साहब घर से बाहर निकले।
खिसियाई सी बेगम मसहरी पर टाँग उठाकर बैठ गई। दिल में गुबार था जो कि शिकवों की शक्ल में उमड़ रहा था। दिल चाह रहा था कि किसको पकड़कर पीट दें। क्या उठाए जो पटक दें। अब उनकी झुँझलाहट का रुख अपने बड़े बेटे की तरप़फ़ मुड़ गया। उनको अपनी तन्हाई का एक ही तोड़ नज़र आ रहा था। वह था बेटे की शादी मगर वह भी तो शादी के लिए राजी नहीं होता है जो लड़की दिखाओ उसी में बुराई निकालता है कि इसके बाल कटे हैं। उसके बाल लंबे हैं यह दुबली है। वह फैशन बहुत करती है। अरे उसको कौन समझाए कि बाल छोटे बढ़ते भी हैं। काँटे जैसी सूखी लड़कियाँ फूलकर गुब्बारा हो जाती हैं। फैशनपरस्त लड़कियाँ दो बच्चे पैदा कर पोतड़े धोने में ऐसा लगती है कि सर में तेल तक डालना भूल जाती हैं। अब मुझे ही देख्ाो। कितनी हसीन लगती थी। बेदाग़ चेहरा था। गोरे-गोरे हाथों पर लाल कामदार चूड़ियाँ कैसी ग़ज़ब की लगती थीं मगर अब यह धब्बे—या ख़ुदा तूने बुढ़ापों की मंजिल को इतना कठिन क्यों बनाया है कि आदमी अपना चेहरा देखकर डर जाए और आइना तोड़ बैठे?
बाहर गेट पर मोटरसायकिल रुकने की आवाज़ सुनकर वकीलन के चेहरे का भाव बदल गया। छोटा बेटा सल्लू ट्यूशन पढ़कर लौटा है। उन्होंने चेहरे पर हाथ फेरा। बालों को सर पर समेटा ताकि उनके बेहाल होने का अंदाज़ा उसको न हो। माँ की कमज़ोरी बच्चों को पता नहीं चलनी चाहिए वरना माँ का एतबार बच्चों के दिलों में डोल जाता है। खासकर लड़कों के सामने तो क़तई नहीं वरना धौंस जमाने में यह असली मर्द की औलाद होते हैं माँ का आँचल भूल बैठते हैं।
‘अम्मा, कैसे चुपचाप बैठी हो?’ सल्लू ने कमरे में घुसते ही पूछा।
‘बस, अपने लाल का इंतज़ार कर रही थी।’
‘आज बड़ी भीड़ थी। मैं पहले नहा लूँ।’
‘हाँ, होगी ज़रूर। ऊपर से गर्मी, नहा लो जाकर मैंने तो चाय भी नहीं पी, तुम्हारी राह देख रही थी।’
‘मेरी चाँद जैसी अम्मी’ बेटा माँ से लिपटा।
‘दूध मँगवाती हूँ अब ज्यादा दुलार नहीं।’ क़हक़हा मारकर वकीलन हँस पड़ी। वह बेटे का चेहरा देख निहाल हो उठी थी। बाल माथे से हटा उसको चूमा।
‘तुम कितनी अच्छी लगती हो अम्मा’ बेटे ने माँ के गाल पर प्यार किया।
‘चल हट, बातें बनाना सीख रहा है।’ ख़ुशी से खिल उठी वकीलन।
‘सच तुम जैसा मुझे कोई नहीं लगता है अम्मा—आपा भी नहीं।’ कहता हुआ लड़का गुस्लख़ाने की तरप़फ़ बढ़ा।
इस बात को सुन वकीलन संजीदा हो उठी और कुछ-कुछ शंकित भी। बड़ी लड़की उनकी जवानी की तस्वीर कहलाती है। लड़का जो कहता है यही सच नहीं है कई लोग और कह चुके हैं कि सुल्तान, तुम्हारे हुस्न पर कोई लड़की नहीं गई है। आखिर क्या है ऐसा मुझमें जो वकील साहब भी शमा पर पतंगा बने मँडराते रहते हैं? सभी कहते हैं तुम अपनी लड़कियों की बड़ी बहन लगती हो। और तो और उस दिन मुए फकीर ने बड़े बेटे के साथ जाते हुए हाथ फैलाकर कहा था, अल्लाह! जोड़ी बनाए रखे। ख़ुदा की मार! वकीलन ठट्ठा मारकर हँस पड़ी। कमरे में दूध चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर घुसती कै़सर ठिठककर रह गई। उसने झिझकते हुए मेज़ पर ट्रे रखी और कमरे से बाहर निकल गई। उसकी समझ में कुछ नहीं आया तो उसने खुले बालों का जूड़ा बनाया और सर ढका कि कहीं वह पीछे से आकर एकाएक चीख न पड़े।
‘निगोड़ी! काम के वक़्त यह अपने झुतड़े बाँधकर क्यों नहीं रखती है तभी तो खाने से बाल निकलता है।’
घबराई चकराई कै़सर बावर्चीखाने में जाकर कुछ देर चुपचाप खड़ी रही फिर सर झटककर बर्तन धोने में लग गई। उसको आज एक साल होने को आया इस घर में काम करते हुए मगर वह वकीलन को अभी तक नहीं समझ पाई है। पल में तोला पल में माशा। पिछले जुमेरात को दो नए जोड़े बाज़ार से लाकर दिए और आज बिना बात के बिगड़ रही थीं। कई बार दिल में आता है कि काम छोड़ दे मगर फिर सोचती हूँ कि बाक़ी लोग तो घर के ठीक हैं। पैसा भी ठीक मिलता है।
‘कै़सर’ फटी सी आवाज़ दूर से वकीलन की कै़सर के कान में गूँजी। फौरन नल बंद करके वह भागी-भागी गई।
‘देखो, आठ बज रहे हैं खाना तैयार है?’
‘जी’
‘अब बड़े भैया के आने का वक़्त हो रहा है शायद खाना खाकर दोबारा निकले’ फिक्र में डूबी सी वकीलन बोलीं और टीवी पर नज़रें गाड़ दीं जिस पर कोई फिल्म चल रही थी। कै़सर की नज़रें भटककर स्क्रीन पर जम गई। पंखे की हवा ठंडी-ठंडी उसके बदन में लगी तो उसको लगा उसकी सारी थकान उतरने लगी है।
‘काम हो गया हो तो बैठ जा फिल्म अच्छी है।’ वकीलन नर्म स्वर में बोलीं।
‘जी’ कहती हुई कैसर पैर समेटकर दरवाजे़ के चौखट से लगी बैठ गई।
‘अरे अंधीमारी पास आकर बैठ ज़रा बदन में हवा तो लगने दे।’ प्यार भरी झिड़की दी वकीलन ने और नज़रें टी-वी- पर गाड़ दी।
घड़ी तेज़ी से भाग रही थी। रात के दस बज रहे थे। वकीलन का दिमाग़ चल रहा था। मियाँ आफिस से बेटा कंप्यूटर सेंटर से अभी लौटा नहीं था। उनका दिमाग़ फिर गर्म होने लगा। यह भी कोई जिं़दगी है?
