ऑटो से उतरकर उसने अपने दायीं ओर देखा तो वह पहले से बस स्टॉप पर बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी!  उसने एक उचाट सी नज़र उस पर डाली और अपनी पेंट में हाथ डाले, वह सुस्त कदमों से गार्डन के गेट की ओर बढ़ चला! उसके मूक निमन्त्रण पर थके कदमों से वह भी उसका अनुसरण करने लगी!  लग रहा था मानो वे दोनों एक अदृश्य उदासी की डोर से बंधे साथ चल रहे थे!
यह दिन भी उन दिनों सा आम दिन था जब नारंगी छटा लिए सफ़ेद फूलों से लदे हरसिंगार एक हल्के से झोंके से भी लरजकर, हर्षाये  और लहराने लगे थे और उनके नीचे बिछी सफेद चादर प्रेमियों के दिल में सुलग रही धीमी आंच को शांत करने की बजाय और धधका रही थी!  एक तरफ सूरज की दहक थोड़ी सुस्त पड़ी थी और हवा को मनमाना करने की आज़ादी मिलने लगी थी!  आज वीकेंड था तो गार्डन में खासी भीड़ थी!  शहर की भीड़भाड़ और शोर से ऊबकर एकांत तलाशते जोड़े आज भी इधर-उधर अपना ठिकाना ढूंढ चुके थे!  उसके क़दमों में आज तेजी नहीं थी, वह दृढ़ता और उत्साह भी नहीं थे जो हर मुलाकात में हुआ करते थे!
थके, बोझिल लेकिन सधे हुए और लगभग रास्ते के अभ्यस्त क़दमों से पूरे गार्डन को पार करते हुए, वह अंतिम छोर पर पहुँच गया था जहाँ दो किनारों पर वे दो दोमंज़िला अष्टभुजाकार छतरियां बनी  थीं!  ये पूरी इमारत इस कदर प्राचीन थी कि इनकी बनावट पर शताब्दियों की टूट-फूट का असर साफ़ दिखाई पड़ता था!  इसकी हर टूटन, हर दरार में बीते वक़्त की बेरहम परछाई थी! इसके करीब ही लगे हुए एक बारादरी के खंडहर थे जो कभी अपने बारह खम्बों और शानदार मेहराबों के साथ सर उठाये स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना रही होगी पर आज अपनी भग्न अवस्था में अतीत की कहानियां सुनाती प्रतीत होती थी!  
इन बीते वर्षों में उन दोनों ने जाने कितनी ही बार एक साथ खामोशियाँ बुनते हुए उन कहानियों को सुना होगा!  गूंगे पत्थरों की वाचालता को महसूस किया होगा! उनके दर्द की टीस को बांटा होगा!  इस जगह से उनका यह रिश्ता दोतरफा था! उन्होंने भी तो एक दूसरे की बाँहों में या कांधों पर सिर टिकाये अपने सुखद भविष्य के कितने ही सपनों को भी बुना था, इन दरो-दीवार ने हुंकारे भरे होंगे उनके हर वाक्य पर, गर्म उन्सांस भरी होंगी उनकी प्यार भरी बातों पर, नोंक झोंक पर कभी चिहुंकी होंगी तो कभी मनुहार पर रीझ कर न्यौछावर हो गई होंगी!  वे इसी परिवेश का हिस्सा थे! जैसे वहां सामने की दीवार पर छाई बोगनवेलिया की झाड़ियों के पास फुदकती नटखट गिलहरियाँ, मधुमालती पर मंडराती रंगबिरंगी तितलियाँ या करीब के अमरुद के पेड़ की फुनगी पर बैठे टें टें का शोर मचाते दहकती चोंच वाले वाचाल तोते, चह-चह चहकती शोख़ बुलबुलें और दूर कहीं नेपथ्य में छिपे पर अपनी पिहू-पिहू से उपस्थिति दर्ज कराते मोर! 
