1 – उम्दा काव्य
बेहतरीन कविताओं के
अलग ही
रंग-ढंग और ढब होते हैं
शब्द-शब्द चलकर
दिल की जमीन पर
कब्ज़ा कर लेते हैं
पकड़ इतनी गहरी कि
ना निकलने की छटपटाहट
ना मन गिरफ्त से
बाहर आने का
बेहतरीन उम्दा काव्य
दादी के किस्से-कहानी की तरह
रात की अर्धनिद्रा में
सुने जाने के बावजूद
ताउम्र याद रह जाते हैं
हिय पर लगे मरहम जैसे
सहलाते हैं, दुलराते हैं
अपने गहरे अर्थों में
प्यार के साथ जगते
घावों के साथ सोते हैं।
2 – इस समय में
भयावह प्रश्नों से टकराकर
घायल होते इस समय में
केवल इसलिए चुपचाप
बैठा नहीं जा सकता कि
दे रही है पृथ्वी हमें
भरपूर स्पेस, नूतन स्वप्न
भरी-पूरी जेब, लाॅकर
एक आधुनिक जीवन,
स्वच्छंद उच्छृंखल रात-दिन,
यह वक्त अमीर होने के
पुरातन सपनों से लबरेज़ है
जब तक धरती का एक भी बेटा
रोटी से वंचित है
हमारे सपने कहाँ समृद्ध हैं,
तब तक किसी सपने में
अपनी पूरी ज़िन्दगी
कैसे गुजार सकते हैं हम
जब भूखा है एक भी दुधमुंहा
एक भी भविष्य,
हमारे सपनों में सिर्फ
हम, हमारा परिवार, हमारे रिश्ते
होने नहीं चाहिए।
हमें तब तक ख़्वाब देखने का
कोई हक नहीं
जब तलक भूखा है एक भी घर
बीनता हुआ बासी
बदबूदार भोजन
कूड़े के ढेर में,
महा औदार्य से
उड़ेले गए अघाए पेट के
बड़े भव्य समारोह के बाद।
3- कश्मीर के लिए
स्वर्ग में कब से
घुल चुका था
बारूदी गंध विषैला
विषैले जीवाणुओं ने उसे
हर ओर से लिया था घेर
विध्वंस के काले डैनों ने
छाप लिया था उसे
उसके क्षितिज का रंग
अलग हो चुका था
नीलाभ, पीताभ
गुलाबी नहीं रह गया था,
ललहुन गगन में
मिल गया था बारूदी
भूरा-काला, उजला रंग,
सिंधु, झेलम भी कहाँ
अपने वास्तविक रंग में बचा था
था रचा-बसा इन नदियों में
एक रक्तिम गंध।
खूनी इच्छाएँ
इनके पानी में घुल चुकी थीं
जैसे घुलते हैं पानी में
काले कचड़े, माटी का भूरापन
सफेद रसायन फैक्टरी का।
और हम बचा नहीं पाए
दुनिया भर के जल के
स्वच्छ नीलेपन को,
ठीक वैसे ही हमने खो दिया था
स्वर्ग की सरिताओं का
रूप-रंग-सुगंध
लेकिन हमें है विश्वास
एक दिन सब इस विध्वंस के पार
उठ खड़े होंगे फिनिक्स की तरह
अपनी  कश्मीरियत के रक्षार्थ
पूरी मासूमियत के साथ,
बचा लेंगे ही
चिनार, देवदार, हिम
चश्मे, नरगिस, केसर,
डल झील, ग्लेशियर के साथ
एक भरी-पूरी धरा
और मनुष्यता की धार
विध्वंस हमारे इरादों का
बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा।

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