आज यानी 3 अक्टूबर, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘न ड्राईवर न लारी, पेट्रोल की मारामारी’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

ब्रिटेन की यह हालत जानकर हैरानी और अफसोस दोनो हो रहे हैं पर ऐसे में भी जिस तरह विपक्षी पार्टियां बिना शोर शराबे और नारेबाजी के दबाव बना रही हैं तो पेट्रोल डीजल की किल्लत में कई घंटे की प्रतीक्षा में भी कोई लाइन नहीं तोड़ता ….यह जानना सुखद है, लेकिन ड्राइवर जैसे छोटे तबके के साथ बुरा व्यवहार होता है यह तकलीफ़ देह है, जो भी हो बस ये कि सब जल्द दुरुस्त हो यही कामना है।
– आलोक शुक्ला
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सर संपादकीय पढ़ा।
बिट्रेन जैसे विकसित देश में पेट्रोल डीज़ल का संकट आश्चर्यचकित करता है।
“हमारे पास दो ही विकल्प थे…. या तो दुखी मन मेरे का राग अलापते रहें या फिर इंतज़ार को पिकनिक में बदल लें। हम दोनों ने तय किया कि दूसरा विकल्प बेहतर है …”
आपका यह कथन जीवन के प्रति आपके सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। ज़िंदगी के प्रति ऐसे ही उत्साहित बने रहिये सर।🙏
– कमला नरवरिया
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सामयिक विषय पर बहुत ही उम्दा संपादकीय सर ❤️
बड़े ही सुंदर ढंग से आपने लंदन की हालिया मुसीबत से अवगत कराया है… वहाँ कितनी कठिन परिस्थितियों से गुज़रना पड़ रहा है लंदनवासियों को।
मगर साथ ही पेट्रोल की क़िल्लत में भी भीड़ का संयम बरतने का सलीक़े की ओर जिस तरह आपने ध्यान दिलाया, बेहद ज़रूरी नसीहत है हम भारतीयों के लिए।
इसके अलावा राजनीतिक उठापटक और जुमलेबाज़ी से इतर वहाँ की opposition ने जिस प्रोटोकॉल के तहत सरकार से इस समस्या का समाधान माँगा है , यह भी एक नसीहत हमारे राजनीतिज्ञों के लिए।
साधुवाद सर एक अच्छे संपादकीय के लिए 🙏🌸🌸
– अमृता सिन्हा
     मुंबई
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तेजेन्द्र जी… संपादकीय पढा़
इस बार पुरवाई के संपादकीय का शीर्षक “न ड्राइवर न लारी… पेट्रोल की मारामारी” बहुत आकर्षक है।
उक्त संपादकीय शीर्षक अंतर्गत यह आलेख ब्रिटेन में ड्राइवरों की अत्यधिक कमी एवं वहाँ पेट्रोल, डीज़ल की भी कमी का उल्लेख, पाठक के समक्ष ब्रिटेन की प्रगति / रफ़्तार में कमी का स्पष्ट, झलक प्रस्तुत करता है, जो संभवत: ब्रेक्जिट के कारण हो सकता है।
किसी भी देश का विकास उस देश के पहियों की रफ़्तार पर ज्यादा निर्भर करता है। ग़ौरतलब है कि वर्तमान समय में ब्रिटेन में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाना ब्रिटेन के लिए अत्यंत सोचनीय मुद्दा है।
वैसे ब्रिटेन के वर्तमान मुद्दों पर आजकल प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और लारा के बीच वायरल हो रही मजेदार हास्य व्यंग वाली बातचीत पढ़ कर किसे हंसी नहीं आएगी। ज़ाहिर है कि मैं भी अपनी हंसी रोक न सकी।
सच में यह वायरल बहुत मज़ेदार सवाल-जवाब का सेशन है जो कि ब्रिटेन की तल्ख़ सच्चाई हास्य व्यंग रूप में सबके समक्ष आया और वायरल हुआ है। राजनीतिक दृष्टिकोण से वहां भविष्य में बहुत प्रभाव डालने वाली प्रतीत होती है।
फिलहाल, ब्रिटेन के शासन प्रशासन द्वारा ये हालात सुधारने की वक्त रहते हर संभव कोशिश की जानी चाहिए। हम आशान्वित हैं कि वहां के ये ख़राब हालात शीघ्र संभल जायेंगे… ताकि वहां के जनता-जनार्दन को कष्ट ना हो, जिसमें पुरवाई के संपादक महोदय आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी (यानी आप) भी हैं।
आपके इस संपादकीय आलेख द्वारा वर्तमान में ब्रिटेन के ऐसे बदतर हालात से हम पाठक गण भी रूबरू हुए, इसके लिए संपादक तेजेंद्र शर्मा जी को साधुवाद!