सब वैसे ही तो था, हमेशा की तरह!  ठीक वैसे ही जैसे वहीँ सामने एक मेहनतकश मकड़ी आज भी सीढियों के पास कोने की दीवार से लटकी अपना जाल बुनने में मगन थी और एक हेकड़ मैना, कौओं के झुण्ड से खाने के लिए झगड़ रही थी!  हमेशा की तरह धूप का एक पारदर्शी दुशाला गुम्बदों से उतरते हुए पेड़ों, टूटी मुंडेर, झाड़ियों से होते हुए नीचे जमीन पर फ़ैल चुका था जिसके सुनहरे दामन पर कुछ गौरय्या कुछ यूँ यहाँ-वहाँ फुदक रही थीं मानों कोई ध्यानमग्न कश्मीरी कलाकार अपनी सुई से सुगढ़ कशीदाकारी कर रहा हो! सचमुच सब वैसा ही था जैसा हुआ करता था!  जितना वे यहाँ के आदी थे, ये जगह भी तो उनसे उतनी ही परिचित थी, उनकी उतनी ही अपनी सी थी!   
इस शांत, चुप्पा चहलकदमी के दौरान उन दोनों के जेहन में इस एक मुलाकात से पूर्व की वर्षों की सारी मुलाकातों की स्मृतियाँ गडमड हो रही थीं!  शांत थके क़दमों से चुपचाप बायीं ओर की दुमंजिला छतरी की ओर बढ़ चला!  वह भी  खामोश, उसके पीछे चलते हुए उसी दिशा में बढ़ रही थी!  छतरी की पहली मंजिल की ओर जाती सीढियाँ चढ़ते हुए आदतन उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया!  आदतन उसने भी उसे थाम लिया, हाँ आदतन ही तो पर हमेशा की तरह शरारताना अंदाज़ में वह उसके कंधे पर झूल नहीं गई थी!  उसने इस फर्क को एक टीस की तरह महसूस किया और एक ठंडी सांस लेकर सीढियाँ चढ़ने लगा!  पत्थर की बनी उन प्राचीन, उबड़-खाबड़ सीढियों को चढ़ने के क्रम में जिस सावधानी की दरकार थी उसने ये असर डाला कि ऊपर पहुंचकर वह धीरे से हाथ छुड़ाकर अपना दुपट्टा संवारने लगी!  
इस पीली किनारी वाले प्योर शिफोन के गुलाबी दुपट्टे में उसकी सांवली रंगत कुछ यूँ निखरकर आती थी कि वह  नजरें ही नहीं हटा पाता था!  पता नहीं ऐसा बेख्याली में हुआ या जानबूझकर कि आज वह, वही सूट पहनकर आई थी, हमेशा से उसका पसंदीदा!  वरना क्या वह नहीं जानती थी कि उसका छोटे छोटे पीले-गुलाबी फूलों से भरा यह सूट उसे बेहद पसंद था! उसकी एक झलक उसे दीवाना बना देती थी और वह धीमे से एक आँख दबाते हुए उसी पुरखुलूस रोमानी अंदाज़ में कहता,  
“फिर से आज ये पहना तुमने? इरादा तो नेक है न?” 
और उसकी इस हरकत पर खिलखिलाकर हँसते हुए वह जानती थी उसकी सारी खूबसूरती तो सिमटकर उन आँखों में आ बसी है जो चेहरे से हटती ही नहीं!  पर आज वह चुहल कहाँ, ठहाके कहाँ, आज वहां केवल ख़ामोशी थी!  न इजहार, न तारीफ़, न रूठना और न मनुहार!  वहां थी तो केवल दर्द की एक चादर और सर्द- ठंडी बर्फ सी ख़ामोशी!
उन दो खम्बों के बीच की मुंडेरनुमा खाली जगह पर वे दोनों बैठ चुके थे, एक दूसरे से नजरें बचाते, यथासंभव दूरी बनाये, अनचीन्ही और अपूर्व दूरी!  उनके पांव उस गोल छतरी के सामने बनी बिना दीवार की मुंडेर पर थे! बेसाख्ता उसका ध्यान पांव के समीप मुंडेर पर फैले कुछ कंकडों पर गया! जब कुछ न सूझा तो वह चुपचाप अपने दायें हाथ से उन्हें सकेरने लगी!  तब तक उबते हुए इसने एक सिगरेट सुलगा ली थी!  अनमनापन इतना हावी था कि उसे सकेरे हुए कंकड़ उस परिवेश में खलल से प्रतीत हुए!  अजीब से अहसास में घिरते हुए उसने धीमे से उन्हें फिर फैला दिया, इधर उसने कुछ कश खींचने के बाद गहरे अपराधबोध में सिगरेट पांव के नीचे मसल दी!  वह जानता था उसे उसका सिगरेट पीना पसंद नहीं, जब दोनों साथ हों तब तो बिल्कुल भी नहीं! ये कैसा साथ था कि वे साथ होकर भी साथ नहीं थे जो पहले दूर होकर भी कभी दूर हुए ही नहीं!
