एक थका हुआ सच मानवता की हृदय-विदारक चीख

सिन्ध की लेखिका:अतिया दाऊद

सिन्धी अनुवाद: देवी नागरानी

(आतिया दाऊद का काव्य-सिन्धी से हिन्दी अनुवाद-2016)
सिंध की लेखिका की तेजाबी तेवरों में लिखी कवितायेँ, कवितायें नहीं, औरत की रूदाद है. जो शब्दों में ढल गयी है. पढ़ते ही मन में हलचल सी मच जाती है. आतिया जी की इजाज़त से उनके एक काव्य संग्रह “एक थका हुआ सच” का देवी नागरानी जी ने सिन्धी से हिंदी में अनुवाद किया है ताकि यह भाषा और भाव से परे की अभिव्यक्ति पाठकों तक पहुंचे.
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36
ज़ात का अंश
शहर की रौनकें रास न आईं
महफिलों ने मन में आग भड़काई
दोस्तों की दिलबरी परख ली
दोस्त और दुश्मन का चेहरा एक ही नज़र आया
शहर छोड़कर मैंने सहरा बसाई
पर वहाँ भी सभी मेरे साथ आए
यादों के काफ़िले बनकर मेरे पीछे आए
शहर की तरह सहरा भी मेरा न रहा
मैंने दोनों बाँहें खोल दीं
आओ दोस्तो! मेरे अंदर जज़्ब हो जाओ
मेरे जिस्म की नसें
तुम्हारे पैरों से लिपटी हुई हैं
मैंने क़ुदरत के क़ानून पर संतुष्टि की है
मैं समन्दर बन गई
हर दरिया आख़िर मुझमें ही आकर समा जाता है
मैं मरकब की हैसियत से वसीह हूँ पर
मुझे अपनी ज़ात के अंश की तलाश है
जानती हूँ कि वह इक कतरा होगा
एक पल में ही हवा में सूख जायेगा
मैं एक पल के लिये ही सही
उसे देखना चाहती हूँ
फिर चाहे वह हमेशा के लिये फ़ना हो जाये
मुझे अपनी ज़ात के अंश की तलाश है
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37
अजनबी औरत
आईने में अजनबी औरत क्या सोचती है
मैंने पूछा ‘बात क्या है?’
वह मुझसे छिपती रही
मैं लबों पर लाली लगाती हूँ तो वह सिसकती है
अगर उससे नैन मिलाऊँ तो
न जाने क्या-क्या पूछती है
घर, बाल-बच्चे, पति सभी खुशियाँ मेरे पास
और उसे न जाने क्या चाहिये?
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38
खोटे बाट
मज़हब की तेज़ छुरी से
कानून का वध करने वालो
तुम्हारा कसाई वाला चलन
अदालत की कुर्सी पर बैठे लोग
तुम्हारी तराजू के पलड़ों में खोट है
तुम्हारे समूरे बाट खोटे हैं
तुम जो हमेशा मज़हब के अंधे घोड़े पर सवार
फ़तह का परचम फहराते रहते हो
क्या समझते हो? औरत भी कोई रिसायत है
मैं ऐसे किसी भी खुदा, किसी भी किताब
किसी भी अदालत, किसी भी तलवार को नहीं मानती
जो आपसी मतभेद की दुश्मनी में
छुरी की तरह मेरी पीठ में खोंप दी गई है
क़ानून की किताबें रटकर डिगरी की उपाधि सजाने वाले
मेरे वारिस भी तो तुम जैसी मिट्टी के गूँथे हुए हैं
किसी को रखैल बना लें, रस्म के नाम पर ऊँटनी बना लें
ग़ैरत के नाम पर ‘कारी’ करके मार दें
किसी को दूसरी, तीसरी और चौथी बीवी बनाएँ
तुम्हारी तराजू के पलड़े में मैं चुप रहूँ
ख़ला में झूलती रहूँ
एक पलड़े में तुम्हारे हाथों ठोकी रीतियों, मज़हब
जिन्सी मतभेद के रंगीन बाट डाले हैं
दूसरे पलड़े में मेरे जिस्म के साथ तुम्हें साइन्सी हक़ीक़तें
मेरी तालीम और शऊर के बाट इस्तेमाल करने होंगे
तुम्हें अपने फैसले बदलने होंगे!
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39
चादर
मेरे किरदार की चादर
सदा ही अपर्याप्त
जितनी आँखें मेरे बदन पर गढ़ी
वहाँ तक चादर मुझे ढाँप न पाई
मेरे किरदार की चादर हमेशा से मैली
धोते-धोते मेरे हाथ थके हैं
जितनी ज़बाने ज़हर उगलती हैं
उन्हें धोने के लिये उतने दरिया नहीं है मेरे देश में
इस चादर में हमेशा छेद
सात संदूकों में छिपाऊँ तो भी
आपसी मतभेद के आक्रमणकारी चूहे कुतर जाते हैं
इस चादर को हमेशा ख़तरा
रीति-रस्मों के किलों में हमेशा इस पर पहरा
तो भी मेरे सर से खिसकती रहती है
रौशन रौशन नैनों वाली मेरी बेटी
अंधेरे के ऊन से
ऐसी चादर तुम्हारे लिये भी बुनी जा रही है
जिस में खुद को समई करने के लिये
वजूद को समेटते हुए सर झुकाना होगा
अगर मेरे थके थके हाथ वह चादर तुम्हें पेश करें
अपने पैरों तले रौंद डालना
रीति-रस्मों के सभी पहाड़ फलाँग जाना
मेरा हाथ पकड़कर मुझे वहाँ ले जाना
जहाँ मैं अपनी मर्ज़ी से
ज़िन्दगी से भरपूर साँस लूँ
तुमसा एक आज़ाद कहकहा लगाऊँ!
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40
एक माँ की मौत
ज़िन्दगी मेरे बच्चे के गाल सी मुलायम
और कहकहों जैसी मधुर है
उन मधुर सुरों पर झूमते सोचती हूँ
मौत क्या है…? मौत क्या है…?
क्या मौत से बेखबरी की चादर है?
जिसे ओढ़कर इतनी पराई मैं बन जाऊँगी
अपने बच्चे की ओर भी देख न पाऊँगी
मौत अंधेरे की मानिंद मेरी रंगों में उतर जाएगी!
आखिर कितना गहरा अंधेरा होगा
क्या मेरे बच्चे का चेहरा
रोशनी की किरण बनकर मेरे ज़हन से नहीं उभरेगा?
मौत कितनी दूर, आख़िर मुझे ले जाएगी
क्या अपने बच्चे की आवाज़ भी मुझे सुनाई नहीं देगी?
मौत का ज़ायका कैसा होगा?
और भी कड़वा या इतना लजीज़
जब मांस चीरते रग रग दर्द में तड़पी थी
दर्द के दरिया में गोता लगाकर
एक और मांस मैंने तख़्लीक किया था
ममता के आड़े भी क्या
मौत के समन्दर की लहर तेज़ है?
मेरे बच्चे के आँसू
उस बहाव में मुझे क्या बहने देंगे?
आख़िर कब तक मैं खामोश रहूँगी
अपने बच्चे को सीने से लगाए बिना
साफ सुथरे कफ़न में लिपटी हुई
अकेली किसी अनजान दुनिया की ओर चली जाऊँगी
मौत, मेरे गले में अटका हुआ इक सवाल है
और ज़िन्दगी
मेरे बच्चे का दिया हुआ चुम्बन!

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