इंट्रो
यह ब्रिटिश के जमाने की कहानी है । उन दिनों भारतीय मातहतों के साथ पशुतुल्य सलूक किया जाता था । इनके जमीर को चकनाचूर करके रख दिया जाता था । मातहत भी इनकी गुलामी करने को अभिशप्त थे । लेकिन कभी न कभी उनका जमीर जाग ही जाता है । बस! जरा से उकसाने की जरूरत है ।
मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में इस तरह के उदाहरण *बहुतायत* से पाए जाते हैं । मैंने भी एक छोटा – सा प्रयास किया है ।
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हरिप्रसाद ऑफिस से थका–हारा आया और आँगन पड़ी हुई टूटी खटिया पर बैठ गया । उसकी पत्नी रोहिणी पानी का ग्लास और सकोरे में तली हुई मूँगफली ले कर आ गई, बोली “लो जरा पानी पी लो, तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लाती हूँ :…। जैसे ही रोहिणी मूँगफली का सकोरा रख कर गई, दोनों बेटियाँ सकोरा के पास आकर खड़ी हो गईं और टकटकी लगाकर देखने लगीं । रहिणी रसोईघर से देख रही थी। वहीं से चिल्लाकर बोली, “… चलो भागो यहाँ से, बाप को जरा झूठा मुह कर लेने दो । तुम दोनों तो पूरे दिन बकरियों की तरह कुछ न कुछ खाती ही रहती हो …” ।
रोहिणी साड़ी के पल्लू से पकड़ कर चाय का ग्लास ले आई, हरिप्रसाद ने गमछे से ग्लास पकड़ा और जैसे ही मुंह को लगाया, सामने से ऑफिस का चपरासी आता हुआ दिखा, बड़े ही गुस्से में दिख रहा था । था तो भारतीय, परंतु गोरे लोगों की झूठन खा-खा कर और उनकी गुलामी कर-करके अब वह “बीच वाला” बन गया था । भारतीय तो रहा ही नहीं और अंग्रेज़ बनने से रहा । उस चपरासी का नाम तो लक्ष्मण था, पर अंग्रेजों ने उसे लकमन बना दिया था । आते से ही चिल्लाकर बोला, “… अरे हरिया तू यहाँ बैठकर चाय पी रहा है, सा’ब तुझे ऑफिस में बुला रहे हैं, जल्दी चल…” । हरिप्रसाद चाय का सरूटा भरते हुये बोला, “…अरे ऐसी क्या आफत आ गई, मैं तो ड्यूटी खत्म करके ही आया था…” चपरासी डंडा फटकारते हुए बोला, “…अरे तेरी ड्यूटी गई भाड़ में, जल्दी चल, सा’ब बहुत गुस्से मेँ हैं, ग्लास रख और चल …” । शोर सुनकर रोहिणी रसोई से बाहर निकल आई और बोली, “…अरे लाला का गज़ब कर रहे हो, आदमी थका – हारा आया है, जरा सांस तो ले लेने दो …”। चपरासी रोहिणी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला, “…भौजी तू जानती नहीं हैं, सरकारी नौकरी कैसी होती है , चल उठ रे हरिया …”
हरीप्रसाद अपनी टूटी चप्पल पाओं मेँ लटकाकर चपरासी के पीछे – पीछे चलने लगता है । चपरासी लंबे – लंबे डग भरता हुआ चल जा रहा था और हरिप्रसाद उसके पीछे घिसटता हुआ उसके पीछे ।
दोनों जैसे ही ऑफिस मेँ पहुंचे, देखा, सा’ब हाथ मे हंटर लिए, गुस्से के मारे लाल-पीला हो रहा था । हरिप्रसाद को देखते ही बोला, “ए मेन टुम स्टोर के सामान का फाइल किदर रखकर गया, यू इंडियन, सुअर का बच्चा, पेपर का इंपोर्टेन्स समझता नहीं है, अम टुमको अभी काम से निकाल ड़ेगा…” । हरिप्रसाद अपमान का जहर अंदर ही अंदर पीता रहा और सोचने लगा इसका हंटर लेकर इसी को सुतूँ और नौकरी छोडकर चला जाऊं । फिर दोनों बेटियों का ख्याल आया, घर द्वार का खयाल आया । सा’ब हंटर फटकारे, उसके पहले ही गुस्से को पीते हुए बोला, “…सा’ब आपके कमरे में ही तो रखी है, टेबिल पर…”। उदर क्यों रखी, हम इधर बाहर ढूंढ रहा था । यू एडिएट, हम टुम को अबी काम से निकल देगा । हरिप्रसाद गिड़गिड़ाते हुए बोला, “…नहीं सा’ब ऐसा अनर्थ न करना । दूसरी नौकरी कहाँ ढूंढुगा” ? साला कमीना, खुद की गलती और मुझे घर से बुलवा लिया ।
किसी तरह लड़खड़ाता हुआ घर पहुँचा । घर के दरवाजे पर, पत्नी और दोनों बच्चियाँ, अपलक उसी की राह देख रही थीं । पत्नी बोली, “क्या हुआ, नाशमिटे, ठठरी बंधे ने काहे को बुलाया था तुम्हें ड्यूटी के बाद” । “…कुछ नहीं एक फाइल नहीं मिल रही थी, जबकि मैं उसकी टेबिल पर् ही रखकर आया था…” । “फिर क्या कहा तुमने उससे …? हरिप्रसाद कैसे कहे कि अपनी नौकरी बचाने के लिए मैं उसके सामने गिड़गिड़ाया । नकली मुस्कराहट दिखाते हुए बोला, “…मैंने डाँटते हुये कहा, दिखाई नहीं देता क्या, क्या तुम्हारी आंखे फूटी हैं, फाइल टेबिल पर ही तो रखी है । फालतू मुझे परेशान किया । और मैं घर आ गया …। रोहिणी अब ये समझ ले, नौकरी तो मेरी गई, अब घर कैसे चलेगा । पर मैं क्या करता रोहिणी, मेरा आत्म सम्मान मुझे धिक्कार रहा था…”। रोहिणी बोली, “… अरे नौकरी गई तो जाने दो, भूखे नहीं मरेंगे, हम दोनों मिलकर मेहनत मजूरी करेंगे । घी लगी नहीं खाएँगे, रूखी खाएँगे । सत्यानाश हो उसका …” ।
“…रोहिणी तू सच कह रही हो न…” “और नहीं तो क्या , इज्जत से बड़ा कुछ है क्या” ? हरिप्रसाद के शरीर में एक अजीब – सी स्फूर्ति आ गई । रोहिणी से बोला, तू रोटी बना, मैं जरा बाहर जा रहा हु, अभ्भी आता हूँ …” और घर से निकल पड़ा । रास्ते में उसने एक लाठी ले ली और सीधा ऑफिस पहुँच गया । ओफिस में सा’ब, एक हाथ में कुत्ते का पिल्ला लिए, मेम साहब के साथ बैठकर शराब पी रहा था । हरिप्रसाद सीधा अंदर घुसा और, टेबिल पर लाठी फटकारते हुये बोला, “… हां बोल, क्या बोल रहा था मुझे एडियट, सुअर का बच्चा, जबकि मेरी कोई गलती नहीं थी…” । सा’ब हरिप्रसाद का यह रूप देखकर घबरा गया । उसने कभी सोचा भी नहीं था, मेरा कोई मातहत ऐसा भी कर सकता है । हरिप्रसाद फिर गरजा, “… सौरी बोल, नहीं तो मेम साहब के सामने ही तुझे इस लाठी से धोऊँगा, क्या करेगा, नौकरी से निकाल देगा न, संभार तेरी नौकरी, नहीं करना मुझे, रखले अपने पास । “…अरे हरिप्रसाद वह तो मैं फाइल को देख नही पाया था, इसलिए तुमको बुलाया, सम टाइम ऐसा हो जाता है…” । हरिप्रसाद उसकी बात अनसुनी करके लाठी फटकारते हुये बोला, “कान पकड़ कर सौरी बोलता है या फिर मैं … ” “सौरी हरिप्रसाद यार, हम तो तुम्हारा फ्रेंड जैसा है… ”। “…अरे छोड़, काहे का फ्रेंड, जाता हूँ, कल से नहीं आऊँगा काम पर …” । “…. अरे नहीं हरिप्रसाद टुम कल से काम पर आना, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा…” । हरिप्रसाद ने वह लाठी तोड़कर वहीं ऑफिस में फेंक दी और मूछों पर ताव देते हुये वहाँ से निकल गया ।