मार्ग के दोनों तरफ ऊँचे घने पेड़ों की लंबी शृंखला थी, सड़क के दोनों किनारे के पेड़ बीच- बीच मे एक दूसरे की  तरफ इस तरह झुके हुये थे, मानो एक दूसरे से गलबहियाँ कर रहे हों। कहा जाता है कि झारखण्ड के पहाड़ और पेड़ दोनों बहुत पुराने हैं और अपने दिलों में समय के गहरे रहस्यों को छुपाए हुये हैं। लेकिन अब धीरे-धीरे पेड़ और पहाड़ दोनों मनुष्यों की असंवेदनशीलता के विरुद्ध हार रहे हैं एवं समय के गहरे रहस्य एक-एक कर विलीन हो रहे हैं।  दूर से देखने पर यहाँ की जमीन में तरह-तरह के खनिज तो दिखते हैं पर यहाँ की   की पीड़ा नहीं दिखती। नजदीक से देखें तो सिर्फ पीड़ा रह जाती है, खनिजों पर दूर वालों का अधिकार है। 
बस चतरा से चली थी और शीघ्र ही शहर के सीमाने से बाहर खुले में आ गयी थी । चतरा, झारखंड का एक उँघता हुआ छोटा सा शहर है।  शहर के बदले इसे कस्बा कहना ही ज्यादा उचित होगा, यहीं शुरू और यहीं खत्म। यह बस दरअसल चुनाव कर्मियों को लेकर जा रही थी। बस में बैठे ज़्यादातर चुनावकर्मी चुनाव के दौरान आने वाली परेशानियों को लेकर चिंतित थे। एक डर उनके मन में नक्सलियों के हमले का तो था ही  लेकिन उससे भी ज्यादा जिस बात का डर था,  वह था चुनाव में भरे जाने वाले पचासों तरह के फॉर्म और समय-समय पर उनकी रिपोर्टिंग का।  
ज्ञान सिंह चतरा में एक सरकारी शिक्षक थे एवं विधान सभा चुनाव में उनकी ड्यूटि पोलिंग अफसर के रूप में लगी थी। चुनाव सामग्री लेते-लेते दोपहर का समय हो गया था,  जिसके बाद वे और  उनकी टीम नियत बस में बैठ गयी थी।   
बस अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी और ज्ञान सिंह चारों ओर व्याप्त प्रकृति की सुषमा को निहारते, आनंद के वशीभूत हो रहे थे कि उनके मोबाइल फोन की घंटी  बज उठी 
“छम्मा छम्मा बाजे रे मेरी पैजनियाँ…..” 
लेकिन उन्होने जब इसपर ध्यान नहीं दिया तो उनके बगल में बैठे व्यक्ति ने उन्हें बताया  कि उनका मोबाइल फोन बज रहा है। 
“ये लड़की भी  रोज़ मेरा रिंग टोन बदल देती है” । ज्ञान सिंह को अपनी बेटी पर कोफ्त हुआ साथ ही प्यार भी आया । 
उनकी बेटी रिया अभी 14 साल की है, उसमें  इनकी जान बसती है। अभी से मोबाइल मांग रही है, लेकिन उन्होने तय किया हुआ है कि जब तक स्कूल पास नहीं कर जाती वे उसे मोबाइल दिलवाने वाले नहीं है। इसीलिए अभी उनके या  मम्मी के मोबाइल से काम चलाती है और रोज़ अपनी रूचि के अनुसार रिंग टोन लगाती रहती है। ज्ञान सिंह तो चाहते हैं कि अपनी बेटी को वे राँची में रखकर किसी बड़े स्कूल में पढ़वायेँ। चतरा में उनके मनोनुकूल अङ्ग्रेज़ी स्कूल नहीं है और बिना अङ्ग्रेज़ी स्कूल में पढ़ें अच्छे भविष्य के प्रति वे आश्वस्त नहीं हैं। लेकिन अकेले रिया और उसकी मम्मी को राँची में वे छोड़ना भी नहीं चाहते हैं।  
हैलो … 
हाँ हैलो 
पहुँच गए,,
नहीं भाई अभी तो चला ही हूँ ।  
कितनी देर और लगेगी ?
