मूल्य शब्द ‘मूल+यत्1 से निष्पन्न है, जिसका अभिप्राय है किसी वस्तु के विनिमय में दिया जाने वाला धन, दाम, बाजार भाव आदि। यह मूल्य पद का अभिधात्मक अर्थ है। समाज ने अपने महत्तम चिंतन के परिणाम स्वरूप मानव एवं मानवता की बेहतरी के लिए जिन प्रतिमानों को आयत किया है वे ही मूल्य हैं। डाॅ. राधाकमल मुखर्जी के मत में ‘‘मूल्य समाज स्वीकृत इच्छाएँ तथा लक्ष्य हैं, जिनका अंतरीकरण सीखने या सामाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो प्रामितिक अधिमान्यताएँ मान तथा अभिलाषाएँ बन जाती हैं।2’ मूल्यों का निर्माता मानव ही है, जो युगानुरूप आवश्यकतानुसार मूल्यों का सृजन करता है। वस्तुतः ‘‘मूल्य विराट् मानव जीवन का अगणित शिराओं में संचरित होता रहता है, जहाँ भी यह रक्त प्रवाह रुका, वहीं अंग पक्षाघात से आहत होकर सूख जाता है। बेकाम हो जाता है।3’ संस्कृति में समाहित संस्कार भाव के आधार पर निर्धारित किए गए अर्थ के अनुसार सुधारने या परिष्कृत करने वाले कर्म संस्कृति है। जिनके द्वारा निर्धारित जीवन मूल्य उन आदर्शों का रूप ग्रहण करते हैं, जो वास्तविक जीवन के लिए प्रेरणा–स्रोत बनते हुए उत्कृष्ट उपलब्धियों का सृजन करते हैं, लिखित सृजन साहित्य है। साहित्य का भी संबंध मानव मूल्यों से होता है। इनमें व्यापक कल्याणवादी गुणवत्ता तथा मानव–जीवन का अभ्युदय करने वाले भौतिक योग–क्षेम स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। ‘‘धर्म की मूल अवधारणा करुणा पर आधारित है, और करुणा की शिक्षा माँ से बेहतर और कोई नहीं दे सकता । महिला ही वह शक्ति है, जो मनुष्य को मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाती है।4’
‘‘उपाध्यायन द शाचार्य आचार्याणां शतंपिता।
संहस्त्रं तु पित्रन मातागौर वेणातिरिभ्यते।।(2/145)
मनुस्मृति में भी नारी की प्रतिष्ठा पारिवारिक जीवन मूल्य, सुख शांति और आनंद की त्रिवेणी के रूप में माना गया है। साहित्य में जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि साहित्य नाम ही उसका होता है जिससे कुछ सीख कर जीवन को दिशा मिले। इस प्रकार हम कह सकते हैं साहित्य मूल्यों को संरक्षण प्रदान करता है।
डाॅ.रामविलास शर्मा के अनुसार ‘‘पूँजीवादी समाज, उससे पहले सांमती समाज और उससे भी पहले कबिलियाई समाज, जिनमें सामाजिक गठन के रूप अलग–अलग होते थे। किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास जब लिखा जाता है तो भाषा के व्यवहार करने वाले मानव समाज के गठन का रूप जरूर विश्लेषित होता है क्योंकि साहित्य चाहे किसी भी भाषा में हो, कितना भी प्राचीन हो जीवन को दिशा देता है, एवं चिंतन–मनन में सक्रिय भूमिका निभाता है और उनकी ही अभिव्यक्ति साहित्य में होती है, जो लोग साहित्य को धर्मों, संप्रदायों, भाषाओं और क्षेत्रों में विभाजित करके इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं, उन्हें प्रत्येक भाषा में अलग–अलग प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है क्योंकि सभ्यता का स्वरूप बाह्य आचार–विचार के अनुसार बदले हुए होते हैं किंतु मूल्य समाज की अन्तर्धारा है, उनमें तो एकता बनी ही रहती है।5’
