मृत्यु शैय्या पर लेटी सुमित्रा यमराज के आने की बाट जोह रही है….आँखों से अश्रुधारा अनवरत बह रही है। कर्मों का ये कैसा हिसाब है, हे ईश्वर, जो मुझे इस नर्क के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया है और कितनी प्रतीक्षा….कहते कहते अनायास ही उसकी स्मृति पटल पर उन दिनों की यादें उभर आती हैं जब वह ब्याह कर अपनी ससुराल आयी थी। ज़मीदार घराना बड़ा रसूकदार परिवार था उसका ससुराल। वह उस घर में बड़ी बहू की हैसियत से आयी थी। बड़ी बहू मतलब बड़ी जिम्मेदारियां….समय निकलता गया जिम्मेदारियां बढ़ती गयीं। जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर रह गयी थी वह, वक्त कब रेत की भांति उसके हाथों से फिसलता गया सुमित्रा को पता ही न चला। विवाह के दस वर्ष तो सास ससुर की सेवा शुश्रूषा में ऐसे व्यतीत हुए कि मायके की कभी याद तक न आयी।
सास कब माँ बन गयी और ससुर जी कब पिता बन गए पता ही न चला…इसका एक कारण यह भी रहा कि सुमित्रा का मायका ज्यादा समृद्ध नहीं था। बिटिया को भर पेट खाना और रहने के लिए एक घर मिल सकेगा, यही सोचकर माता पिता सुमित्रा का विवाह एक ऐसे लड़के से करने को राजी हो गए जो दिन रात शराब के नशे में धुत्त रहता ।
महीनों घर से बाहर ही रहता…जब घर की सुध आती तो चला आता था घर, लेकिन सिर्फ घर आता था.. सुमित्रा से उसका जैसे कोई वास्ता ही न हो।
सुमित्रा उसके लिए एक उपभोग की वस्तु मात्र थी, बस यही रिश्ता था सुमित्रा और रमेश के बीच…
ऐसे ही रिश्ते में रहते हुए सुमित्रा दो बच्चों की माँ भी बनी, रमेश उसके बच्चों का पिता है यह सोचकर इस रिश्ते की डोर को एक सिरे से वह तमाम उम्र थामे रही, जीवन का जो खाली हिस्सा था वो खाली ही रहा…
सुमित्रा जिंदगी भर पतिप्रेम के लिए तरसती रही, और पत्नीधर्म निभाती रही। इसके इतर उसकी भी कुछ इच्छाएं हैं यह बात कभी जुबां तक न आयी।
ऐसा नहीं कि सुमित्रा अपने हक के लिए लड़ी नहीं, वह भले उस जमाने में जन्मी थी जहाँ लड़कियों को अपने लिए बोलने का अधिकार नहीं था। लेकिन सुमित्रा उनसे हटकर थी। शादी के बाद जो कुछ भी उसके साथ हुआ उसने पगफेरे की रस्म में मायके जाते ही अपनी माँ को सारा हाल कह सुनाया।
“अम्मा, अब मैं उस घर न जाऊँगी..”
“अम्मा, काहे न जाएगी बिटिया? का हुआ?” माँ ने सवाल पूछा।
“अम्मा, मुझे कुछ अजीब सा लगा उस घर में..”
“काहे तेरी सास ने कछु कहि है का?”
“ना” सुमित्रा ने जवाब दिया
“फिर का बात है? अभी बताई दे मैं समझा दूंगी तेरी सास को।”
“नहीं अम्मा सास तो मेरी बहुत अच्छी है..” सुमित्रा ने कहा।
दामाद जी की बात है क्या? हाँ अम्मा, सुमित्रा बोली।
“अरे बस इत्ती सी बात..” अम्मा मुस्कुराकर, “बाबरी है तू…”
और सुमित्रा कहते कहते चुप हो गयी। वह समझ गयी कि माँ नहीं समझ पाएगी। और मैं किन शब्दों में समझाऊं उसे, कि सुहाग की सेज पर मेरे साथ सुहागरात नहीं बल्कि भयंकर और वीभत्स बलात्कार था।
नहीं नहीं, तुझे अब अम्मा बाबा को परेशान नहीं करना चाहिए यह तेरी लड़ाई है जिसे तुझे ही लड़ना है। सोचते सोचते कब उसको नींद लग गयी पता ही न चला..
सुबह होते ही बोली, “अम्मा अब मैं चलती हूँ आशीर्वाद दीजिए।”
“लेकिन बिटिया दामाद जी तो अभी आये नहीं?”