कुछ पता नहीं, पहुँच कर फोन करूंगा… 
अच्छा … खाना खा लिया ?
हाँ खा लिया। उन्होंने झूठ बोल दिया । 
चलो पहुँच कर फोन करूंगा  … 
चतरा से करीब बीस किलोमीटर दूर एक गाँव में उनका बूथ था। एक बस में कई पोलिंग  पार्टियों को बैठा दिया गया था। विभिन्न पोलिंग पार्टियों को उतारते- उतारते  बस जब ज्ञान सिंह के बूथ वाले गाँव में पहुंची तो साँय के चार बज चुके थे। सर्दियों के दिन थे। सामान उतारते एवं स्वयं के बैठने की जगह बनाते-बनाते  साँझ का झुटपुटा छाने लगा था। सूरज तेजी से पश्चिम के पहाड़ों के पीछे छुप जाने के लिए आतुर था।  गाँव के कुछ लोग भी तब तक वहाँ आ चुके थे। लोगों से बोलने-बतियाने में निशा ने क्षितिज पर कब तिमिर की चादर तान दी, पता ही नहीं चला। 
ज्ञान सिंह को दोनों वक्त दिशा–मैदान जाने की आदत थी। पोलिंग बूथ पर जब वे पहुंचे थे तो सोचा था कि शाम में दूर तक घूमने निकल जाएंगे और उधर से ही दिशा मैदान से फारिग होते आ जाएंगे। उन्हें इस तरह के गाँव जहां दूर-दूर तक खाली खेत हों, बहुत लुभाते थे। स्कूल के पीछे दूर तक टाड़ था।  टाड़ खेतों में कोई एक ही फसल होती है और ज़्यादातर समय ये खेत खाली ही पड़े रहते हैं। इन खेतों के मध्य महुआ के पेड़ कहीं-कहीं अकेले-अकेले खड़े थे। 
ज्ञान सिंह ने लोगों से क्षमा मांगी और बताया कि वे दिशा-मैदान के लिए जाना चाहते हैं।
“सर ऐसा कीजिएगा कि स्कूल के पीछे ही कहीं बैठ जाइए, ज्यादा दूर मत जाइयगा” एक पैतालीस– पच्चास साल के व्यक्ति ने जिसकी पत्नी वहाँ पंचायत समिति की सदस्य थी कहा। 
“हाँ जाइयेगा भी तो उधर बाँसवाड़ी के तरफ तो एकदमे नहीं जाइयेगा”।  एक नौजवान ने कुटील मुस्कान के साथ कहा। 
“हा हा हा….  उधर सुनीतवा आदमी को पकड़ लेती है” एक कम उम्र के लड़के ने हँसते हुये कहा। 
‘चुप! फालतू बात करता है। रजुआ साला खुद बदमाशी करता है और कहता है  सुनीतवा पकड़ लेती है”।  पहले वाले आदमी ने डाँटते हुये कहा। 
“रजुआ झूठ कहता है तो आप कभी ट्राइ मार लीजिये चचा”  लड़के ने शरारतपूर्ण ढंग से कहा। 
“भूल के भी उधर मत जाइयेगा सर। आप बाहर के आदमी हैं, आप क्या जनिएगा यहाँ क्या-क्या लीला होता है?” लड़के ने गंभीर मुख मुद्रा बनाकर कहा। 
ज्ञान सिंह अकचका गए। उन्हें समझ नहीं आया कि ये क्या बात कर रहे हैं? उन्होने सोचा कि इससे पहले कि और भी ज्यादा देर हो जाये, वे फारिग हो आयें।
 
जब तक वे वापस लौटे तब तक वहाँ मौजूद लोग जा चुके थे। रात की कालिमा छा चुकी थी। अचानक  से उनका फोन बज उठा “छम्मा छम्मा बाजे रे मेरी पैजनियाँ…” 
 “हाँ पहुँच गया। सब ठीक ठाक है” उन्होने बता दिया। 
“और हाँ देखना कल रिया को ट्यूशन छोड़ने जाना, उसे अकेले जाने मत देना। शहर का माहौल आजकल बहुत खराब है”। अपने तरफ से उन्होने रिया की सुरक्षा की आश्वस्ति सुनिश्चित कर ली। 
रात के भोजन का इंतजाम गाँव के ही मुखिया के यहाँ था।          
भोजन करते हुये ज्ञान सिंह ने मुखिया पति से सुनीता के बारे में पूछा। ये सुनीता कौन है और बांसवाड़ी की क्या कहानी है?
