सावन का महीना चल रहा था। आसमां नीला और धरती पहले से अधिक हरी हो गई थी। बारिश की बूंदों में किलोल करती नन्ही गौरैया और झूलों पर मल्हार गाती लड़कियां उसकी उदासी बढ़ा रही थी। जाने कितने बरस बीत गए उसे मायके गये हुए।
चार भाइयों की इकलौती बहन थी वह सबकी लाडली विशेष कर बड़े भैया तो उस पर अपनी जान छिड़कते थे। पिता का साया तो बचपन में ही उठ गया था लेकिन भाइयों के प्यार ने कभी उसकी कमी महसूस नहीं होने दी । अम्मा सावन पर घर के द्वार पर खड़े नीम के पेड़ पर झूला डाल देती थी वह बड़े ही हुलस के साथ सहेलियों के साथ उस पर झूलते हुए गीत गाती थी।
कच्ची पक्की नीम की निबौरी सावन वेग आईयो भैया मेरे दूर मत दियों भाभी नहीं बुलावेगी…
रक्षाबंधन के दिन भाईयों में होड़ मच जाती थी कि सबसे पहले वह लाड़ो से राखी बंधवाएगा। फिर इस झगड़े को अम्मा ही सुलझा पाती ।वह सबको लाइन से बिठाकर राखी बंधवाती थी। समय अपनी चाल से चलाता रहा । वे सब बच्चे से बड़े हो गए।सभी भाइयों ने पिता का पुश्तैनी व्यवसाय संभाल लिया और वह विवाह के बाद सुसराल आ गई। पर रक्षाबंधन पर पहले राखी बंधवाने के लिए आज भी भाइयों में होड़ मची रहती। अब इसमें भाइयों के साथ भाभियों का दुलार और मनुहार भी शामिल हो गया था लेकिन ये दिन अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रहे। वक्त के साथ अब अम्मा की तबीयत खराब रहने लगी थी । सभी भाई अपने गृहस्थी में व्यस्त थे। ऐसे में वह अम्मा की देखभाल करने के लिए उन्हें अपने साथ ले आई थी। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था अम्मा अधिक दिनों तक उसके साथ नहीं रह सकी और एक दिन नींद में सोई तो फिर न उठ सकी।
तेरहवीं के दिन वकील ने वसीयत पढ़ी । जिसमें अम्मा ने सभी भाइयों के साथ उसको भी बराबर का हिस्सेदार बनाया था इससे सभी भाई बुरा मान गए कि ये अम्मा को अपने साथ सेवा के लिए नहीं बल्कि हिस्सा पाने के लिए लाई थी । उसने लाख सफाई दी कि उसे पता भी नहीं है कि अम्मा ने कब वसीयत बनवाई है लेकिन उसकी बात पर किसी ने यकीन नहीं किया।
उस दिन के बाद उसके लिए मायके के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए।
हर साल रक्षाबंधन आता और वह थाली में राखी सजाएं पूरा दिन इस प्रतीक्षा में बीता देती कि शायद उसके भाई राखी बंधवाने आए लेकिन जैसे -जैसे दिन ढलता जाता उसकी उम्मीद भी कम होती जाती।
आज फिर रक्षाबंधन था वह सुबह से ही उदास थी भाइयों के न आने की उम्मीद के बावजूद इस बार भी उसने राखी की थाली सजाई थी शाम ढलते ही आशा निराशा में बदलने लगी। तभी दरवाजे की बेल बजी उसने दरवाजा खोला तो सामने बड़े भैया खडे़ थे उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
“यही दरवाजे पर खड़ा रखोगी या अंदर बुलाकर राखी भी बांधोगी।” बड़े भैया उससे कह रहे थे।
वह दौड़कर पूजा की अलमारी से थाली उठा लाई।
सबसे पहले उसने बड़े भैया के माथे पर रोली कुमकुम का तिलक लगाया और फिर उनकी कलाई पर राखी बांधकर आरती उतारी ।
बड़े भैया ने उसे उपहारस्वरूप एक लिफाफा पकड़ाया लेकिन उसने लेने से मना कर दिया।
“मेरे लिए तो आप ही सबसे बड़ा उपहार हो भैया।” उसने आंखों से छलकते हुए आंसू पोंछते हुए कहा
“लिफाफा ले ले पगली इसमें तेरी प्रोपर्टी के कागज है। जो अम्मा ने वसीयत में तुझे दिये थे।हम ही अपने स्वार्थ में अंधे हो गए थे लाड़ो जो तुझे तेरा वाजिब हक देने की जगह तुझसे दूर हो गए। “
भैया के आंखों से पश्चाताप के आंसुओं की बारिश में हो रही थी और उस बारिश में बर्षो का जमा उनके मन का मैल भी बह रहा था।
बहुत अच्छी. संवेदनशील कहानी .बेटे और बेटी के बीच ये प्रापर्टी का सवाल ज्वलंत हो उठता.है .स्नेह भरे रिश्ते बदल जाते हैं..मायके की देहरी दूर हो जाने का दर्द आजीवन एक बेटी की पीड़ा बन जाता है .भावुक अभिव्यक्ति.बधाई कमला जी.
पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर
बहुत अच्छी. संवेदनशील कहानी .बेटे और बेटी के बीच ये प्रापर्टी का सवाल ज्वलंत हो उठता.है .स्नेह भरे रिश्ते बदल जाते हैं..मायके की देहरी दूर हो जाने का दर्द आजीवन एक बेटी की पीड़ा बन जाता है .भावुक अभिव्यक्ति.बधाई कमला जी.
पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर
अच्छी लघुकथा
अपना अधिकार लेने की भावना तो हम सभी रखते हैं परन्तु, दुसरो को भी उनके अधिकार सहर्ष भाव से देने की सीख देती है आपकी यह कहानी।