मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहुं सो दशरथ अजिर बिहारी” (1 )
यही दशरथ नंदन राम तुलसी के इष्ट तथा रामचरितमानस के नायक हैं धर्म की हानि, असुरों का बढ़ता वर्चस्व और उनके उत्पाद से पीड़ित दबी घुटी  पृथ्वी का भार उतारने क्लेश हरने के लिए राम दशरथ पुत्र के रूप में अवतरित होते हैं वे पूर्ण ब्रह्म हैं  और मानस के सात कांडों के व्यापक कैनवास पर उकेरी गई उनकी जन्म से लेकर सिंहासनारूढ़  होने तक की सारी मानवोचित लीलाएं इसी काम्य  पर आधृत  हैं।
असुर मारि थापहिं सुरुह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग विस्तारहिं बिसद जस राम जनम कर हेतु।“(2)
रामराज्य से लेकर उनके सिंहासनारूढ़ होने की मूल कथा के साथ लघु प्रसंगों रूपी अनेक पयस्विनी भी  प्रवाहमान हैं  जो अंततः मूल कथा रुपी प्रशांत में निमग्न हो जाती हैं ऐसा ही एक लघु प्रसंग छाया/ माया सीता का है जो अत्यंत संक्षिप्त होने के कारण सामान्य प्रतीत होता है किन्तु वास्तव में अत्यंत गूढ़ अर्थवत्ता से युक्त महत्वपूर्ण है  
तुलसी नेमानसमें राम कथा का अनुगायन करने से पूर्व तत्संबंधी ग्रंथों का गहन अवगाहन कर  उसमें से अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार प्रसंगों का चयन अपने मनोनुरूप किया है मानसके अरण्यकांड में छाया /माया सीता का प्रसंग मिलता है। पंचवटी में रहते हुए राम अनेक असुरों का वध अत्यंत सरलता से कर देते हैं सुरमुनियों को सुखकारी वातावरण प्रदान करते हैं , रावण भगिनी शूपर्णखा का नाक कान विहीन कर प्रकारांतर से लंका युद्ध एवं दशानन वध की पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं। दुः खी , अपमानित शूपर्णखा की गुहार असुर खर को द्रवित  करती है और वह विशाल सेना लेकर राम लक्ष्मण से प्रतिशोध लेने के लिए आता है। उन्हें जीवित पकड़ने और सीता को छीनने के लिए उद्धत महाबली असुर से निपटने से पूर्व राम लक्ष्मण को आदेश देते हैं
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर, आवा निसिचर कटुकु भयंकर“(3)
वस्तुतः ऐसा राम ने राक्षसों से भयभीत होकर नहीं करते क्योंकि  शत्रु का संहार एवं मृगया क्षत्रियों के चारित्रिक गुण हैं।  वे  राक्षसों को ललकारते हुए कहते हैं
हम क्षत्री मृगया बन करहीं,तुसे मृग खोजत फिरहिं
रिपु बलवंत देखि नहिं डरही, एक बार कालहु सब भिरहिं। ” (4)
खर का वध तो हो ही जाता है। शूपर्णखा रावण को धिक्कारती है उसे रामलक्ष्मण से प्रतिशोध लेने एवं सीता को अपनी भार्या बनाने के लिए भी उकसाती है रावण मारीच से मिलकर सीता हरण में सहयोग देने की याचना करता है जिसे मारीच अनिच्छा पूर्वक स्वीकार कर लेता है राम तो परब्रह्म है अतः रावणमारीच की दुरसंधि से अवगत थे किंतु मानवोचित लीला करते हुए एक सुंदर युक्ति रचते हैं। फलफूल लाने गए लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सीता से कहते हैं
सुनहु प्रिया व्रत रुचिर सुसीला,मैं कछु करबि ललित नरलीला
तुम पावक महुँ करहु निवासा, जौं लगि करौं निसाचर नासा।” (5)
परम ब्रह्म की अर्धांगिनी सीता कोई सामान्य स्त्री तो थीं नहीं, वे वन में राम के मनोरथ  को पूर्ण करने में सहायक होने के लिए आई थीं अतः  राम के आदेशानुसार अग्नि में प्रवेश करती हैं तथा अपने स्थान पर अपने समान रूपवती विनयशील छायामूर्ति  प्रतिष्ठित कर देती हैं
जबहिं राम सब कहा बखानी,प्रभुपद धरि हिय अनल समानी।
निज प्रतिबिंब राखि छहं सीता,तैसइ सील रुप सुविनीता।“(6) किन्तु
“लछिमनहुं यह मरम जाना।जो कछु चरित रचा भगवाना।“(7 )
रावण के आदेशानुसार मारीच स्वर्ण मृग का आकर्षक रूप धारण कर कुटिया के आगे पीछे कुलाचें भरता है। उस कपट मृग  के सुंदर चर्म पर लुब्ध  सीता राम से उसे पकड़ने का अथवा उसे मारकर चर्म लाने का आग्रह करती हैं। राम को सारा वृत्तांत पहले ही मालूम  था अतः वे लक्ष्मण को सीता के समीप छोड़ कपट मृग के पीछे दूर तक चले जाते हैं अवसर का लाभ उठाकर रावण यति वेश में आकर सीता का हरण करता है।वस्तुतः वह सीता की छायानुकृति थी  अन्यथा रावण उनका स्पर्श मात्र करते ही भस्म हो गया होता। वास्तविक सीता तो अग्निदेव की शरण में सुरक्षित थीं। मरने से पहले कपट मृग मारीच का लक्ष्मण को पुकारना , सीता द्वारा ताड़ित किए जाने पर लक्ष्मण का अग्रज की सहायतार्थ जाना , कुटिया को सीता विहीन पाकर  राम का विलाप करना इत्यादि सब  राम की पूर्व नियोजित युक्ति का ही अंश था इसके पश्चात के सभी प्रकरण राम की मानवोचित लीला के हैं।  रावण पर विजय के उपरांत राम विभीषण से अशोक वाटिका  से सीता को पैदल लाने के लिए कहते हैं जिससे वानर, भालू आदि उनके दर्शन कर सकें।  यही नहीं वे सीता की अग्नि परीक्षा लेने के लिए लक्ष्मण से अग्नि का नियोजन करने के लिए कहते हैं। सीता सहर्ष अग्नि में प्रवेश करती हैं जहां से अग्नि देव उनकी पवित्रता की साक्षी दे उन्हें पुनः राम को समर्पित करते हैं।वस्तुतः  इस  परीक्षा द्वारा राम अग्नि में प्रविष्ट वास्तविक सीता को ही वापस लाते हैं। इस कथन की विवेचना राम के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाकर की गई है। शोधार्थियों की दृष्टि या तो छाया सीता के प्रसंग पर टिकी ही नहीं है अथवा उन्होंने उसे अत्यंत संक्षिप्त समझ छोड़ दिया है। तुलसी ने राम के अयोध्या लौटने तथा सिंहासनारोहण  और चारों भाइयों के पुत्रों की उत्पत्ति का वर्णन अत्यंत संक्षेप में किया है जिससे उक्त प्रसंग के अधिक विश्लेषण की संभावना ही नहीं रह गई थी।
आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचितश्रीमद् वाल्मीकि रामायणमें राम एक आदर्श मानव हैं  परमब्रह्म नहीं अतः संपूर्ण प्रसंग एक भिन्न रूप में वर्णित हुआ है। शूपर्णखा के नाककान कटने के पश्चात  खर का कुपित हो विशाल सेना लेकर रामलक्ष्मण से लड़ने दंण्कारण्य पहुंचने का प्रसंग इसमें भी पर्याप्त साम्य से वर्णित है।  तात्कालिक शकुनों से असुर विनाश एवं स्वयं की विजय की संभावना कर राम लक्ष्मण से वृक्षाच्छादित पर्वत  की गुफा में सीता सहित जाने के लिए कहते हैं तथा स्वयं युद्ध हेतु सन्नद्ध होते हैं। उनके कंदरा में प्रविष्ट होने के पश्चात , उनकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो जाने पर ही वे कवच धारण करते हैं। राम की आगत विपत्ति के प्रति सतर्कता मानव होने के अनुरूप है । [8]  खरदूषण और उनकी राक्षसी सेना का संहार होने के पश्चात ही लक्ष्मण सीता को वापस लाते हैं।शूपर्णखा अपनी प्रणय याचना के बदले नाककान से वंचित हो अत्यंत कुरूप हो जाती है उसके द्वारा उकसाया रावण मारीच की सहायता से सीता का हरण करने का निर्णय करता है। मारीच का रजतमय बिंदुओं से युक्त सुंदर स्वर्ण मृग का रूप धारण कर सीता को लुभाना, सीता द्वारा राम से मृग को जीवित या मृत लाने का आग्रह करना, राम का मृग के पीछे आश्रम से दूर जाना, मारीच का मरने से पूर्व लक्ष्मण को पुकारना ,सीता का उन्हें जबरदस्ती राम के पीछे भेजना इत्यादि प्रसंगरामचरितमानसके अनुरूप है किंतुवाल्मीकि रामायणमें लक्ष्मण को मृग के मारीच होने की शंका होती है जो बाद में सत्य सिद्ध  होती है।रामचरितमानसमें ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं मिलता।
वाल्मीकि छाया सीता का प्रसंग  सायास बचा गए हैं क्योंकि उनके राम मानव हैं तथा वाल्मीकि उनसे कोई भी अमानवीय कार्य नहीं कराना चाहते।  पाद टिप्पणी में  अवश्य यह उल्लेख मिलता है किरामायण तिलकनामक व्याख्या के विद्वान लेखक के अनुसार शोक मोह  में आकंठ डूबी सीता मूर्तिमती माया थीं और वही लंका ले जाई गई थीं।  वास्तविक सीता अग्नि में प्रविष्ट हो चुकी थीं। मायारूपिणी  होने के कारण रावण को उनके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ [9]  लंका विजय और विभीषण को राज्य प्रदान करने के उपरांत राम सीता को शिविका में ना लाकर पैदल आने का आदेश देते हैं मानस‘  से भिन्न वे भरी सभा में एक सामान्य मनुष्य की भांति अत्यंत कटु हैं। वे  स्पष्ट कहते हैं कि उन्होंने सीता के रक्षार्थ युद्ध नहीं किया बल्कि रावण द्वारा सीता का हरण किए जाने पर अपने ऊपर लगाए दोषारोपण का मानव साध्य पुरुषार्थ मार्जन  किया है अपने तिरस्कार का प्रतिशोध लेने , सदाचार की स्थापना कर अपने यशस्वी वंश पर लगे कलंक का परिमार्जन करने के लिए दुष्ट रावण को मारा और लंका पर विजय प्राप्त की है वे कुलीन वंशी पुरुष हैं अतः दीर्घकाल तक शत्रु के आधिपत्य में रही स्त्री की पवित्रता के प्रति उनके मन में संदेह है ,चाहे वह उनकी पत्नी ही क्यों ना रही हो। रावण द्वारा गोद में उठाए जाने पर उनके शरीर का स्पर्श उससे हुआ और उसकी कुदृष्टि भी उनपर थी अतः अब उनके प्रति राम के हृदय में ममता या आसक्ति नहीं रही वे उन्हें लक्ष्मण ,भरत , शत्रुघ्न , सुग्रीवविभीषण जिसके संरक्षण में चाहे रहने की  स्वतंत्रता प्रदान करते हैं ।[10]  वाल्मीकि रामायण में राम नहीं बल्कि सीता अपनी पवित्रता की साक्षी देने के लिए लक्ष्मण से चिता तैयार करने के लिए कहती हैं तथा अग्नि देव की अभ्यर्थना करने के पश्चात सहज भाव से उसमें प्रविष्ट होती हैं।
अग्निदेव द्वारा सीता को निष्कलंक पवित्र कहकर समर्पित करने पर राम भी स्वीकार करते हैं कि लोगों में सीता की पवित्रता सिद्ध करने के लिए ही उन्होंने उन्हें अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य किया था।
वाल्मीकि के राम में सहज मानवोचित दुर्बलताएँ हैं। वे लोकापवाद से बचने के लिए गर्भवती  सीता को पुनः निर्जन वन में एकाकी छुड़वा देते हैं जहां वे लवकुश को जन्म देती हैं। यज्ञ में लवकुश द्वारा रामायण का गान सुनकर पुनः सीता को शुद्धता प्रमाणित करने के लिए सभा में बुलाते हैं पृथ्वी पुत्री सीता उक्त अपमान से आहत हो पृथ्वी में समा जाती हैं। [11] वाल्मीकि रामायण की अपेक्षा तुलसीदास  अध्यात्म रामायण से अधिक प्रभावित हुए थे ।वर्तमान में  जनमानस में  राम की जो गाथा स्वीकार्य है उसका आधार भी यही ग्रंथ है भक्त प्रवर तुलसी ने भी इसी का प्रामाण्य  सर्वाधिक स्वीकार किया है।  इसमें भी रावण के षड्यंत्र से अवगत राम लक्ष्मण के अनुपस्थिति में सीता को, अपने समान आकृति एवं गुण वाली छाया को कुटी में छोड़कर अग्नि में प्रवेश करने और रावण के मारे जाने तक वहां अदृश्य रूप में एक वर्ष तक रहने की आज्ञा देते हैं।[12]   यह ध्यात्वय  है किमानसमें राम सीता को किसी निश्चित अवधि तक अग्नि में वास करने के लिए नहीं कहते शेष सभी प्रसंग वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण में एक से हैं। 
दक्षिण भारत में भी राम काव्य का वर्णन हुआ किंतु वे सहज उपलब्ध नहीं हैं अतः उनमें वर्णित छाया सीता के प्रसंग और उसके औचित्य को  विश्लेषित करना संभव नहीं है।  देवी भागवत नवम स्कंध, अध्याय सोलह में सीता के पूर्व जन्म तथा छाया सीता से संबंधित मान्यता के अनुसार वे राजा वृषध्वज  के पुत्र कुशध्वज और उनकी पत्नी मालावती की पुत्री लक्ष्मी का अंश थीं।  वह जन्म से ही वेदों की ज्ञाता थीं अतः वेदवती कही जाने लगी। वन में तपस्या करते हुए श्री हरि  को पति रूप में पाने का आशीर्वाद पाकर वह गंधमादन पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या करने लगी। कामातुर रावण ने वहां उसे अपनी लिप्सा का शिकार बनाना चाहा जिससे क्षुब्ध होकर उसने योग द्वारा अपना शरीर त्याग दिया किंतु इससे पूर्व रावण को शाप दिया कि उसके कारण ही रावण समस्त बंधुओं बांधवों सहित मारा जाएगा। कालांतर में वेदवती ने ही सीता रूप में जन्म लिया और राम की भार्या बनी। इस मान्यता के अनुसार जब वनवास काल में राम पत्नी सीता और लक्ष्मण के साथ समुद्र तट पर थे तब ब्राह्मण वेश धारी अग्नि देव ( जिन्हें समस्त कथा का  पूर्व  ज्ञान था ) वहां आकर सीता को अपने साथ ले गए और छाया सीता को  राम के पास छोड़ गए जिनको रावण हरकर ले गया था रावण वध के पश्चात अग्निदेव ने वास्तविक सीता को लौटाने और छाया सीता को पुष्कर क्षेत्र में जाकर तपस्या करने का आदेश दिया। शंकर भगवान से योग्य वर प्राप्ति के लिए पांच बार की गई याचना के अनुसार छाया सीता अगले जन्म में राजा द्रुपद की यज्ञ वेदी से प्रकट हो द्रौपदी कहलायी और पांचों पांडवों की पत्नी बनी। 
एक अन्य मान्यतानुसार पंचवटी में राम के आदेशानुसार वास्तविक सीता अग्नि में प्रवेश करती  हैं तथा अग्निदेव द्वारा निर्मित छायासीता का ही रावण हरण करता है। लंका विजयोपरांत राम के आदेशानुसार नियोजित अग्नि परीक्षा में छाया सीता भस्म हो जाती हैं औरऔर अग्नि देव वास्तविक सीता को राम को समर्पित कर देते हैं।  एक अन्य प्रचलित आस्थानुसार छाया सीता ने पद्मावती के रूप में पुनर्जन्म लिया था ।जबकि एक अन्य वर्णन भी उपलब्ध है जिसके अनुसार राम के अग्निहोत्र गृह में उपस्थित अग्निदेव ने रावण की कुचेष्टा से अवगत होने पर वास्तविक सीता को पाताल लोक में अपनी पत्नी स्वाहा के संरक्षण में रख दिया तथा अपने तन से वेदवती की आत्मा को अलग कर छाया सीता का निर्माण किया था जिसका अपहरण रावण द्वारा किया गया था। अग्निपरीक्षा छाया सीता ने दी और अग्निदेव ने उसे पुनः अपने शरीर में समाहित  कर, स्वाहा के संरक्षण में रह रही जनकनंदिनी सीतास्वरूपा लक्ष्मी को लाकर राम को समर्पित कर दिया। यही छाया या माया सीता अथवा वेदवती राजा आकाश राज को आरणी नदी के तट पर स्वर्ण हल से पृथ्वी जोतते, बीज बिखेरते समय धरती से प्राप्त हुई जिसका उन्होंने पुत्रीवत  (कुलगुरु द्वारा नाम पदमावती) पालन किया। पद्मावती हुई तथा उसका विवाह वेंकटाचल निवासी श्रीहरि से हुआ कालांतर में यही वेदवती छाया सीता पद्मावती , पद्मिनी या पद्मालया के नाम से भी जानी गईं।
समाहार्तः  मानस के छाया सीता का प्रसंग संक्षिप्त होने पर भी विभिन्न मान्यताओं के कारण शोधार्थियों द्वारा अधिक ध्यान आकर्षण एवं विवेचन विश्लेषण की अपेक्षा रखता है।
संदर्भः
1 रामचरित मानस, तुलसीदास, पृष्ठ130 
 2  रामचरित मानस,सटीक द्वितीय संस्करण, तुलसीदास, पृष्ठ 138 
3 मानस,पृष्ठ 618
मानस ,पृष्ठ 618
5 मानस ,पृष्ठ 620 
6 मानस,पृष्ठ 626    
7 मानस,पृष्ठ 626  
8 श्रीमद् वाल्मीकि रामायण , अनूदित संस्करण, पृष्ठ  350 
9 श्रीमद् वाल्मीकि रामायणपृष्ठ 397
10 मानस , पृष्ठ 89-92  
11 वाल्मीकि रामायण, 1049  
12 अध्यात्म रामायण , पृष्ठ 145
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष.9911146968 ई.मेल-- ms.ruchira.gupta@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. आजकल के परिवेश में रामचरित मानस और राम, सीता और लक्ष्मण के चरित्र को जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास जब नगण्य हो गया है, ये शोध लेख कर कौतुहल जगा और आनन फानन में मैं पूरा लेख पढ़ गया l मानस में भले ही माता माया हों लेकिन जन जन के हृदय रूपी मंदिर में भक्ति भाव के अक्षुणण भाव से सुशोभित हैं l लेखिका ने प्रमाण सहित जिस परिपक्वता से लेख सृजन किया है वह उनकी घोर लेखन तपस्या को स्वतः मुखरित कर रहा है l मेरा सुझाव मात्र यही है कि थोड़ा और सरल विश्लेषण साधारण बोलचाल के शब्दों को लेकर करें ताकि किसी को भी शब्दों से डर न लगे l शानदार प्रस्तुति हेतु हृदय से बधाई और आशीर्वाद…

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