यह शायद पहले भी रहा होगा… प्रागैतिहासिक काल से, युगों युगों से, पर किसी ने इसे बताने की हिम्मत नहीं की होगी, लज्जा से वाणी मूक हो गई होगी, बदनामी के डर ने इसे पर्दे में ही रहने दिया होगा, अथवा दायित्वों के बोझ में इसे दबा दिया गया होगा?
लेकिन बदलते समय के साथ इसकी सुगबुगाहट सुनाई दी अब तो कई लेख और कविताएँ भी दिखती हैं, सम्भवतः लोगों का दृष्टिकोण प्रेम को लेकर व्यापक और नव परिभाषित हो रहा है.. “विवाहित स्त्री के प्रेम”, को लेकर.
प्रेम को सदैव ही जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता रहा है – “ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय” -। प्रेम को बहुत तरह से परिभाषित किया जाता रहा है, कुछ इसे दिव्य ईश्वर का रूप और उदात्त मानते हैं, यह प्रेम को वृहदार्थ में लेते हैं। कुछ इसे सीमित अर्थों में लेते हैं, प्यार को इन्द्रियों से जोड़ कर यौन तक सीमित कर देते हैं। कुछ मध्यम मार्गी दोनों के बीच की परिभाषा में रहते हैं, जो इन्द्रियों से आरम्भ हो कर आत्मा और परमात्मा तक ले जाता है।
जब चिंतन चलने लगा तो विचार आया कि प्रेम क्या उम्र पर आधारित है? या विवाह पर? अकेलेपन पर, सामाजिक परिस्थितियों पर? मानसिक संतुलन पर? इन सभी पर या किसी पर भी नहीं? यदि यह उम्र पर आधारित होता तो वृद्ध लोगों को अपने साथी, जीवन साथी या रिश्तेदारों के लिए बेचैन होते या रोते न देखते। यदि यह विवाह पर आधारित होता तो विवाहितों के प्रेम प्रसंग सुनने को नहीं मिलते। सामाजिक दशाओं पर आधारित होता तो समाज विशेष में दिखता। परन्तु ऐसा नहीं है, प्रेम इन सभी से स्वतंत्र है, इसीलिए प्रेम सतत, शाश्वत, सार्वभौमिक होते हुए भी अपरिभाषित और सर्वाधिक तर्क और विवेचना का विषय रहा था, है और सम्भवतः रहेगा।
अब बात करते हैं विवाहित स्त्री के प्रेम पर। भारत में विवाह की कोई उम्र नहीं है (वैश्विक स्तर पर विवेचना नहीं कर सकती, अनुभव नहीं है), दुधमुँही बच्चियों से लेकर प्रौढ़ावस्था तक किसी भी उम्र में शादियाँ होती हैं, हाँ अभी वृद्ध-आश्रमों  में और नानी – दादियों के विवाह या प्रेम संबंधों के समाचार नहीं के बराबर मिलते हैं। लेकिन भारत में औसतन 30,000 शादियाँ* प्रतिदिन होती हैं, मुझे आंकड़े तो नहीं मिले पर अन्दाज़ा यही कहता है कि 85 से 90 प्रतिशत स्त्रियाँ विवाहित होती हैं।
विवाह भारतीय मानस में जन्म के बाद सम्भवतः सबसे आवश्यक चीज़ है। ऐसे में विवाहित स्त्री के प्रेम का विषय विचारणीय हो जाता है। विवाहित स्त्री को, परिवार और पति को समर्पित आदर्श स्त्री के रूप में देखा जाता है, ऐसे में मेरे विषय को सामान्य जन एक कुत्सित और स्त्रियों के अपमान का आग्रह समझ कर आलोचना योग्य मानेंगे और इस विचार को ख़ारिज करते हुए या तो पढ़ेंगे ही नहीं या आधा पढ़ कर, इसे बेवकूफी या षडयंत्र का नाम देते हुए छोड़ देंगे। एक नया और विवादास्पद विषय उठाने पर मैं इन सभी प्रतिक्रियाओं के लिए सन्नद्ध हूँ।
अभी तक भारत की 65% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रह रही, बाकी बची जनसंख्या का 15%छोटे शहरों में ग्रामीण स्तर पर ही रह रहा है (अर्थिक नहीं मानसिक और शैक्षिक स्तर), ऐसे में विवाह प्रेम पर आधारित तो निश्चित रूप से नहीं होते हैं। विवाह मानसिक से अधिक शारीरिक सम्बंधों पर निर्भर होता है, जबकि प्रेम शुद्धतः मानसिक संकल्पना (concept) है। शारीरिक रूप से विवाहिता, अपने को मानसिक रूप से भी विवाहित या प्रेम प्रतिष्ठित मान सके आवश्यक नहीं है। विवाह शारीरिक जरूरतों को पूरा कर सकता है परन्तु मानसिक रूप से भी संतुष्टि दे ज़रूरी नहीं, वास्तव में विवाहित स्त्री – पुरुषों का 60% भाग भी प्रेम – प्यार के अनुभव से शून्य ही रहता है। पुराने समय में जब संयुक्त परिवार थे तब महिलाओं को इतनी स्वतन्त्रता ही नहीं मिलती थी कि वह प्यार, प्रेम के अस्तित्व को समझ सकें, उसे ढूढ़ने या पाने का प्रयत्न तो दूर की बात थी।
पुरुषों के लिए स्थिति अन्यथा रही है, प्राचीन काल में बहुपत्नी प्रथा रही, नगर वधू और वारांगनाओं का अस्तित्व और महत्व रहा है। बाद के काल में भी पुरुष को घर में पत्नी के रहते प्रेम करते रखैल रखते सभी ने सुना होगा (मेरा वक्तव्य अतिशयोक्ति अथवा पक्षपात पूर्ण नहीं लगा होगा)।
ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि क्या प्रेम की आवश्यकता पुरुष और स्त्री में मूलभूत रूप से बिल्कुल अलग है या सामाजिक बंधनों और परंपराओं ने स्त्री की प्रेमेच्छा को दमित और अनदेखा कर दिया है?
विवाह के बाद क्या स्त्री को प्रेम करने की इच्छा नहीं होती है? उसके हृदय में बस परिवार और दायित्व रह जाते हैं? प्रेम उन्हीं तक सीमित हो जाता है या वह भी प्रेम के अनुभव पाना चाहती है? मन का कोई अतृप्त कोना चाहता है कि कोई तो ऐसा हो जो उसे प्यार करे, उसको सराहे, उसको यह अनुभव दे कि वह किसी के लिए इतनी महत्वपूर्ण है कि वह उसे देखना, उसको चाहना और सराहना चाहता है। क्या कुछ समय वह प्रेम की अनुभूति के साथ जीना नहीं चाहती? क्या वह मात्र दूसरों के लिए बनी है उसकी स्वंय की कोई इच्छा या वज़ूद नहीं है? कब तक वह अपनी खुशी इसमें तलाश करती रहेगी कि कौन उसके खाने की प्रशंसा कर रहा है, कौन उसकी सेवा से प्रसन्न है और कौन उसके त्याग की सराहना कर रहा है?
एक विवाहित स्त्री भी अपने ख़ुद के लिए जीना चाह सकती है, वह भी एक प्रेमी एक प्रशंसक चाह सकती है, वह भी किसी की नजरों में प्यार की सौगात चाह सकती है। विवाहित स्त्री का प्रेम इन्द्रिय सुख नहीं चाहता, उसकी प्रेम की परिणति विवाह नहीं है, वह अपने परिवार को प्रेम की वेदी पर बलि नहीं करती। अपनी परिस्थियों में रहते हुए भी किसी के प्रेम को, उसकी भावनाओं को छूना चाहती है, थोड़ा सा मानसिक दुलार- लाड़ चाहती है, ऐसा प्यार जहां स्थान हो, प्रशंसा हो, क़दर हो, उसके ख़ुद के होने का एहसास हो। किसी के लिए वह सिर्फ़ इसलिये जरूरी हो कि वह उसे प्रिय लगती है, स्पृहणीय है उसके लिए कुछ अलग सा महत्व रखती है। वह बखूबी जानती है अपने कर्तव्यों और दायित्वों को। वह किसी के साथ धोखा नहीं कर रही, बस कुछ समय अपने आल्हाद अपने सुख अपने आप के लिए जीना चाहती है। क्या समाज के लिए यह पाप है? परिवार के साथ वंचना है?
आज यदि विवाहित या विवाहित प्रौढ़ स्त्री ऐसा प्रेम कर रही है या विधवा, तलाकशुदा या परित्यक्ता स्त्री इसकी इच्छुक है तो क्या यह नैतिक मूल्यों के विरुद्ध है? अथवा मानवीय, प्राकृतिक और स्वाभाविक सा है? इसे आलोचना की दृष्टि से  देखा जाना चाहिए या नहीं निर्णय आप पर है, समाज और नैतिकता पर है, विषय विचारणीय है…
शैली त्रिपाठी
ईमेल: shaily2327@gmail.com
सम्पर्क - shailjaa.tripathi@gmail.com

19 टिप्पणी

  1. Asked Vacheron se poor Tarah se sahmat hook. Prem vyaktigat anubhooti Hai is like vivacity stri apnea Jeevan ki nirasha aur sambandhon me aaye tanaav k chalte yadi kisi any purush se prem krti Hai to use hey drishti se dekhna galaxy hoga.

  2. प्रेम मन और शरीर दोनों से जुड़ी अवधारणा है. उसकी परिणति संसर्ग में होती है. वाटिका में जानकी और श्रीराम का पूर्व राग मन की विषयवस्तु है. किंतु उसके पूर्ण परिपाक के लिए राम सीता का विवाह जरूरी है.
    विवाहेतर प्रेम भारत में कम से कम इतना पुराना है जितना काव्यशास्त्र. इसीलिए यहाँ स्वकीया, परकीया और अनेक प्रकार की अभिसारिका का चर्चा होता आया है.
    दांपत्य प्रेम हमारे समाज की धुरी है. दंपति ही ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के लिए अन्न उगाते हैं. अन्य व्यवस्थाएँ करते हैं. हमारे समाज की नींव है मर्यादा. इसी में हमारा गौरव है. वरना शारीरिक भूख तो ब्रह्मा ने भी अनुभव की- अपनी बेटी के लिए.
    वर्जनाओं का होना समाज के अस्तित्व के लिए जरूरी है.
    और वर्जित फल खाने से पतन होता है.
    पति या पत्नी, दोनों को अपने दांपत्य के दायरे में ही प्रणय प्रेम की आकांक्षा रखनी चाहिए.
    यही उचित है.

    • डॉ. सिंह किसी भी लेख की सफलता का पैमाना होता है कि पाठक उस पर टिप्पणी करने को मजबूर हो जाए। आप चाहे लेखक की सोच से सहमत हों या नहीं, मगर आपने टिप्पणी की, संपादक मंडल आपका आभारी है।

    • आपने लेख पढ़ा अपनी टिप्पणी भी साझा की आभार । समाज में आदर्श और विसंगतियाँ दोनों साथ -साथ चलती हैं । आदर्श यदि यथार्थ में आजाये तो सर्वोत्तम है । परन्तु ऐसा होता नहीं है । मेरा प्रयास मात्र यह था कि महिलाओं के पक्ष को भी रखा जाये ,उस समाज में जहाँ पुरुष अनेकों स्वतंत्रतायें मात्र परुष होने के कारण लेता रहा है ।

  3. शैली जी आपका लेख सम्वेदनाओं को छू गया ।स्त्री तो स्वयं प्रकृति है प्रेम देती है तो प्रेम पाने की भी अधिकारी है ।
    उम्दा विचार
    Dr Prabha mishra

    • प्रभा जी, आपने लेख में अन्तर्निहित भाव को समझा और अपने विचार व्यक्त करने का साहस किया, इसके लिए हृदय से धन्यवाद। हमारे समाज में स्त्रियों का जीवन मात्र परम्परागत taboos को झेलने में बीत जाता है। शायद मुट्ठीभर महिलायें होती हैं जो ‘जीवन जीती हैं’ अन्यथा बहुसंख्यक स्त्रियां जीवन ढोती हैं। बहुत से लोग होंगे जो सम्भवतः इस विचार से सहमत भी हों, परन्तु नैतिकता का तकाज़ा उनके विचार बाहर आने नहीं देगा। इसीलिए आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है।

  4. विवाहित स्त्री का प्रेम इंद्रिय सुख नहीं चाहता!! यदि चाह हो तो? दरअसल प्रेम और विवाह दो अलग चीज़ें हैं। पर हमें दोनों को अलग रख कर देखने से रोका गया है। यह कंडिशनिंग इतनी सशक्त रही है कि इस विषय पर विचार करने वाले घूम फिर कर वहीं ठिठक जाते हैं।

  5. “विषय विचारणीय है…” लेख की अंतिम लाइन…..
    इस पर यही कहना चाहूंगा —
    “विषय विचारणीय नहीं… प्रचारणीय है।”
    जब पहले पुरुष यही सब करके घर लौटता तब उसकी पत्नी उस पर शक करती और पकड़े जाने पर खूब झगड़ा भी। यहां तक जीना हराम कर देती और तो और तलाक भी हो जाता। अब जब वही महिलाएं कर रही हैं तो अब वह पुरुषों का सहयोग (और आशीर्वाद) चाहती है। वह अपने लिए समाज से सहानभूति और स्वीकृति चाहती है। उसे डर है, भय है कि कहीं पुरुष उससे उसका पुराना हिसाब न मांगने लगे कि जब वह कर रहा था तब तुमने उसका आसमानी विरोध किया था । हर रोज हत्या किया करती थी तुम उसका और आज जब अपने पर आई तो उस कार्य के लिए जो तुम्हारे लिए कभी घृणित था उसे “मानवीय, प्राकृतिक और स्वाभाविक” सा कहने लगी। क्या उस समय पुरुषों को वही सब नहीं चाहिए था जिसे आज स्त्री “थोड़ा सा मानसिक दुलार- लाड़ , प्रशंसा, क़दर और ख़ुद के होने का एहसास” बता रही है। क्या उसे एहसास हो रहा है कि यही सब पहले पुरुषों को भी मिल रहा था।
    इस लेख को अब पुरुषों के दृष्टिकोण से भी लिखा जाना चाहिए। जिसमें यह लाइन हो कि — “आज जब स्त्री विवाहेतर संबंधों और प्रेम में खुशी, आनंद और आह्लाद ढूंढती खुद को खुश पा रही है तो उसे अपने उन कृत्यों पर आज अफसोस और घृणा हो रही है जब उसने अपने पति के विवाहेतर संबंधों पर संदेह किया था, उसे कटघरे में खड़ा किया था, समाज के सामने अपमानित किया था, उसे मानसिक प्रताड़ना दी थी, उसका हर क्षण मृत्यु के समान कर दिया था। आज वही स्त्री वही सब कुछ करती हुई पुरुषों से क्षमा मांगती है और यह स्वीकार करती है की पुरुषों ने जो कुछ किया था सब सही किया था।”

  6. आनंद जी ! आभार लेख को इतनी गहरायी से पढ़ने के लिए और तीखी ही सही प्रतिक्रिया देने के लिए, ‘आनंद’ हो कर, इतना क्रोध? खैर मैंने स्वयं स्वीकार किया है कि विवादास्पद विषय है और ऐसी ही प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा भी थी, लेकिन सुख मिला कि कुछ प्रतिक्रियाएं सकारात्मक भी मिलीं। आपने जितना लिखा उसी में 2-4 पैरा और लिख देते तो पुरुष वर्ग के लिये लिखे जाने की जो आवश्यकता आपने बतायी, पूरी हो जाती।
    आपने ने कहा कि “पुरुष प्रेम, दुलार आदि पाने के लिए ही विवाहेतर सम्बंध बनता था /है”, सही है, यह सम्बंध किसी महिला से ही होते हैं। उनमें से कुछ का व्यवसाय हो सकता है, पर कुछ महिलाएं शादीशुदा, गृहस्थ भी होती हैं। मैंने “घर लौटे परस्त्रीगामी पुरुष से झगड़ने वाली महिलाओं” को अपना विषय बनाया ही नहीं है…
    मेरे लेख के केंद्र में – वह महिलाएं हैं, जिनके पास प्रेम का संधान करते हुए पुरुष पहुँचते हैं, और उस स्त्री से प्रेम पाते हैं, एक पारस्परिक समझ के तहत – इस पक्ष से पुनः विचार करके, आप अपनी राय मुझे बतायें, प्रतीक्षा रहेगी ।

  7. प्रेम एक सहज अनुभूति है जो किसी के द्वारा की गयी प्रशंसा, प्रोत्साहन आदि से स्वतः ही अनुभूत होती है यह विवाह के पश्चात भी सम्भव है। दाम्पत्य की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ऐसा स्नेह निश्चय ही स्त्री को खुशी और उसके होने का एहसास कराता है।

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