Saturday, July 27, 2024
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ऋचा जैन की दो कविताएँ

1- माँ कहीं नहीं जाती
माँ कहीं नहीं जाती, माँ हमेशा साथ रहती है
कभी-कभी ऐसा लगता है कि माँ अब नहीं- माँ चली गयी,
और इस ख़याल से ही आँख से एक बूँद छलक जाती है
और दूजे ही पल एक अंगुली खुद-बख़ुद उठ जाती है – उसे हटाने
और माँ आ जाती है: हथेलियाँ बन कर
और मेरी आखों कोएक किनारे से दूसरे किनारे तक अच्छी तरह से पोंछ जाती है
हाथों की लकीरों में, पावों के तलुओं में,
माथे की शिकन में, बढ़ते नाख़ूनों में,
गालों को छूती किरणों में, बालों को सहलाती हवा में,
दिखती नहीं, पर माँ होती है।
आटा गूँथूँ तो, चुटकी भर नमक बन उसमें गिर जाती है
चाय में अदरक सी पड़ के गले को राहत दे जाती है
खिड़कियों में धूल सी जम के बैठ जाती है, और सफ़ाई करने को उकसती है।
टिफ़िन ना बनाऊँ, तो अफ़सोस बनमन के कमरे में सारा दिन चहलक़दमी कर बिताती है।
माँ कहीं नहीं जाती, माँ हमेशा साथ रहती है
चावल के डेढ़ अंगुल पानी के माप में, फूलती रोटी की भाप में,
मद्दी आँच में सिकती चाप में, स्वाद सी घुल जाती है।
पेट दुखे, तो गरम पानी की थैली सी चिपक जाती है
उलझे बालों में नारियल तेल सी चुपड़ जाती है
माँ कहीं नहीं जाती, माँ हमेशा साथ रहती है
सर्दी के गरारों में, एड़ी की दरारों में मरहम सी लग जाती है
किताबों के ख़ाकी कवर में, रेल के लम्बे सफ़र में
एक अलग पुरानी ख़ुशबू सी महक जाती है।
गुसल में गुनगुनाने में,  चिढ़ के बुदबुदाने में
बिन बात मुस्कुराने में मिज़ाजों सी नज़र आती है।
तीज हो या अमावस, चौथ हो या ग्यारस
ना चाहूँ, फिर भी रिवाजों सी निभ जाती है
पन्ने पर खिंचे हासिये में, दीवार पर बने साथिये में
जो मिटने लगूँ, तो फिर से उकेर के चली जाती है
माँ कहीं नहीं जाती, माँ हमेशा साथ रहती है
हिसाब में बड़ी पक्की है माँ
रिक्शे के पैसे हों या रद्दी का वज़न
ना एक सूत ज़्यादा, ना एक सूत कम
बनिए ने हिसाब में फिर कोई गफ़लत की है
माँ ठीक करवाकर ही वापस आएगी
बात इस बार साँसों की है, शायद इसलिए देर लग रही है
बस आती ही होगी
माँ कहीं नहीं जाती, माँ हमेशा साथ रहती है।
2- यारियाँ
एक बाग़ लगाया है – दोस्ती का
यारियाँ उगाई हैं, उसमें
वो जो कोने में बेधड़क, बेपरवाह अपनी जड़ें सर पर उठाए बावला बरगद खड़ा है –
लंगोटिया यारी है वो मेरी
कई पतगें मेरे लिए लूटी हैं उसनें।
शायद, अब भी किसी शाख़ पर माँझा लिपटा हो कहीं
बारिशों में मेरे संग भीगा है,
बसंत में संग झूला है
मेरे बचपन से वाक़िफ़ है ये
आज भी कभी डर लगे तो चिपक जाता हूँ – उसके तने से
अपनी जड़ों से सहला देता है मुझे
मेरा लंगोटिया यार
एक आम से यारी है, पर है बड़ी मीठी और ख़ास
ये उस वक़्त की यारी है जब सपने और खेल बड़े सरल हुआ करते थे
वो गुठलियों से गड्डे -गुड़िया बनाना, उनकी शादी रचाना,  आम की यारी में वो सादगी आज भी है
हर गरमी फलों से लदा वो मेरा इंतज़ार करता है
एक ज़िद्दी यारी है – पीपल से
ज़िद्द – सीखने की
मिट्टी ना मिले तो पत्थरों से भी निकल आता था वो
अब हर एक पत्ता जैसे सैकड़ों किताबों को समेटे बैठा हो
कितना कुछ रहता है उसके  पास – सीखने को
आज भी उसके कुछ पत्ते मेरी डायरी के पन्नों को चुपके से भर देते हैं।
मेरा ज़िद्दी यार
एक खट्टी यारी है – इमली से
दो चार बार उछलने पर हाथ आती थी
आज भी यही हाल है
पर स्वाद ऐसा निराला की बीज भी मुँह से निकाला नहीं जाता
बचपन के खेल कभी खट्टी यारियों के बिना पूरे हुए हैं भला
एक नुकीली यारी भी कर रखी है – बबूल से
उँगलियों के पोरों पर चुभे काटें समय-समय पर उभर कर याद दिला जाते हैं कि बाग़ बिना काटों के मुमकिन नहीं
कुछ ख़ुशबूदार यारियाँ हैं – रजनीगंधा , चमेली और मोगरे से
जो रात ९ बजे चाय के प्यालों के संग जो महकना शुरू होती थीं,
तो देर रात तक ठहाकों की ख़ुशबू को
गली के आख़िर तक पहुँचा कर ही थमती थीं –
हर रात महकती हैं, वो यारियाँ मेरे ज़हन में
कुछ बड़ी दिलचस्प यारियाँ हैं, जो हवा के झोंकों से उड़ के आयी हैं –
फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप की बक़ायदा फल फूल रही हैं – अज़ीज़ ये भी हैं, मेरे बाग़ की जो हैं अब
कुछ यारियाँ गए बरस बोई थीं, उनपे कोपलें फूट आयी हैं
नई नवेली नाज़ुक यारियाँ –  बड़ा वक़्त, बड़ी देखभाल माँगती हैं ये, अभी छोटी जो हैं
कुछ और हैं, जो इस बरस बोनी हैं।
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