जंगल-जलेबियों का चित्र
बात है उन दिनों की जब हमें कहानियां सुनने का बेहद शौक़ था, रंग बिरंगी परियां हाथ में जादू की छड़ी लिए अपने सपनों में हर रोज़ आया करती थीं। अपनी शरारतें उत्तुंग पर विराजमान थीं। मोहल्ले में एक जंगलजलेबी नाम का बड़ा सा पेड़ था। जब उस पर जंगल-जलेबियां लद जाती थीं तो सारे मौहल्ले के बच्चे पेड़ के इर्द-गिर्द ऐसे मंडराते जैसे मधुमक्खियाँ फूलों पर मंडराती नज़र आती हैं।  
हम तो फिर ख़ासे चंचल थे,और शरारतों एवं पेड़ पर चढ़ने की कला में माहिर थे। पेड़ के क़रीब जाने के सौ बहाने तलाशते थे हम! अम्मी से कहते कुछ सामान तो नहीं मंगवाना बनिये के यहां से, बड़ी बहन से पहले ही सांठ-गांठ कर लेते थे, अम्मी का मंगाया सामान लेने जाते हुए; और कभी अम्मी से इजाज़त लेकर जा धमकते जंगल जलेबी के पेड़ के नीचे, विशाल पेड़ की विशालता से अधिक दुश्वारी पैदा करता था उस पेड़ के  निकट रहने वाला उड़ना हरा सांप। 
पेड़ तालाब से सटा हुआ था, पानी का उड़ना सांप वहां रहा करता था। हरे रंग का, कई लोगों को उसने काटा था, माथे पर काटता था। उस सांप के काटने से एक 35 साल के मर्द की मौत हो गयी थी। एक दिन हमने भी उसे उड़ते हुए देखा था। दूर से देखते ही सारे बच्चे नो दो ग्यारह हो लिये थे। लटकी हुई जंगल-जलेबियां इतनी आकर्षित करती कि उस वक़्त ज़ेहन सांप के ख़ौफ़ से आज़ाद हो जाता। 
बड़ा मसअला रहता पेड़ की ऊंचाई से फल हासिल करना। लेकिन इस मक़सद के लियें भी जानकार तैयार रहते। वो लग्गी, लम्बा बांस साथ लेकर आते थे जिसकी सहायता से  जंगल-जलेबी तोड़ने की सब ज़ोर आज़माइश करते। मेरा भी नम्बर आता तोड़ने का और साथियों से कहती नीचे गिरते ही जंगलजलेबी पर कब्ज़ा जमा लेना, क्योंकि दूसरे दबंग बच्चों का ग्रुप भी छीनने को घात लगाये तैयार रहता था।
पेड़ तालाब से सटा हुआ था, पानी का उड़ना सांप वहां रहा करता था। हरे रंग का, कई लोगों को उसने काटा था, माथे पर काटता था। उस सांप के काटने से एक 35 साल के मर्द की मौत हो गयी थी। एक दिन हमने भी उसे उड़ते हुए देखा था। दूर से देखते ही सारे बच्चे नो दो ग्यारह हो लिये थे। लटकी हुई जंगल-जलेबियां इतनी आकर्षित करती कि उस वक़्त ज़ेहन सांप के ख़ौफ़ से आज़ाद हो जाता।
बड़ी बहन को सख़्त हिदायत देती कि डरना नहीं किसी से भी, जैसे ही मैं तोडूं फौरन उठा लेना। वो कहती – सही है। मैं तोड़ना शुरू करती और लाल-लाल रंगदार पक्की पक्की जलेबियों को लग्गी में उलझाकर ज़ोर का झटका देती जंगलजलेबियां गोल-गोल ठुमकती, बलखाती नाचती ज़मीं पर आ गिरतीं और साथी उठाने में व्यस्त हो जाते। दूसरे बड़े बच्चे जो दबंगई दिखाते उनकी दादागीरी रोकने के लिए, फल तोड़ते-तोड़ते मुझे कुछ पल रुकना पड़ता, और जो बच्चे मेरी बड़ी बहन और मेरे साथियों को धमकाकर उन्हें पीटकर फल छीनते, उनके पिन चुभाकर कहती, दफ़ा हो जाओ वरना तुम्हारे घर जाकर अभी कह दूंगी कि सबको मार रहे हो।  
टूटी हुई जंगल-जलेबियो में से कच्ची-कच्ची सी कुछ जंगल जलेबियाँ उन्हें थमा देती ये कहते हुए कि जब तुम ख़ुद मेहनत नहीं करते तो क्यों तंग करते हो, तुम यही खाओ वरना ये भी नहीं दूंगी और वो रख लेते। मैं फिर तोड़ने में मशरूफ़ हो जाती और जब बहुत सारी जमा हो जातीं और जमा हुई जंगल-जलेबियों के ढेर पर मेरी नज़र पड़ती तो ख़ुद को बड़ा तुर्रम खां समझती तथा अपनी मेहनत और सूझबूझ पर फूले नहीं समाती। अपनी नज़रों में खुद की ही बलैयां लेती। 
हाहाहा! आज सोचते हुए हंसी आ रही है। उस बचपनी दबंगई और उन बातों पर। जमा की गईं जंगल-जलेबियां अपने सब साथियों में बराबर बांटी जातीं। जो कुछ कच्ची होतीं उन्हें कागज़ में लपेट कर कनस्तर में रखती और दो-तीन दिन में जब पक जातीं थीं तब खाती। 
जंगलजलेबियों को हासिल करना आसान नहीं था, मगर हम हासिल करते थे और उनका भरपूर आनन्द लेते। आज अनायास ही बचपन की याद ज़ेहन में कौंध गयीं जब बस में सफ़र करते हुए जंगलजलेबी के पेड़ पर नज़र जम गई तो लिख दीं बचपन की यादें जो हीरे जवाहरातों से कम नहीं होती हैं।

1 टिप्पणी

  1. बहोत ख़ूबसूरत संस्मरण. उदयपुर में ख़ूब खाई हैं ये जंगल जलेबियाँ मैंने भी

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