सिगरेट के कुचले हुए टोंटे को उठाकर कुछ क्षण घूरने के बाद उसे दूर उठाकर फेंकने के बाद उसने पूछा,    
“तो….कार्ड छप गये ?” उसका ये सवाल इतना बोझिल था कि उसके लबों से आते हुए शब्द मानों ठोस लोहे की बेड़ियों से घिरे घिसट रहे हों! 
“अभी नहीं!”  इतना भी अप्रत्याशित नहीं था यह सवाल पर वह प्रतिउत्तर में इतना ही कह पाई!  उम्मीद का एक दरिया उसकी आँखों में बेसाख्ता झिलमिलाया और फिर शांत बहने लगा!
“अगले महीने इन्क्रीमेंट मिल रहा है मुझे!”  अपने उत्तर में इतना जोड़ पाने में उसे कुछ समय लगा पर उसके ये शब्द लक्ष्यहीन होकर बिखर गये! पता नहीं अब इसका कोई अर्थ था या नहीं!  पर शायद ये इतने भी निरुद्देश्य नहीं थे!  क्या कहना चाह रही थी वह!
इस बार उसने नजर भरकर उसे देखा!  उसे यूँ इतना दूर हाथ भर की दूरी से देखना कितना कठिन है न, विशेषकर यहाँ, इस स्थान पर!  कुछ पल में ही उसका मन किया उसे बाँहों में भर ले! मन का क्या है यह न अधिकार जानता है न स्थिति की गंभीरता! उसके सांवले चेहरे पर पसीने की कुछ बूंदें चमक रही थीं!  कुछ और बूंदे वहां रहीं होंगी जो उसकी उदासी की ताब न ला सकी और स्वेद कणों की एक रेखा बनाते हुए उसकी कनपटियों से चूती हुईं उसकी गर्दन पर बह निकली!  उसका मन हुआ सब भूलकर उसे चूम ले, ठीक उसी जगह जहाँ स्वेद कणों की वह मन्दाकिनी बह निकली थी! वह उसकी ओर बढ़ा भी पर तभी उसने गरदन ठीक उसी की ओर घुमा दी!  उसकी बड़ी बड़ी आँखों में अब उदासी की जगह दर्द का समंदर  झिलमिला रहा था!  उसके होंठ कुछ कहने को फड़फड़ाये पर मौन ने उन्हें घेर लिया!  क्या उसे भी इस आलिंगन की प्रतीक्षा थी?  यह प्रतीक्षा उसकी देह से उठती गंध में इस तरह रचबस गई थी कि वह कुछ तय नहीं कर पाया और उसकी कामनाओं के ज्वार ने धीमे-धीमे से सतह पर बैठ जाना चुना!  
एक पल को उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी!  ग्लानि तो उसे इस बात पर भी थी कि वह इन बीते वर्षों में उपलब्धि के नाम पर कुछ न अर्जित कर सका!  एक अदद नौकरी तक नहीं कि स्वेद कणों की मंदाकिनी को साधिकार अपने अधरों से चूमते हुए उसे यह दिलासा दे सके कि कुछ नहीं होता अगर विवाह के कार्ड छप भी गये हों तो! कोई निमन्त्रण पत्र या कोई रवायत उसे उससे नहीं छीन सकती!  उम्मीद अभी भी कुछ दूर ठिठक हुई खड़ी थी!  पर उम्मीद का दामन इतनी दूर था कि वह उसे थामने का साहस नहीं कर सका!