‘बस घड़ी का मुँह तके जाओ। सुइयों को भागते देखते जाओ। मेरी सेहत इन्हीं बातों से गिरती जा रही है, वकील साहब समझते नहीं हैं। उन्हें तो बस मुकदमों से मतलब है। लोग उनकी तारीफें करते हैं मुझे तेज़-तर्रार कहते हैं क्यों न हूँ तेज़ आखिर अल्लाह ने अक़्ल दी है। समझती हूँ सब कुछ तभी तो बिना ढूँढ़े लड़के घर आकर लड़की ब्याह ले गए मगर अब बहू कैसी मिलती है अल्लाह जानें? दूसरों के से अंडों से निकले चूज़े का कोई एतबार नहीं बस इसी बात की फिक्र मुझे खाए जाती है। मुझे लाना तो अपनी पसंद की लड़की है। बहुतेरे लड़के मन मर्जी की शादी रचा रहे हैं मगर इस घर में सब नहीं चल सकता है। अरे भाई, मुझे रहना है बहू के साथ, कोई हँसी खेल नहीं हैं—देखो खाना खाया सुबह तक हल्क में भरा रहता है आखिर हज़म होने के लिए भी तो वक्त चाहिए। पूरे बारह बजे दोनों बाप-बेटे घर लौटेंगे। मैं बांदी बनकर खासा दोनों के आगे लगाऊँगी। इसीलिए मैं बीमार रहती हूँ। आदमी को चैन से सोने को तो मिले। जवान लड़कियाँ थीं हाथों हाथ काम हो जाता था। अब बैठे राहे रह काम के लिए। बहू आ जाएगी तो कम से कम घर में रौनक़ तो हो जाएगी।’
‘हम चलते हैं अम्मी बहुत रात हो गई है।’ कै़सर ने कहा।
‘खाना लगा दिया है न मेज़ पर?’ वकीलन बोली।
‘जी’
‘छोटे भैया ने खाना ठीक से खाया था।’
‘जी, कह रहे थे आज तुमने क़ीमा आलू बड़े मजे का बनाया है जैसा अम्मां पकाती हैं’ कै़सर ख़ुशी भरी आवाज़ में बोली।
‘पेट पुछना है न तभी’ बड़े मन से वकीलन हँसी। कै़सर सर पर चादर डालकर कमरे से निकल दरवाज़े की तरप़फ़ बढ़ी।
घर फिर उन्हें काटने लगा। भैया सो गया था। यह फिल्म टी-वी- कोई कहाँ तक देखे। सबकी एक सी कहानी है। नाच-गाना, रोना-धोना, जी घबरा जाता है यह सब देखकर। कुछ झुँझलाकर उन्होंने टी-वी- बंद कर दिया। बाहर गली में सन्नाटा था। उनके कान क़दमों की आवाज़ पर लगे थे कि कब वकील साहब केस की फाइल बंद कर घर की तरप़फ़ आते हैं। घड़ी ने जब ग्यारह बजाए तो वह उठ बैठी और बेचैनी से इधर-उधर देखा फिर दिल में कहने लगीं कि बहू के आते ही मैं घर की सारी िज़म्मेदारी उसको थमाकर घूमने निकलूँगी। कैसी प्यारी जिं़दगी थी जब हम मामू और चचा के घर छुट्टियों में जाते थे। सब कुछ ख्वाब हो गया है। डरती हूँ कहीं रेल की शकल ही न भूल जाऊँ। अभी वह जाले बुन रही थीं कि मोटरसायकिल का शोर गली में उठा। समझ गई कि बड़ा बेटा आ गया है। वह मुँह पर आँचल डाले पड़ी रहीं।
‘सो गई क्या अम्मा’ बेटे ने कमरे में घुसते ही पूछा।
‘नहीं, बस लेटी थी’ मुँह पर आँचल डाले-डाले बोलीं।
‘अब्बा द‘तर से अभी आए नहीं क्या?’ बेटे ने जूता उतारते हुए पूछा।
‘अभी बारह कहाँ बजा है?’ मरी आवाज़ में वकीलन बोलीं।
‘क्या बात है तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’ लड़के ने मुड़कर माँ के चेहरे से आँचल हटाया।
‘हाँ, बस सर दर्द है, कोई दबाने वाला भी नहीं।’ बड़ी कमज़ोर आवाज़ में बोलीं।
‘कै़सर से तेल दबवा लिया करो।’
‘बाल उलझाकर रख देती है। वह क्या जाने बीबियों का सर दबाना।’
‘नायन नहीं आती क्या आजकल? देखो कल किसी को उसके घर भेजता हूूँ।’
‘तुम भी मियाँ खूब हो बिलकुल अपने डैडी की कार्बन कापी। यह दर्द कहीं नौकरानी या नायन की चंपी से जाता है? यह दर्द अपनों के हाथों रफा होता है मगर यह बारीक बातों को समझने के लिए तुम लोगों के पास वक़्त है?’