दरअसल पंचायत की मुखिया तो एक महिला थी लेकिन उसकी सारी जिम्मेवारी और काम-काज उसका पति ही देखता था। इसीलिए सब उसे ही मुखिया कहते भी थे और मानते भी थे। सिर्फ कागजों में जहां दस्तख़त की जरूरत होती थी वहाँ वास्तविक मुखिया अपने दस्तख़त करती थी। 
भारत में महिला सशक्तिकरण पालकी पर चल रही है, जिसे पुरुष  अपने कंधों पर ढो रहे हैं।   वे अपने कंधों से इस पालकी के बोझ को उतारना ही नहीं चाहते। कहीं-कहीं तो महिलाएं पालकी से उतरना भी  नहीं चाहती और जहां उतरना चाहती है वहाँ पुरुष उन्हें ऐसा करने नहीं देते। हालांकि स्वतन्त्रता एवं सत्ता का स्वाद बहुत नशीला होता है, जिसने इसका स्वाद चख लिया वह इसे फिर आसानी से छोड़ना नहीं चाहता। 
मुखियापति, ज्ञान सिंह के साथ ही बैठा भोजन कर रहा था। पहले तो उसने बात को टाल देना चाहा पर जब ज्ञान सिंह ने बात दुबारा छेड़ दी तो उसने कहा कि स्कूल के पीछे बांसवाड़ी में एक चुड़ैल रहती है। 
“चुड़ैल रहती है ? और आप इस बात पर यकीन करते हैं?” ज्ञान सिंह ने आश्चर्य से पूछा। 
ये गाँव हैं सर, आप चाहे न चाहें, यहाँ बहुत सारी चीजों पर यकीन करना पड़ता है। ऊपर से हम पौलिटिसियन ठहरे। हमें तो गाँव की भावनाओं का ख्याल रखना पड़ता है। 
ज्ञान सिंह खाना खाकर अपने बूथ पर वापस आ गए। मुखियापति ने जो जानकारी उन्हें दी थी, उससे वे संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि कुछ ऐसी बात है , जिसे वह छुपा गया है। उन्हें सत्य जानने की उत्सुकता से ज्यादा फिक्र इस बात की थी कि गाँव के लोगों को कैसे इस अंध विश्वास से निकला जाए। 
बूथ पर पहुँचने के बाद उन्होने देखा कि चौकीदार अकलू राम वहाँ मौजूद है। उसे लगा कि चौकीदार से बात की जाए उसको पूरी कहानी अवश्य पता होगी। चौकीदार गाँव में पुलिस का खबरी होता है, उससे कोई खबर कैसे छूट सकती है?
उसने चौकीदार को खैनी खिलाया और पास बैठा लिया। 
“ये बांसवाड़ी के तरफ जाने से लोग क्यों मना करते हैं”? उसने चौकीदार से पूछा 
“उधर सुनीतवा चुड़ैल रहती है साहब, इसीलिए मना करते हैं।“ चौकीदार ने तुरंत ही कहा । 
“तुम इन बातों में यकीन करते हो?” उसने पूछा 
“मेरे यकीन करने न करने से क्या होता है? जब गाँव के सब लोग करते हैं तो मैं भी करता हूँ”। चौकीदार ने कहा। 
कौन है सुनीतवा? क्या कहानी है उसकी?  