वह फिर से कंकड़ फ़ैलाने-सकेरने लगी और इधर उसने फिर से एक सिगरेट सुलगा ली!  जैसे कुछ और करने को था ही नहीं!  उसे लगा वह कंकडों से नहीं अपनी स्मृतियों से खेल रही है!  समझ नहीं पा रही है कि उन्हें यहीं छोड़ दे या हमेशा के लिए संजो ले और उसे महसूस हो रहा था, अपनी तमाम नाकामियों और विवशताओं के साथ सिगरेट के दूसरे छोर पर खुद सुलग रहा है! आहिस्ता आहिस्ता! समय ने फिर एक उबासी ली और ऊँघने लगा!  कुछ देर बाद वह अपने दुप्पटे को ऊँगली पर लपेट रही थी और वह निकोटिन के स्वाद से धुआंये होंठों पर जीभ फिराते हुए दूर  दीवार की मुंडेर पर बैठे कर्कश आवाज़ में चीखते कौए को घूर रहा था जैसे उसकी हर मुसीबत का कारण वही हो!  उसने एक कंकड़ उस दिशा में उछाला और कौआ चीखता हुआ उड़ गया!  उसकी चीख अब भी उस शांत वातारण के सीने में सुई सी गड़ रही थी! 
“तुम्हे याद है हम यहाँ पहली बार कब आये थे?”  वह शायद यह तो नहीं पूछना चाहता था!
“हम्म… करीब तीन साल पहले… उस रोज जब तुमने रोक लिया था….कॉलेज जाने से….और आज…. शायद…. आखिरी…..” कुछ अस्फुट धीमे शब्द हवा में घुले पर अपने पीछे अनकहे अर्थ की परछाई छोड़ जाने में कामयाब रहे!
वह याद कर रहा था वह मुलाकात, जो पिछली कई मुलाकातों के सिलसिले से उपजी थी पर यहाँ इस जगह जब उसने उसे पहली बार छुआ तो लगा वे दोनों पहली बार मिल रहे हैं! यह छुअन अलग थी जैसे उसके होठों के स्पर्श ने उसे नहीं  उसकी आत्मा को छुआ था, उसके मन को सहलाया था!  उसके नर्म हाथों पर उसने कुछ सपनों की सौगात रखी थी!  सुंदर, रुपहले सपने जो किसी फूल से भी ज्यादा नाज़ुक थे और फौलाद से भी अधिक मजबूत!  आज वे सपने हरसिंगार से झड़ रहे थे!  पता नहीं यह क्रूर समय था या उसकी मजबूरी कि उन सपनों की नजाकत ने उनकी मजबूती को लील लिया था और वह विवश देख रहा था और कर भी क्या सकता था!       
इन बीते वर्षों में वे दोनों एक दूसरे के इतने करीब आ चुके थे कि उनका साथ होना जरूरत से कहीं अधिक उनकी आदत बन चुका था!  इन बरसों बरस के साथ ने जीवन में एक दूसरे की उपस्थिति को कुछ यूँ घोल दिया था कि अब दूध पानी से मिले मानों एक दूसरे के जीवन को जीने लगे थे! और यही वे दोनों थे जब रेशम के उलझे तन्तुओं सा उनका रिश्ता अब सुलझने की हद से परे उलझ चुका था!  केवल वे ही नहीं, कितने दिन, कितनी सुबहें, कितनी शामें भी इस सुलझाव की उम्मीद में मुंह बाये खड़ी थीं!  समय की आंच में उबल उबलकर स्मृतियों की गाढ़ी परत चढ़ चुकी थी उनके रिश्ते पर, जिसकी असली शक्ल कहीं खो चुकी थी और सामने थी गडमड एक सूरत जो उन दोनों का सोच का ही प्रतिबिंब थी!   