साहित्य की विभिन्न विधाओं में वर्णित मानव के शील, संस्कार, विधि–विधान, उत्सव–पर्व, कला–कौशल आदि संस्कृति के घटक तत्त्व हैं। वर्तमान युग में जबकि भौतिक आग्रहों से प्रेरित उपभोक्ता संस्कृति से उदात्त मूल्यों का ह्यास हो रहा है और अर्थोपार्जन ही जीवन का परम लक्ष्य बन गया है। ऐसे समय में साहित्य सांस्कृतिक जीवन के शाश्वत संदर्भ में अपनी चिंतन साधना, जीवनानुभूति और सौंदर्य चेतना के आधार पर व्यापक और विवेक सम्मत दृष्टि प्रदान करता है। अब हमारा ध्यान उस आदर्श पर सहज ही केन्द्रित हो जाता है, जिसमें सारे मानव सभ्यता को सुंदर बनाने की साधना की जाती है, उसी साधना को ‘साहित्य कहते हैं । 6
इस जीवन मूल्य का परिचय ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना में निहित उत्कृष्ट और उदार दृष्टिकोण के दर्शन भारतीय साहित्य में वेदों से लेकर आधुनिक साहित्य तक हो रहे हैं। प्राचीन से प्राचीन कवियों ने अपनी कविता को धर्म स्थापनार्थ माना है। कवि मूर्धन्य वाल्मीकि ने इसी उद्देश्य को सामने रखकर अपने रामायण की रचना की थी, जिसके द्वारा पवित्र धर्म की पुनीत मंदाकिनी प्रवाहित हुई। जिससे मानव समाज की धमनियों में वह राग गूज उठा, जिससे समाज अपनी पैत्रिक संस्कृति तथा सभ्यता के उच्च शिखर पर आरूढ़ हो गया।
महाभारत की रचना भी प्रधानतः इसी उद्देश्य से हुई थी।7 मध्ययुगीन कवियों में कबीर ने जहा अपनी साखियों और पदों के माध्यम से जीवन मूल्यों की स्थापना की, जिससे शील, सत्संगति, गुरुभक्ति, संतोष और परमार्थ या फिर पंचविचारों से मुक्ति आदि सभी की अभिव्यक्ति में उन्हें पूर्णतः सफलता मिली है –
‘‘शील क्षमा जब उपजै, अलख दृष्टि जब होय।
बिना शील पहुंचे नहीं लाख कर्थ जो कोय ।।’8’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘‘सूफियों के प्रेम–प्रबंधों में खंडन–मंडन की बुद्धि को किनारे रखकर मनुष्य के हृदय को स्पर्श करने का ही प्रयत्न किया गया है, जिसका प्रभाव हिंदुओं और मुसलमानों पर समान रूप से पड़ा। बीच–बीच में रहस्यमय परोक्ष की ओर जो मधुर संकेत मिलते हैं, वे बड़े हृदयग्राही होते हैं। कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है वह बहुत–कुछ उन पारिभाषित संज्ञाओं के आधार पर है, जो वेदांत और हठयोग में निर्दिष्ट है, लेकिन इन प्रेम प्रबंधकारों ने जिस रहस्यवाद का आभास कराया है, वह स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी है। शुद्ध प्रेममार्गी सूफ़ी कवियों की शाखा में जायसी कृत महाकाव्य ‘पद्मावत’ हिंदी काव्य क्षेत्र का अद्भुत रत्न है।9
पुनर्जागरण काल में हिंदी में समाज सुधार, कुरीतियों पर प्रहार हुए, सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन हुएं, जिसका प्रभाव तत्कालीन साहित्य पर पड़ा। मानव के प्रत्येक क्रिया–कलापों में मूल्यों का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रूप से निहित होता है। ‘‘हम लाख प्रयत्न करें, मूल्यवत्ता और अर्थवत्ता की खोज होती ही रहेगी। हम कुछ को मूल्यवान तथा सार्थक समझेंगे और कुछ को नहीं अथवा कम। प्रश्न यह है कि इस मूल्यवत्ता तथा सार्थकता का निर्णय किस तरह से हो ? पहले इसका निर्णय मनुष्य स्वयं ही नहीं करता था, करती थी सत्ता। परिवार था, धर्म था, राज्य था। उसके द्वारा जीवन के मूल्य का निर्धारण कर दिए जाते थे, वे सबके लिए मान्य होते थे, परंतु ठीक इसके विपरीत अब यह समझा जाने लगा कि मनुष्य अपना कर्त्ता–धर्ता स्वयं है।’10’ लेकिन फिर भी सामाजिक संरचना में धर्म आध्यात्म, दर्शन, योग एवं ज्ञान–विज्ञान के विविध क्षेत्रों का साहित्य संस्कृत में सुलभ रहा है। संस्कृत को संस्कारों की भाषा कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि में सहायक गुणों एवं जीवनादर्शों को मूल्य की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इसके बावजूद लोकभाषा आमजन में स्थापित रही। प्रायः प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा में सभी धर्मो के साहित्य मिलते हैं।
सामंती युग में पुराणों की रचना हुई, संस्कृत काव्य, नाटक प्रस्तुत हुए जिनसे पूरे भारतीय साहित्य ने प्रेरणा ग्रहण की। पुराणों के अनुवाद तथा पुराण–लेखन परंपरा सभी भाषाओं में उपलब्ध है। भारतीय साहित्य के आधार ग्रंथ रामायण और महाभारत के आसपास सभी भाषाओं के साहित्य रचे गये। कावेरी, गोदावरी नदियों के वर्णन और दक्षिण भारत के राजाओं के कथानक पुराणों में मिलते हैं तो हिमालय गंगा, यमुना, आदि का भी वर्णन पुराणों में है।
भारतीय भाषाओं में हिंदी का क्षेत्र बहुत व्यापक है। इस व्याप्ति के बावजूद हिंदी उद्भव एवं विकास विरोधाभासी है। विदेशी आक्रमणकारियों के आगमन के समय भारत में एक सर्वमान्य संपर्क भाषा का निर्माण हुआ था, जिसे न केवल हिंदी बोलियों वरन् संपूर्ण भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के क्षेत्र में स्वीकृति मिली थी। मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के समय उसी भाषा के माध्यम से मुस्लिम शासकों ने जनता से संपर्क स्थापित किया। उस भाषा को ‘हिंद की भाषा’ कहा जाता है, इसे हिंदुई, हिंदवी, हिंदुस्तानी भी कहा गया। मुस्लिम साम्राज्य को ज्यों ज्यों दक्षिण में विस्तार हुआ, हिंदी का विस्तार भी हुआ। हिंदी की साहित्यिक बोली ‘बृज/ब्रज भाषा’ केरल से कश्मीर और बंगाल से महाराष्ट्र तक फैली। इस प्रकार हिंदी भाषा की दो बोलियों – बृजभाषा और खडीबोली संस्कारित हुईं। क्षेत्रीय भाषाओं का अपना साहित्य रहा जिसमें जन–सामान्य ने अपने प्रयोग किए।
साहित्य के इस सार्वदेशिक स्वरूप का, जो कि भारतीय संस्कृति के मूल्यों पर आधारित रही, और इस भारतीय संस्कृति में लोक का उल्लेख मिलता है। ‘‘वेद लोक और लोकोत्तर मूल्य की प्रतिष्ठा करते हैं और वेद से इतर ग्रंथ लोक के कल्याण की भावना से प्रेरित हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने लोक और वेद का उल्लेख अनेकशः किया है –
‘‘अतोस्मि लोकेवेदे च प्रथितः पुरुषो ।’’
भारतीय लोकमानस बौद्धों और जैनियों के अनीश्वरवादी चिंतन ने पुरोहित वाद को चुनौती देते हुए कर्म–काण्डों की भाषा के स्थान पर जनसाधारण की भाषा का प्रभाव बढ़ाया। पुराण काल तक भारतीय संस्कृति का पुनर्सृजन हुआ। पुराणों में भारत के विराट स्वरूप के साथ–साथ नाना धर्मों, जातियों, समुदायों, वर्गो, वर्णों और आश्रमों की व्याख्या की गई है। भारत भूमि को देवतुल्य माना गया है –
देवाः गायन्ति किल गीतकामि ।
धन्यास्ति ते भारत भूमि भागे ।।
भारत में 5 दैव संप्रदाय माने गए हैं, जिनके साहित्य पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव है, जिसमें कर्म का उपदेश नहीं, कर्मनिष्ठ, लोकनिष्ठ की बात है।
