गुलशन नंदा

वैसे आजकल सोशल मीडिया तो लोकप्रियतावाद का सबसे ज्वलंत उदाहरण है। हम किसी न किसी वरिष्ठ साहित्यकार, मीडिया कर्मी या सिनेमा कलाकार के हाथ में अपनी कृति पकड़ा कर एक फ़ोटो खिंचवा लेते हैं और फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम पर साझा कर देते हैं। इसके माध्यम से हम अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के चक्कर में ही तो लगे होते हैं। तो फिर जो साहित्य पहले से लोकप्रिय है, उसे पढ़ाने में क्या दिक्कत है। और याद रहे कि जिस महान हस्ती के हाथ में हम अपनी पुस्तक दे कर फ़ोटो ख़िंचवाते हैं, उसने हमारी किताब का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा होता।

पिछले दिनों पाठ्यक्रम को लेकर हिन्दी जगत में ख़ासी बहस सी छिड़ गई है। गोरखपुर स्थित पंडित दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय ने नई शिक्षा नीति के तहत यह फैसला किया है कि हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को गुलशन नंदा से लेकर जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक सहित अनेक लोकप्रिय लेखकों के उपन्यास कोर्स में पढ़ाए जाएंगे वहीं एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं के पाठ्यक्रम से कुछ चैप्टर हटाने का निर्णय लेने पर एक दूसरे तरह का विवाद खड़ा हो गया है।
मुझे याद पड़ता है कि मैंने 1999 के विश्व हिन्दी सम्मेलन लंदन में अपने वक्तव्य में कहा था कि “अब समय आ गया है कि हमें गुलशन नंदा को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिये। इससे विद्यार्थियों में हिन्दी पढ़ने की रुचि बढ़ेगी। जब वे हिन्दी पढ़ने लगेंगे तो भारी-भरकम गंभीर साहित्य भी पढ़ना शुरू कर देंगे।“
भारत से लंदन पधारे गंभीर साहित्य मठाधीशों ने मेरा मज़ाक उड़ाया था। मगर मेरी मुहिम वहीं नहीं रुकी थी। मेरा आज भी कहना है कि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर 1950 से 1975 तक के हिन्दी फ़िल्मों के चुनिंदा गीतों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिये। शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, पंडित प्रदीप, शकील बदायुनीं, राजेन्द्र कृष्ण, हसरत जयपुरी, राजा मेहदी अली ख़ान, अन्जान, इंदीवर, भरत व्यास, नीरज और कैफ़ी आज़मी जैसे बहुतेरे कवि एवं शायर हैं जिनके गीत, ग़ज़ल, नज़्में और कविताएं फाठ्यक्रम का हिस्सा बन सकते हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय ने यह तय किया है कि एम.ए. के पाठ्यक्रम में 5 क्रेडिट और 100 अंक वाले लोकप्रिय साहित्य विषय में इब्ने सफ़ी  की ‘जासूसी दुनिया’, गुलशन नंदा के ‘नीलकंठ’, वेद प्रकाश शर्मा के ‘वर्दी वाला गुंडा’, राधेश्याम की ‘मंचन के लिए रची गई रामायण’ और हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। मैंने स्वयं रामलीला में अभिनय किया है और हम अपने क्लब के लिये बलवंत सिंह द्वारा लिखित रामायण का मंचन करते थे। इस रामायण में बीच-बीच में शायरी का प्रयोग भी किया जाता था।
मैं उन लोगों के साथ सहमत नहीं हूं जो लोकप्रिय साहित्य को लुगदी साहित्य कह कर हिकारत भरी नज़र से देखते हैं। उनका कहना है कि, “साहित्य का बाजार विकसित करने के बजाय बाज़ारू साहित्य को मूल धारा में लाने से श्रेष्ठ साहित्य के अपदस्थ हो जाने का ख़तरा मौजूद है।” सच तो यह है कि कम से कम तीन पीढ़ियां गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ कर जवान हुई हैं। इब्ने सफ़ी बीए तो जासूसी दुनिया के बेताज बादशाह थे। यदि आलोचकों को महसूस हो कि ये उपन्यास उनके बनाए हुए पैमानों पर श्रेष्ठ नहीं बैठते तो या तो नये पैमाने बनाएं या फिर इन कृतियों को कमज़ोर सिद्ध कर दें। मगर विद्यार्थियों की रुचि हिन्दी पाठन में जगाने के लिये ये उपन्यास कैटेलिस्ट का काम करेंगे।
वैसे आजकल सोशल मीडिया तो लोकप्रियतावाद का सबसे ज्वलंत उदाहरण है। हम किसी न किसी वरिष्ठ साहित्यकार, मीडिया कर्मी या सिनेमा कलाकार के हाथ में अपनी कृति पकड़ा कर एक फ़ोटो खिंचवा लेते हैं और फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम पर साझा कर देते हैं। इसके माध्यम से हम अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के चक्कर में ही तो लगे होते हैं। तो फिर जो साहित्य पहले से लोकप्रिय है, उसे पढ़ाने में क्या दिक्कत है। और याद रहे कि जिस महान हस्ती के हाथ में हम अपनी पुस्तक दे कर फ़ोटो ख़िंचवाते हैं, उसने हमारी किताब का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा होता।
