जीवन की आपाधापी ,उठापटक तथा अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते सत्य और ईमानदारी की डगर से ना  डिगते अदम्य जिजीविषा से  लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने वाले धर्मवीर भारती ने अपने विषय में कभी कुछ विशेष नहीं लिखा किंतु हर रचनाकार की भांति उनकास्वउनकी कृतियों में प्रतिबिंबित मिलता है।यह मेरे लिए नहींकहानी भी इसका अपवाद नहीं है अपने प्रखर युगबोध तथा परिवेश के प्रति सतत सजग , जागरूक होने के कारण उनसे दो पीढ़ियों के मध्य होने वाली मूल्यों की टकराहट  छिपी नहीं थी हो सकता है कि किसी अंश में उन्होंने स्वयं भी इसे भोगा हो।  स्वयं को सर्वसमर्थ  समझने वाली नई पीढ़ी अपने जीवन से संबंधित सभी निर्णय स्वयं लेना चाहती है।  उसे पुरानी पीढ़ी के विचार दकियानूसी और बेकार लगते हैं।  अपने ऊपर बलात् लादी जाने वाली पुरानी मान्यताओं को नवयुवक  स्वीकार नहीं करता जिससे पुरानी पीढ़ी स्वयं को उपेक्षित समझकर आहत होती है।  उनके मध्य विचार भेद की खाई गहरी होतेहोते ना पाटने योग्य  हो विस्फोटक हो जाती है विवेच्य कहानी  पिता के संरक्षण से वंचित दीनू की कशमकश भरी जीवन की कथा है। शैशव  से ही वह पिता की विरासत रूप में  छोड़े गए एकमात्र पुराने मकान में किराएदार बंगाली दंपति के संरक्षण में रहने के लिए बाध्य हैं। वह उन्हीं के साथ खातापीता है और अन्य खर्चों के लिए ट्यूशन करता है।  गांव में रहते हुए भी उसकी मां पति द्वारा छोड़ी गई एकमात्र विरासत के प्रति आवश्यकता से अधिक सजग है वह कुछ माह पश्चात वहां  आकर अपने बचाए साठसत्तर रुपयों के साथ दीनू के खर्च से  पैसों से नज़ीर मिस्त्री से मकान की मरम्मत कराती और चिट्ठा बंटवाती थी।  उसे यह सोचकर अपूर्व तृप्ति मिलती थी कि वह पति द्वारा किए जाने वाले काम को उनके बाद भी बिना किसी व्यवधान के पूरा करती जा रही है। उसकी हठ का प्रतिकूल प्रभाव दीनू के स्वास्थ्य पर पड़ता है किंतु उसके प्रति वह  निर्लिप्त रहती है जिससे दीनू को लगता है कि उसके पिता की अंतिम निशानी मकान है वह नहीं। दीनू की नौकरी लगने पर मां गांव छोड़कर उसके पास रहने शहर क्या आई दीनू के जीवन में प्रतिकूलताओं की आंधी सी गई जिनमें मुख्य भूमिका उसकी मां की थी संरक्षक रूप में दीनू   का ख्याल रखने वाले डॉक्टर चाचा चाची को पराया कह कर  अलग कर दिया गया। दस दस रुपए के लिए उसे लांछित  करने वाले रिश्तेदारों का जमघट लगने लगा यह सब दीनू के लिए असह्य था उसमें और मां में पहली बार तकरार की शुरुआत यहीं से होती है मैंने सब सह लिया, मगर अब तुम्हारे ये कमीने रिश्तेदार यहां जमा हुए तो मैं इस घर में कदम नहीं रखूंगा क्या मेरा कोई स्वाभिमान नहीं ? मैंने मरमर कर पढ़ापर इनका अहसान नहीं लिया।“(1)