“अम्मा उन्हें बहुत काम रहता है। वो ही बोलकर गए थे सुबह आ जाना। और अम्मा वहाँ मांजी भी तो मेरी राह देख रहीं होंगी।”
वह जानती है कि अब ससुराल ही उसका घर है जिसकी जिम्मेदारी अब सुमित्रा पर है। क्योंकि उसका पति बड़े बाप का बिगड़ा हुआ शहजादा था। जो कभी किसी बंधन में बंधा नहीं… विवाह का बंधन उसे पांव की जंजीर के सिवा और कुछ न था।
सुमित्रा ने भी समय के साथ समझौता करना सीख लिया था। बेटा दसवीं और बेटी कक्षा आठवीं में पढ़ रहे हैं सुमित्रा अपने बच्चों को देख सुकून की सांस लेती है और सोचती पति मेरा न हुआ, न सही, मेरी चलती साँसों की वजह है मेरे पास, मेरे बच्चे..
सुमित्रा घण्टो दालान के झरोखे के पास बैठ कर राह में गुजरने वालों को देखकर दिन गुजार देती….जीवन में एक सूनापन था, उसे शायद इस तरह ही भर रही थी।
एक दिन अचानक ससुर जी की साँस फूलने लगी उन्हें अस्थमा की शिकायत थी। अस्थमा अटैक आया था। बाउजी का ट्रीटमेंट शहर के जाने माने चेस्ट रोग विशेषज्ञ के यहाँ चल रहा है। उसने नौकर को आवाज लगायी…मोहन, मोहन सुमित्रा ने मोहन से कहा जल्दी गाड़ी निकालो बाउजी की तबियत ज्यादा खराब है..सुमित्रा और मांजी बाउजी को अस्पताल लेकर पहुँचती है लेकिन अस्पताल पहुँचते पहुँचते बाउजी की सांसें थम जाती हैं। सुमित्रा कभी मांजी संभालती तो कभी खुद को..मांजी और सुमित्रा पर जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा हो…रमेश घर आता नहीं है और मांजी की तबियत भी कुछ ठीक नहीं रहती अब घर की सारी जिम्मेदारी सुमित्रा पर आ गयी थी।
कहीं भी जाती तो मोहन को साथ लेकर ही जाना पड़ता।
रमेश हरदम जमीन जायदाद के पेपर हांसिल कर लेने की फ़िराक में रहता। सुमित्रा चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। फिर उसने एक फैसला लिया और मांजी को बताया…. घर और जायदाद का बटवारा करने का, मांजी भी राजी हो गयी। धीरे धीरे समय बदला… पर सुमित्रा का जीवन वहीं ठहर सा गया। और इसी बीच सुमित्रा के बेटे और बेटी की शादी हो गयी और वो अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए…मांजी और सुमित्रा ही एक दूसरे का सहारा थीं।
रमेश ने अपनी अलग गृहस्थी बसा ली थी…रमेश को जब भी कुछ जरूरत होती तो वह अपनी माँ से लेकर चला जाता।
सुमित्रा का रमेश से कभी कोई रिश्ता भी था, उसे अब याद भी न रहा।
मां जी की सेहत इन दिनों कुछ नर्म सी रहने लगी थी सुमित्रा को घर में कम अस्पताल में ज्यादा रहना पड़ता, मांजी की सेहत को लेकर अकसर चिंतित रहती। एक रात कुछ सोच रही थी कि पीछे से किसी ने उसके कांधे पर हाथ रखा। उसने चौंक देखा पीछे मोहन खड़ा था।
मोहन बोला, “छोटी मालकिन आप चिंता न करो मांजी ठीक हो जाएंगी…”
“मोहन तुम ? तुम अब तक गए नहीं, तुम्हारे पिता भी तुम्हारी राह देख रहे होंगे।”
“मालकिन मुझसे आपका यह दर्द देखा नहीं जाता, मैं सोच रहा हूँ आप यहाँ अकेली हैं तो मैं यहीं रुक जाता हूँ।”
“नहीं, मोहन मैं घर में अकेले रह लूँगी तुम अपने पिता का ख्याल रखो, वो पैरालिसिस के मरीज हैं उन्हें तुम्हारी आवश्यकता होगी..”