एक तरफ़ तो गुलशन नंदा जैसे उपन्यासकारों को साहित्य में शामिल करने पर हल्ला मचा है तो दूसरी ओर एन.सी.ई.आर.टी. (राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद्) ने कुछ सामग्री दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं के पाठ्यक्रम से बाहर कर दी है। उसे लेकर दूसरे तरह का हो-हल्ला मचा हुआ है। विवाद इसलिये उठा है कि परिषद ने मुग़लों से जुड़े चैप्टर पाठ्यक्रम की पुस्तकों से हटाने का निर्णय लिया है। वैसे यह पहला मौक़ा नहीं है जब मुग़लों से जुड़ी सामग्री में फेर बदल किया गया हो।
एन.सी.ई.आर.टी. का कहना है कि कोरोना काल के समय से विद्यार्थियों पर अतिरिक्त दबाव बन रहा था। इसलिये पढ़ाई के बोझ को कम करने के लिए मुग़लों के चैप्टर हटाने का निर्णय लिया गया है। सबसे पहले हमें पुरवाई के पाठकों को बताना होगा कि हटाया क्या जा रहा है और कब। यह साफ़ किया गया है कि जब नई शिक्षा नीति लागू होगी तभी ये परिवर्तन लागू किये जाएंगे।
सवाल यह उठता है कि आख़िर विवाद है क्या। एन सी ई आर टी की बारहवीं कक्षा की किताबों से कुछ चैप्टर हटाए गए हैं, जिनमें ‘थीम्‍स ऑफ इंडियन हिस्‍ट्री 2’ के चैप्‍टर ‘किंग्‍स एंड क्रॉनिकल्‍स: दि मुग़ल कोर्ट’ को हटाया गया है।
पॉलिटिकल साइंस से भी कुछ चैप्टर हटाए गए हैं। जिसमें कांग्रेस शासनकाल पर आधारित ‘एरा ऑफ़ वन पार्टी डॉमिनेंस’ शामिल है। इसके अलावा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम से भी कुछ हिस्से हटाए गए हैं। जिसमें ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड’ और ‘कन्फ्रंटेशन ऑफ कल्चर्स’ जैसे चैप्टर शामिल हैं।
इतिहास और हिंदी पाठ्य-पुस्तकों के अलावा, एन.सी.ई.आर.टी. ने कक्षा बारहवीं की नागरिक शास्त्र की पाठ्य-पुस्तक में भी बदलाव किया है। दो चैप्टर- ‘विश्व राजनीति में अमेरिकी आधिपत्य’ और ‘दि कोल्ड वॉर एरा’ भी पाठ्यक्रम से हटा दिए गए हैं। एन.सी.ई.आर.टी. ने बारहवीं के साथ दसवीं और ग्यारहवीं की किताबों में भी कुछ बदलाव किए हैं। ‘लोकतंत्र और विविधता’, ‘लोकतंत्र की चुनौतियां’ और ‘मशहूर संघर्ष और आंदोलन’ जैसे अध्यायों को दसवीं लोकतांत्रिक राजनीति-2 की पाठ्य-पुस्तक से हटा दिया गया है।
एन.सी.ई.आर.टी. ने बारहवीं क्लास की पॉलिटिकल साइंस की किताब से कुछ हिस्से हटा दिए हैं, जिसको लेकर विवाद चल रहा है। हटाए गए विषयों के बारे में शामिल हैं – महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश की सांप्रदायिक स्थिति पर असर; गांधी की हिंदू-मुस्लिम एकता की अवधारणा ने हिंदू कट्टरपंथियों को उकसाया एवं गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ पर प्रतिबंध।
पता चला है कि ग्यारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से गुजरात के दंगों के बारे में भी चैप्टर हटाया गया है। एन. सी. ई. आर. टी. के चीफ़ दिनेश प्रसाद सोलंकी ने कहा कि इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की जा रही है। उन्होंने कहा कि बच्चों पर बोझ कम करना था इसलिए दोहराव वाली चीजें हटा दी गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये गलत है, झूठ है। मुगलों को हटाया नहीं गया है। कोविड के बाद सिलेबस कम करने की प्रक्रिया शुरू हुई, ताकि बच्चों पर लोड कम हो सके। एक्सपर्ट्स ने सिलेबस कम किया और कुछ नहीं है। छठी कक्षा से बारहवीं तक एक्सपर्ट्स ने देखा और ग़ैर-ज़रूरी लोड बस हटा दिया है।
बिहार के वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी ने पाठ्य पुस्तकों में इतिहास की घटनाओं से छेड़-छाड़ को खतरनाक और निदंनीय बताया है।  चौधरी ने मंगलवार को यहां कहा कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) द्वारा  कक्षा के इतिहास के पाठ्य-पुस्तक से मुगल-कालीन एवं शीत युद्ध के अध्याय को हटाना भारत के इतिहास से छेड़-छाड़ करने की गहरी साज़िश है। उन्होंने कहा कि जो छात्र भारत में मुग़ल-काल की घटनाओं से परिचित नहीं होंगे, वे आधुनिक भारत की बातों के परिप्रेक्ष्य एवं आधार से परिचित ही नहीं हो पायेंगे। वे कुतुब मीनार, फतेहपुर सीकरी, ताज महल एवं लाल किले का संदर्भ कैसे समझ पायेंगे, यह सोचने की बात है।
भारत में हर विषय पर राजनीति करना एक अनिवार्य प्रक्रिया बन गया है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष एक दूसरे की टांग-खिंचाई में लगे रहते हैं। छात्रों के लिये जितना ज़रूरी मुग़ल काल को जानना है उतना ही आवश्यक भारत के पुरातन इतिहास को जानना है। याद रखना होगा कि भारत पर विदेशी आक्रमण इसीलिये होते थे क्योंकि भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। विदेशियों ने आकर भारत को लूटा; धर्म-परिवर्तन किये; यहां वर्षों हमको ग़ुलाम बना कर रखा… मगर ‘कभी मिट सकेगी न हस्ती हमारी।’
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