“आप जानकर क्या करेंगे साहब? बहुत दर्दभरी कहानी है बेचारी की”। 
“मुझे सुनना है, तुम सुनाओ” ज्ञान सिंह ने अनुनय किया। 
“रात बहुत हो चुकी सर। खाना पीना हो ही गया है, जाकर आराम से सोइए। आप बाहरी आदमी हैं। काम खतम करके इत्मीनान से शहर जाइए। कहाँ इन सब लफड़ों में अपनी टाँग फंसाइएगा”। चौकीदार ने कहा। 
“अभी तो नौ ही बजे हैं अकलु जी, शहर में तो इस समय शाम ही होती है। अभी देर कहाँ हुई है? आप सुनाईये। एक राउंड खैनी मैं और बनाता हूँ”।  कहकर ज्ञान सिंह ने  जेब से खैनी की  डिबिया निकाल ली। 
चौकीदार कहानी सुनाने लगा। ज्ञान सिंह धीरे–धीरे खैनी मलने लगे। 
सुनीता यहाँ  की रहने वाली नहीं थी, वह गाँव ही के दिनेश की साली थी साहेब। 
सुनीता की बड़ी बहन यानि दिनेश की पत्नी अनीता को जब पहला बच्चा ठहरा तो उसने अपने माँ –बाप से अनुरोध किया कि सुनीता को उसके साथ भेज दे ताकि सुनीता उसकी देखभाल कर सके। 
सुनीता के माँ-बाप के लिए यह बात मुंह-मांगी मुराद की तरह थी। घर में एक सदस्य  के कम होने का मतलब था अन्य सदस्यों के लिए आधी रोटी का बढ़ जाना। गरीबी सुनीता के घर में हवा और धूप की तरह व्याप्त थी। हर बार के खाने का इंतजाम एक बड़ा संघर्ष था। सुनीता के पिता रमेशर किसी तरह परिवार की गाड़ी खींच रहे थे। परिवार में खेती-बारी की कोई जमीन नहीं थी। रहने के लिए एक कमरे का छोटा सा घर तो था पर उसकी ढहती हुई दीवारों ने उसी तरह छप्पर का बोझ उठाया हुआ था जिस तरह रमेशर अपने परिवार का  बोझ उठा रहे थे।  
एक बेटे की आस में छह बेटियां अनचाहे घास की तरह रमेशर और उसकी पत्नी की कंटीली  बगिया में उग आईं थी, जिनके लिए भोजन और वस्त्र का प्रबंध रमेशर की जिम्मेवारी थी, जिसमें वे स्वयं को असमर्थ पाते थे।      
रमेशर बच्चियों की छोटी उम्र से ही उन्हें ब्याहने की फिक्र में लग गए थे। वे  जिस समाज में रहते थे वहाँ बेटियों का ब्याह दुनिया के कुछ सबसे कठिन कार्यों में से एक है, जिसे हरेक बाप को निबाहना होता है और बाप अगर निर्धन हो तो फिर यह कार्य कई गुना अधिक दुष्कर हो जाता है। समाज बेटियों के बाप के प्रति कोई भी सदाशयता नहीं रखता। किसी  तरह रमेशर ने बड़ी बेटी अनीता की शादी इस गाँव के दिनेश से कर दी थी, जो दूर-दराज का उसका रिश्तेदार लगता था  और दिहाड़ी मजदूर था।  
अपनी गर्भवती बहन की सेवा करने के उद्देश्य से सुनीता उसके घर आ गयी। बहन अनीता के यहाँ भी गरीबी ने अपना भरपूर श्रृंगार रचाया हुआ था।  फर्क यह था कि यहाँ सदस्यों की संख्या कम थी तो गरीबी के दर्शन भी उसी अनुपात में कम होते थे। 
सुनीता चूंकि गाँव के एक गरीब आदमी की साली थी, इसलिए गाँव की साझी साली मान ली गयी। मजबूत और सम्पन्न आदमी की साली से मज़ाक करने में जो थोड़ी बहुत मर्यादा होती है, गरीब की साली होने से  उसकी भी जरूरत नहीं होती है। तेरह –चौदह साल की लड़की के साथ बच्चे से लेकर बुड्ढे तक अश्लील मज़ाक करने का कोई मौका जाने नहीं देना चाहते। 