सब ठीक ही तो चल रहा था पिछले साल तक! उनके भविष्य की योजनाओं में वे दोनों हमेशा साथ ही तो थे!  नौकरी, शादी, छोटा सा घर परिवार और अपने…. सब तय था!  और अब जब वह अपने सपनों पाने की कोशिश में लास्ट अटेम्प्ट की दहलीज पर खड़ा अपने दरकते आत्मविश्वास से जूझ रहा था, एक और असफलता नहीं झेल सकता था!  पिछली कुछ असफलताओं से उसका  आत्मविश्वास दरकने लगा था!  उसकी नौकरी की उम्मीदें छिटककर दूर जाने लगीं!  कुछ भी ठीक नहीं रहा उसके बाद!  जो कुछ हुआ वह तो उनके भविष्य की इबारत से कतई मेल नहीं खाता था!  वह इबारत जो उन्होंने सपनों की स्याही से उकेरी थी! पिछले साल पिता का अकस्मात चले जाना उसकी भविष्य की योजनाओं में कहीं शामिल नहीं था!  बहन की शादी का टूटना भी नहीं!  बच्चों की सुखद गृहस्थी की उम्मीदें संजोती, असमय बुढ़ाती माँ का दर्द के अथाह समुद्र में खामोश डूब जाना भी नहीं! एक बेबस पुत्र और भाई के सपनों पर गाज की तरह टूटकर पड़े समय की चपेट में सबसे पहले उनका प्रेम आया! किस्मत के चक्रवात में वह ऐसा घिरा कि सपनों पर पकड़ ढीली हुई तो होती चली गई!
‘ख्वाब तो कांच से भी नाज़ुक है, टूटने से इन्हें बचाना है…’  ख्वाब टूटे और महज टूटे ही नहीं रेज़ा-रेज़ा बिखरने लगे!  वह बदहवास सा, चकनाचूर सपनों की किरचें गिनने में बिल्कुल अकेला छूट जाने को अभिशप्त था क्योंकि अब उम्मीद का यह अंतिम सिरा भी छूट जाने के करीब था! उसके घरवालों को भी कैसे दोष दे सकता था!  वे स्टेटस के फर्क पर भी जैसे-तैसे ‘समझौता’ कर ही लेते अगर वह आई ए एस हो जाता पर मखमल में टाट का पैबन्द लगने की नौबत ही नहीं आई, वह चाहता भी नहीं था कि नौबत आये!  तो किसे दोष दे वह?  अपनी डिग्रियों के निरर्थक ढेर को या व्यवस्था की खामियों को या फिर शिक्षा व्यवस्था को जो लगातार बेरोजगार नौजवानों को पैदा करती मशीन में बदल चुकी है या फिर अपनी टूटती उम्मीदों को! 
“अपनी बदकिस्मती का बोझ तुम्हारे नाज़ुक कंधों पर कैसे डाल सकता हूँ मैं?”  तड़प उठी थी वह उसकी बात पर!  उनके बीच ये ‘अपने’ और ‘तुम्हारे’ जैसे अजनबी शब्द आजकल अक्सर जगह बनाने लगे थे!  अब तक कितने ही सुख और दुःख बांटे थे उन दोनों ने!  वह तो नहीं थकी, हमेशा उसके सुनहरे सपनों को बुनते हुए उसके साथ हंसी- मुस्कुराई है!, उसकी छोटी-छोटी खुशियों और बड़ी परेशानियों में संतुलन साधते हुए हलकान हुई है, कदम-दर-कदम उसकी नाकामियों में उसकी हमकदम बनी हुई है पर जैसे वह ही थक गया था!  हर गुजरते लम्हे के साथ उसे लगता है जैसे जीवन को पकड़े रखने की कोशिश उसे बेचारगी की ओर धकेल रही है!  जैसे यह लड़ाई दोहरी होती जा रही है!  जैसे वह समय से नहीं अब खुद से ही जूझने लगा है! जूझ तो वह भी रही थी माँ के सवालों और पिता  की अनायास चौकन्नी होती नजरों से!  उसकी स्कूल की नौकरी न होती तो शायद कैद हो गई होती उनके सुरक्षा घेरे में! आजकल घर से निकल पाना भी मुश्किल हो चला था!
“और हमारा प्रेम?  सरककर वह उसके करीब आ गई थी!  उसने उसकी आँखों में आंखे डालकर पूछा था!  उसके करीब, बेहद करीब, इतने करीब कि अब उसके चेहरे के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दे रहा था!  उसने पढ़ा था कहीं कि कोई चेहरा जब जीवन में इतने करीब आ जाए कि उसके अतिरिक्त कुछ न दिखाई दे तो उसे भूल पाना नामुमकिन होता है!  यहाँ तो चेहरा ही नहीं उसका ख्याल तक उसके इतने करीब था कि उसके बिना जीवन की कल्पना मुमकिन ही नहीं थी! 
