जब भारत की लगभग 90% आबादी गाँव में रहती थी, तब ‘छप्पर’ उनके जीवन का अभिन्न अंग था। और सिर्फ अंग ही नहीं दैनिक जीवन का जरूरी हिस्सा भी था। भले ‘भूस’ के बोंगे का छ्प्पर हो या ‘मिट्टी से बने घर’ का छप्पर। छप्पर सिर्फ ‘सिर ढकने’ की कहावत को पूरा करने के मार्फत ही नहीं था, बल्कि आपसी भाईचारे का प्रतीक भी था।
गाँव के चारों कोनों से लोगों को जोड़ने की जरूरत तो होती ही थी, परंतु राह चलता इंसान भी मानवता की मिसाल पेश करने के लिए नहीं, बल्कि स्वाभाविक व्यवहार के चलते सहारा लगाने आ जाता था। उसी क्रम ‘ठंडी छाछ या गरम दूध’ का सेवन भी बिना वर्ग और परिचय की जानकारी के करवाया जाता या फिर साथ बैठकर ‘हुक्का’ पिलाकर सम्मान प्रकट किया जाता था। उस ‘हुक्के’ से कोई बीमार नहीं होता था क्योंकि उसमे मिला होता प्रेम और भाईचारा।
छप्पर गरीबी और अमीरी के प्रतीक भी नहीं थे, क्योंकि वो तो दोनों वर्ग के लोगों को धूप और बारिश से बचाता था। छप्पर मानवता के प्रतीक थे। लेकिन दुख इस बात का है कि सत्ता और वर्गवाद ने आज छप्पर को गरीबी का प्रतीक बना कर छोड़ा है। ‘प्रगति’ के नाम पर हमने पक्की छत पा ली है। कंक्रीट की चमक से आँखें और बुद्धि चौंधियाँ गयी है।
और छप्पर से छुटकारा पा लिया है। लेकिन ये छुटकारा नहीं है, ये मानवता के मरण का पहला चरण था। विशेषकर हमारे देश में। छप्पर बनाने में बांस, ईख की सुखी पतई, अरहड़ की लड़कियां, सन की रस्सी, और अन्य प्रकार के प्राकृतिक सामान जो हमें खेतों से ही मिल जाते थे। कोई अलग से खर्चा नहीं। मिट्टी खेत की, और सिर ढकने के लिए छप्पर भी खेत का। मतलब जमीन ही जीवन।
आधुनिकता ने शहरों के साथ-साथ गाँव में भी अपनी पकड़ खूब बनाई है जो ठीक भी है। लेकिन उसने मूल जीवन को दूषित करने का काम किया। छप्पर जिम्मेदार थे एक परिवार के लिए, छप्पर जिम्मेदार थे कोमलता और शीतलता के लिए, छप्पर जिम्मेदार थे मानवीयता और भाईचारे के लिए, छप्पर जिम्मेदार थे इंसानियत और प्रेम के लिए।
छप्पर सिर्फ सहारा नही थे, गुणों की खान थे, जो सिखाते थे सहयोग, आपस में मिलजुलकर रहना, बिना लालच और लालसा के किसी की भी मदद करना, मज़हबी वैमनस्यता को पैदा न होने देना, एक ही छप्पर के नीचे हर धर्म के लोग हाथ पकड़, मुट्ठी बाँध एकता का पाठ बहुत ही शालीनता से सीखा जाते थे। छप्पर हिंदुस्तान की जान थे। लेकिन छप्पर से ये ज़िम्मेदारी छीन ली गयी। और उसका परिणाम हम सब देख रहे हैं।
अब हमें कोई किसी की मदद करता हुआ नहीं दिखता। जो दिखते हैं उनमें न होते हुए भी हम उसका कोई न कोई मतलब और लालच ढूंढ ही लेते हैं। हाँ! हुक्के आज भी पिये जाते हैं, लेकिन कैसे ये हम सब जानते हैं। दूध की जगह चाय और कॉफी ने ले ली है। और आपसी भाईचारा अब सिर्फ किताबी बात बनकर रह गया है कुछ अपवादों को छोड़कर।
अब न कोई किसी की मदद करता है न कोई किसी को अपने आँगन में बैठाना चाहता है। अब न लोग घर में इकट्ठे होते हैं न खेत में। जहां होते हैं वहाँ न कोई किसी से बात करता है और जो करना भी चाहता है उससे दूर रहने की सलाह और सावधानी रखी जाती है। ये सब क्यों हुआ? क्योंकि इसकी नौबत आई? क्योंकि “अब छप्पर नहीं रखे जाते”। अब छप्पर गरीबी के कारण जीवन के अंतिम पड़ाव पर आ गया है!

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