क्या धुले कपड़े सूखने डालना भी कोई कला है?
हाँ, बिलकुल है ! सच ! किंग्जवे कैम्प में गली में लोहे की तारें या रस्सियाँ बंधी रहती थीं कपड़े सुखाने के लिए। कुछ औरतें तो जल्दबाज़ी में कपड़े सूखने डालतीं पर कुछ औरतें बड़े ही सिस्टेमेटिक ढंग से कपड़े सुखातीं।
एक तार पर पुरुषों की सफेद झक्क बनियाने बड़े ही करीने से चमचमाती तो दूसरी तार पर पुरूषों की अक्सर हल्के रंग की कमीजें, बीच-बीच में आ कर उन्हें पल्टा-पल्टी करना । फिर एक पंक्ति में पुरुषों के फाटे वाले कच्छे (उस समय यही ट्रेंड हुआ करता था) और दूसरी तार पर पतलूनें। फिर आती महिलाओं के कपड़ों की बारी । रंग-बिरंगी खूबसूरत सलवारें, कमीज़ें।
चुन्नी सुखाना तो हम बच्चों के लिये मानो खेल ही होता था। दो बच्चे चुन्नी के दो-दो सिरे लम्बाई में पकड़ लेते और गाने गाते हुए चुन्नी सुखाते।
मेरी एक दीदी चुन्नी सुखाने को चुनौती की तरह लेती । खूब अच्छी तरह चुन्नी सुखाना, कोई सिलवट न रहने पाए, उसका कोना-कोना अच्छी तरह चेक करना कि गीला न रह गया हो। फिर खूब जतन से उसे तह करके संभाल कर रखना। उस जमाने में हम लोगों के घरों में आलमारियाँ नहीं हुआ करती थीं। हर कपड़े को करीने से तह करके ट्रंक में रखा जाता था।
कई साईज के अलग-अलग ट्रंक हुआ करते थे।
सबसे बड़ा ट्रंक मेरी दादी के दहेज का था। उसमें घर भर की रजाईयाँ रखी जाती थीं और दादी के दहेज के पीतल के बड़े बर्तन, जिन्हें साल भर में एक बार कलई जरुर करवाया जाता। वह ट्रंक इतना बड़ा था कि जब सालाना सफाई के लिये उसे बाहर धूप में रखा जाता तो हम पाँचों भाई-बहन उसमें घुस जाते । तब दादी से खूब डांट पड़ती।
“नामुराद ओत्रो! ट्रंक भज पोसी!”
और नए कपड़ों का ट्रंक जिसे मेरी दादी हाथ तक लगाने नहीं देती थी । जब खुलता तो हम आस-पास मजमा लगा कर खड़े हो जाते और कौतूहल से पूछते
“दादी हम ये नए कपड़े कब पहनेंगे?
दादी हर बार एक ही जवाब देती, “जब कोई शादी ब्याह होगा तो पहनना।”
और कपड़े वहीं पड़े-पड़े छोटे हो जाते और हम मन मसोस कर रह जाते।
सर्दियों में रजाई के उछाड़ यानि गिलाफ धोने सुखाने में बड़ी मशक्कत हुआ करती थी। बड़े-बड़े गिलाफ धोना कोई बच्चों का हँसी-खेल न था। उसे सोडे के पानी में उबालना, साबुन से कुच-कुच करके धोना, पानी में तब तक अघालना जब तक साबुन अच्छी तरह से न निकल जाए। फिर नील लगाना, उसके बाद दो लोग आ जाते मैदान में। गिलाफ के दोनों सिरे पकड़ कर खूब जोर लगा कर निचोड़ते ताकि खुली धूप में अच्छी तरह सूख कर कड़क हो जाए ।
वाह सफेद झक्क रजाई के गिलाफ ! आनंद ही आ जाता उसे ओढ़कर ।
मेरी दादी की आदत थी एक बड़े थाल में पानी डाल उसी में एक-एक कपड़ा बड़े जतन से रगड़ती, फिर उस कपड़े को साथ रखी पानी की बाल्टी में डालती जाती। थाल का पानी मटमैला हो जाता पर क्या मजाल जो दादी उस पानी को फेंक दे। जब तक उसमें साबुन की जरा भी झाग शेष रहती दादी उसी में कपड़े रगड़ती रहती। आखिरकार उस साबुन वाले पानी का उपयोग घर के पोछे आदि धोने में लाया जाता।
कपड़े धोना यानि पूरी दिहाड़ी उसी में गई ।
आजकल तो कपड़े मशीन में डाले और निश्चिंत हो गए। धन्य है पहले के लोग जो शरीर से इतना काम लेते थे कि उन्हें न तो किसी जिम की आवश्यकता पड़ी न ही कभी किसी मेड की !

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