“प्रेम तो रहेगा!  हम जीवन से हारे हैं प्रेम से नहीं!  प्रेम क्या केवल साथ रहने का नाम है!  हमने पाया है एक दूसरे को क्या यह अहम नहीं!  प्रेम की उपस्थिति तो रहेगी जीवन में, सपनों में, स्मृतियों में, मन में,  और …..”  
“और देह में,  सान्निध्य में, भविष्य में….?  मैं तुम्हे पूरा महसूस करने के बाद तुममें विलीन हो चुकी हूँ!  मैंने स्वत्व को कतरा-कतरा खोकर तुम्हे पाया है!  अब मैं तुमसे विलग कैसे हो पाऊँगी? मैं तुमसे अलग नहीं!  मत जाने दो मुझे!” उसके अधीर शब्दों के रेले में उसका कमज़ोर अधूरा उत्तर डगमगाकर जैसे बह जाने की कगार पर था!  उसके खोखले शब्द अब अपनी विवशता पर लज्जित हो मूक हो चले थे और अब वह भी!  उसके काँधे पर सिर टिकाये अब वह उसके हाथों से खेल रही थी!  इसके अतिरिक्त कुछ और करने को क्या बाकी रहा था?
“जीवन में पतझड़ भी एक मौसम है!  वसंत के आगमन के लिए पतझड़ का आना भी अवश्यंभावी है!  उसे आना ही होता है!”   
“क्या हुआ जो वसंत चला गया!  मुझे पतझड़ से डर नहीं लगता!  मैं इस पतझड़ को आनेवाले वसंत की उम्मीद के साथ बिताना चाहती हूँ!”
“सुनो, वो कविता सुनाओ न जिसे पिछली बार सुनाया था तुमने….तुम चले जाओगे….” उसके धीमे स्वर टेकरी पर अनवरत गूंज रही पक्षियों की आवाज़ में मिल गये!
“तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार…..”
अशोक वाजपेयी की इस कविता को वह अक्सर सुना करती थी पर जाने क्यों आज वह कविता पूरी न कर सका!  टेकरी से नीचे जहाँ तक नज़र जाती थी सामने प्रेम अपने हर रूप में उपस्थित था!  पक्षियों के सुंदर जोड़े जहाँ इठलाती, गर्वीली मादायें और उन्हें कूककर, फुदककर, थिरककर तरह-तरह से रिझाते नर थे, संग-साथ में खोये, चुंबनरत फूलों की कतारें थीं जो हवा के स्नेहिल मंथर स्पर्श को एक से दूसरे में स्थानान्तर करने को आतुर दिख रहे थे!  वहीं हाथों में हाथ डाले, एक दूसरे से सटे हुए, स्कूली यूनिफ़ॉर्म में घूमता एक जोड़ा था, जिसमें लडके के कंधे पर सिर टिकाये, लड़की ने अपने चेहरे को एक हिज़ाबनुमा कपड़े से ढका हुआ था!  दुनिया के डर से वह अपनी पहचान छुपाने में बेशक कामयाब रही हो पर जिसकी चमकीली आँखों और उन्मुक्त देहभाषा से छलकता अथाह प्रेम छुपाये नहीं छुप रहा था!  लड़का जो उसके हाथ को चूमना चाह रहा था बार-बार उसे अपने होंठों के करीब ले आता पर आसपास गुजरते लोगों का ख्याल कर रुक जाता, अंततः अपने डर और संकोच को जीतकर विश्वविजेता सा गर्वोन्मत महसूस कर रहा था!  दुनिया की सबसे बड़ी जीत हासिल करने की ख़ुशी उसके चेहरे पर थिरक रही थी!!  
