2 जनवरी, 2022 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘कोरोना कन्फ्यूजिया रहा है’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

मीना गोदरे
सच कहा सर,करोना कंफ्यूजिया रहा है। होटलों में मास्क लगाकर जाते हैं पर खाते समय वह मुंह नाक से प्रवेश नहीं करता,और भीड़ में भी मास्क नाक के नीचे लगाकर स्वयं को सुरक्षित समझते हैं लोग,कहीं ये एक मन का भ्रम तो नहीं।
नाहिद अकबरी
जेन्द्र जी, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था का बड़ा ही स्पष्ट विश्लेषण किया है ‘पुरवाई’ ने। हमें धार्मिक कर्मकांड और से अलग होकर सोचना होगा। हम भारतीयों को भी इस महामारी से लड़ने के लिए परिपूर्ण होना पड़ेगा हमारी जनता और सरकार को इस महामारी को ध्यान में रखते हुए सारी सुरक्षा व्यवस्था और सतर्कता का पालन करने के लिए नियमों में बंद होना पड़ेगा… यही हमारे लिये जिंदा रहने के लिए एकमात्र उपाय है।
शन्नो अग्रवाल, लंदन
नमस्कार तेजेन्द्र जी। 🙏🏻
हमेशा की तरह इस बार भी आपने अपने संपादकीय में एक ऐसी गूढ़ समस्या पर रोशनी डाली है जिसकी हैवानियत से सारी दुनिया परेशान है।
कोरोना के वीभत्स रूप को देखते हुये, इसके बदलते चालचलन के बारे में हम सब गंभीरता से सोचने पर मजबूर हैं।
इस महामारी के बारे में डींग हाँकने वाले शासकों या ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे वाली’ बातों वाले लोगों के चक्कर में न आकर लोगों को खुद अपना भला बुरा सोचना चाहिये।
अपनी सुरक्षा और भलाई के लिये हमें खुद सचेत रहना है। अगर कोरोना बार-बार भेस बदलकर हमें कंफ्यूज कर रहा है तो जनता को भीड़-भाड़ व चुनावों की रैलियों से दूर रह कर कोरोना को कन्फ्यूज करना चाहिये। ताकि यह अपना रास्ता भूल जाये।
सबकी सुरक्षा को लेकर आपके कथन से सहमत हूँ कि चुनावी अभियान अब टीवी और वर्चुअल मीडिया के माध्यम से होने चाहिये। शासकों को चुनाव के लालच में कोरोना की चलती समस्या को देखते हुये अपनी कथनी व करनी पर ध्यान देने की जरूरत है। भीड़-भाड़ से कोरोना का वायरस और तेजी से फैलने का खतरा है।
हाथ मिलाते, गले लगाते
डर अब सबको लागे
निगल गया कोरोना जिनको
वह लोग बड़े अभागे।

भीड़-भाड़ से रहकर दूर
अब हम सबको है जीना
हगिंग-किसिंग सब छोड़ो
फिर दूर रहेगा कोरोना।