किशोरावस्था की सखी सांझी विवाहित होकर अन्यत्र ही नहीं चली जाती अपितु उसका पति उसे दीनू से मिलने या पत्र लिखने की अनुमति नहीं  देता है। इससे आहत दीनू की पवित्र निष्ठा चकनाचूर हो जाती है  और उसे इंडोनेशिया जाने की सनक सवार हो जाती है।दीनू को लगा जैसे उसकी सारी पवित्र निष्ठा को फिर धक्के से किसी ने चूरचूर कर दिया और मनकी वह खिड़की  हमेशा के लिए बंद हो गई।  रह गई केवल यह उभरी हड्डियों , दुखती पसलियों , चूरचूर बदन और तपते माथोंवाली तंदुरुस्ती, गरीबी और अवमानना में पिसता मन और मां की नासमझ जबरदस्तियां। बरसपरबरस अंधेरे और घुटन में बीतते गए।“(2) उसके जीवन में  प्रतिकूलताओं का अभी  अंत नहीं हुआ था पड़ोसन परना दी (अपर्णा बनर्जी )उसके जीवन में आती है वह नित्य प्रति उसके यहां से हरसिंगार के फूल चुनने आती थी और   अंजलि भर फूल उसकी मां को भी दे जाती थी दीनू उसके विषय में सोचते हुए समय बिताने लगा  पर उसके पिता के चंदन नगर में आढ़त खोलने पर वह उनके साथ वहां चली जाती है अकेलेपन से उपजा चिड़चिड़ापन दीनू और उसकी मां के मध्य की तकरार को और बढ़ाता है। वागीश जी के सपत्नीक  अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव लेकर आने तथा मां द्वारा उस पर यह प्रस्ताव थोपे  जाने पर दीनू भड़क उठता है मां भी चुप नहीं रहती और  डॉक्टर चाचाचाची , अपर्णा सबको बुरा भला कहने लगती है।वे लोग तेरे सबकुछ हो गए, क्योंकि चार बरस  उन्होंने तुझे चारा चुगा  दिया।घरवाले, सगेसंबंधी तेरे कोई नहीं। जाने क्या जादू कर दिया मेरे बेटे पर अरे हत्यारों,जरा रहम खाया होता। मेरा एक बेटा,हो भी मुझसे छीन लिया।*****मुहल्ला भर दूं तू करता है।कभी बनैनी से नाम जुड़ता है,कभी बंगालिन से। तू शादी करके क्यों बंधेगा भला।“(3) निराधार आरोपों से तिलमिलाया दीनू  मां को अत्यंत कठोरता से उत्तर देता है वह हॉस्टल चला जाता है।यह स्थल कथानक  के विकास में चरमस्थिति को दर्शाता है   कथा में मोड़ आता है। मां की दबंगता निरीहता  में बदल जाती है और उसकी चट्टानी प्रतिमा चूरचूर हो जाती है।   वह डॉक्टर चाचा और अपर्णा को भेजकर दीनू  को बुलाने का प्रयत्न करती है वह मकान बेच देने का वचन देती है तथा माफी भी मांगती है। बीस दिन पश्चात घर लौटा दीनू समझ जाता है कि जिसे वह अपनी जीत और मां की हार समझता था वह वस्तुत: उसी की पराजय है। वह मां के हृदय की ममता को पहचान जाता है कि उसके भविष्य को आर्थिक रूप से व्यवस्थित करने के लिए मां द्वारा किए जाने वाले प्रयत्नों को वह उसकी जिद समझता था।
     दीनू के अप्रत्याशित व्यवहार ने उसे असमय वृद्ध, गुमसुम कर दिया था।  झुकी कमर और पनियाली आंखें उसकी असमर्थता को बढ़ा रही थीं। वह जान गया था कि मां  मकान की दरारों को इसलिए भर्ती है कि उसको बेचने पर अधिक दाम मिल सकें।  अब तक मां जो निर्णय स्वयं लेती  थीं सब दीनू के ऊपर छोड़कर वह डॉक्टर चाची के साथ वार्षिक अधिवेशन में चली जाती हैं। दीनू का मन पश्चाताप और  आत्मग्लानि से भर उठता है दूसरे दिन आंगन में गुंटी  के जन्मदिन की पूजा में सम्मिलित होने पर वह मंत्रों के साथ आहुति डालता है जो उसके पिता से सीखे थे यह विजय,यह स्वामित्व,यह आतंकइदन्न मम! यह मेरे लिए नहीं ! ईश्वर तो दीनू के लिए था नहीं। उसने खुद अपने चारों ओर अपनी सृष्टि बनाई थी और हर प्राणी को वह अपने अनुरूप बनाकर रखना चाहता था।अब वह सृष्टि भी नहीं।उसे कुछ नहीं चाहिएइदन्न मम! वह किसी से कुछ नहीं चाहता। “(4) वह फिर आहुति देते है -“इदन्न मम! ईश्वर भी मेरे लिए नहीं!इदन्न मम!-यह जो दीनू है,यह जोमैहै,यह भी मेरे लिए नहीं।“(5)  वह सबकुछ भूलकर केवल मां की अवशिष्ट जीवनावधि में संतोष, शांति और अपर्णा के लिए मां दुर्गा की कृपा की याचना करता है। वह मुंशी हरलाल और बचई महाजन से दृढ़ शब्दों में मकान नं बेचने का अपना निर्णय सुनाता है।      विवेच्य रचना में  सामाजिक विसंगतियों , पात्रों के दृष्टिकोण, वैमनस्य ,वर्गीय मूल्य बोधों में परस्पर उभरते वैचारिक मतभेदों और तनावों का भी समावेश हो गया है मां के परंपरागत विचार तथा जीवनागत संघर्षों के बाद भी स्वाभिमान और ईमानदारी का जीवन जीने के लिए ललक  से भरे दीनू के विचारों में कोई तालमेल नहीं है मां की संवेदना और प्रेम से अनभिज्ञ वह अपनी प्रखर व्यक्तिवादिता से मां की उस विराट प्रतिमा को चूरचूर कर देता है जिसके शासन और आतंक में वह अबतक जीया  था।  सांजी के प्रति उसका आदर्शवादी पवित्र शरीर निरपेक्ष प्रेम उसके अन्यत्र विवाह होने तथा पति द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने पर उजड़ जाता है।  रोमानी संस्कारों के तानेबाने से बुनी विवेच्य रचना स्वयं रचनाकार के संस्कारों का ही एक रूप प्रस्तुत करती है।  उनकी तदविषयक उक्ति उल्लेखनीय है -” मैं प्रेम के रोमानी अंश को नहीं मानता फिर भी लगता है कि उसे अस्वीकार भी नहीं कर पाता पता नहीं यह  केवल संस्कार मात्र है जो छूट नहीं पाता या सच्चाई का तकाजा है “(6) अपर्णा  के अंजलि भर हरसिंगार की महक दीनू को उसके पिता की बोली में भी महसूस होती है। अपनी  मां के अति यथार्थवादी प्रेम में उसे एक खामोश नफरत और अलगाव का ही अनुभव होता है परिणाम होता है जीवन जीने की दो अलग दृष्टिओंप्रेम, स्नेह, अनुराग, कल्पना तथा  स्वामित्व , आतंक का जो परस्पर टकराकर चूरचूर हो जाते हैं। लेखक को जीवन मूल्यों का द्वंद मान्य नहीं था अतः अंत में मां का दबंग शासनकारीजिद्दी, आतंकी रूप ऐसी निरीहता में परिणत हो जाता है जो दीनू  के विजेता रूप को गला देता है मां हार कर भी जीत जाती हैं और जीत कर भी हार जाती हैं।  दीनू ही अपनी जीती बाजी छोड़ देता है।
कहानी मध्यवर्ग के पात्रों की चारों ओर बुनी गई है।  प्रत्येक पात्र का अपनाअपना जीवन दर्शन और मान्यताएं हैं दीनू और उसकी मां प्रमुख पात्र हैंशेष उनके चरित्र को उभारने और कथा को विकसित करने के लिए नियोजित किए गए हैं जैसे डॉक्टर चाचाचाची , अपर्णा तथा बुआ इत्यादि रिश्तेदार मां पुराने विचारों की स्त्री हैं जो पति के पुराने जर्जर मकान की मरम्मत हर छह महीने के बाद कराती हैं और चिट्ठा बंटवाती  हैं ठीक वैसे ही जैसे उनके पति अपने जीवन काल में किया करते थे। वे  जातपात तथा अपनेपराए के भेदभाव को भी मानती हैं।  सांची और अपर्णा को बनैनी और बंगालिन कहती हैं तथा डॉ चाचा चाची को पराया मानती हैं इसीलिए गांव से आते ही उन्हें अलग कर देती हैं।  उन्हें अपने रिश्तेदारों पर विश्वास है अतः उनको आमंत्रित कर आवभगत करने में उन्हें संतोष का अनुभव होता है जबकि उन्हीं रिश्तेदारों ने दोदो रुपए के लिए दीनू को दुरदुराया और लांछित किया था बुआ दीनू  की नौकरी लगते ही उसके पिता की बरसी  पर खर्च किए पांच सौ रुपए मांगने  लगती हैं किंतु अपने पुत्रों पर किए गए हजारों रुपए भूल जाती हैं।  ताऊ दो हज़ार रुपए  में दीनू का सबसे बड़ा मकान हथिया लेते हैं तथा ट्यूशन के पैसों में से सूद लेने से भी नहीं चूकते   मां ईश्वर भक्त वागीश जी  की प्रशंसक हैं और उनके प्रवचनों को पसंद करती हैं वे किसी स्तर पर स्वार्थी भी हैं जिन डॉक्टर चाचाचाची और अपर्णा के प्रति रोष पूर्ण व्यवहार रखती हैं दीनू के अस्पताल चले जाने पर उन्हीं से उसे वापस लाने के लिए आग्रह भी करती हैं।  वे स्वाभिमानी हैं। दीनू के प्रति अगाध ममता रखती हैं पर ऊपर से कटु बनी रहती हैं दीनू इसे समझ नहीं पाता अतः दोनों में परस्पर नोकझोंक चलती रहती है
दीनू  बचपन से ही अर्थाभाव के कारण संघर्ष करने के लिए विवश है।  वह पुराने मकान में डॉ चाचाचाची के संरक्षण में रहता है। अपने खानेपीने अन्य खर्चों के लिए ट्यूशन करता है।  वह परिश्रमी है किंतु अधिक परिश्रम से उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और वह चिड़चिड़ा हो जाता है।  परिस्थितियोंवश किशोरावस्था में सांची के प्रति उत्पन्न लगाव शरीर निरपेक्ष आकर्षण  होने पर भी उससे अलग होने पर वह आहत होता है मां के कारण ईश्वर से उसका विश्वास समाप्त हो जाता है और सांजी से अलगाव के कारण  वह इंडोनेशिया जाने, सबसे दूर चले जाने की जिद पकड़ लेता है।  अपर्णा  के प्रति भी उसका झुकाव  अपर्णा के   अपने पिता के साथ चंदननगर चले जाने पर पूर्णता नहीं पा पाता। दीनू  के माध्यम से लेखक ने आधुनिक किशोरों की स्वतंत्र सोच को उद्घाटित किया है उसे मां का कोई भी आचरण पसंद नहीं है। वह उन्हें शासकीय मनोवृति से युक्त समझता है और उनका विरोध करता है मार्क्सवाद तथा फ्रायड के अस्तित्ववादी चिंतन के प्रभाव से धर्मवीर भारती  अछूते नहीं थे मां की दृढ़ आस्था एवं रूढिग्रस्ता के सम्मुख दीनू के विवेक को झुकना पड़ता है किंतु तब जब उसकी विराट आतंक युक्त चट्टानी प्रतिमा एक कृशकाय, वृद्ध, परावलंबी नारी की रह जाती है उसकी पनियाली आंखें परवशता और याचना से भरी रहती हैं।  कमर झुक  जाती है और वह एक वाक्य को रुकरुक कर टुकड़ों में बोलती है दीनू  स्वयं को असहाय पाता है , धिक्कारता है और सपने में मां को मकान की दीवार में आई  दरारें भरती  देखता है।  वह मकान के प्रति मां के लगाव को समझ जाता है अतः वह स्वयं दीवार ही नहीं भरता बल्कि मकान ना बेचने का निर्णय भी ले लेता है श्री प्रेम प्रकाश गौतम इसे सामान्य व्यक्तियों के अभावोंसंघर्षों की कथा के अतिरिक्त भी अन्य तत्वों से समन्वित मानते हैं उनके मतानुसार-” दीनू के अभावों और नएपुराने संघर्ष के अलावा कई और चीजें भी हैं जो इस कहानी को महत्वपूर्ण बनाती हैं…. स्थितियों और घटनाओं को लेकर मुहल्ले के बहुत सारे लोगों की प्रतिक्रियाएं भी कहानी की पूरी बनावट में कुशलता से गूंथ दी गई हैं।” (7)  डॉ हरिवंश का मत  श्री गौतम जी की उक्ति के विरुद्ध है वे मानते हैं कि-”  यह कहानी नई और पुरानी पीढ़ी के  जीवन मूल्यों का समझौता है और समझौते की दृष्टि आधुनिक कहानी के लक्षण नहीं हैं।“(8)
कहानी परस्पर संबद्ध 14 खंडों में विभाजित है।  दीनू और उसकी मां के मुख्य कथा में सांजी प्रकरण के अंत में आयाअबअगले खंड काअबबन जाता है शीर्षक की सार्थकता कथान्त में दीनू द्वारा दी गई आहुति इदन्न मम ( यह मेरे लिए नहीं है ) से व्यंजित होती है वस्तुत: दीनू का कुछ भी नहीं हैईश्वर ,सांजीअपर्णा और मां सब किसी और की सृष्टि या धाती  हैं और एकएक कर उसके हाथ से रेत की तरह निकलते गए हैं।  चार दिन की अल्पावधि में सारी कथा सिमटी हुई है तथा शेष कथा को लेखक ने विगत काल की स्मृतियों के रूप में वर्णित किया है।  इनमें भी पहला दिन मां और दीनू की तकरार में , दूसरा दिन दीनू द्वारा वागीश जी की पुत्री से विवाह करने का प्रस्ताव अस्वीकार करने से   दीनू के घर छोड़कर हॉस्टल जाने पर कथा की गति थमती है मां की क्षमा याचना , दीनू  का बीस दिन बाद लौटना , मां का गिरता स्वास्थ्य और निरीह व्यवहार कथानक को आगे बढ़ाता है भवानी काका का चंदा ले जाना , मां का चाची के साथ वार्षिक अधिवेशन में जाना , गुंटो के जन्मदिन पर हर वर्ष की भांति दीनू के आंगन में पूजा की योजना आदि सारी घटनाएं चार दिनों में ही घटित हो जाती हैं जिससे कथानक में कसाव आता है मध्यवर्ग की निर्धनता , विवशतासंघर्ष तथा रूमानी भावुक संस्कारों संबंधी पुरानी और नई दृष्टि को उजागर करने के लिए लेखक ने पति द्वारा छोड़े पुराने मकान की हर वर्ष मरम्मत कराने के अयथार्थ मोह और दीनू से उसकी वैचारिक भिन्नता के प्रसंगों की योजना की है अंत में पुरानी पीढ़ी का झुक जाना और नई पीढ़ी की स्वीकृति कहानी का तानाबाना बुनती है।इदन्न मममंत्र का विचार ही दीनू को मकान ना बेचने का निर्णय लेने के लिए प्रेरित करता है हुकुमचंद राजपाल के अनुसार -“इस कहानी में भारती जी ने नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के आपसी संघर्ष का संकेत किया है और स्पष्ट किया है कि पुरानी पीढ़ी को समकालीन पीढ़ी के अनुरूप सोचना होगा भले ही यही पीढ़ी उनकी धारणाओं को स्वीकार कर ले।” (9)  डॉ लक्ष्मण दत्त गौतम दीनू और उसकी मां के मध्य की नोकझोंक के विषय में लिखते हैं-” दीनू की पीढ़ी और बहुत से मोर्चे पर लड़ी जाने वाली उसकी लड़ाई इसलिए इतनी असरदार बन सकी है क्योंकि ना तो वह पीड़ा नकली पीड़ा है और ना वह लड़ाई एक नकली बनावटी लड़ाई है दीनू और मां की लड़ाई में दो जीवन मूल्यों की सक्रियता विद्यमान है और लेखक की सफलता इसमें है कि ना तो इसमें नए के प्रति पक्षधरता का भाव है और ना पुराने के प्रति अकारण श्रद्धा और भावुकता का अतिरेक।“(10)
         भारती जी ने सरल, सहज,सुग्राह्य  भाषा का प्रयोग किया है मध्य वर्ग द्वारा सामान्य रूप से प्रयुक्त भाषा ने रचना को सजीव बनाया है।  मां द्वारा चिट्ठा बांटना उन्हें अपूर्व तृप्ति देता है।पाई पाई चुका दी। तेरे बाबूजी ने कहा था, किसी की एक पाई चढ़ी मत रखना।“(11) कहानी की भाषा में भावानुरूप धर्मवीर भारती ने उर्दू शब्दों का भी यथा स्थान प्रयोग किया हैमुजस्सम , राजदा इत्यादि।  पात्रों के स्तरानुरूप भी संवादों की भाषा है।  हरदेइया की भाषा दृष्टव्य है -“हे भगवानबेटवाबिटिया देव भलामुला निखिद्धी  संतान ना देव ! बुढ़ापे में केकरा मुंह दिखैं बहू जी बेचरऊं “(12) इसी तरह से बंगालिन परना दी (अपर्णा ) की भाषा में लिंगगत दोष विद्यमान है।अभी पेतनी का पिता, पेतनी का माता अंदर मांजी के पास बैठा है।“(13) कहींकहीं संवादों में वाक्य को बल देने हेतु दोहराया भी गया है जैसे मां स्वागत संवाद में कहती हैं-” हां हमें मकान नहीं रखना।…. बाबू जी होते तो…. बाबू जी होते तो….“(14) कहानी में धर्मवीर भारती ने गंधचेतना का भी अत्यंत सुंदर रूप में प्रयोग किया है सोते समय हरसिंगार की महक के साथ परना दी की उजली हंसी की लहर भी जाने कैसे गुंथ कर गयी थी।“(15) प्रतीकात्मकता के सुष्ठु प्रयोग ने भी भाषा में रोचकता की सृष्टि की है। प्रारंभ की सीलन दीनू की कुढ़न को व्यक्त करती है सीले घर, टूटे मन,अंदर बाहर अंधेरा,हर चीज़ पर कुढ़न और खीज।“(16)  धूप का चिकत्ता प्रसन्नता  का द्योतक है जो दीवार के उस छेद से होकर रहा था जिसको बंद कराने के लिए मां ने उसकी साईकिल बेच दी थी।“….. यह धूप का चकत्ता उस दीवार के छेद से रहा था जो तीन साल पहले एक नए कमरे के लिए चिनी जानी शुरू हुई थी और राज मजूरों का पैसा भी जब मां नहीं दे पाई तो उसकी साइकिल बेचनी पड़ी थी।“(17)
   ‘यह मेरे लिए नहीं‘  कहानी में कुछ स्थलों पर व्यंग्य विनोद के प्रसंग भी हैं दीनू  की उपेक्षा करके पुराने जर्जर मकान की मरम्मत कराने के लिए सदैव परेशान रहने वाली मां के व्यवहार पर लेखक ने तीव्र व्यंग्य किया है।क्या करें वह ? दीवार पर सर पटक दे ? मगर उससे दीवार में दरार पड़ गई और मकान की नींव में पानी भरने लगा तो बाप की निशानी इस मकान का क्या होगा?”(18) इसी तरह से चाची जब दीनू से विवाह करने के लिए कहती है तब पूर्व में उसके द्वारा इंडोनेशिया जाने की रट का स्मरण कराते हुए वह कहती है कि -” ..’ कुंवरकलेवा में जिद ठान लेना कि मुझे इंडोनेशिया आनेजाने का टिकट चाहिए।हारकर ससुराल वाले देंगे।“(19)  धर्मवीर भारती ने कहींकहीं सादृश्य वाक्यों का अवलंब लेकर भाषा को प्रभावशाली बनाया है।दीनू  दिन भर सोचता कि जहां उसका स्वाभिमान चूर हो , जहां उसके चरित्र पर आरोप हो, जहां उस पर अविश्वास कर उसे हर तरफ से छोटा और ओछा बनाने का सर जाम होउस घर , आंगन के कैद खाने से छूटकर वह कितना सशक्तकितना मुक्त , कितना शांत अनुभव करता है।“(20) कहानीकार ने कथा को सजाने के लिए अलंकारों का भी अवलंब लिया है जैसे मन की खिड़की का उल्लेख लेखक ने अनेक स्थानों पर सुंदर रूप में किया है।अपर्णा ने मन की वह खिड़की फिर खोल दीजिसमें से आकाश और खुलाव और रोशनी झांकती है।“(21)
      इस प्रकार से हम देखते हैं कि कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से धर्मवीर भारती की कहानीयह मेरे लिए नहींएक महत्वपूर्ण कहानी है जिसमें दो पीढ़ियों के मध्य जीवन मूल्यों में आई टकराहट को कहानीकार ने संतुलित शब्द चयन के माध्यम से लिपिबद्ध किया है।
संदर्भ ग्रंथ :
  1. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती , ,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016,पृष्ठ 109
  2. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती, ,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 111 
  3. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती, ,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 118
  4. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां, सम्पादक पुष्पा भारती,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 126
  5. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां, सम्पादक पुष्पा भारती,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 126
  6. चांद और टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 71 
  7. धर्मवीर भारती संपादक लक्ष्मण तक गौतम पृष्ठ 106-107
  8. धर्मवीर भारती: चिंतन और अभिव्यक्तिपृष्ठ 292
  9. धर्मवीर भारती साहित्य के विविध आयाम पृष्ठ 129
  10. धर्मवीर भारती लक्ष्मण दत्त गौतम पृष्ठ 107
  11. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां, संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ 107
  12. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ 113
  13. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ 116
  14. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ124
  15. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ 109
  16. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां, संपादक पुष्पा भारती, ,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 106  
  17. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां, संपादक पुष्पा भारती, ,प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 106
  18. बंद गली का आखिरी मकान, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 53   
  19. धर्मवीर भारती की लोकप्रिय कहानियां संपादक पुष्पा भारती पृष्ठ 115
  20. बंद गली का आखिरी मकान, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 72
  21. बंद गली का आखिरी मकान, धर्मवीर भारती , पृष्ठ 74
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष.9911146968 ई.मेल-- ms.ruchira.gupta@gmail.com

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