Saturday, October 12, 2024
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अरविन्द यादव की दो कविताएँ

(1) – वे नहीं करते हैं बहस
वे नहीं करते हैं बहस जलमग्न धरती
और धरती पुत्र की डूबती उन उम्मीदों पर
जिनके डूबने से डूब उठती है धीरे-धीरे
उनके अन्तर की बची-खुची जिजीविषा
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने धरती पुत्र अपने खून-पसीने से अभिसिंचित फसल
बेचते हैं कौड़ियों के भाव
जिसको उगाने में डूब गए थे
गृहलक्ष्मी के गले और कानों में बची
उसके सौन्दर्य की आखिरी निशानी
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने अन्नदाता
कर्ज के चक्रव्यूह में फंस मौत को लगा लेते हैं गले
जिनके लिए सड़कें पंक्तिबद्ध होकर नहीं थामती हैं मोमबत्तियां
और चौराहे खड़े होकर नहीं रखते हैं दो मिनट का मौन
वे नहीं करते हैं बहस संसद से सड़क तक
तख्तियां थामे चीखते चिल्लाते उन हाथों पर
देश सेवा के लिए तत्पर उन कन्धों पर
जिन्हें जिम्मेदारियों के बोझ से नहीं
कुचल दिया जाता है सरे राह लाठियों के बोझ से
वे नहीं करते हैं बहस बर्फ के मुंह पर कालिख मलती रात में
ठिठुरते, हाथ फैलाए उन फुटपाथों की दुर्दशा पर
जिन्हें नहीं होती है मयस्सर
दो वक्त की रोटी और ओढ़ने को एक कम्बल
वे नहीं करते हैं बहस अस्पताल के बिस्तर पर
घुट-घुटकर दम तोड़ती भविष्य की उन सांसों पर
जिन्हें ईश्वर नहीं
निगल जाती है व्यवस्था की बदहाली
वक्त से ही पहले
वे नहीं करते हैं बहस कभी बदहाल और बदरंग दुनियां पर
आर्तनाद करते जनसामान्य की अन्तहीन वेदना पर
वे करते हैं बहस कि कैसे बचाई जा सके
सिर्फ और सिर्फ मुट्ठी भर रंगीन दुनियां ।
(2) – फिर कैसे कह दूं तुम हो पाई हो दूर
जब भी देखता हूं आकाश में टहलता हुआ चांद
टहलने लगता है तुम्हारा चांद सा चेहरा
यकायक हृदयाकाश में
जब भी देखता हूं आंगन में खिलखिलाता हुआ गुलाब
प्रतिबिंबित होने लगते हैं तुम्हारे होंठ
कोमल पंखुड़ियों में
जब भी देखता हूं आकाश में उड़ते हुए काले-काले बादल
उड़ने लगती हैं तुम्हारी बेतरतीब फैली जुल्फें
सहसा आंखों में
जब भी देखता हूं खिली हुई मदमस्त लहराती सरसों
कौंध उठती है तुम्हारी बलखाती अल्हड़ देह
सिमटी दुपट्टे में
जब भी बसन्ती हवा का झोका छूकर निकलता है मुझे
अनायास हो जाता हूं सराबोर तुम्हारी
देह की भीनी गन्ध में
जब भी सुनता हूं दूर पेड़ों से आती कोयल की मधुर आवाज़
गूंजने लगती है तुम्हारी वाणी की मिठास
अचानक कानों में
जब भी देखता हूं आकाश में डूबता हुआ सूरज
डूब उठता है हृदय, धीरे-धीरे यादों के
उन्मुक्त अम्बर में
फिर कैसे कह दूं कि तुम हो पाई हो दूर
हमसे, हमारी यादों से
कभी भी पल भर को ।
अरविन्द यादव
अरविन्द यादव
पाखी, समहुत, कथाक्रम,अक्षरा, विभोम स्वर ,सोचविचार, सेतु , समकालीन अभिव्यक्ति, किस्सा कोताह, तीसरा पक्ष, ककसाड़, प्राची, दलित साहित्य वार्षिकी, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, विचार वीथी, लोकतंत्र का दर्द, शब्द सरिता,निभा, मानस चेतना, अभिव्यक्ति, ग्रेस इंडिया टाइम्स, विजय दर्पण टाइम्स आदि पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. सम्पर्क - [email protected]
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