गुरुनानक को हिंदी संत परंपरा में अग्रणी माना जाता है साथ ही पंजाबी का विकास भी उन्हीं से माना जाता है। इंशाअल्ला खाँ, विद्यापति, चंडीदास, नामदेव, नरसी मेहता, मीराबाई को क्रमशः उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, राजस्थानी के साथ–साथ हिंदी में भी साहित्य रचना का अनुभव रहा। सभी साहित्यकारों ने एक भावना और एक उद्देश्य को लेकर सृजन प्रारम्भ किया था। 11
काल की दृष्टि से चैदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी को मध्यकाल कहा जाता है। इसमें वैष्णव धर्म का प्रचार–प्रसार अपनी चरम पर था, इसलिए इसे भक्ति काल भी कहा गया। अभिजन की भाषा, अभिजन की चिंता और सामंतवादी मनोवृति की अस्वीकृति और लोक की चिंता, लोक की भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति और मानव मैत्री ही इस धर्म और काल का लक्ष्य रहा । इसमें केन्द्रीयता उस ईष्वर को मिलती है, जो मानव बनकर आए और जिसे मानवता की मूर्ति कहा गया । मानव धर्म ही भारतीय साहित्य का आधार रहा, जिसे प्राचीनकाल से लेकर आज तक प्रतिष्ठा मिली है। इस मानव धर्म का व्यापक चित्रण भारतीय साहित्य के मध्यकालीन ग्रंथों पर पड़ा। वैष्णव भक्ति में ईश्वर को कर्मयोगी माना गया है। जाति–पाँति का निषेध किया गया यहाँ तक कि मानवेत्तर प्राणियों को भी भक्ति में साथी बनाया गया –
‘पाची न केहि गति पतित पावन राम भजी सुनु सठमना।
गनिका अजामिल व्याध गीध गजादि खल तारे घना।।’’
(अयोध्याकांड, तुलसीदास, पृ.सं. 223)
मनुष्य और प्रकृति के मध्य वैष्णव धर्म कड़ी के रूप में सामने आता है। वर्ण, जाति, संप्रदाय, वर्ग की अस्वीकृति को यदि वैष्णव भाषा ने महत्त्व दिया तो आधुनिक साहित्य का मानव धर्म या प्रगतिशीलों का धर्म उससे भिन्न नहीं है। आधुनिक कविता में रविन्द्रनाथ टैगोर कबीर से प्रभावित थे। गीताजंलि के केन्द्र में मनुष्य है पर वैष्णव भावना का उस पर भी व्यापक प्रभाव है। गुजराती संत नरसि मेहता ने तो वैष्णव की परिभाषा ही मनुष्य से जोड़ कर दी है –
‘‘वैष्णव जन तो तेणें कहिये जे पीर पराई जाणें रे।’’
आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने नरसि मेहता की इसी पंक्ति को अपने चिंतन का आधार बनाया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मध्यकाल का वैष्णव काव्य मानव मूल्यों का ऐसा समुच्चय है, जो लोक से जुड़ता है, और जोड़ता है। भारतीय जागरण, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद पर भी इनका प्रभाव व्यापक रहा। आधुनिक हिंदी कविता में भारतेन्दु, मैथलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला और नरेष मेहता तक यह प्रवृत्ति मिलती है।
वैष्णव भावना में उच्चतर मानव मूल्यों का इतना प्रभाव है कि कबीर ने उसे शाक्तों से श्रेष्ठ माना क्योंकि शाक्त हिंसक थे। कबीर ईष्वर को आत्मस्थ मानते हैं, किंतु आत्मस्थ होकर भी प्राणी मात्र को देखते हैं। कबीर आत्मा को देखते हैं और अहं का त्याग करते हैं। अहं में बाहर का त्याग है और आत्मस्थ में संप्रत्ति। भारतीय जीवन मूल्यों में त्याग और निषेध को महत्त्वपूर्ण माना गया है। त्याग अहं का, स्वीकृति आत्मा की। मुक्तिबोध ने इसे ‘आत्म संघर्ष’ कहा है। भारतीय मूल्य अन्याय को नहीं सह सकता। अन्यायी को सह सकता है। इसमें गीता से लेकर इसी जीवन मूल्य की प्रतिष्ठा हुई है। इसीलिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के ये दोनों आधार रहे
गीता का कर्मयोग और वेष्णवों की मूल्य निष्पत्ति –
‘‘किसके शरण होकर रहें ? अब तुम बिना गति कौन है ?