शुभकामनाएं!

– डा. तारा सिंह अंशुल (गोरखपुर)
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तेजेन्द्र जी,
पुरवाई के नवीनतम संपादकीय में आपने ब्रिटेन में  पेट्रोल की कमी और पेट्रोल स्टेशनों पर विकट स्थिति का सही चित्रण किया है। लोग मन ही मन गाली देते हुये धैर्य से ‘क्यू’ में लगे रहते हैं। इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं।
अभी कुछ दिन पहले मैने भी मीलों लंबी एक क्यू को देखा है। 25 सितंबर को बेटे के यहाँ Uber Taxi में जाते हुये मैंने यह भयानक सीन देखा। मैं भी ऐसे ही एक जगह ‘क्यू’ में फंस गयी। वाहनों की कतार आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी।
जब कभी Uber से जाती हूँ तो मेरी सेफ्टी को लेकर बेटा घर से ही बैठा रुट ट्रैक करता रहता है कि मैं कहाँ पर हूँ। और मुझसे भी फोन पर पूछता रहता है। उसे चिंता होने लगी। टैक्सी ड्राइवर भी चिंतित था। उसने रास्ता बदलने की सोची। उसने अच्छा ही किया। वरना पता नहीं कितने घन्टे वहीं अटके रहते। दूसरा रुट कुछ लंबा था। इसलिये उसके घर एक घंटे की बजाय करीब डेढ़ घन्टे में पहुँची। बेटा पहले ही Uber के पैसे अदा कर चुका था। पर मैने ड्राइवर के हाथ में पांच पाउंड का नोट  पकड़ा दिया… और वह ख़ुश हो गया।
आप भी इस परिस्थिति के शिकार हो चुके हैं। पर आपने समय का सदुपयोग किया। खा पीकर कुछ समय काटा।
बोरिस जॉन्सन का वह कार्टून मैने भी देखा है।
धन्यवाद।🙏🏻🙏🏻
– शन्नो अग्रवाल
     लंदन।
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तेजेन्द्र जी पुरवाई का नवीनतम संपादकीय पढ़ा…
बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण संपादकीय! बधाई!
बेहद गंभीर समस्या! विशेषकर कूड़े के इकट्ठे होने और दवाएँ न पहुँचने जैसी स्थिति नहीं होनी चाहिए! जब जनता से युरोपियन यूनियन के साथ रहने या अलग होने का चुनाव करवाया गया था तब क्या ब्रिटेन की जनता को ये अनेक आवश्यक तथ्य नहीं पता थे? क्या इन पर विस्तृत चर्चाएँ नहीं हुईं थीं? सरकार को भी ये सब पता ही होगा, लोगों को भी अवश्य ये जानकारियाँ रही होंगी…! आशा है सरकार और समाज मिल कर शीघ्र ही स्थिति सँभालेंगे!
– शैलजा सक्सेना
 टोरोंटो – कनाडा

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आदरणीय तेजेन्द्र जी
आपका आज का संपादकीय ब्रिटेन के वर्तमान हालात का खुला दस्तावेज प्रस्तुत करता है, जिसमें आपने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहिर्गमन के बहुआयामी आर्थिक चुनौतियों से  जूझते परिदृश्य को तो उकेरा है।
साथ ही जनमानस के लोकतंत्र का भारतीय दृष्टिकोण से तुलनात्मक व अनुकरणीय प्रसंग भी प्रस्तुत किया है,जो श्लाघनीय है, क्योंकि राजनीतिक उथल-पुथल तो प्रत्येक राष्ट्र का अभिन्न पहलू रहा है, किंतु प्रत्येक परिस्थितियों में किस प्रकार लोकतांत्रिक स्तर पर जनमानस संयम बरतते हुए स्वयं को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करता है वही उस राष्ट्र का वास्तविक स्वरूप निर्धारक सिद्ध होता है।
किसी भी स्थान, परिवेश, अथवा वातावरण में रहते हुए जनता की चित्तवृत्तियों को परखते हुए उनके मानसिक, सामाजिक, आर्थिक आदि पक्षों को उद्घाटित करना ही वास्तव में एक सच्चे लेखक का दायित्व होता है, जो आप बखूबी निभा रहें हैं।
आपको हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय🙏
– डॉ. ऋतु माथुर
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संपादक जी नमस्कार ।
पुरवाई का संपादकीय पढ़ा। ब्रिटेन में डीज़ल, पेट्रोल की कमी सुनकर कुछ अजीब-सा लगता है। भारत में तो ये सामान्य बात है। हाल ही में मेरा बेटा भारत से लंदन गया है। उसकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि, पता नहीं मेरी गाड़ी में कितना फ्यूल बचा है। कहीं लंदन पहुंचते ही कतार में तो नहीं लगना पड़ेगा।
फ्यूल की कमी, मतलब सब-कुछ ठप्प… फिर चाहे वह खाद्य-सामग्री हो या दवाइयाँ हों या फिर कोई अन्य कोई जीवन आवश्यक वस्तु।
आपको स्वयं फ्यूल के लिए लगभग तीन घंटे लाइन में खड़े होना पड़ा। सकारात्मक दृष्टि से देखें तो इससे एक बात की तो खुशी है कि बात-चीत करने के लिए लंबा समय मिल गया। वरना मोबाइल पर कार्य से संबंधित 2-4 बातें कर लेते हैं। बतरस का आनंद तो आमने–सामने बैठ कर ही उठाया जा सकता है । कॉफी और सेंडविच की पार्टी कर ली वह अलग।
हालांकि लोकतंत्र ब्रिटेन में भी है और भारत में भी। अगर यही हाल भारत में होता तो, 2-3 घंटे की लाइन में इंतजार तो छोड़ो, कितनी लूट-पाट, आगज़नी और पता नहीं क्या-क्या हो जाता। पार्टी को वोट नहीं देंगे, ये तो बहुत दूर की बात है। मैं स्वयं इसकी भुक्त-भोगी हूँ।
इसका एक और पहलू है। मैंने ज्यादा नहीं 35 वर्ष ऑइल सेक्टर में काम किया है। इस मुसीबत की पीड़ा क्या होती है, उपभोक्ता से ज्यादा कंपनी के कर्मचारियों भोगनी पड़ती है। डिपो/टर्मिनल से फोन आता है, मेडम ड्राइवर नहीं है। पेट्रोल पंप वाले चिल्ला रहे हैं, मेडम पंप ड्राय हो गया। ऐसे समय बॉस लोग भी अपना रंग दिखाएंगे। एसी रूम में बैठे-बैठे बॉस की भाषा में कहेंगे, “कुछ करती क्यों नहीं हो, तुम्हारा पीआर कब काम आयेगा। गाड़ी के मालिकों से बात करो”। ड्राइवर लोग भी अपनी गाड़ी शहर के किसी कौने में पार्क करके बे-फ़िकरी से बीड़ी फूंकते रहते। हर एक कम्पनी की अपनी डेडीकेटेड गाडियाँ होती हैं, जिन पर डिपो/टर्मिनल का और रीजनल कार्यालय का फोन नंबर लिखा होता है। आम पब्लिक भी वहाँ से फोन करती, आपकी गाड़ी तो कल से यहाँ से यहाँ फालतू खड़ी है, आप कैसे कह रही रहीं हैं, गाड़ियां नहीं है। कहने का मतलब है, उपभोक्ता के साथ कर्मचारियों को भी बहुत ज्यादा मानसिक वेदना सहना पड़ती है।
जब ब्रिटेन यूरोप का हिस्सा था तब भी ड्राइवरों की कमी थी, अब तो सब-कुछ सिर्फ़ ब्रिट्रेन के स्थानीय ड्राइवरों पर ही निर्भर है। रही-सही कसर केरोना ने पूरी कर दी। अधिकांश ड्राइवर लंदन छोड़कर, हमेशा के लिए यूरोप के दूसरे देशों में चले गए। ड्राइवरों के पलायन का एक और कारण है, उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया जाना। सेना की भी मदद ली जाए तो सेना की भी अपनी अपनी सीमाएं हैं।
ड्राइवरों की कमी से समस्याएँ तो वढ़ेगी ही। कचरा उठाने वाली गाडियाँ नहीं आएंगी। करोना तो अभी-भी मुँह बाये खड़ा ही है। बीमारी को अपने पैर फैलाने का एक और बहाना मिल जाएगा।
व्हाट्सएप के मज़ाकिया पोस्ट के हिसाब से, प्रधानमंत्री बॉरिस जॉन्सन ने तो सभी समस्याओं का समाधान कर ही दिया है। अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।
संपादक जी, जिस तरह से आप, आँकड़ेबद्ध तरीके से, विस्तृत जानकारी के साथ आलेख प्रस्तुत करते हैं, उससे एक ही नजर में, विषय की सारी जानकारी प्राप्त जाती है। ये सब सच्चे समर्पण और सच्ची लगन से ही संभव है। नमन है आपकी कर्तव्यनिष्ठा को और आपके असीमित ज्ञान को।
सादर,
– उषा साहू (मुंबई)

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