“पर मैं आपको छोड़कर यूँ नहीं जा सकता…”
सुमित्रा को आज उसकी बातों से क्या महसूस हुआ वह खुद नहीं समझ पा रही थी…
मोहन अक्सर सुमित्रा के आस पास ही रहता, सुमित्रा भी महसूस कर रही थी कि मोहन उसे अजीब नज़रों से देखता है जब सुमित्रा की नजर उस पड़ती तो वह नजर चुराने लगता….सुमित्रा ने मन में विचार किया कि मैं शायद ज्यादा ही सोच रही हूँ मैं पैंतालीस वर्ष की और मोहन पच्चीस वर्ष का भला उसके अंदर यह भावना कैसे आ सकती है?….नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं हो सकता।
अब मोहन इस तरह से उसका ख्याल रखता कि उसे अब जिंदगी में किसी चीज की कमी महसूस न होती। उदास होती तो उसे हँसाने के अलग अलग जतन करता, सुमित्रा भी बहने लगी थी उसी बयार के साथ जिस ओर वह बहा ले जा रहा था, सुमित्रा के बियावान जीवन में जैसे बहारों ने दस्तक दी हो, प्रेम क्या होता है यह उसका प्रथम अनुभव था। उसके मरुस्थल हृदय में जैसे खुशबूदार पुष्प खिला हो, जिसमें उसका तन मन महक रहा था। उसे भी अब मोहन की मौजूदगी भाने लगी थी, इसका कारण शायद अब तक प्रेम शब्द से महरूम रही थी। इसलिए कब वह मोहन की ओर खिंची चली गयी उसे खुद पता न चला।
अब सासू मां ने भी इस संसार से अलविदा कह दिया था। सुमित्रा निपट अकेली रह गयी थी मोहन का प्रेम न मिला होता तो शायद जीने की चाह भी न होती उसे
धीरे धीरे वह मोहन के प्यार की गिरफ्त में आती चली गयी वह सोच रही थी कि जीवन की शाम में ही सही लेकिन एक सच्चा जीवनसाथी मिला। वह अपने आगामी जीवन के सुखद सपने अपनी आंखों में सजोने लगी। अब वह अपनी सभी जिम्मेदरियों से जल्द मुक्त होना चाहती थी।
सुमित्रा, मोहन से कहती है, “अब यह जिम्मेदरियों का बोझ मुझसे उठाया नहीं जाता.. क्यों न हम जल्द शादी कर लें…”
“यह तो बहुत अच्छा विचार है, मैं कल ही किसी पंडित से बात करता हूँ जो हमारी शादी किसी मंदिर में करवा देगा…”
“मोहन मुझे अब भी यकीन नहीं होता कि मैं तुम्हारी पत्नी बनूँगी….यह सपना तो नहीं मोहन?”
“नहीं! यह सपने सच होने का समय है मेरी जान…” मोहन मन में कुटिलता से भरी हंसी हंसता है।
दुनिया से अनभिज्ञ सुमित्रा उससे पीछे से चिपकते हुए कहती है, “सच… मोहन”
मोहन झेंपते हुए, “हां सुमि हां…”
उसकी बाहों को अपने हाथों से पकड़ते हुए सामने लाकर मोहन सुमित्रा से कहता है बस कल का दिन और सुमि….मैं और तुम नहीं…सिर्फ हम होंगे।
सुमित्रा प्रसन्न होकर मन ही मन सोचती है यह कल कब होगी? उसके पांव जैसे जमीं पर टिक नहीं रहे हो….
पंडित जी आ चुके हैं शादी की तैयारियां चल रही हैं मोहन आता है, “सुमि कुछ पेपर्स पर तुम्हारे सिग्नेचर लेने हैं।”
“तुम भी मोहन आज हमारी शादी है और तुम आज भी कामों में व्यस्त हो..”
“सुमि यही तो वो डॉक्यूमेंट हैं जो असल मायने में हमारी शादी सिद्ध करेगें।”
“मतलब ?”
“मतलब हमारी कोर्ट मैरिज..” मोहन बोला।
सुमित्रा की खुशी का ठिकाना न रहा। शहर के सबसे महंगे रिसोर्ट में सुहागरात के लिए कमरा बुक करवाया था। रात के बारह बज गए मोहन अभी तक नहीं आया ऐसा क्या काम था उसे जो मुझे शादी के बाद सीधे यहां छोड़कर चला गया और अभी तक न आया….इंतजार करते करते उसकी आंख लग गई…
सुबह हुई तो उसने देखा कि मोहन अब तक नहीं आया तो उसने जाकर नीचे रिसेप्शनिस्ट से पूछा तो उसने एक खत जो मोहन ने उसे देने को कहा था। पकड़ा दिया….जिसको पढ़कर सुमित्रा के पैरों तले जमीन खिसक गई…वह खुद को संभाल न सकी और गस खाकर गिर पड़ी…. जब होश आया तो वह अभिशप्त की भांति पड़ी थी। एक बार फिर जिंदगी द्वारा छले जाने की पीड़ा उसकी आंखो झर रही थी। दूर दूर तक उसके जीवन में सिर्फ और सिर्फ वियाबान ही बचा था।