उम्र के झरोखे को खोल
न जाने वो कहाँ टहलती
निकल गई —
बादलों के उस पार
या फिर
धरती और आकाश के
उस छोर पर
जहाँ न कोई सुनने वाला
न ही सुनाने वाला—
मन के बादलों के बीच चीत्कार करती
कड़कदार बिजली सुन
अचानक चौंककर
अपने होने के अहसास को
टटोलती वह
सुनती रही ,उन सभी को
जो न जाने कहीं दूर से पीट
रहे थे ढोल —
इन्द्रियों की उलझन से, शिथिल मन से
उद्वेलित शब्दों का कफन पहन
आधी मरती,आधी जीती रही —
अब —जो भी लोग कहें
वह जानती थी ,उसकी साँसें
चल रही थीं ,दे रहीं थीं प्रमाण
उसके ज़िंदा रहने का
2 – इतना ही बस
जब साँसें लगें उखड़ने
थकान से कंपित होने लगे गात
ज़िंदगी की कगार पर हो खड़े
लगाऊँ आवाज़
तनिक भी न लगाना देर
शिथिल न होने देना मन को
भरी-पूरी ज़िंदगी के
अहसास से जुड़े रहने का
जो भी बचा हो तुम्हारे पास
एक चुटकी में समेट
बो देना उस क्यारी में
जहाँ अक्सर ,एक पीले फूल के
टूट जाने से अक्सर
तुम –झगड़ जाते थे
और मेरा मुख फूलकर
हो जाता था कुप्पा —-
अब –उसी लम्हे की स्मृति
जाने क्यों आने लगती है
बार-बार —
जब मैं लगाऊँ आवाज़
पल भर में सुन लेना
बस–इतना करना —–||