‘हाँ, लड़कियाँ सब ब्याह दीं, लड़के बाहर रहते हैं।’ लड़के के पास बैठते हुए कहा।
‘बहू तो पास रह सकती है अब मुझसे यह सब अकेला झेला नहीं जाता।’ कराहती वकीलन बोली।
‘तुमसे कौन झेलने को कहता है, अरे घूमो फिरो, मिलने जाओ।’
‘इस शहर में कहाँ अकेले भटकूँ? जिसके घर जाओ वही कहता है कि कब शादी कर रही हो बड़े बेटे की? मेरी बहन की लड़की हज़ारों में एक है।’ चिढ़कर बोली वकीलन।
‘होगी’ लापरवाही से बेटा बोला।
‘होगी कहकर बात मत टालो यह सब सुनते मेरे कान पक गए हैं, दिल घबराने लगा है अब किससे कहूँ कि बेटे को कोई लड़की ही पसंद नहीं आती है’ वकीलन माथे पर हाथ मारकर बोली।
‘तुम्हें बहू के लाने के अलावा और कोई बात नहीं सूझती है अम्मां?’ चिढ़ी हुई आवाज़ में बेटा बोला।
‘क्यों यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है क्या?’ तुनक गई वकीलन।
‘है मगर कब तक ज़िम्मेदारी निभाओगी? थकी नहीं हो क्या? आराम करो, चैन की बंसी बजाओ। जब कोई लड़की पसंद आएगी तो मैं बता दूँगा, बस।’ लड़का हँसा।
‘इतना कहे देती हूँ कि मैं अपनी पसंद की बहू लाऊँगी। अगर तुमने इधर-उधर की उलटी-सीधी लड़की लाकर खड़ी कर दी तो मैं यह घर छोड़कर चली जाऊँगी समझे।’ एकाएक उफन उठी वकीलन।
‘अम्मा, भरोसा रखो। अगर आ गई तो अच्छी लाऊँगा—मगर यह बताओ जाओगी कहाँ?’
‘देखो मैं कहे देती हूँ इसको मज़ाक मत समझना, मैं संखिया खा लूँगी। मेरी लाश पर उसको बिठाना—अल्लाह-अल्लाह यह घर है या मुर्गीखाना? हर मुर्गा अलग बाग देता है जो है वह अपने रास्ते चलता है आखि़र मैं हूँ क्या पैरों की जूती?’
‘अम्माँ, तुमको रहते-रहते हो क्या जाता है? सब तुम्हारा खयाल करते हैं इज़्ज़त करते हैं फिर यह गुस्सा। यह—?’ ताज्जुब से पूछ बैठा बेटा।
‘कोई मेरी परवाह नहीं करता। कोई नहीं समझता कि मैं इस घर मे कितना घुटती हूँ, मुझे आज़ादी चाहिए ताज़ा हवा चाहिए।’ कहते-कहते वकीलन रोने लगीं। बेटे ने उदासी से माँ के चेहरे को देखा और कहा ‘अब तुम्हें कैसे बताएँ, कैसे समझाएँ अम्माँ?’ इतना कहकर वह सर झुकाकर बैठ गया। कैसे कहता कि वह पिछले चार वर्ष का नाता अनिसा से तोड़ आया है। इस संबंध को तोड़ते-तोड़ते साल लग गया। कल उसका ब्याह है और अम्माँ कहती हैं उनकी मुझे परवाह नहीं है? क्या माँ होकर वह नहीं समझती है कि थोड़ी बहुत आज़ादी सबको चाहिए?
लोहे के दरवाज़े के खुलने के साथ घड़ी ने बारह बजाए। कदमों की चाप को सुनते ही वकीलन ने जम्हाई ली और थकी-थकी सी उठकर खाने की मेज़ पर जाकर बैठ गई और वकील साहब की प्लेट में खाना निकालने लगी। बेटे ने बाप की थकी चाल को देखा और एक लंबी साँस खींची जैसे अपने को कै़द से रिहा कर रहा हो।

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