कुछ दूर कोने के हिस्से में, पेड़ों के झुरमुट की ओट में, झाड़ियों के पीछे एक दूसरे में खोये, ‘दो तन एक प्राण’ की  सार्थकता को जीते हुए कुछ जोड़े थे और फिर बेंच पर, अपने ठीक सामने उम्र की सांझ में भी प्रेमिल जीवन के उत्सव का आनंद मनाता पक्षियों को दाना चुगाता एक वयोवृद्ध जोड़ा था!  कैसी विडम्बना है कि हर तरफ प्रेम के उन दृश्यमान क्षणों में वे इस अंतिम मुलाकात में उम्मीदों के उदास पतझड़ को अपने मन के वसंत पर हावी होते देखने के मूक साक्षी बन रहे थे, वह  सोच रहा था!  
पतझड़ का उदास मौसम उसके मन के मौसम पर कुछ यूँ छाने लगा कि उसके असर से अब कुछ भी अछूता न रहा!  पेड़ों की परछाइयाँ अब लंबी होने लगीं थीं!  धूप के सुनहरे दुशाले का रंग फीका पड़ने लगा था!  धूप का दुशाला अब टेकरी से उतरकर हवा की नमी में घुल रहा था!  उसका सुनहरी रंग क्षितिज की सतह पर उभरने लगा था!  हवा की गति में तेज़ी बढ़ रही थी उसके साथ ही पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियों के ढेर बढने लगे थे!
उनके मध्य छाई ख़ामोशी अब ऊबने लगी थी पर उसमें शब्दों की डोर थामने का साहस न था!  शब्दों ने तो कब का साथ छोड़ दिया था!  वह अब उन्हें पुकारना भी कहाँ चाहता था! उसे डर था अब शायद विदा की बेला में भी वे मुखर होने से इंकार कर देंगे!  यह बिछुड़ने का समय था!  “उसी समय, ठीक उसी समय, विदा को आ जाना चाहिए ठीक विदा की तरह…”  वह बुदबुदा रहा था! उसने धीमे से उसका हाथ छोड़ दिया!  उसे लगा पक्षी अब बंद कर देंगे, प्रेमी जोड़े एकाएक प्रेम से बाहर पाएँगे खुद को, फूल हवा के स्पर्श को नकारकर शांत हो जायेंगे पर ऐसा कुछ न हुआ!  उसे शिद्दत से लगा, उसके प्रेम में समस्त चराचर जगत शामिल था पर विदाई की इस बेला में वह बिल्कुल अकेला और असहाय था! 
टेकरी से उतरते समय उन असमतल पुरानी पत्थर की सीढ़ियों पर इस बार बेध्यानी में वह लड़खड़ाया और उसने आगे बढ़कर उसे संभाल लिया!  वह महसूस कर रहा था, उसके हाथों के स्पर्श में विदाई का ठंडापन नहीं था, प्रेम की उष्मा थी!
“कार्ड अभी छपे नहीं है और इस इन्क्रीमेंट के बाद मेरी सेलरी बीस हज़ार हो जाएगी! सुनो, इतने में घर चल जाएगा न?  तुम्हारे आई ए एस होने जाने तक!”  उसकी इस फुसफुसाहट पर दोनों खिलखिलाकर हंस दिए!  उसने नजर भरकर देखा बहार अब भी शबाब पर थी, वसंत पूरी तरह नहीं बीता था! 
“तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे।“ 
वह धीमे से बोल उठा!  उसे लगा कविता ही नहीं उनका प्रेम पूरा हो गया!
इस बार अलग-अलग नहीं, दोनों एक दूसरे का हाथ थामे, फिर से चुपचाप लंबा रास्ता पारकर गार्डन के गेट तक आ पहुंचे थे!  यहाँ से उन्हें अलग हो जाना था!  कुछ पलों के लिए या  आज शाम भर के लिए, या फिर एक मौसम के लिए, पर शायद सदा के लिए नहीं!  एक दूसरे के पास खुद को पूरा छोड़कर वे अलग-अलग रास्तों पर चल दिये!
अगले वसंत की प्रतीक्षा में अब दोनों शामिल थे!
उम्मीदों का उदास पतझड़ साल का आखिरी महिना है!

5 टिप्पणी

  1. प्रेम और जीवन की शुरुआत कहीं से भी हो सकती है। भले वह संबंधों का अंतिम छोर हो या सा रे गा मा पा… का “सा” हो।
    इस लिहाज से यह एक बेहतरीन कहानी है। कहने का अंदाज़ खूबसूरत है ।

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