हे देव! वह अपनी दया फिर एक बार दिखाइये ।।
(मैथलीशरण गुप्त)
‘‘मेरे हृदय में गुलामी और भय ने घर कर लिया है।
उन्हें दूर करने मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ ।।
(सुब्रमण्यम भारती)
यही नहीं बांग्ला के क्रांतिकारी कवि काज़ी, नज़रूल इस्लाम भी इन्हीं बातों को दोहराते हैं। इस प्रकार आधुनिक भारतीय साहित्य के विभिन्न आयामों में भी मानव केन्द्रित आध्यात्मिकता ही लक्षित होती है।’12’ आध्यामिकता का संबंध उच्चतर मानव मूल्यों से है। केवल मध्यकाल में उसमें विधाता कि जो उपस्थिति है, उसका निषेध आज की कविता में किया गया है। डाॅ. रामकुमार वर्मा ने भी लिखा है कि ’’हिंदू धर्म के आदर्शों ने कवि को एक साक्तिवक पथ पर चलने के लिए बाध्य किया है। किसी भी कथा में कवि की मनोवृत्ति संसार को उसके वास्तविक नग्न स्वरूप में चित्रित करने एवं उस पर आध्यात्मिक संदेष और आदर्श के प्रति प्रेम उसे ऐसा करने से रोकते हैं।’13’
भारतीय साधना कर्ममार्गी है। प्राचीन काव्य में भी वैराग्य की अपेक्षा कर्म की प्रधानता है। केवल उसका रूप बदला है निष्काम कर्म, अनासक्त प्रवृत्ति। समस्त मूल्यों से लोक का व्यक्तित्व निर्माण होता है वही लोकरंजक और लोकरक्षक है। भारतीय जीवन में मूल चेतना का अर्थ मानव मार्ग है जिसका पूर्ण परिपाक वैष्णव काव्य में ही मिलता है। तुलसीदास ने कलियुग के माध्यम से युग के यथार्थ को चित्रित किया। उनमें जहाॅ कालजयी स्वर है, वहीं युगीन यथार्थ बोध भी –
‘किसबी किसान कुल बनिक भिखारी भाट, जोकर चपल नट चोर चार केतकी।
पेट का पढ़त गुन गढ़त चढ़त गिरी, अटत गहन–मन अहन आखेट की ।।
ऊँचे–नीचे करम धरम अधरम करि, पेट का ही पचन बेचन बेटा बेटकी।
तुलसी बुझाई राम–धन स्याम ही तें आगी, बढ़वागी तै बड़ी है आगी पेट की।।’’
(कवितावली, तुलसीदास)
मूल्य, बुनियादी तौर पर सामाजिक चिंतन की प्रक्रिया की उपज है। सामाजिक स्थितियाँ, आकांक्षाओं और क्रियाओं से उसका अनिवार्य संबंध होता है। ‘‘एक समाज या समुदाय के भीतर अनुभवों का परस्पर विनिमय होता है और वे अनुभव कार्य रूप में व्यवहृत होते–होते मूल्य बनते हैं। इसलिए जीवन मूल्यों की अवधारणा मूलतः सामाजिक चिंतन का परिणाम है।’14’
आधुनिकता की प्रवृत्ति ने परंपरानुमोदित धार्मिक आस्था का भी खंडन किया है। भारतीय सामाजिक जीवन में धर्म प्राचीन काल से ही आचार–विचार का नियामक तत्त्व रहा है। उसने कुप्रवृत्तियों से हटकर व्यक्ति को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। सामाजिक जीवन में धर्म, जो एक नैतिकता के रूप में अंकुष का काम करता था, समाप्त हो गया है और अब अनैतिकता की धारणा ही बदल गई है। आज राम की जगह काम ही जीवन का सत्य हो गया है।
इस प्रकार साहित्य में मानव को! सर्वोंपरि रखा गया है। साहित्य व्यक्तिवादी न होकर लोकवादी होता है। लोकवादी साहित्य में क्षेत्रीयता या आँचलिकता का स्वर ही नहीं समग्र संस्कृति और जीवन दर्शन का पुट होता है, जो प्राणिमात्र के लिए आचार संहिता का कार्य करता है। भारतीय साहित्य विचार नहीं व्यवहार है।
कवि चंडीदास की कविता –
‘सुनहु मानुष भाई, स्बार ऊपर मानुष सस, तहार ऊपर नाई।’’15
सुमित्रानंनदन पंत के अनुसार –
सुंदर है प्रकृति सुमन सुंदर,मानव, तुम सबसे सुंदरतम। 16
