Friday, May 17, 2024
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अपना-अपना नशा ( सुभाष नीरव)

अपना-अपना नशा

“जरा ठहरो …” कहकर मैं रिक्शा से नीचे उतरा। सामने की दुकान पर जाकर डिप्लोमेट की एक बोतल खरीदी, उसे कोट की भीतरी जेब में ठूँसा और वापस रिक्शा पर आ बैठा। मेरे बैठते ही रिक्शा फिर धीमे-धीमे आगे बढ़ा। रिक्शावाले का रिक्शा खींचने का अंदाज देख लग रहा था, जैसे वह बीमार हो। अकेली सवारी भी उससे खिंच नहीं पा रही थी। मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी। मैंने सोचा, खरामा-खरामा ही सही, जब तक मैं घर पहुँचूँगा, वर्मा और गुप्ता पहुँच चुके होंगे।

परसों रात कुलकर्णी के घर तो मजा ही नहीं आया। अच्छा हुआ, आज मेहता और नारंग को नहीं बुंलाया। साले पीकर ड्रामा खड़ा कर देते हैं।… मेहता तो दो पैग में ही टुल्ल हो जाता है और शुरू कर दता है अपनी रामायण। और नारंग ?… उसे तो होश ही नहीं रहता, कहाँ बैठा है, कहाँ नहीं।… अक्सर उसे घर तक भी छोड़कर आना पड़ता है।

“अरे-अरे, क्या कर रहा है ?” एकाएक मैं चिल्लाया, “रिक्शा चला रहा है या सो रहा है ?… अभी पेल दिया होता ठेले में।…”

रिक्शेवाले ने नीचे उतरकर रिक्शा ठीक किया और फिर चुपचाप खींचने लगा। मैं फिर बैठा-बैठा सोचने लगा- गुप्ता भी अजीब आदमी है। पीछे ही पड़ गया, वर्मा के सामने। पे-डे को सोमेश के घर पर रही। पता भी है उसे, एक कमरे का मकान है मेरा। बीवी-बच्चे हैं, बूढ़े माँ-बाप हैं। छोटी-सी जगह में पीना-पिलाना।… उसे भी ‘हाँ’ करनी ही पड़ी, वर्मा के आगे। पत्नी को समझा दिया था सुबह ही- वर्मा अपना बॉस है।.. आगे प्रमोशन भी लेना है उससे।… कभी-कभार से क्या जाता है अपना।… पर, माँ-बाऊजी की चारपाइयाँ खुले बरामदे में करनी होंगी। बच्चे भी उन्हीं के पास डालने होंगे। कई बार सोचा, एक तिरपाल ही लाकर डाल दे, बरामदे में। ठंडी हवा से कुछ तो बचाव होगा। पर जुगाड़ ही नहीं बन पाया आज तक।

सहसा, मुझे याद आया- सुबह बाऊजी ने खाँसी का सीरप लाने को कहा था। रोज रात भर खाँसते रहते हैं। उनकी खाँसी से अपनी नींद भी खराब होती है। पर सौ का पत्ता … चलो, कह दूँगा-दुकानें बन्द हो गयी थीं।

एकाएक, रिक्शा किसी से टकराकर उलटा और मैं जमीन पर जा गिरा। कुछेक पल तो मालूम ही नहीं पड़ा कि क्या हुआ !… थोड़ी देर बाद मैं उठा तो घुटना दर्द से चीख उठा। मुझे रिक्शेवाले पर बेहद गुस्सा आया। परन्तु, मैंने पाया कि वह खड़ा होने की कोशिश में गिर-गिर पड़ रहा था। मैंने सोचा, शायद उसे अधिक चोट लगी है।… मैं आगे बढ़कर उसे सहारा देने लगा तो शराब की तीखी गन्ध मेरे नथुनों में जबरन घुस गयी। वह नशे में धुत्त था।

मैं उसे मारने-पीटने लगा। इकट्ठे हो आये लोगों के बीच-बचाव करने पर मैं चिल्लाने लगा, “शराब पी रखी है हरामी ने।.. अभी पहुँचा देता ऊपर।… साला शराबी !… कोई पैसे-वैसे नहीं दूँगा तुझे।… जा, चला जा यहाँ से… नहीं तो सारा नशा हिरन कर दूँगा।…शराबी कहीं का !”

वह चुपचाप उलटे हुए रिक्शा को देख रहा था जिसका अगला पहिया टक्कर लगने से तिरछा हो गया था। मैंने जलती आँखों से उसकी ओर देखा और फिर पैदल ही घर की ओर चल दिया।

रास्ते में कोट की भीतरी जेब को टटोला। मैं खुश था- बोतल सही-सलामत थी।

 

बाज़ार

सुभाष नीरव

 

साहित्य-समीक्षा की जानी-मानी पत्रिका ‘आकलन’ के संपादक ने तीन दिन पहले मृणालिनी शर्मा के दो सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह उन्हें पहुँचाए थे। इस अनुरोध के साथ कि वे इन पर यथाशीघ्र एक विस्तृत समीक्षा लिखकर भेज दें। पहले भी वे ‘आकलन’ के लिए लिखते रहे हैं।

एक सप्ताह में उन्होंने दोनों पुस्तकें पढ़ डाली थीं। आज सुबह वह लिखने बैठ गए थे।

लगातार तीन घंटे जमकर लिखा। दस पृष्ठों की लंबी समीक्षा पूरी करने के बाद एक गहरी नि:श्वास छोड़ी। कागज़-कलम मेज़ पर रख दिए। कुर्सी की पीठ से कमर टिका आराम की मुद्रा में बैठ गए और धीमे-से मुस्कराए।

अभी भी उनके भीतर बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था जिसे वे रोक नहीं पाए – ‘कल की लेखिका, अपने आप को जाने समझती क्या है ? केवल दो किताबें आई थीं -एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास – और बन बैठी देश की जानी-मानी हिंदी पत्रिका की संपादिका। पिता राजनीति में अच्छी-ख़ासी हैसियत रखते हैं इसीलिए न! संपादिका क्या बनी, आकाश में ही उड़ने लगी! दूसरे को कुछ समझती ही नहीं।  मिलने के लिए दो बार उसके ऑफिस गया और दोनों ही बार अपमानित-सा होकर लौटा। अगली ने समय ही नहीं दिया, चपरासी से कहलवा दिया कि बिजी हूँ मीटिंग में। जब-जब रचना प्रकाशनार्थ भेजी, तीसरे दिन ही लौट आई। चलो, समीक्षा के बहाने ही सही, ऊँट आया तो पहाड़ के नीचे!’

फिर, वे कुर्सी से उठ खड़े हुए। दो-चार कदम कमरे में इधर-उधर टहले, फिर कमर सीधी करने को दीवान पर लेट गए। तभी फोन घनघना उठा। ”कौन ?” चोगा कान से लगाकर उन्होंने पूछा।

”अखिल जी बोल रहे हैं ?” दूसरी तरफ से मिश्री-पगा स्त्री स्वर सुनाई पड़ा।

”जी हाँ।”

”जी, मैं मृणालिनी, एडीटर – साप्ताहिक भारत। कैसे हैं आप ?”

”ठीक हूँ। कहिए…।”

”अखिल जी, केन्द्रीय भाषा अकादमी वालों का फोन आया था। वे इस बार अपना वार्षिक सम्मेलन गोवा में आयोजित करने जा रहे हैं। विषय है – समकालीन महिला हिंदी लेखन। तीन विद्वानों के परचे पढ़े जाने हैं। मुझसे परामर्श ले रहे थे कि तीसरा पर्चा किससे लिखवाया जाए। आपने तो हिंदी आलोचना में बहुत काम किया है। सो, मैंने उन्हें आपका नाम रिकमंड कर दिया है। वे आपसे जल्द ही सम्पर्क करेंगे। इन्कार न कीजिएगा। बाई एअर लाने-ले जाने और पंचतारा होटल में ठहराने की व्यवस्था के साथ-साथ अच्छा मानदेय भी मिलेगा। बस, आप सम्मेलन में पढ़ने के लिए पर्चा तैयार कर लें।” कुछ रुककर उधर से मनुहारभरी मीठी आवाज़ पुन: आई, ”और अखिल जी, साप्ताहिक भारत के पाठकों के लिए अपनी कोई ताज़ा कहानी फोटो और परिचय के साथ दीजिए न!”

उनकी समझ में न आया कि क्या जवाब दें इस मनुहार का। ”ठीक है, आपने कहा है तो…” इतना ही वाक्य निकल पाया कंठ से।

”अच्छा अखिल जी, फिर बात होगी, अभी कुछ जल्दी में हूँ। बाय…।”

फोन बंद हो चुका था। चोगा अपनी जगह पर टिक चुका था, परन्तु मिश्री-पगी स्वर-लहरियाँ उनके कानों में अभी भी गूँज रही थीं।

एकाएक वे उठे, अपनी राइटिंग-टेबुल तक पहुँचे, खड़े-खड़े एक नज़र कुछ समय पहले लिखी समीक्षा पर डाली, कलम उठाई और कुर्सी खींचकर बैठ गए।

परिचय

नाम : सुभाष नीरव
(मूल नाम : सुभाष चन्द्र)

सम्पर्क :डब्लयू ज़ैड -61 ए /1, दूसरी मंज़िल, गली नंबर -16, वशिष्ट पार्क, सागर पुर बस स्टैंड के पास, पंख रोड, नई दिल्ली-110046

फोन : 09810534373

ई मेल % subhashneerav@gmail.com

 

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