सुनीता घर से बाहर निकालना ही नहीं चाहती थी पर गरीब का घर और बाहर एक सा ही होता है। एक कमरे के घर में कमरे से बाहर कदम रखते ही आदमी बाहर खड़ा होता है। पानी एवं शौच के लिए सुनीता को बाहर जाना ही पड़ता था । स्वच्छ भारत की शुरुआत यद्यपि कि हो चुकी थी लेकिन उसका प्रभाव अभी उसके गाँव तक पहुँचना बाकी था। इक्का-दुक्का जिनके घर में शौचालय बने भी थे, वे या तो उसे बंद करके रखते थे या उसमे गोइठा रखते थे। 
जिस दिन अनीता को बच्चा हुआ उस दिन सुबह से ही सुनीता बहुत व्यस्त रही। दिन भर अस्पताल में अपनी बहन के साथ रहने के बाद शाम में वह अपने बहनोई के साथ घर वापस लौटी। उसने जल्दी-जल्दी खाने के लिए कुछ बनाकर बहनोई को दिया, जिसे लेकर वह अस्पताल चला गया। घर में सुनीता अकेली रह गयी।  सुनीता को  शौच जाने की हाजत महसूस हुई। रात घिर आई थी। अंधेरा गहरा चुका था। उसने सोचा कि पास ही कहीं निबट कर आ जाये। फिर आकर चुपचाप सो जाएगी। वह घर से निकली। पास ही बांसवाड़ी थी। 
अभी वह बैठने की तैयारी ही कर रही थी कि पाँच –छह लोगों ने आकर उसे पकड़ लिया  और खींच कर बांसवाड़ी की ओर ले गए। जैसे कमजोर मेमने का बच्चा जब भेड़ियों के चंगुल में पड़ता है तो हारकर भागने की सारी उम्मीदें छोड़ देता है और अपने आपको भेड़ियों के भरोसे छोड़ देता है, वही स्थिति सुनीता की हुई। 
कल होकर उसकी बहन और बहनोई घर वापस आ गए। सुनीता ने उन्हें अपने साथ हुई घटना के बारे में  बताया लेकिन उन्होने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टा वे उसी पर दोष लगाने लगे कि उतनी रात गए उसे उधर जाने की जरूरत क्या थी? उसकी बहन ने तो यहाँ तक कह दिया कि उसी के लक्षण ठीक नहीं है। सुनीता क्या कहती वह चुप रही। बहन अपनी नवजात बच्चे में व्यस्त हो गयी और बहनोई रोजी कमाने की फिक्र में लग गया। 
सुनीता घुटती रही, उसके साथ इतनी बड़ी घटना हुई थी पर मानो किसी के लिए उसका कुछ महत्व ही नहीं था। उसने भी परिस्थिति से समझौता कर लिया। वह यद्यपि कि सभी अपराधियों को पहचानती थी, सब उसी गाँव के थे पर वह उनका क्या कर सकती थी?  इंसान सबसे बुरी हालत में तब होता है , जब वह अपने अपमान का बदला लेना चाहता है, लेकिन ऐसा नहीं करने के लिए मजबूर होता है। 
कुछ दिनों तक जब कुछ नहीं हुआ तो अपराधियों के हौसले बढ़ गए। अब वे सुनीता को फिर से छेड़ने लगे। वे खुलेआम उसके साथ किए गए घृणित कार्य के बारे में बताते। बात धीरे–धीरे पूरे गाँव में फैल गयी।  जिन्हें लज्जित होना चाहिए था वे छाती चौड़ी करके चल रहे थे। सुनीता शर्म से मरी जाती थी। गाँव की औरतें सुनीता को उलाहने देने लगी थी। वे उसके  चरित्र पर लांछन लगाने लगी।  उसे छिनार बताने लगी। 
इस बीच वह हुआ जो नहीं होना चाहिए था। सुनीता का पेट बढ़ने लगा था और शीघ्र ही गाँव की महिलाओं की नज़र में आ गया। सुनीता  का पेट बढ़ना गाँव की औरतों की नज़र में, उसके चरित्रहीन होने का जीता जागता सर्टिफिकेट हो गया। गाँव की महिलाएं अब सुनीता की बहन और बहनोई के साथ यह कहते हुये गाली गलौज करने लगी कि ऐसी चरित्रहीन लड़की को वे क्यों गाँव में रखे हुये है? इसे तुरंत गाँव से बाहर करे।  ऐसी कलंकिनी के गाँव में रहने से गाँव का माहौल खराब होगा।    