साहित्य में ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का फलक व्यापक हुआ है। साहित्य ही में ‘सुरसरि सम सब कर हित होई’’ कहा गया है। मध्यदेश के लोक नायक का प्रभाव साहित्य पर इतना पड़ा कि वे केरल से कश्मीर तक लोक देवता हो गए। रसखान, लकुटी और कमरिया लेकर भटकने को तैयार हो गए। चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन को ही वैकुण्ठ माना। भारतीय साहित्य की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि लोकनायक ही कथानायक हुआ। भूषण ने अपने साहित्य में शिवाजी को राष्ट्रनायक का सम्मान दिया। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी, भगत सिंह, स्वामी विवेकानंद, चंद्रशेखर आजाद साहित्य के लोकनायक हुए। ग्रामीण संस्कृति को प्रेमचंद ने साहित्य में उकेर कर जीवंत बना दिया।
संपूर्ण भारतीय काव्य परंपरा में काव्य–चेतना सामाजिक दबाव का परिणाम है। सामान्यतः शासक वर्ग की अपेक्षा साहित्यकार सदैव जनता से आए हैं। औरंगजब की अपेक्षा शिवाजी और छत्रसाल राजाओं को ज्यादा महत्त्व मिला है। सामाजिक संरचना मूल्यों के स्खलन के कारण परिवर्तित होती रहती है। साहित्यकार उन स्थितियों का चित्रण करते हुए मूल्यों की पुनस्र्थापना पर बल देते हैं। हर युग में साहित्यकार अपने युग में संघर्ष भी करते रहे और युग का अतिक्रमण भी। रचनाकार मूल्य–चिंता के लिए वृहत्तर काल का स्पर्श करते हैं।
भारतीय साहित्य में मानव मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली है, और मूल्यवादी साहित्य ने समाज को हमेशा ही प्रेरणा दी है। भारतीय साहित्य केवल कला–कला के लिए सिद्धांत का अनुगमन नहीं करता। ‘शिवेतरक्षतयें’ की शास्त्रीय कल्पना के साथ सांस्कृतिक मूल्यों का समुच्चय, परंपरा से संपृक्ति और जीवन मूल्यों की सुरक्षा ही भारतीय साहित्य का ध्येय रहा है।
संदर्भग्रंथ
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संस्कृत हिंदी कोश – आप्टे वामन शिवराम, पृ. 815
2.दी फ्रांटियर्स आॅफ सोशल साइंसेज, मुखर्जी और वी. सिंह, पृ. 23
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मानव मूल्य और साहित्य, डाॅ. धर्मवीर भारती, पृ. 34-35
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दलाईलामा द्वारा 17.मार्च 2010 को मध्य प्रदेश विधान सभा में दिये गये भाषण से
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रामविलास शर्मा, भारतीय साहित्य का इतिहास, 34
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कविता का अर्थ, परमानंद श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, नईदिल्ली पृष्ठ संख्या 72
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समकालीन कविता के बारे में, नरेन्द्र मोहन, वाणी प्रकाशन, नईदिल्ली 1994 पृष्ठ संख्या 14
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10 कबीर समग्र, संपादक डाॅ युगेश्वर, पृ.440
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, सम्वत् 2040, पृ. 52
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साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, डाॅ. देवराज उपाध्याय, पृ. 179
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भारतीय साहित्य, नीलिमा शर्मा, विकास प्रकाशन, कानपुर पृ. संख्या 79।
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14 भारतीय साहित्य, नीलिमा शर्मा, विकास प्रकाशन, कानपुर पृष्ठ 81
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डाॅ. रामकुमार वर्मा, हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामनारायण प्रकाशन, इलाहाबाद 1971 पृष्ठ 318
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बदलते जीवन मूल्य और हिंदी उपन्यास, ज्योत्सना प्रसाद, पृ. 2
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चंडीदास, पृ. 32
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सुमित्रानंन्दनपंत, पृ. 45
आपकी लिखावट ही साहित्य की रक्षक है…बहुत सुंदर लेख
धन्यवाद दीपक भाई