हवा में रकीब
*
बाधित हो रहा था फोन
बार बार
और हम बात कर रहे थे
शिव द्वारा कामदेव दहन की
रह रहकर फोन कटने से
झुंझला रही थी वह
कहा मैंने
यह हवा में रकीब है
जो किसी को दिखाई नहीं देता
आप उसे अनंग भी कह सकते हैं
वह हँसी
हवा में रकीब की कल्पना से
यह हँसी वास्तव में
देश की खराब संचार व्यवस्था
और चीजों के निजीकरण पर थी
यह हँसी देश के अरबपतियों के फैलाए
जाल पर थी
लेकिन मैं फिलहाल
इस अत्याचार को
मिथकीय संदर्भ दे रहा था
उसे बताया मैंने
समय सत्ता की जटिलताओं को
व्यक्त नहीं कर पा रही थीं भाषाएँ
जो इधर घुटकर मर रहीं थीं
या मार डाली जा रही थीं
और भाषाओं के जीनोसाइड की
चिंता न थी किसी को
बाधित हो रहा था फोन
कोई जैसे
नहीं चाह रहा था
हमारा संवाद
हम बात कर रहे थे कामदेव की
जो शरीर से बाहर आकर
हो गया था आवारा और अराजक
मैं उससे कह रहा था
शिव ने उसे अपनी अग्नि में
किया आत्मसात्
रखा जीवित अनंग रूप में
फिर बाधित हुई हमारी बात
हवा में लगा रकीब को
बात कामदेव से घूमकर
मुड़ न जाए दूसरी तरफ
झुंझलाई फोनमित्र मेरी
“यह हवा में रकीब
सच में जलने लगा है आपसे ”
5
अब हँसने की मेरी बारी थी
अब वो प्रेम कहां
जिसे देख कुकुरमुत्तों की तरह
उगते थे रकीब
समय की गति बदल रही यंत्रपुरुषों में
हमारे बच्चों को
हमारे बच्चे कभी चढ़े नहीं
किसी पेड़ पर
कभी तैरे नहीं
नदी में छलाँग मारकर
कहां है समय प्रेम के लिए उनके पास5
फिर कट गया फोन
प्रेम प्रसंगों की बात पर
मैं सुना रहा था उसे
एक प्रेमी की डायरी के कुछ अंश
उसे अपनी प्रेयसी की नाक
क्लियोपेत्रा की नाक सी लगती
फ्रांस की अपूर्व राजकुमारी
पोलीन बोनापार्ट की आँखें थीं
उसकी प्रेमिका की आँखें
और यूनान की वेनस के सुघड स्तनों से वह अपनी प्रेमिका के स्तनों की तुलना करता….
टोककर मेरी फोनमित्र ने पूछा
अनंग का क्या हुआ था पुराख्यान में
मैंने उसे बताया
समय के हमारे नियंताओं ने
उसे बदलकर एक जासूस उपग्रह में
स्थापित किया है हवा में
इसे ही पारंपरिक भाषा में
मैं कहता हूँ हवा में रकीब
वह फिर हँस पड़ी
इससे पहले कि मैं भी हँसता
हवा में रकीब ने फिर से काट दिया
हमारा संवाद ….
O
नौ बरस की किक बाॅक्सर चैंपियन बच्ची
तजमुल इस्लाम के नाम
—
कल 26 जनवरी की शाम
अर्णव गोस्वामी की चैनल के
खबरिया शोर व उसकी तानाशाही को
ओ, मेरी बच्ची,
धूल चटा दी तुम्हारी मासूमियत ने
यह तुम्हारी मासूमियत
किस धातु से बनी है ,मेरी बच्ची
कि कश्मीर से इटली तक
तुमने किसी अली किले और ब्रूस ली की
जादुई गतिकी से
ठोक दिए सभी अवरोध
और
फहराकर लौट आई
देश का झंडा
ओ,बाॅर्बी डाॅल सी बच्ची !
तुम्हारे मुष्ठि प्रहारों और चमकती बिजली जैसी
त्वरित लातों में
बहुत दिनों से स्थगित दुस्साहस
और असहमति का
यह वज्रघोष है
एक एक प्रहार तुम्हारा
दशकों की हिंसा,बम धमाकों, नारों,हत्याओं और बलात्कारों से गिरे खून के काले धब्बे
धो रहे थे
प्रसन्न हो रही थी ऋषियों की सनातन वाटिका
पहली बार
ओ,शीन-चिरैया सी मेरी बच्ची !
तुम्हें पहल करते हुए
ईश्वर की भी भर आई होंगी आँखें…
जैसे भर आईं थीं कल
गणतंत्र परेड पर राष्ट्रपति की भी आँखें
अशोक-चक्र देते हुए
तुम्हारे ही गाँव बांडीपुर में शहीद हुए
कार्पोरल निराला की पत्नी को
ओ,स्वर्ग से सुन्दर मेरी बच्ची!
इस बीच बे-इज्ज़त हुईं
और बर्बरता से मारी गयीं तमाम स्त्रियों की भी
आँखें क्यों न नम हुई होंगी
कितनी खुश हुई होगी
तुम्हारे ही गाँव बांडीपुर की
गिरिजा तिक्कू की आरे पर जिन्दा चीर डाली गयी आत्मा
सोच रही होंगी वे सभी दिवंगत हमारी बहनें
कि तुम और तुम्हारे जैसी बच्चियाँ
फिर से वुल्लर झील की लहरों पर
गाएंगी कवि दीनानाथ नादिम का गीत –
” संगरव गाश ह्योत
ख्वोनि ललॅवुनुये
व्यथ आयि माहरेन्य
सोनुये…….
लगीं झुलाने गोद में
प्रकाश को पहाडियां
दुल्हन वितस्ता आई
यहाँ हमारे …
जघन्य है ऐसा समय
–
जघन्य है ऐसा समय
जिसमें लोगों को कीड़े मकौडों की तरह
मार डाला जाए।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
बहाना कुछ भी हो।
चाहे अफवाह हो झूठ हो
जघन्य है पीट पीटकर हत्या करना किसी की।
वहशियों की तरह
कानून को ताक पर रखकर।
जघन्य है किसी का पत्थर मार मार कर
कचूमर निकालना
कहीं भी।
जघन्य है नेताओं की खोखली निन्दाएँ करना
और आरामपसंद
बुद्धिजीवियों की जुगाली करना
जघन्य है न्यायोचित ठहराना हत्याओं को ।
जघन्य है घृणा, देशद्रोह और धर्मोन्माद फैलाना।
जघन्य है मृतकों का धर्म या वर्ण देखकर लगे हाथ शोकगीत लिखना।
उनपर चर्चाएँ करवाना जघन्य है
जघन्य है
जघन्य है
जघन्य है
हत्यारों की घिनौनी राजनीति
और खबरीली चैनलों पर
स्पर्धा बडबोलेपन की
महान गायक विजय मल्ला की याद
उस दिन डल झील किनारे टहलते हुए
मैंने इंगित किया था
एक कमल की ओर
जो खिला था पंक में कश्मीर की
और नत था सामने
महादेव गिरि के आगे
कहा था तुमने,
क्या दिखता नहीं मैं तुमको
क्या पंकिल नहीं रहा मेरा भी जीवन
सीढ़ियाँ बोसीदा चढ़ता हूँ घर की
हांडियां हिलती हैं
माँ की रसोई में
फिर चढ़ते हुए एकदिन
शहर में शंकराचार्य पर्वत
फूल रही थी साँस तुम्हारी
कहा था मैंने
चढोगे शिखर यह
भूलेगी नहीं दुनिया तुमको
तुम हो गये थे चुप
फैल गयी थी एक उदासी
इस पहाड़ से दिखती
डल झील के ऊपर
यहीं कहीं
इसी शंकराचार्य पर्वत से
कहा था एकबार तुमने मुझसे ,
देखो हाऊसबोटों, होटलों का मल मूत्र
कर रहा सुर लय ताल दूषित
हमारे जीवन की
यह भावों की स्वरलिपि
हमारी मनीषा का सरगम
जाने कितनी सहस्राब्दियों से
हमारे स्वप्न में
सोई यह झील
विलंबित एकताल में जैसे
गाम्भीर्य और ठहराव
और इसी झील में
उग आया था
लंगोटिया मित्र यह कमल मेरा
पुराख्यानों और
देवी देवताओं का सान्निध्य छोड़कर
आया था हमारे बीच
गलियों गलियों घूमता साथ हमारे
जब गाने लगता
तो बड़े बड़े उस्ताद
दंग रह जाते
यह सच था
कि मर रही थीं झीलें
शर्मसार हो रही थीं पर्वतों की चोटियाँ
हमारे पुरखों की अलंघ्य ऊँचाइयाँ
बाद के वर्षों में
जब भी हम चढ़े
शंकराचार्य पर्वत
या निकले टहलने
किनारे किनारे
तुमने छोड़ दिया था मजाक करना
विषाक्त हो चुका था जल
सड़ रहे थे कमल के फूल
हैरान आंखों से देखा था तुमने
उस दिन
पराई मिट्टी, कचरा और बजरी से भरी जा रही थी झील
जो ग्रंथों में कभी सुरेश्वरी तीर्थ हुआ करती थी
और हम देखते बेबस
कैसे जीवन हमारा
हो रहा था मटिया मेट
विजय मल्ला,
तुम्हें क्यों मलाल था
कि रोका नहीं किसी ने तुम्हें कश्मीर से भागते हुए
या पूछा नहीं किसी ने
जलावतनी में तुमको
ये मंत्री, मुख्यमंत्री इत्यादि
प्रशंसक तुम्हारे
नौटंकीबाज़ पाखंडी
करते वाहवाही सामने
फिर क्यों काठ मारती
संवेदनाओं पर उनकी
तुम्हारी आवाज़ में
सदियों पीछे से
क्यों आती थी पूर्वजों की आवाज़
फैल जाती
सुरों की उपत्यका में ज़र्रे ज़र्रे से जुड़ी हमारी स्मृतियों में
तुम हरेक मौसम देखे हुए चिनारों पर उतरते
किसी गंधर्व लोक से
तुम्हारे साथ उतरतीं सभी दिशाओं की चहचहाती चिडियाँ..
काश, न होता
विजय मल्ला नाम तुम्हारा
शायद तुम्हें न करता मैं
इस तरह याद
हाशिए पर पड़े पूजा के फूल सा आज अवसाद के साथ
तुम्हारे जन्मदिन पर…