प्रगति टिपणिस, मॉस्को
आपका हर सम्पादकीय जैसे दिमाग़ में घूमते और उसे परेशान करते मुद्दों को पूरी बारीकी से छू लेता है; आप लगभग हर बार ज्वलंत मुद्दों पर अपनी पैनी क़लम चलाते हैं और साथ ही सुझाव भी पेश करते हैं। आज के तेज़ी से संक्रमित होते माहौल में राजनेता चुनावी रैलियों और धार्मिक मजमों की इजाज़त कैसे दे देते हैं, राजनीतिक स्वार्थ के लिए सब विवेक और भावना शून्य हुए लगते हैं। बहुत ही समसामयिक और सशक्त सम्पादकीय।
डॉक्टर किरण खन्ना
माननीय संपादक महोदय, आपने महामारी के जिस भयावह पक्ष को बहुत बेबाकी से सबके समक्ष रखा है यह वास्तव में तेरे मेरे उसके सभी के मन का भय है किन्तु अपने इसे अभिव्यक्ति दी और सोशल मीडिया के ई माध्यम से इसे सम्प्रेषित / प्रकाशित भी किया। आप वास्तव में प्रशंसा के पात्र हैं।
माननीय आप का यह तर्क या सुझाव कि अब चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को यह मुद्दा राजनितिज्ञों के गोचर नहीं छोड़ कर अपना प्रभुत्व दिखाना होगा बहुत श्रेयस्कर है क्योंकि धर्म है समाज है या राजनीति तीनों ही इस महामारी को अपनी बोतल में उतारने में अक्षम रहे हैं… तो इनसे संबंधित मात्र सामाजिक गतिविधियों पर ही अंकुश क्यों? बाकी के उत्तरदायी कारक भी प्रतिबंधित होने अनिवार्य है ।
बहरहाल आपने जो भारत सहित कुछ महाशक्तियों के संक्रमण डाटा दिए हैं …
संवेदनशील सहृदयों की अंतरात्मा को कंपकंपाने के लिए काफी है… यह संख्या और न बढ़े … इसके लिए सत्ताधीशों प्रबंधकों और नागरिकों सभी को अपना दायित्व समझना होगा… नहीं तो फिर कोरोना के मेमने को यमराज का दूत बनने में समय नहीं लगेगा..
अरुण सभरवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी, बेहतरीन सम्पादकीय के लिए साधुवाद!
समझ से बाहर हैं कि, हर बात के लिए हम सरकार को क्यूँ दोष देने लगते हैं? देश के नागरिक होने के नाते क्या हमारा अपना कोई उत्तरदायित्व नही है?
हम इतने आत्मकेंद्रित क्यों हो गए हैं? कोई  यह कह कर टाल देते हैं कि सान्नू की । नेता लोग वोट बैंक के लिए रैलियां करते दिखाई देते है। हमारे इतने सारे भगवान जी में से कोई न कोई हमें हर रोज़  बचा लेता है। हमारा रब्ब रखा ही है… धन्यवाद..
शिप्रा शिल्पी सक्सेना 
साल बदला है क्या लोग बदलेंगे…?
ये पार्टियां, ये धर्म के ठेकेदार… क्या ये बदलेंगे?
आपके लेख पर बड़ी वाली सहमति है सर। कोरोना का रोना निकल जाता है भारत में अपनी स्थिति देखकर। पार्टी सत्तारूढ़ हो या विपक्ष सभी के लिए आम आदमी की जान हाशिये पर है और कमाल है आम आदमी के लिए उसकी जान भी हाशिये पर है। खुद के चेते ही जान सुरक्षित होगी। सब स्वार्थ लिप्त है, उन्हें कुर्सी चाहिए और वो अपना ध्यान रखना ख़ूब जानते है, एक नेता बता दीजिये जो कोरोना से निबटा हो।

पर हम और आप जैसे आम लोग जाते क्यों है इन रैलियों में। माघ स्नान, मौनी अमावस्या आ रहा है देखिएगा जाएंगे सब स्नान करने वरना नदियां बुरा मान जाएगी, उलटी बहने लगेगी। यह तो हाल है। क्यों अभी भी नहीं जग रहे लोग। भूख समझ आती है , बच्चों का बिलबिलाना, मजबूरियां समझ आती है पर रैलियां, तीर्थाटन, छुट्टियों में घूमने जाने की मजबूरियां, हद है !

आपके लेख ने झकझोर दिया सर। और हर बार आप मंथन करवा ही लेते है।
वैसे ये मेरा निजी मत है और उन पर तो बिल्कुल भी आक्षेप नहीं, जो सच में सच्चे मन से अपने लोगों के लिए दिन रात एक कर रहे है।
शैलजा सक्सेना, टोरोंटो (कनाडा)
शिप्रा आपका आवेश सही है।
तेजेन्द्र जी ने बहुत ही सामयिक विषय पर संतुलित पर कड़ा आलोचनात्मक संपादकीय लिखा है जिसकी बहुत आवश्यकता है। भारत में यह शादियों का मौसम है। हॉल में आने वाले लोगों पर तो संख्या का नियम है पर बाज़ारों में भीड़ पर क्या प्रतिबंध लगाएँ। राज्य को बंद करेंगे तो लोग फिर बिना काम के और बिना वेतन के हो जायेंगे। अपनी सुरक्षा स्वयं करने जैसी मानसिकता पढ़े-लिखों में भी नहीं। … ऐसे विषम विषय पर संतुलित विचार रखने के लिए तेजेन्द्र जी को बधाई!
विनोद पांडेय
भारत की कोरोना स्थिति पर बढ़िया विचारणीय लेख है सर l
सर यहाँ कोरोना कनफ़्यूज तो होता ही है साथ ही साथ चिढ़ भी जाता है भारत के लोगों पर l यहाँ उसकी इतनी बेइज़्ज़ती होती है कि लाज के मारे वो खुद ही मास्क लगा कर चलता होगा l
राजनीतिक रैलियाँ हों या भारत के बाज़ार या सैलानियों की भीड़ कहीं कोरोना से कोई डरता हुआ नहीं दिखता ,किसी को मरने जीने का ख़ौफ़ नहीं… न ही राजनेता स्पष्ट रूप से कोई नियम बना पाते हैं l कारण कुछ भी हो सर लेकिन राजनीति बहुत हावी है l रैलियों में लाखों की भीड़ बतायी जाती है और रात को 11 बजे से 5 बजे तक कर्फ़्यू लगा कर कोरोना को रोका जाता है जबकि उस टाईम अधिकतर जनता सोती रहती है l मज़ाक़ चल रहा है सर…
सरकार और जनता दोनों मज़ाक़ में ले रही हैं l आगे क्या होगा ईश्वर ही जाने l

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