Saturday, July 27, 2024
होमकविताडॉ. विभा रंजन की कविता - गति ही जीवन है

डॉ. विभा रंजन की कविता – गति ही जीवन है

पागल ही थी मैं..!
मैने जो सहेजा था..
चुरा कर कहीं..
सम्भाले रखा था..
जिंदगी के लम्हे..
गुज़रे पलों के..
समय के पदचिन्हों को..
जो बीत गए थे..
बचपन की अठखेलियाँ..
जवानी की तितलियांँ..
मेरे अतीत का..
सम्पूर्ण साम्राज्य..
अच्छे मीठे पल..
कहीं, गुम न हो जाए..
बंद कर रख दिया..
अपने मन के..
पिटारी में छुपा कर..
आज, जी में आया..
खोलूं ,जरा देखूं..
कितने बडे हुए..
वो, मेरे पल..
कितने फले-फूले..
बरसों जो संजोया था..
खोला तो चकित..!
वहां न लम्हा न पल..
न जाने कहां गुम हो गए..!
मैने तो छुए भी नहीं.…!
किधर खो गए..!
मेरे गुजरे समय के..
स्मृति चिन्ह..!
वहां तो मेरी अपनी ही..
बीती जिंदगी की..
दास्तान सो रही थी..
मैं चकित, सोचती..
कितना पागल है मन..!
कौन! सहेज सकता है..
भागते समय को..
वह तो हर पल..
गतिशील होकर..
परिवर्तनशील बन..
भागता ही रहता है..
और देता है संकेत
गति ही जीवन है

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest