तथागत बुद्ध को बुद्ध पूर्णिमा के दिन हम सब सेलीब्रेट करते हैं। बुद्ध के रूप में एक ऐसी दिव्य ज्योति जो सम्पूर्ण एशिया में तो शांति के लिए सुप्रसिद्ध हुई लेकिन वैश्विक स्तर पर जो प्रभाव छोड़ा, वह किसी से छुपा नहीं है। डॉ. अम्बेडकरने, बुद्ध के इसी प्रकाश में स्नान कर, जीवन की सार्थकता समझी। पूरब से लेकर पश्चिम तक। उत्तर से लेकर दक्षिण तक बुद्ध के प्रति लोगों का आकर्षण इसलिए रहा है; क्योंकि वह चाहते थे कि सबको बराबर की गरिमा मिले। पाखंड से लोग दूर हों और सबमें बुद्धत्व जागृत हो; जो उन्हें असीम तपस्या के उपरांत प्राप्त हुआ था।
भीमराव अंबेडकर ने वर्ष 1956 में आज ही के दिन बौद्ध धर्म अपना लिया था। नागपुर में आयोजित एक समारोह में डॉ. अंबेडकर के साथ उनके लाखों समर्थकों ने भी बौद्ध धर्म अपनाया था। श्री लंका में लिया गया प्रण, डॉ. अम्बेडकरने अपने जीवन के उत्तरार्ध में, पूर्ण कर ही लिया। प्रश्न यह अवश्य मन में आता है कि आख़िर बुद्ध के प्रति अम्बेडकरका प्रेम क्या था? ऐसी कौन सी खूबी बुद्ध ने देखी बौद्ध धर्म में, कि उन्होंने इसे ही अपनाया।
इस विषय पर बहुत लिखा पढ़ा गया है। सबने बहुत कुछ सुन रखा है कि अम्बेडकरको बुद्ध ने क्यों लुभाया। संसार को सत्य, अहिंसा, करुणा के साथ मोक्ष का आसान मार्ग दिखाने वाले, बुद्ध के ये मार्ग बहुत आसान हैं और इसके विचारों में हर वंचित, त्याज्य मनुष्यों के लिए इतनी जगह थी कि समय के साथ-साथ लोग इनके विचारों में रमते गए।
अम्बेडकरसच्चे विश्लेषक थे। वह पाबंदियों के बीच जीने से बचते रहे। ये खुले विचार ही तो आधुनिक भारत के तर्कवादी डॉ. बीआर अम्बेडकरको लुभा गये। भला इससे प्रभावित हुए बिना वह कैसे रह सकते थे। डॉ. अम्बेडकरके अनुसार बौद्ध धर्म- प्रज्ञा और करुणा प्रदान करता है, यह सबसे मुख्य बात है। दूसरी बात इसमें समता के संदेश हैं। उन्हें लगा कि इन तीनों के बिना मनुष्य जीवन वृथा है। अच्छा और सम्मानजनक जीवन ही जहाँ न हो, वह भी भला कोई जीवन है। वह चाहते थे कि अंधविश्वास और परलौकिक शक्तियों के ख़िलाफ़, तर्क की कसौटी पर जीवन जी कर मनुष्य प्रज्ञावान हो। दुखियों और पीड़ितों के लिए प्रेम और संवेदना से मनुष्यकरुणावान हो और धर्म, जाति, लिंग, ऊँच-नीच की सोच से ऊपर उठकर हर मनुष्य को बराबर माना जाये। यानी सभी, समतामूलक जीवन के भागीदार हों।
डॉ. अम्बेडकरने इस अभीष्ट को सिद्ध करने के लिए बौद्ध धर्म को अपनाया। उन्हें यह लगा कि बौद्ध धर्म ही ऐसा धर्म है जहाँ मनुष्य शरण ले तो उसे सब भूल सकता है।
दरअसल, समाज में दलितों की स्थिति उन दिनों ठीक न थी। छुआ-छूत और भेद-भाव से वे बहुत दुःखी थे। उन्हें इससमस्या को दूर करने केलिए हिंदू धर्म के, तत्कालीन समाज में ठीक-ठीक उम्मीद नहीं दिख रही थी। सबके दुःख को समझकर, वे यह समझते थे कि, आज के इस भारतीय जनमानस को बदलना आसान नहीं है। उन्होंने बहुत सोचा। बहुत समझा। बहुत विचार किया। उन्होंने भारत में तत्कालीन समय के विभिन्न धर्म के मानने वाले लोगों को देखा। उन्हें समझने का प्रयास किया। उस बारे में यह भी समझा कि उनमें अच्छाई क्या है, बुरी चीजें उनके धर्म में क्या हैं। उन्होंने उनके जीवन-शैली का बारीकी से अध्ययन किया। वे इसके लिए विभिन्न अंचलों में गए भी। वह पंजाब भी गये थे; सिख धर्म को समझने के लिए। लेकिन उन्हें सब में उत्तम बौद्ध-धर्म ही लगा। बौद्ध धर्म के सिद्धांतों में उम्मीद की किरण दिखी। सभी धर्मों का अध्ययन कर तुलना की और बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया।
डॉ. अम्बेडकरके वैचारिकी को समझने के लिए हमें निःसंदेह उनकी लिखी पुस्तकों का अवलोकन करना चाहिए। ‘बुद्ध और धम्म’ उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक है। उसमें उन्होंने धर्म-रिलीजन-मज़हब सब पर विचार किया है। वह इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि, धर्म जिसे रिलीजन या मज़हब शब्द से संबोधित करते हैं; अपने धर्म की समझ के लिए उसमें नैतिकता प्रभावकारी नहीं है। खैर यह एक बड़ा डिबेट है। इसे सनातन के लोग नहीं स्वीकार करेंगे। क्रिश्चियन भी नहीं स्वीकारेंगे और मुस्लिम भी नहीं। लेकिन बुद्ध के मार्ग से अम्बेडकरइसका विश्लेषण करते हैं कि, यद्यपि धम्म में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है, तो भी धम्म में ‘नैतिकता’ का वही स्थान है, जो धर्म में ‘ईश्वर’ का। धम्म में प्रार्थनाओं, तीर्थ-यात्राओं, कर्म-काण्डों, रीति-रिवाजों या बलियों के लिए कोई स्थान नहीं है। ‘नैतिकता’ ही धम्म का सार है। इसके बिना कोई ‘धम्म’ नहीं है। धम्म में जो नैतिकता है, वह मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री करने की सीधी आवश्यकता से उत्पन्न होती है। इसमें ईश्वर की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। यह ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए नहीं है, बल्कि इस लिए है कि, मनुष्य नैतिकता का पालन करें। यह स्वयं उसके अपने कल्याण के लिए है कि, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से मैत्री करे। (स्रोत बुद्ध और उनका धम्म, पृष्ठ 294-295)
बुद्ध का धम्म सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया और करुणा आदि सात्विक गुणों पर आधारित है, यह हम सभी जानते हैं। बुद्ध की सबसे अहम् बात यह थी कि, बुद्ध के कथनी और करनी में विभेद न होने के कारण वे सर्वमान्य तथा सत्यशोधक परिशोधक के रूप में मिलते हैं। एक बात यह थी कि, बुद्ध का धम्म, अहिंसा के अतिरिक्त सामाजिक, बौद्धिक, आर्थिक, राजनैतिक, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के बुनियादी तत्वों को स्वीकार करता है।
डॉ. अम्बेडकरने अनुभव किया कि, बुद्ध-धम्म के सिद्धान्त आधुनिक हैं; जिसका उद्देश्य मनुष्य को इस जीवन में विमुक्ति का मार्ग दिलाना है, न कि मृत्यु के बाद स्वर्ग-नरक नामक स्थानों को बताकर भ्रमित करना है। बौद्ध धर्म का मानवीय मूल्य बताने के उद्देश्य से बुद्ध ने अपने उपदेश तीन त्रिपिटक- सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक में उद्घाटित किया है। यदि इन अमूल्य पिटकों का अवलोकन मनुष्य कर ले तो वह डॉ. अम्बेडकरकी भाँति खिंचा चला आएगा, इसमें कोई दो मत नहीं।
अब समय बदला है। समाज में बदलाव आये हैं लेकिन डॉ. अम्बेडकरकी अपेक्षाएं जो उन दिनों थीं; उसे स्मरण करने की आवश्यकता है। डॉ. अम्बेडकरने कहा था; संत समाज की स्थापना पहले भगवान बुद्ध ने की। उनके ज़माने में इस समाज को भिक्खु समाज कहा जाता था। भगवान बुद्ध ने भिक्खु समाज की स्थापना क्यों की?
क्योंकि समाज केलोग अपने प्रपंच में उलझे थे, अतः उनका बौद्धिक विकास नहीं हो रहा था। ऐसा समाज सत्य से और कुछ समय बाद सामाजिकता से भी महरूम होता जाता है। इसीलिए समाज, स्वार्थरहित और आदर्श होना चाहिए। इसी विचार से भगवान बुद्ध ने भिक्खु समाज की स्थापना की।
भिक्खुओं पर उन्होंने कई बन्धन लगाये ताकि उनका मन दोबारा प्रपंच की तरफ न मुड़े। भिक्खुओं का प्रमुख काम था, स्वधर्म का प्रचार और प्रसार करना। संतों पर समाज की जिम्मेदारी होना जरूरी है। लेकिन आज के साधुजन क्या करते हैं? बदन में राख लगा कर समाज से दूर रहते हैं। जटाएं, बढ़ी हुई दाढ़ी, मालाएं, रंगीन कपड़ों के टुकड़ों से ही साधु नहीं बनते, ये केवल बाहरी लक्षण हुए। आज समाज में हर कहीं अधोगति के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। समाज में हर जगह ज़ुल्म और जबर्दस्ती के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। समाज में हो रहे अत्याचार, ज़ोर-ज़ुल्म का प्रतिकार करना साधुओं का कर्त्तव्य है। यही लोक कल्याण है।
आज डॉ. अम्बेडकरहमारे बीच नहीं हैं। वे होते तो दुःखी होते; क्योंकि समय तो बदला परन्तु लोगों के स्वाभाव नहीं बदले। लोक कल्याण की भावना लुप्त होती गयी है। अधोगति की ओर मनुष्य कुछ ज़्यादा बढ़ गया है। हम बुद्ध के जन्मोत्सव को मना लें। हम अम्बेडकरको स्मरण कर लें। हम अपने सभ्य होने का दंभ भर लें। लेकिन जिसे डॉ. अम्बेडकरने नैतिक मन से स्वीकार किया था, जिसे उनके लाखों समर्थकों ने स्वीकार किया था; उस बौद्ध दीक्षा को मानने वालों में भी भटकाव है। जो बुद्ध को नहीं मानते उनकी बात ही क्या की जाए।
एक बार पुनः आत्म विश्लेषण करने का समय है कि हम बुद्ध को कितना अपनाया, हमने डॉ. अम्बेडकरको कितना माना। आधुनिक भारत के बुद्ध, डॉ. अम्बेडकरने निःसंदेह समाज की जो सच्ची तस्वीर देखी थी और जिस दिशा में बौद्ध-धर्म अपनाने वालों से बढ़ने की अपेक्षा की थी वे भी; कहीं न कहीं भटक गए हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हमें डॉ. अम्बेडकरके सात्विक मन और बुद्ध के सत्य को एक बार आत्मसात करना चाहिए। क्योंकि सार्वभौमिक सभ्यता और मैत्री की ध्वनि तो वहीं से निकल रही है। यदि हम उन्हें अपनायेंगे तो गी समावेशी समाज का निर्माण कर सकेंगे।
लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर, अहिंसा आयोग व अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।
कन्हैया त्रिपाठी जी! अच्छा लेख है आपका बुद्ध जयंति पर! अंबेडकर, बुद्ध व बुद्धत्व पर।
हमने पढ़ा पूरा और अच्छा भी लगा।
इस विषय पर बहुत लिखा पढ़ा गया है। *संसार को सत्य, अहिंसा, करुणा के साथ मोक्ष का आसान मार्ग दिखाने वाले, बुद्ध के ये मार्ग बहुत आसान हैं और इसके विचारों में हर वंचित, त्याज्य मनुष्यों के लिए इतनी जगह थी कि समय के साथ-साथ लोग इनके विचारों में रमते गए।*
वैसे यह सभी गुण मानवीयता व इंसानियत के प्रतीक है। अगर हम थोड़ा विस्तार से विचार करें तो हम पाएँगे कि चाहे वह किसी भी धर्म के प्रवर्तक हों, चाहे ईसा मसीह हों,मोहम्मद साहब ,गुरु नानक, महावीर स्वामी,गौतम बुद्ध या फिर राम-कृष्ण; सभी ने मानवीय गुणों को ही सर्वोपरि, सर्वोच्च महत्ता दी!सत्य, अहिंसा दया,करुणा,दान, परोपकार; अगर कोई भी मनुष्य इनमें रत है तो उसे ईश्वर की पूजा अर्चना करने की भी कोई जरूरत नहीं।इन सबको अपने आचरण में उतार कर और अपने कर्मों में सम्मिलित करके इंसान ईश्वर के निर्देशित कार्य को ही करता है।
हर धर्म और हर धर्म प्रवर्तक यही करता है। जीवन की संकीर्ण सोच और अहं से संतप्त पथ- भ्रष्ट मानवों को सचेत व जाग्रत करने के लिये, जीवन की भटकन से राह दिखाने के लिये, स्वार्थ में रत मानव को समय-समय पर सचेत करने के निमित्त संत लोग संसार में अवतरित होते रहते हैं। वैसे तो यह सभी गुण ऐसे हैं कि इसमें जाति धर्म से कोई वास्ता नहीं किंतु फिर भी लोग इससे अछूते कभी नहीं रहे।
बौद्ध धर्म की विशेषता यह रही कि यह धर्म अपने समय में जातीय भेद से परे था जिससे अंबेडकर जैसे दलित समाज के लोग त्रस्त थे। और जिससे वे छुटकारा पाना चाहते थे। वे इस तिरस्कार और अपमान जनक जीवन से मुक्ति चाहते थे। अतः वे बौद्ध धर्म से जुड़ पाए।
बहर हाल अच्छा लेख है इसमें कोई दो राय नहीं।
बहुत बहुत बधाइयाँ आपको।
इस विषय पर स्कूल में पढ़ा एक श्लोक अचानक से याद आ गया और यह हमारे संस्कृत के नीति श्लोक से है-
वास्तव में यह श्लोक राजा रंति देव ने वरदान के रूप में ईश्वर से माँगा था। एक बार अकाल पड़ने से प्रजा में हाहाकार मच गया राजा रंति देव ने अपना सारा कोष जनता के लिए खोल दिया किंतु उसके बाद भी वे उन्हें उस संताप से मुक्त न कर पाए इससे भी बहुत दुखी हुए और अपने राज कर्म का निर्वाह ठीक से ना कर पाने के कारण दुखी होकर वन में तपस्या के लिए चले गए तपस्या करते हुए जब भगवान नारायण प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने के लिए कहा तो उन्होंने वर मांगा था-
न त्वहं कामये राज्यं
न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥
अर्थात्, न मुझे राज्य की कामना है, न स्वर्ग की और न ही पुनर्जन्म की चाह है।
मेरी कामना सिर्फ यह है कि मैं दुख से संतप्त प्राणी मात्र के दुःखों का नाश कर सकूँ। दुख दूर कर सकूँ।
यह है हमारा सनातन धर्म जिसका अनुसरण बौद्ध धर्म से अलग तो बिल्कुल भी नहीं।
सारे जातिगत भेद सामंती सोच के द्वारा अपनी सुविधा व सुख के लिये निर्मित किए गए हैं उनकी अपनी सुविधाओं के अनुसार स्वंय के लिये बनाए गए हैं ।किसी भी शास्त्र में नहीं लिखे।
इस बेहतरीन लेख के लिए त्रिपाठी जी! आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ!
कन्हैया त्रिपाठी जी! अच्छा लेख है आपका बुद्ध जयंति पर! अंबेडकर, बुद्ध व बुद्धत्व पर।
हमने पढ़ा पूरा और अच्छा भी लगा।
इस विषय पर बहुत लिखा पढ़ा गया है। *संसार को सत्य, अहिंसा, करुणा के साथ मोक्ष का आसान मार्ग दिखाने वाले, बुद्ध के ये मार्ग बहुत आसान हैं और इसके विचारों में हर वंचित, त्याज्य मनुष्यों के लिए इतनी जगह थी कि समय के साथ-साथ लोग इनके विचारों में रमते गए।*
वैसे यह सभी गुण मानवीयता व इंसानियत के प्रतीक है। अगर हम थोड़ा विस्तार से विचार करें तो हम पाएँगे कि चाहे वह किसी भी धर्म के प्रवर्तक हों, चाहे ईसा मसीह हों,मोहम्मद साहब ,गुरु नानक, महावीर स्वामी,गौतम बुद्ध या फिर राम-कृष्ण; सभी ने मानवीय गुणों को ही सर्वोपरि, सर्वोच्च महत्ता दी!सत्य, अहिंसा दया,करुणा,दान, परोपकार; अगर कोई भी मनुष्य इनमें रत है तो उसे ईश्वर की पूजा अर्चना करने की भी कोई जरूरत नहीं।इन सबको अपने आचरण में उतार कर और अपने कर्मों में सम्मिलित करके इंसान ईश्वर के निर्देशित कार्य को ही करता है।
हर धर्म और हर धर्म प्रवर्तक यही करता है। जीवन की संकीर्ण सोच और अहं से संतप्त पथ- भ्रष्ट मानवों को सचेत व जाग्रत करने के लिये, जीवन की भटकन से राह दिखाने के लिये, स्वार्थ में रत मानव को समय-समय पर सचेत करने के निमित्त संत लोग संसार में अवतरित होते रहते हैं। वैसे तो यह सभी गुण ऐसे हैं कि इसमें जाति धर्म से कोई वास्ता नहीं किंतु फिर भी लोग इससे अछूते कभी नहीं रहे।
बौद्ध धर्म की विशेषता यह रही कि यह धर्म अपने समय में जातीय भेद से परे था जिससे अंबेडकर जैसे दलित समाज के लोग त्रस्त थे। और जिससे वे छुटकारा पाना चाहते थे। वे इस तिरस्कार और अपमान जनक जीवन से मुक्ति चाहते थे। अतः वे बौद्ध धर्म से जुड़ पाए।
बहर हाल अच्छा लेख है इसमें कोई दो राय नहीं।
बहुत बहुत बधाइयाँ आपको।
इस विषय पर स्कूल में पढ़ा एक श्लोक अचानक से याद आ गया और यह हमारे संस्कृत के नीति श्लोक से है-
वास्तव में यह श्लोक राजा रंति देव ने वरदान के रूप में ईश्वर से माँगा था। एक बार अकाल पड़ने से प्रजा में हाहाकार मच गया राजा रंति देव ने अपना सारा कोष जनता के लिए खोल दिया किंतु उसके बाद भी वे उन्हें उस संताप से मुक्त न कर पाए इससे भी बहुत दुखी हुए और अपने राज कर्म का निर्वाह ठीक से ना कर पाने के कारण दुखी होकर वन में तपस्या के लिए चले गए तपस्या करते हुए जब भगवान नारायण प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने के लिए कहा तो उन्होंने वर मांगा था-
न त्वहं कामये राज्यं
न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥
अर्थात्, न मुझे राज्य की कामना है, न स्वर्ग की और न ही पुनर्जन्म की चाह है।
मेरी कामना सिर्फ यह है कि मैं दुख से संतप्त प्राणी मात्र के दुःखों का नाश कर सकूँ। दुख दूर कर सकूँ।
यह है हमारा सनातन धर्म जिसका अनुसरण बौद्ध धर्म से अलग तो बिल्कुल भी नहीं।
सारे जातिगत भेद सामंती सोच के द्वारा अपनी सुविधा व सुख के लिये निर्मित किए गए हैं उनकी अपनी सुविधाओं के अनुसार स्वंय के लिये बनाए गए हैं ।किसी भी शास्त्र में नहीं लिखे।
इस बेहतरीन लेख के लिए त्रिपाठी जी! आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ!