यू-ट्यूब पर जारी एक वीडियो में दिखाया गया है कि पेनुकोंडा अनंतपुर के एक दक्षिण कोरियाई रेस्टोरेंट ‘कंगनम’ के मैनेजर ने यह स्वीकार किया कि उनका रेस्टोरेंट केवल कोरियाई लोगों को ही प्रवेश करने की अनुमति देता है। यह हैरानी की बात है कि भारत में ही एक विदेशी कंपनी भारतीयों के साथ ही भेदभाव का बरताव कर रही है।

मित्रो, आज वर्ष का अंतिम संपादकीय लिखना है और वर्ष का दिन भी अंतिम है। इस पूरे वर्ष में पुरवाई के पाठकों का ढेर सा प्यार मिला है। एक संपादक के तौर पर मेरा प्रयास रहा है कि अपने पाठकों का परिचय अनूठे विषयों से करवाता रहूं, इसके लिये चाहे मुझे कितना भी शोध क्यों न करना पड़े। मैं हमेशा विषय की सच्चाई की तह तक जाने का प्रयास करता हूं। विषय चाहे राजनीतिक हो या फिर सामाजिक, एक प्रयास अवश्य रहता है कि ईमानदारी से अपनी बात आपके समक्ष रख सकूं। बहुत से पाठक मेरी सोच से शायद सहमत न हों मगर वे भी यह नहीं कह सकते कि मैं झूठ बोल रहा हूं।
इसी सिलसिले में आज के संपादकीय का विषय जब सोच रहा था तो याद आई एक यू-ट्यूब वीडियो, और मैं जुट गया आप सब तक एक नया और ज़रा ‘हट-के’ वाला संपादकीय लिखने में। मुझे पूरी उम्मीद है कि यह विषय आपको सोचने के लिये अवश्य मजबूर करेगा।
सबसे पहले आपको बताना चाहूंगा कि मुझे इक्कीस वर्ष की एअर इंडिया की फ़्लाइट परसर की नौकरी के दौरान एक बार भी दक्षिण कोरिया जाने का अवसर नहीं मिला। क्योंकि मैं वामपंथ के साथ अपने आप को नहीं जोड़ पाता इसलिये उत्तर कोरिया के मुकाबले मेरे मन में दक्षिण कोरिया के प्रति अधिक कोमल भाव रहे। अग्रज दिविक रमेश तो दक्षिण कोरिया की इतनी तारीफ़ें करते थे कि उनसे रश्क होने लगता था कि हाय भला हम वहां क्यों न गये। दो-तीन बार मौका बन भी रहा था मगर मैं जा नहीं पाया।
इससे पहले कुछ मित्रों से सोवियत रूस की बहुत तारीफ़ सुना करते थे। मगर जब 1978 में पहली बार रूस गया तो “सारे भेद खुल गये, राज़दार न रहा!” क्योंकि मुकाबला सीधा लंदन, न्युयार्क, पेरिस, रोम और टोकियो से था, इसलिये मॉस्को देखकर वामपंथी देशों के रेशे-रेशे सामने खुलते चले गये।
हाल ही में यूट्यूब पर कुछ ऐसे वीडियो देखने को मिले हैं कि दक्षिण कोरिया का नया या फिर कहें कि असली रूप सामने खुलता नज़र आने लगा है। उनके व्यवहार से अंग्रेज़ों को वो ज़माना याद आने लगा है जब दुकानों और रेस्टोरेंटों के दरवाज़े पर लिखा रहता था – “भारतीय और कुत्तों का भीतर आना मना है!”
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर नामक शहर में दक्षिण कोरिया की ‘किया-मोटर्स’ का एक विशाल कार निर्माण यूनिट है जो कि 530 एकड़ भूमि पर निर्मित है। पेनुकोंडा में इस कार निर्माण यूनिट में बहुत से कोरियाई रेस्टोरेंट और गेस्ट हाउस भी हैं। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इन रेस्टोरेंटों और गेस्ट हाउसों में भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है। वहां केवल कोरायाई मूल के लोगों को ही प्रवेश करने दिया जाता है।
यू-ट्यूब पर जारी एक वीडियो में दिखाया गया है कि पेनुकोंडा अनंतपुर के एक दक्षिण कोरियाई रेस्टोरेंट ‘कंगनम’ के मैनेजर ने यह स्वीकार किया कि उनका रेस्टोरेंट केवल कोरियाई लोगों को ही प्रवेश करने की अनुमति देता है। यह हैरानी की बात है कि भारत में ही एक विदेशी कंपनी भारतीयों के साथ ही भेदभाव का बरताव कर रही है।
मगर जब दो मित्रों ने वीडियो बनाना शुरू किया और मैनेजर से सीधे-सीधे सवाल किया कि यह भेदभाव भारत में कैसे चल सकता है, तो मैनेजर ने रेस्टोरेंट के मालिक को फ़ोन करके समझाया कि ये लोग तो मीडिया से हैं और ये वीडियो तो टीवी पर दिखाया जा सकता है। तब मालिक ने कहा कि इन लोगों को रेस्टोरेंट में बैठने दिया जाए और जो ये खाना चाहें उन्हें खाने दिया जाए।
यहां दक्षिण कोरिया के भारतीय-विरोधी रवैये को समझने के लिये ध्यान देना होगा कि इन रेस्टोरेंटों के मैनेजमेंट ने अपने स्टाफ़ भी नेपाली लोगों को रखा है। उन्हें भारतीय इस क़ाबिल नहीं लगते कि वे उनके भोजन को छू सकें। प्रश्न यह उठता है कि यदि यह सब हमारे अपने देश में हो रहा है तो फिर दक्षिण कोरिया में क्या कुछ हो रहा होगा!
सच तो यह है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (1) और अनुच्छेद 15 (2) के तहत दंडनीय है। बताया जाता है कि किया-कार प्लांट में करीब 15 कोरियाई रेस्टोरेंट और दस गेस्ट हाउस हैं जिनमें से अधिकांश में भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है। अभी यह नहीं पता चला है कि आंध्र प्रदेश सरकार या फिर केन्द्र सरकार ने इस बारे में क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की है या फिर कैसे कदम उठाए हैं।
ये सब तो भारत में हो रहा है। कोरिया के बहुत से शहरों में आपको ऐसे बोर्ड बहुत से डिपार्टमेंट स्टोर और दुकानों के बाहर भी लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होगा – ‘भारतीयों का प्रवेश वर्जित; भारतीयों और पाकिस्तानियों का प्रवेश वर्जित’… मुसलमान और हिन्दू का प्रवेश वर्जित!… ‘इस्लाम और हिन्दू आऊट ! ’ हैरानी तो तब होती है जब किसी डिपार्टमेंट स्टोर में कोई भारतीय या पाकिस्तानी कोई कपड़ा ख़रीदने जाए और किसी कपड़े को छू ले तो सेल्समैन लगभग दौड़ा चला आएगा और उस कपड़े को साफ़ करने लगेगा जैसे किसी हिन्दू या मुसलमान के छू लेने से कपड़ा अपवित्र हो जाएगा। ऐसा राजधानी सियोल के बहुत से हिस्सों में लगातार होता है।
वैसे यह केवल भारतीयों तक सीमित नहीं है। लगभग सत्तर प्रतिशत विदेशियों की शिकायत है कि दक्षिण कोरिया में उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ा है। दक्षिण कोरिया आर्थिक रूप से भारत से एक छोटी इकॉनॉमी है। मगर उनका रवैया वही है जो कभी उपनिवेशवाद के दौर में ब्रिटेन का होता था। अपने आप को विशिष्ट समझना और दूसरों को नीचे दर्जे का।
राज नामक एक यू-ट्यूबर करीब नौ वर्षों से दक्षिण कोरिया में रह रहा है। कुछ समय पहले नई दिल्ली से उसके कुछ मित्र भी वहां उससे मिलने पहुंचे। मित्रों ने राज से किसी क्लब में जाने की बात कही। राज इससे पहले कभी किसी क्लब में नहीं गया था। उसके लिये भी यह एक नया ही अनुभव था। अपने इस नये अनुभव को राज ने रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया। जैसे ही राज अपने मित्रों के साथ एक क्लब में प्रवेश करने का प्रयास करता है, उसे दरवाज़े पर खड़ा गार्ड रोक लेता है और कहता है कि इस क्लब में भारतीयों का प्रवेश वर्जित है। वह सलाह देता है कि आगे के किसी क्लब में कोशिश करके देख लें क्योंकि उस क्लब में तो वे भीतर नहीं घुस सकते।
जब राज ने उससे बहस करनी चाही, तो गार्ड का जवाब था कि यह क्लब का रूल है। राज और उसके मित्र हैरान थे कि यह कैसा भेदभाव वाला नियम बनाया गया है। अभी राज का अनुभव का दायार पूरा नहीं हुआ था। अगले क्लब का गार्ड तो राज और उसके मित्रों की बाक़ायदा बेइज्ज़ती करके उन्हें वहां से भगा देता है। और तीसरे क्लब में तो किसी से पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि वहां तो उन्हें मुंह-चिढ़ाता एक बोर्ड लिखा मिल जाता है जिस पर  लिखा रहता है कि पाकिस्तानी और भारतीयों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है।
इस तमाम सिलसिले में रेखांकित करने वाली एक बात यह भी थी कि जब तीनों क्लबों में राज और उसके दोस्तों को क्लब में घुसने से रोका जा रहा था, वहां तमाशबीन के तौर पर कई कोरियाई मूल के लोग खड़े देख रहे थे और किसी ने भी इस अन्याय के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा। राज ने इस वीडियो को यू-ट्यूब पर अपलोड भी किया था मगर दक्षिण कोरिया की पुलिस या किसी भी अधिकारी ने उस वीडियो का संज्ञान नहीं लिया।
यहां याद दिलाना चाहूंगा कि एक वर्ष पहले मुंबई में एक दक्षिण कोरियाई ब्लॉगर युवती के साथ दो युवकों ने बदसलूकी की। उस युवती ने अपना वीडियो यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया। भारत के पूरे सोशल मीडिया में यह वीडियो वायरल हो गया और कहा गया इन दो नवयुवकों – मोबीन चांद मोहम्मद शेख (19 वर्ष) और मोहम्मद नकीब सदरियालम अंसारी (20 वर्ष) ने भारत की बेइज्ज़ती करवा दी। वीडियो वायरल होने के बाद खार पुलिस ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 354 के तहत मामला दर्ज कर आरोपी युवकों को गिरफ्तार भी किया।
1960 के दशक में लंदन में ऐसा हुआ करता था कि जब कोई भारतीय बस या ट्रेन में किसी सीट पर बैठ जाता था तो कोई भी अंग्रेज़ उसके साथ बैठने को तैयार नहीं होता था। यदि वहां साथ वाली सीट पर कोई अंग्रेज़ बैठा होता तो उठ कर कहीं और खड़ा हो जाता। दक्षिण कोरिया में आज 2023 में भी हो रहा है। जब कोई भारतीय पुरुष या महिला बस में किसी सीट पर बैठ जाते हैं तो कोरियाई लोग उसके साथ बैठने की तुलना में उठ कर खड़े होना पसन्द करते हैं।
दक्षिण कोरिया के बच्चों के दिमाग़ में भी ज़हर भरा जा रहा है। वे भी मानने लगे हैं कि भारतीय लोग कीचड़ जैसे गंदे होते हैं। बहुत से भारतीयों या फिर इंडो-कोरियाई युवक युवतियों को चित्र देखकर ही नौकरी के अयोग्य मान लिया जाता है। उन्हें इंटरव्यू के लिये बुलाया ही नहीं जाता। कोरिया में केवल सीवी से काम नहीं चलता। सीवी के साथ-साथ चित्र भी देना होता है। वहां सुन्दर और कोरियाई नख-शिख वाला चेहरे को ही नौकरी मिल पाती है।
हैरानी की बात यह है कि कोरिया में शिक्षा की दर 98.8 प्रतिशत है मगर वहां की बेरोज़गारी दर 19.8 प्रतिशत है। फिर ऐसी पढ़ाई किस काम की जो आपको बेहतर इन्सान न बनाए। हम सबको यह ग़लतफ़हमी है कि पढ़ने लिखने से इन्सान की सोच का दायरा बड़ा हो जाता है और दिल खुला। मगर दक्षिण कोरिया के मामले में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। उनके दिमाग़ में यही बैठा है कि भारतीयों को कोरिया में निचले दर्जे के काम करने के लिये बुलाया जाता है। भला वे कैसे कोरियाई लोगों के समकक्ष हो सकते हैं।
पुरवाई को पूरी उम्मीद है कि भारत की राज्य सरकारें व केन्द्र सरकार और भारतीय युवक-युवतियां स्थिति की नज़ाकत को गंभीरता से लेंगे। दक्षिण कोरिया तक यह संदेश अवश्य पहुंचना चाहिये – “अगर तुहाडा कुत्ता टॉमी है तां साढा वी कोई कम नहीं!”
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

46 टिप्पणी

  1. नुतनवर्ष मंगलमय हो
    सम्पादकीय एक अनोखे और चौका देने वाले विषय पर है ।यह तो एक अंतराष्ट्रीय धटना है जो भारत को प्रभावित कर रही है । हमारे देश में रहकर हमीं से भेदभाव निश्चित ही सरकारों को संज्ञान लेना होगा । आपस की बात राष्ट्रीय विषय हो गया साधुवाद
    Dr Prabha mishra

  2. Omg

    बढ़िया शोध
    अब कोरियन के बारे में मेरी दृष्टि और समझ बदल दी आपके इस लेख ने

  3. आश्चर्य हूँ यह जानकर… वास्तवमें हमारे ही देश में हमारे ही हवा -पानी में रहते हुए हम ही को अछूत बनाकर कमा भी रहें हैं!! इन लोगों का तो भारतीय दंड विधान से अवगत कराना चाहिए। यह असहनीय है सर। सत्य अत्यंत कठोर होता है, क्योंकि यहाँ ये सब होना भी संभव है ….. पाठकों को अवश्य यह विषय विचारणीय लगे…. इस संपादकीय ने पुनः हम सबको नव्य दिशा दर्शन कराया है हार्दिक धन्यवाद सर

    • अनिमा जी मेरा प्रयास रहता है कि अपने पाठकों को हर बार किसी ठोस और नये विषय पर जानकारी उपलब्ध करवा सकूं।

  4. वाकई ये एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। पहले भी इस बारे में पढ़ा था लेकिन वो सतही तौर पर मिली जानकारी जैसा था।
    सिर्फ भारत सरकार को ही नहीं बल्कि प्रत्येक भारतीय को भी इसके विरुद्ध आवाज उठाने की आवश्यकता है।
    महत्वपूर्ण विषय को उठाने के लिए आपका आभार, साधुवाद।

  5. गत सप्ताह संबंधित वीडियो यूट्यूब पर देखा मन को ठेस पहुंची। आपने अपने सम्पादकीय में कई दुखद प्रसंगों का उल्लेख किया है । आवश्यकता है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे संवेदनशील मुद्दों को उठाने की।
    नववर्ष की मंगलमय कामनाएं
    आगामी वर्ष 2024 सबके लिए शुभ हो।

  6. आज का संपादकीय मनऔर आत्मा को व्यथित करने वाला आलेख है।लखनऊ में तैनाती के दौरान सन 1998 से सन 2007 के बीच में उसका कलुषित पाट्टिक्का को भी मैंने देखा है जिस पर लिखा हुआ था भारतीय और कुत्तों का प्रवेश वर्जित है ,,बहुत पीड़ा हुई उसे अभिलेख को देखकर जो हम भारतीयों की अस्मिता को तार तार करता और विश्व जनमत को मुंह चिढ़ाता है ।इसकी परिणीति या जिस की चीज उसी को लौटाने का अवसर,मुझे लंदन पुस्तक मेले सन 2018 में हुई जब मैं लंदन पुस्तक मेले में भारत की ओर से भाग लेने गया ।वहां के अंग्रेज उच्च अधिकारियों से किसी विषय पर बातचीत हुई और एक बड़े जन समूह के सामने ,ईश्वर कृपा से, मैंने यह उन्हें एहसास कराया कि वे कितने गलत,बर्बरऔर लुटेरे प्रवृत्ति के रहे ब्रेक्जिट का मुद्दा था जिसमें ब्रिटेन का जनमत us से बाहर आना चाहता था ।
    खैर बात संपादकीय की,,, ease ऑफ डूइंग बिजनेस के इंडेक्स पर कुलाचें भरता ये ये ये भारतीय अर्थव्यवस्था का नया अवतार ,कोरिया प्रदत्त दंश को अब तक कैसे चल रहा है। यह बेहद आश्चर्य की बात है इसकी पड़ताल सरकार द्वारा निश्चित रूप से होनी चाहिए और उसे जानने का हक आजाद भारत के आत्मनिर्भर भारत को तो होना ही चाहिए।
    संपादकीय बेहद बेबाकी से लिखा गया है इसके लिए संपादक महोदय को बधाई।
    क्या ही बेहतर हो कि हम सभी इस संपादकीय को अपने-अपने स्तर से सोशल मीडिया पर उठाएं तो इसका असली रूप और बेहतर तरीके से भारतीय जनमानस के सामने आए आए।

    • आपने सही कहा भाई सूर्यकान्त जी। हमें इस मुद्दे को हर सोशल मीडिया पर उठाना चाहिये।

  7. संपादक तेजेन्द्र जी, प्रणाम
    आपके संपादकीय समसामयिक और विचारोत्तेजक होते है। आपको बहुत बधाई, इसी तरह नए साल में भी पुरवाई के पाठकों को समृद्ध करते रहें। मैं ऐसे भेदभावमूलक व्यवहार और उसके आधार पर बनाए गए नियम की कठोर निंदा करता हूँ। व्यवसाय करने वाली विदेशी कंपनियां अगर इस तरह व्यवहार करेंगी तो वे किस मुंह से आशा करती हैं कि हमारे प्रोडक्ट को लोग हाथों-हाथ अपनाएँ।
    इसे आंध्र प्रदेश की सरकार को तुरंत संज्ञान में लेना चाहिए।

    मेरे आकलन में यह आ रहा है कि
    शिक्षा मनुष्य को बेहतर इंसान बनाने में विफल है। कई बार ऐसा देखने में आता है कि गैर पढ़े-लिखे लोग तथाकथित शिक्षितों की तुलना में अधिक उदार, अधिक मनुष्य दिखाई पड़ते हैं; पर इसका यह आशय कदापि नहीं कि शिक्षा से अशिक्षा अच्छी।
    किसी व्यक्ति, समाज और देश की तरक्की के पैमाने केवल समृद्धि नहीं होने चाहिए, बल्कि अन्य के प्रति उसके व्यवहार, उसकी प्रसन्नता, उदारता, समावेशिता, उच्चतर मूल्य, सदाचरण और परदुःखकातरता के स्तर होने चाहिए।
    मुझे ऐसा लगता है कि परिवेश, पारिवारिक वातावरण, आस्थाएँ, मान्यताएँ, एक शब्द में कहें तो सांस्कृतिक मूल्य ही मनुष्य को गढ़ते हैं।
    जहाँ तक शिक्षा की बात है, उससे दुनिया जहान की ढेर सारी जानकारियाँ, चालाकियाँ आ जाती हैं, आदमी जीने-खाने के कौशल सीख लेता है, अहंकार का आवर्त अपने लिए बना लेता है, कदाचित इससे अधिक कुछ नहीं।

    • भाई जय शंकर तिवारी जी, आपने संपादकीय को एक अलग दृष्टि से देखा है। हार्दिकआभार।

  8. आज के समय में जानना बेहद दुखद है, अलग हट के संपादकीय के लिए हार्दिक आभार, नूतन वर्ष मंगलमय हो

  9. सर, आज का आपका विचारोत्तेजक संपादकीय पढ़कर आश्चर्य में पड़ गई l आज के जमाने में भी ऐसा होता है? मेरे मन में भी दक्षिण कोरिया की छवि सकारात्मक थी, जो रेस्तरां मालिकों की सोच के साथ आम लोगों की मौन सहमति देख कर ध्वस्त हो गई l नौकरी देने में प्रतिभा की जगह चेहरे मोहरे को वरीयता देना भी हास्यास्पद है l श्रेष्ठ होने के अहंकार का तुष्टीकरण मानवतावाद को पैरों तले रौंद देना है l वाकई शिक्षा व्यक्ति की सोच को नहीं बदल सकती, आंतरिक परिमार्जन नहीं कर सकती l शिक्षित और संस्कारित होना दो अलग- अलग बाते हैं l तसल्ली है कि कम से कम हमारे देश में आम जनता इतनी संवेदनहींन नहीं है, जो ऐसी घटनाएँ सामने आने पर विरोध ना दर्ज करे l बल्कि अन्य देशों में भी भेदभाव पूर्ण घटनाओं के प्रखर विरोध हुए हैं l वैश्विक विरोध के चलते “फेयर एण्ड लवली” को अपना नाम बदल कर “ग्लो एण्ड लवली” करना पड़ा l उम्मीद है कि आपकी पहल से मामला प्रकाश में आने, और उसके व्यापक प्रसार के बाद आंध्र प्रदेश में ये असंवैधानिक कृत्य बंद हो और संभवतः कोरिया की आम जनता भी पुनर्विचार करे l
    एक बार पुनः जागरुकता का प्रसार करने वाले इस संपादकीय के लिए आपको बहुत बधाई सर

  10. Your Editorial of today brings forth not only a highly despicable n deplorable attitude of this particular Korean restaurant but also the intriguing n shocking fact that our government is not aware of it :
    that while residing in this very country these Koreans are not allowing entrance to our own country people.
    I hope your Editorial will make the concerned authority sit up and proceed some appropriate action against this particular restaurant.
    High time indeed.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  11. वाह क्या जानकारी ढूँढ कर लाए हैं मुझे
    तकरीबन 14 साल पहले जाने का मौका मिला था सियोल कोरिया ,मगर मुझे ऐसा
    तो कोई अनुभव नहीं हुआ,शायद बाद में कुछ बदला हो मेरा तो कोरियन के साथ 3 साल काम करने का भी अनुभव है,मगर किसी ने मुझे कमतरी का एहसास कराया हो ऐसा कभी नहीं हुआ, आप ने लिखा है तो भ्राता श्री आज के संदर्भ मे लिखा है,ऐसे लेखनी में दम रहे ऐसी मेरी शुभकामनाएँ 2024 के लिए

    • कपिल भाई निजी अनुभव और सामाजिक यथार्थ अलग हो सकते हैं। जैसे मुझे कभी ब्रिटेन में रंगभेद नीति का शिकार होने का मौक़ा नहीं मिला। मुझे ब्रिटेन की महारानी ने हिन्दी साहित्य के लिये सम्मानित भी किया। मगर ये निजी अनुभव हैं।

  12. अंतिम पंक्ति का जवाब नहीं बड़े भैया
    , किंतु पढ़कर हैरानी हो रही है । हमारे देश में हमीं को म्याऊं की स्थिति, हमारा बस चले तो…….दो चार कुत्ते ही उनके पीछे दौड़ा दें, इस जानकारी को साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका ।
    अद्भुत लेख
    नववर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं

  13. “प्रवेश वर्जित”…. यह मानव सभ्यता के लिए दुखद है कारण चाहे जाति, रंग,लिंग, नस्ल, क्षेत्र या देश हो…. भेदभाव करने वाला मानना ही नहीं चाहता कि वह कुछ गलत कर रहा है पर भेदभाव सहने वाला सहता चला जाता है ज़ब तक कि उसके प्रति ध्यान आकृष्ट ना किया जाए….. श्रेष्ठता का बोध भेद पैदा करता है. आपने सही लिखा शिक्षा है फिर भी ये हो रहा है … दरअसल शिक्षित होकर मनुष्य अधिक डिप्लोमेटिक हो जाता है.. सहज व सरल होना भूलता जाता है… शिक्षा भी तो हमें आँख मूंद कर पुस्तक पर लिखे को सच मानना भर सिखा रही है., सिखाई जा रही मान्यताओं पर प्रश्न लगाना नहीं सिखाती इसलिए लकीरें पीटी जाती हैँ… शिक्षा छूट जाती है ……….अच्छे संपादकीय के लिए बहुत बधाई….. आप धारा के साथ बहने वाले संपादक कतई नहीं हैँ…..

    • आपकी समर्थन करती सारगर्भित टिप्पणी हमारे लिये महत्वपूर्ण है बबिता जी। आभार।

  14. आदरणीय संपादक जी
    ‘पुरवाई’ के संपादक मंडल और सभी पाठकों को आने वाले नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएं ,
    साथ ही ईश्वर से प्रार्थना है कि इस अंक के, संपादकीय के विषय जैसी लज्जाजनक, निंदनीय हृदय विदारक स्थिति के बारे में भविष्य में कुछ अधिक पढ़ने को मिले।
    मुझे तो हैरानी इस बात पर है कि दक्षिण कोरिया को भारत में अपना प्लांट लगाने की अनुमति ही कैसे मिली ?
    भारतवासी उनके लिए अछूत है और भारत वासियों का धन उनके लिए स्पर्श्य है?
    हृदय इतना पीड़ित है कि आगे कुछ कहने की शक्ति नहीं है।

    आपकी खोजी और सूक्ष्मदर्शी दृष्टि को‌ नमन !

    • सरोजिनी जी आप जैसे पाठक ही मुझे हर बार कुछ नया लिखने को प्रेरित करते हैं। आभार।

  15. आपको तथा पुरवाई परिवार को.नववर्ष की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।

    आज का आपका संपादकीय पढ़कर आश्चर्य तो हुआ ही, मन भी व्यथित हुआ। अपने ही देश में हम भारतीयों के साथ यह दुर्व्यवहार… किसी संस्था या सरकार ने इसका संज्ञान क्यों नहीं लिया!!
    मुझे याद आ रहा है प्रीतिलता वादेदार नामक स्वतंत्रता सेनानी ने अपनी जान पर खेल कर एक यूरोपियन क्लब पर इसलिए हमला किया था कि उस क्लब के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा था…dogs and indians are not allowed.

    ज़ब उस समय वह विरोध कर सकती थी तो आज पीड़ित लोग क्यों नहीं!!

    शायद आज का आपका संपादकीय पढ़कर सरकार या हमारा सुप्रीम कोर्ट संज्ञान ले।

    • सुधा जी मुझे पूरी उम्मीद है कि पुरवाई का यह संपादकीय सही पद पर बैठे व्यक्तियों तक अवश्य पहुंचेगा। हार्दिक आभार आपका।

  16. तेजेन्द्र भाई: आपके इस बार के सनसनीखेज़ सम्पादकीय ने तो एक हलचल सी मचा दी। अपने ही देश में, अपने ही लोगों से एक विदेशी कम्पनी ऐसा बर्ताव करें और सहने वाले इसे चुपचाप सहन करते रहें, बात समझ नहीं आई और बड़ी अजीब लगती है। माना कि किया और हुण्डई कारें भारत में बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि भारत में रहते हुये भारतियों के साथ इस प्रकार का सलूक हो। यही वो भारतीय हैं जिन के रहम-ओ-करम से दक्षिण कोरिया की कम्पनीयाँ चल रही हैं। दुनिया की शायद ही कोई कार होगी जिसकी कम्पनी भारत में अपनी फ़ैक्ट्री न लगाना चाहें। न जाने कब से ये प्रथा चल रही है और देश के दूसरे भाग में इसका आभास क्यों नहीं हुआ। जागृत करने के लिये बहुत बहुत साधुवाद।
    वर्ष का अन्त आगया है। नववर्ष की आपको और पुरवाइ के सभी पाठकों को बहुत बहुत शुभकामनायें।

    • भाई विजय आप मुझे सदा प्रेरित करते रहते हैं कि मैं कुछ अछूता लिख पाऊं। नववर्ष की आपको भी शुभकामनाएं।

  17. हम सदियों तक जिस दलदल में फँसे रहे, समाजसुधारकों ने सोच बदलने में जीवन लगा दिया। हम अपने ही देश में अपना अपमान देख रहे हैं और सरकार ने इस संबंध में प्रसारित वीडियो को भी तवज्जो नहीं दी। क्या हुआ संविधान के अनुच्छेदों का।
    आपने उस यथार्थ से अवगत कराया, जिसे हम वाकई नहीं जानते थे। आपकी कलम की ये खोज सराहनीय है।

  18. आदरणीय तेजेन्द्र जी! सर्वप्रथम नए वर्ष की बहुत-बहुत बधाइयांँ एवं हार्दिक शुभकामनाएंँ।

    वर्ष का आखिरी संपादकीय भी हर संपादकीय की तरह धमाकेदार ही नहीं अपितु आश्चर्यजनक व अकल्पनीय ही है। आप अपने संपादकीय के उत्तरदायित्व का वहन पूरी निष्ठा एवं परिश्रम से करते हैं इससे तो कोई भी असहमत नहीं हो सकता क्योंकि आपका परिश्रम आपको पढ़कर समझ आता है।आप साक्ष्य के साथ प्रमाणिकता दर्ज करते हुए अपनी बात रखते हैं जो यह जताता है कि आप अपने काम के प्रति कितने जिम्मेदार हैं। और जो लिखते हैं वह इसीलिए विश्वसनीय भी होता है।

    सच कहें तो संपादकीय के माध्यम से ही दक्षिण कोरिया की ,”किया मोटर्स” के निर्माण यूनिट के बारे में जाना व उसके बारे में वह सब भी जो उनके द्वारा न करने योग्य था।जब मैनेजर ने भी स्वीकार कर लिया कि रेस्टोरेंट केवल कोरियाई लोगों को ही प्रवेश करने की अनुमति देता है तो फिर न मानने के लिए और कुछ रह ही नहीं जाता। इससे बड़ा साक्ष्य और क्या होगा?
    पूरा संपादकीय ही विचलित करने वाला लगा। बहुत ही क्रोध आया पढ़कर कि हमारे ही धरती पर रहकर हमारे प्रति ऐसी गुस्ताखी और ऐसा अपमान!!!!!
    राज नामक यूट्यूबर के बारे में पढ़कर तो हद ही हो गई।
    अगर अपने साथ अपन कल्पना करें ऐसा तो कितना अपमानित महसूस होता है। यह तो अंग्रेजों के जमाने की याद दिलाने वाली जैसी ही बात है जैसा कि आपने लिखा भी है।
    दक्षिण कोरिया की जितनी भी जानकारी आपने जुटाई वह पूरी की पूरी कोरिया राष्ट्र की प्रवृत्ति को समझने के लिए पर्याप्त है। 98.8 प्रतिशत् शिक्षा का स्तर होने के बाद भी जिसमें इंसानियत प्रवेश न कर पाई; उस शिक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह ही है। एक श्लोक याद आ रहा है- विद्या ददाति विनयम्, विनयात् याति पात्रताम्।
    पर समझ नहीं आ रहा कि यह किस विद्या को प्राप्त कर कौन सी योग्यता प्राप्त कर रहे हैं?
    आपने संपादकीय में दक्षिण कोरिया का जो पर्दाफाश किया है , संभवतः उसकी आवाज मोदी तक पहुंँचे। आश्चर्य तो इस बात का है कि वहांँ के रहने वाले नागरिकों ने अभी तक इस विषय पर संज्ञान क्यों नहीं लिया? वहाँ का राज्य शासन कैसे सोता रहा?
    जब पहली बार पढ़ा तो बहुत ही अधिक क्रोध आया था। “हमारी ही धरती पर हमारा ही पत्ता कट।”
    हद ही है ।हमने तो इसे कई जगह शेयर भी किया।काश !कि सरकार के कानों में इस विषय पर जूँ रेंगे।
    एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण संपादकीय के माध्यम से कोरिया के बारे में अवगत कराने के लिए एक बार पुनः तहे दिल से आपका शुक्रिया तेजेन्द्र जी ।

    • आदरणीय नीलिमा जी आपने संपादकीय पर एक विस्तृत टिप्पणी देकर पुरवाई के संपादकीय परिवार का उत्साह बढ़ाया है। हार्दिक आभार।

  19. अंग्रेज़ों ने पूरे विश्व में भारत को छुआछूत और भेदभाव करने के लिए खूब बदनाम किया। ख़ुद भेदभाव के कीचड़ में डूब कर भारत पर कीचड़ उछालते रहे। चलो उनके अंहकार का तो कारण था आधी दुनिया पर राज कर रहे थे लेकिन कोरिया की ये हिमाक़त???
    क्रोध से ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई कि ऐसी गन्दी सोच वाले देश को भारत में यूनिट लगाने की अनुमति कैसे दी गई? ऐसी क्या मजबूरी है कि वो हमारी धरती पर खड़े हो कर हमें ही आँख दिखा रहे हैं, और हमारा देश मौन है?
    वास्तव में इस मुद्दे को अधिक से अधिक शेयर किया जाना चाहिए।
    नये साल से पहले इस तौहीनी की जानकारी पाकर नये वर्ष का मज़ा किरकिरा हो गया।
    आपका आभार कि ऐसे मुद्दे की विस्तृत जानकारी दी। संपादक के दायित्व के प्रति आपके समर्पण को हृदय से प्रणाम आपकी लेखनी इसी सजगता से चलती रहे, शुभकामनायें।

    • शैली जी आपने सही सवाल पूछे हैं। यह मुद्दा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना चाहिये।

  20. एक नये क़िस्म का उपनिवेशवाद
    इसका उत्तर उत्तर कोरियाई उत्पादों के बहिष्कार से ही संभव हो सकता है लेकिन उससे पहले हमें इस विषय को और हाईलाइट करना होगा

  21. इस मुद्दे पर राज्य और केंद्र सरकार को जरूर कदम उठाना चाहिए। आपने तथ्यों के साथ बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आभार

  22. आश्चर्य है कि जो भारत सबके प्रति समता का दृष्टिकोण रखता है उसके प्रति दक्षिण कोरिया और कुछ और देश ऐसा पक्षपाती भाव रखते हैं । बहुत दुःखद है ये सब। आपके संपादकीय से केंद्र सरकार को इस विषय में संज्ञान लेना चाहिए।
    बहुत शोध परक संपादकीय।

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