38 टिप्पणी

  1. एक बेहतरीन आलेख, यह पुस्तक हाथ मे लेकर सेल्फी मंगवाना, किसी चर्चित नाम की शख्सियत से पुस्तक पर एक मिनट वीडियो मंगवाना आजकल चलन में है । जिस तेजीसे आज़कल पुस्तकें लिखी जा रही है उतनी तेजी से पढ़ी नही जा रही है । पाठ्यक्रम से कुछ चैप्टर्स को हटाये जाने का समर्थन कियाही जाना चाहिए ।

    आपने बेहतरीन आलेख लिखा है

  2. पूर्णतः सहमत, जो पुस्तकें इतनी लोकप्रिय हुआ करती थी जिनके प्रकाशन पर पहले दिन सारी प्रतियां बिक जाती थी वैसी पुस्तकों का पाठ्य क्रम में होना इस लिए भी आवश्यक है कि शोधार्थी जानें ऐसा क्या था लेखनी में । इस क्रम में उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक कुशवाह कांत को नहीं भूलना चाहिए कुछ पुस्तकों में प्रेम प्रसंग अधिक थे पर अधिकांश साहित्यिक कसौटी पर उत्कृष्ट थीं। हमने 5वी क्लास से हर वर्ष मुग़लों के इतिहास् को घुमा फिरा कर हर वर्ष पढा। बाबर से औरंगजेब तक 150 वर्ष ही मानों भारत का इतिहास हो। चोला, मौर्य, अहोम इत्यादि जिन्होंने 500 से 700 वर्षों तक राज्य किया उनको नकार दिया गया। 99 प्रतिशत लोगों को यह मालूम ही नहीं होगा कि विश्व का एकमात्र घराना मेवाड़ का है जिसने लगातार 1500 वर्षों तक राज्य किया। अतः सच्चे इतिहास को पढ़ना पढ़ाना पड़ेगा।

    • सुरेश सर, आप हमेशा सार्थक और प्रेरणादाई टिप्पणी करते हैं। हार्दिक आभार।

  3. बहुत अच्छा संपादकीय। गुणवत्ता को ध्यान में रखकर अगर कुछ निर्णय लिए जाए तो अच्छा ही है। परिवर्तन रोचकता को बढ़ाता ही है। सुरेश चौधरी जी ने सही कहा। ऐसा हमने भी महसूस किया है।