जिन लड़कों ने सुनीता के साथ अपराध किया था, उनकी माएं भी सुनीता को चरित्रहीन बताती। कहती कि इस लड़की के लक्षण खराब हैं, इसीलिए इसके साथ ऐसा हुआ है। गाँव में और भी इतनी लड़कियाँ हैं, सबके साथ तो ऐसा नहीं होता है। 
आस-पड़ोस की महिलाओं ने सुनीता और उसकी बहन का पूरी तरह बहिष्कार कर दिया। उनके यहाँ से कुछ भी लेना-देना सब बंद कर दिया। हद तो तब हो गयी जब उसके चापानल से पानी लेने पर भी रोक-टोक होने लगी। महिलाएं सुनीता से छूत मानने लगी। लेकिन सुनीता चापानल से पानी नहीं लेगी तो कहाँ से लाएगी ? इसलिए वहाँ जाना उसकी मजबूरी थी। 
जब कभी वह चापानल पर पानी लेने जाती तो आस-पड़ोस की महिलाएं उसे दुरदुरा देती। अगर चोरी चुपके उसने कभी पानी भर भी लिया तो उसके बाद  महिलाएं चापानल को अच्छे से धोती, यह उसेबहुत बुरा लगता था।   
धीरे-धीरे इधर सुनीता का पेट बढ़ता जा रहा था और उधर गाँव की महिलाओं का उसके प्रति घृणा और द्वेष भी। सुनीता अपने प्रति महिलाओं के व्यवहार से परेशान तो थी ही, वह अपनी बहन को हो रही परेशानी से और भी ज्यादा परेशानी महसूस कर रही थी। धीरे-धीरे अब उसे भी लगने लगा था कि इन सबके लिए वही दोषी है। कुछ न कुछ गलती उसी में रही होगी तभी तो उसी के साथ यह सब हुआ। 
सुनीता के पिता तक भी खबर पहुँची लेकिन बेटी की मदद की कोई सूरत उसे समझ ही नहीं आई। पुलिस-थाने के चक्कर में वह पड़ना नहीं चाहता था क्योंकि बेटी के गाँव की बात थी, अगर पुलिस थाना का केस हो गया तो गाँव वाले उसके बेटी दामाद को वहाँ जीने नहीं देंगे। उसे इस बात का भी भरोसा नहीं था कि पुलिस वाले उसकी बात सुनेंगे। 
इधर चापानल से पानी भरने में हो रही परेशानी के कारण सुनीता बांसवाड़ी के समीप के एक कच्चे कुएं से पानी लाने लगी थी। हालांकि वहाँ से पानी लाने में थोड़ी परेशानी तो थी पर वहाँ उसे कोई रोक-टोक नहीं करता था। कुआँ घर से दूर था एवं खेतों से होकर जाना पड़ता था। बरसात का मौसम शुरू हो गया था। कुएं के आसपास फिसलन हो गयी थी। 
एक दिन उसी कच्चे कुएं में गिरने से सुनीता की मौत हो गयी। कुछ लोग कहते हैं कि उसने खुद ही कुएं में कूद कर जान दे दी थी। कुछ लोग कहते हैं कि कच्चे कुएं में फिसल कर गिरने  से मौत हो गयी। राम जाने सत्य क्या है? पर कहते हैं न साहब कि गर्भवती औरत की अकाल मृत्यु होने से वह चुड़ैल बन जाती है।  सुनीता चुड़ैल बन गयी साहब। जिन लोगों ने उसके साथ गलत किया था उनमें से कइयों को उसने बांसवाड़ी में पकड़ा है। 
“कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन लोगों ने गलत किया था वे अब अपराध बोध से ग्रसित होकर इस तरह की बात कर रहे हैं या उन्हें  कोई  मानसिक समस्या हो गयी हो”?  ज्ञान सिंह ने कहा। 
“सो तो मैं नहीं जानता साहब। जो लोग कहते हैं, वही मैंने सुना है। लेकिन शाम होते ही अब कोई बांसवाड़ी की तरफ नहीं जाता”। चौकीदार अकलु राम ने कहा। 
रात काफी बीत चुकी थी। चौकीदार ने ज्ञान सिंह से विदा ली। 
