लेखक: हलीम बरोही :: अनुवाद: देवी नागरानी
एक तो मैं थोड़ा बेवक़ूफ़ हूँ, दूसरी बात यह कि मुझे भूल जाने की बहुत बुरी आदत है और तीसरी बात यह कि मुझे मज़ाक समझने के लिए कम से कम घंटा, डेढ़ घंटा चाहिए… और इसीलिए जिस किसी भी बात पर मुझे तुरंत ठहाका मारकर हँसना चाहिए, उस बात पर मैं घंटा, डेढ़ घंटा देर से ठहाका मारकर हँसता हूँ। मेरी पत्नी का इसके विपरीत हिसाब है। वह समझदार भी बहुत है। भूलने की आदत तो बिल्कुल नहीं है और ठहाका भी तुरंत लगा देती है। अब मैं आपको वह क़िस्सा सुनाता हूँ, जिस पर मेरी पत्नी ने लगभग दस महीनों के बाद ठहका मारा। मज़ाक कुछ ऐसा था कि हम दोनों को दस महीने के पश्चात् समझ में आया और फिर हम दोनों इतना हँसे कि आज तक भी उसकी याद आने पर कई घंटों तक हँसते रहते हैं। अगर आपने दो बातें याद रखीं तो फिर मज़ाक सुनने के बाद आप भी हम पति-पत्नी की तरह घंटों तक ठहाके मारकर हँसते रहेंगे। वे दो बातें ये हैं-एक तो उस वक़्त भी पहला ठहाका मेरी पत्नी ने मारा था और दूसरी यह कि मुझे भूल जाने की बहुत बुरी आदत है।
हमारी शादी को तीन साल बीत गए थे; पर हमें औलाद न हुई,… और मुझे भुलने की आदत थी। आप मुझे ग़लत मत समझना। जो बात मुझे याद रखनी चाहिए थी वह मैं हर रात याद रखता था, पर मुझे हर वक़्त यूँ महसूस होता था कि जैसे कोई बात याद करने की कोशिश कर रहा होता था। बाद में जब हमारी शादी को चार साल हो गए और कोई भी औलाद न हुई, तब मेरी माँ के सब्र का पैमाना छलककर अपने बाँध तोड़ बैठा। तन्ज से हमें सुनाते हुए कहा-तुम पति-पत्नी क्या कुछ करोगे भी या सिर्फ़ इस तरह ऐनकों को खड़खड़ाते रहोगे?’
मैं सुनाना भूल गया कि हम पति-पत्नी दोनों ऐनक पहनते हैं, पर एक-दूसरे के नज़दीक आने पर ऐनक उतार देते हैं। शादी के आगामी दिनों में हमारी ऐनक बराबर टकराकर खड़खड़ा उठती थी। मेरी माँ को वह ऐनकों का खड़खड़ाना अब तक याद है।
फिर, एक दिन मैंने महसूस किया कि मेरी पत्नी में कुछ बदलाव आ गया है। कुछ दिनों बाद वह बदलाव समझ में नहीं आया, पर फिर मैंने देखा कि मेरी पत्नी आवरण इकट्ठे कर रही थी और मुझसे उसके उस बदलाव वाली बात भी याद न रही। तब मैंने अपनी पत्नी को नन्हे-मुन्ने कपड़े सीते हुए देखा, पर वह बात भी मैं भूल गया। एक दिन मैंने उसे छोटे जुराब बुनते देखा। फिर वह बात भी मैं भूल गया….और इसी तरह एक दिन मेरी तव्वजू उसके शरीर की ओर गई, ज.हाँ मुझे लगा कि उसका पेट धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। पर यह बात भी दिमाग़ से आई-गई हो गई।
एक दिन जब मैं घर आया तो मेरी माँ ने मुझे दरवाज़े के पास हुशकहकर चुप रहने का इशारा किया। मैं चुप होकर कुर्सी पर बैठ गया और इशारे से ही माँ से पूछा-क्या है?’
मेरी माँ बहुत ख़ुश थी और मुझे कुछ बताने के बजाय खुशी से नाच उठी, … और फिर मैंने देखा कि घर में एक लेडी डॉक्टर आई और साथ में एक नर्स भी, मैं माँ के साथ बंद दरवाज़े के पास बैठकर इंतज़ार करने लगा, जैसे बचपन में क्लास में बैठकर परीक्षा के रिजल्ट के सुनने का इंतज़ार करता था।
फिर अचानक ऊ…आँ, ऊ…आँ की आवाज़ आई और मेरी माँ छलांग लगा दरवाज़ा खोलकर भीतर घुस गई और थोड़ी देर के बाद मुझे भी भीतर बुला लिया।
भीतर कमरे में मैंने देखा कि मेरी पत्नी खाट पर लेटी पड़ी थी और बग़ल में एक बालक लेटा हुआ था जो उ…आँ, उ…आँकर रहा था। मैं भी हर बात देर से समझता हूँ, पर उस दिन मैं तुरंत समझ गया कि क्या हुआ है। खुशी से मेरी भी बाँछें खिल उठीं और अचानक मुझे वह बात याद आई, जिसकी मुझे बिल्कुल भी याद न रही। मैंने अपनी पत्नी के सिरहाने बैठकर उसे बताया कि शादी के पहले जब मैं लंदन में था, तब वहाँ मैंने अपने कुछ दोस्तों के कहने पर फ़ैमिली प्लानिंगको ज़िंदा रखने के लिए अपना आप्रेशन करा लिया था। उन डॉक्टरों के मुताबिक़ मैं अब औलाद पैदा करने के क़ाबिल न था। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि भूलने की इसी बुरी आदत के कारण मैं उसे पहले  यह बात नहीं बता पाया था। मेरी पत्नी ग़ौर से सुनती रही। फिर अचानक ठहाका मारकर हँसने लगी। ज़रूर कोई अच्छा मज़ाक रहा होगा, जो मेरी पत्नी ठहाके मारने लगी थी। हम दोनों मिलकर ठहाके मारकर हँसते रहे और आज तक जब भी वह मज़ाक याद आता है तो हम खिल-खिलाकर हँस पड़ते हैं।

हलीम बरोही 
जन्म: अगस्त 1936 हैदराबाद में। शिक्षा: बी.ए. व एल-एल.बी. के बाद वक़ालत की, फिर जल्द वक़ालत छोड़कर सिंध यूनिवर्सिटी में कार्यरत हुए, जहाँ से अब वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उन्होंने 1967 में लिखना शुरू किया। अनेक कहानियाँ व ‘ओराह’ नाम का उपन्यास प्रकाशित हैं। इसके सिवा उनका और महत्वपूर्ण काम था-रोमन सिंधी बनाना, जिसमें वे सफलता पा चुके थे। 
पता-बी-1/502 सदर, हैदराबाद।

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