एक जैसे हालात बोरियत पैदा कर देते हैं। कभी-कभी आर्थिक अथवा मानसिक ज़रूरत भी हालात बदलने को मजबूर कर देती हैं। जब तक स्थिति अपने काबू में हो, उसे बदलने का निर्णय हमारा हो, तब तक आप जो मर्जी निर्णय ले सकते हैं मगर जब ऐसा नहीं हो, तब क्या किया जाए?
मसलन आप संयुक्त परिवार में रह रहे हैं और सदस्यों के अनुपात में आपको घर का आकार छोटा लगता है। आप बड़ा घर बनवाना चाहते हैं। यह ऐसा निर्णय है जिसे अधिकतर परिवारजनों की मर्जी से ही लिया जा सकता है।
आपका पारिवारिक व्यवसाय है, जिसकी बढ़त का निर्णय आप लेना चाहते हैं। आप अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसे निर्णय आप अकेले नहीं ले सकते।
अब इसी स्थिति को यूनियन स्तर पर ले जाते हैं। मान लीजिए कि आप किसी संस्थान में काम करते हैं और अपनी माँगों को लेकर आप संस्था के संचालकों से अपनी माँगें मनवाने पर अड़ जाएं। या आप किसी संस्था के झंडे तले इकट्ठे होकर बहुसांस्कृतिक लोग एकसाथ सरकार पर अपनी माँग मानने का दबाव बनाने लगें, तब कैसा होगा?
सीधी सी बात यह है कि इंसान जिस स्थिति में रहता है, उसे अपने सुख-दुख अच्छी तरह समझ आते हैं। हर बार एडजस्टमेंट करते-करते कभी ना कभी आप भी अपने से उपर नियुक्त अधिकारियों से थोड़ी और सुविधा देने के लिए कहने का सोचेंगे ही। हालात से परेशान आप अपनी परिस्थियों को बदल देना चाहते हैं। यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरे पहलू पर दूसरा पक्ष है। क्या आपकी तनख्वाह या सुविधाएं अथवा वेतन-भत्ता जैसी अन्य ज़रूरतें बढ़ाना हर बार दूसरे पक्ष के लिए संभव है? जवाब आप भी जानते हैं।
पिछले दिनों पूना प्रवास के दौरान श्रीमती लीला पूनावाला को सुनने का अवसर मिला। उन्होंने “रोल प्ले” के बारे में अपनी सोच बतायी। उन्होंने बताया कि किस तरह एक बार उन्होंने फैक्ट्री को बंद होने से बचाने के लिए ‘रोल प्ले’ को अपनाया देखते हो देखते परेशानी हल हो गई।
लीला पूनावाला ने मंत्र दिया कि जब भी यूनियन के लोग एकत्रित होकर मेरे पास आये, मैं उनकी परेशानियों को ध्यान से सुनने/समझने का प्रयास करती थी। इसके बाद मेरी (मैनेजमेंट की) स्थिति यूनियन के सामने विस्तार से रखती थी। जब दोनों पक्ष एक-दूसरे की स्थिति समझ जाते थे, तब मिलजुलकर निर्णय लेते थे। इस तरह परेशानी सुलझ जाती थी।
इसी तरह आप हर सामने वाले के रोल में खुदको रखकर सोचना/समझना शुरू कर देंगे तब धीर-धीरे परेशानियाँ ख़त्म होने लगेंगी।
कहने का सार यह है कि अपनी स्थिति को समझाते हुआ सामने वाले की परिस्थिति को भी समझने का प्रयास करें। इस तरह परेशानियों का हल निकल आता है।
जी मेरा भी यही मनन्ना है office में काम करते हुए अगर कुछ सहकर्मी ज़ोर ज़ोर से बातें कर रहे होते हैं तो चुप रहने के बजाय मैंने उनसे साफ़ कहा की कृपया volume धीमा करे मैं अपने काम पर focus नहीं कर पा रही हूँ ।काम में गलती करने से अच्छा है आराम से अपनी बात रखो और उन्होंने मेरी बात मान भी ली ।
रश्मि जी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
आपने बात कहने के तरीके पर अपनी बात कही है। इस बार के कॉलम का थीम “रोल प्ले” की बात कह रहा है।