ज्ञान सिंह काफी देर तक वहीं बैठा सोचते रहे। 
“यह कैसा समाज है जो हर हाल में स्त्री को ही कलंकित कर रहा है? मर जाने के बाद भी स्त्री का चरित्र हनन करने की कोशिश की जा रही है।  जिसे जीते जी बेइज्जत किया, उसे मरने के बाद भी बदनाम कर रहे हैं। जीते जी जिसे इंसान के रूप में इज्जत नहीं दी, उसे मरने के बाद चुड़ैल घोषित कर रहे हैं। यूं तो गाँव के लोग बड़े भोले-भाले होते हैं लेकिन स्त्रियों से व्यवहार करने के मामले  में वे अत्यंत ही हिंसक हो जाते हैं”। 
ज्ञान सिंह ने बांसवाड़ी की तरफ देखा। स्निग्ध चाँदनी में बाँस के पौधे हवा में झूल रहे थे। वे  सोने चले गए पर नींद उनकी  आखों की चौहद्दी से दूर थी। वह थोड़ी देर तक करवटें बदलते रहे फिर उठ कर बैठ गए।   कहीं दूर किसी पंछी के बोलने की आवाज़ आ रही थी … टिट टिट टिट टिट। 
वह उठे और बांसवाड़ी की तरफ चलने लगे।  उन्होंने जाकर बांसवाड़ी का चक्कर लगाया। बाँस के पत्ते उसके सर और गालों को स्पर्श कर रहे थे। उन्हें यह स्पर्श अत्यंत प्यारा लगा। उन्हें लगा कोई नन्ही बच्ची उन्हें स्पर्श कर रही है। सुनीता का रूपान्तरण रिया के रूप में होने लगा। उनका अंतस्तल  भीगने लगा। एक बच्ची के साथ कितना बुरा सलूक किया इस गाँव ने। उसे भी जीने का हक़ था, हँसने, गाने, खिलखिलाने का हक़ था। ज्ञान सिंह का मन द्रवित हो उठा।  चुड़ैल दरअसल बांसवाड़ी में नहीं बल्कि गाँव वालों के दिमाग में है। अमीर के द्वारा गरीब के शोषण की बात होती है।  बड़ों के द्वारा छोटों के शोषण की बात होती है पर यहाँ तो सब एक तरह के ही लोग हैं। सभी गरीब हैं, फिर भी यह समाज कितना क्रूर है? ज्ञान सिंह को लगा कि वहाँ की हवा भारी हो रही है, उसका मन भारी हो रहा है।  वह सुनीता की पीड़ा को महसूस करने लगे थे।  सुनीता की पीड़ा, रिया की पीड़ा, समूचे देश की बच्चियों की पीड़ा एक सी ही तो है। सुनीता बिना किसी प्रतिरोध के हार गयी। उसके लिए कोई नहीं लड़ा, कोई खड़ा नहीं हुआ। आगे भी न जाने कितनी सुनीताओं को ऐसे  हालात का सामना करना पड़ेगा। 
ठंडी हवा उनके  बालों का स्पर्श करती रही। गाँव में कुत्तों के भौंकने की आवाज आने लगी थी । 
भों भों भों …. जैसे कुत्ते कह रहे हों कौन है, कौन है, कौन है….  
वह उठे  और  वापस आकर स्कूल के बाहर बैठ गए।   
जीते जी जिस सुनीता ने इनका कुछ नहीं बिगाड़ा,  उससे अब मरने का बाद लोग डर रहे हैं।  सोचकर ज्ञान सिंह के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए।  जिंदा सुनीता से ताकतवर मरी हुई सुनीता। मुर्दा-ब-दस्त-ज़िंदा । 

7 टिप्पणी

  1. यह कहानी नहीं सच्ची घटना लगती है। पूरे देश में जशन मनाया जा रहा है जबकि आम आदमी के यह हालात हैं।

  2. दिल को छूती हुई ….. कई अनुत्तरित प्रश्नों को उजागर करती बहुत अच्छी कहानी नीरज जी

  3. यथार्थ को कहानी के रूप में लिखने के लिये बधाई और साधुवाद… स्त्री की दशा के बारे में सोचना और सुधरना बहुत जरूरी है

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