  4. नमस्कार
    लोकप्रिय और सहज रूप से साहित्य रचने वाले लेखकों को जिनको पढ़ने वाले करोड़ो की तादात में दुनिया में हैं, इन्हें पाठ्यक्रम में लाने से छात्रों की दिलचस्पी हिंदी भाषा में बनेगी और एक बार रुचि बन जाने पर वे आगे चलकर कठिन से कठिन साहित्य को पढ़ेंगे । आज की स्थिति देखकर लगता है कि स्कूल से लेकर कॉलेज तक के छात्र हिंदी पढ़ने से डर गए हैं। नई शिक्षा नीति में परिवर्तन जरूरी है ।
    सम्पादकीय में कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं ,जो छात्र ,देश और वर्तमान में तथाकथित प्रसिद्ध साहित्य सर्जकों के हित में है ।
    Dr Prabha mishra

  5. पूर्ण रूपेण सहमत सर, आम जनता को साहित्य से बांधे रखने में लुगदी साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। बहुत से लोग उन उपन्यासों को 2 या 3 दिनों के लिए किराए पर ले जाकर पढ़ते थे।
    जो साहित्य हमें शिक्षा दे, सबको अच्छा इंसान बनने के लिए विवश करें, सत्य के साथ खड़ा रहे, सबके कल्याण की बात करे, वही सबसे अच्छा साहित्य है।

  6. कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है, पर इस प्रकार परिवर्तन क्या साबित करना चाहते हैं। यह बात सबकी समझ से परे है, आपने सत्य कहा लोकप्रियता के लिए हम लोग फोटोज इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप ,फेसबुक पर चढ़ाते हैं, किताबों को पढ़ने में रुचि नहीं रखते। आज का संपादकीय ज्ञानवर्धक है।
    आभार व्यक्त करती हूं।
    तेजेंद्र शर्मा जी

  7. ” कभी मिट न सकेगी हस्ती हमारी ” , सत्य है लेकिन गौरतलब यह भी है कि यदि इन आक्रांताओं ने हमारी
    सम्पन्न संस्कृति को दूषित करने का कृत्य न किया होता तो आज हमारी स्थिति विश्वपटल पर कुछ और होती ।
    ख़ैर, ‘किंग्स एंड क्रोनिकल्स ‘ विषय में मात्र मुगलों को बार बार पढ़ाये जाने का औचित्य समझ नहीं आता है और यदि पुनरावृत्ति और बोझ के कारण उसे एक कक्षा के कोर्स से हटाया जा रहा है तो उसमें विरोध जैसी क्या बात है, यह भी समझ नहीं आता ।
    इतिहास के जैसे ही साहित्य को भी सीमाओं में क्यों बांधे रखने की ज़िद है ? हम सहमत हैं कि हिन्दी फिल्मों के कुछ गीत तो नि: संदेह उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियां हैं जिन्हें अवश्य ही छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए।
    विरोधियों द्वारा हर एक बात पर आपत्ति उठाना तरक्की और परिवर्तन के मार्ग को बाधित करता है ….. लेकिन “मैं अपनी गद्दी बचाऊं या कल्याण की बात सोचूं….”

    शानदार विचारोत्तेजक आलेख के लिए साधुवाद!

    — रचना सरन

  8. You have touched a very sensitive subject in your Editorial of today n named the chapters that have been removed from the NCERT syllabus while also supporting the inclusion of the works of a few best selling authors of the past era by Gorakhpur University.
    These references to inclusion n exclusion of certain writings are being discussed very widely on news channels too.
    People have yet to wait n see how these changes work out in the coming years.
    Regards.
    Deepak Sharma

  9. जी सर बिल्कुल सही कहा आपने जिस प्रकार से मुगल काल को जाना आवश्यक है उतना ही आवश्यक भारत के पुरातन इतिहास को जानना है आज छात्र भारत के पुरातन इतिहास से अनभिज्ञ हैं इसलिए आज हम अपनी संस्कृति और भाषा दोनों से दूर होते जा रहे हैं समय के साथ कुछ चीजें आवश्यक बदलनी चाहिए।

  10. नमस्कार तेजेंद्र जी
    बहुत महत्वपूर्ण विषय है।अपने देश का इतिहास जानना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना परिवार की पीढ़ियों के इतिहास को जानना।सब चीज़ें छूटती जा रही हैं।
    आपने गुलशन नंदा की याद दिला दी जिन्हें पढ़ने से डांट पड़ती थी क्योंकि उन्हें साहित्य के अंतर्गत नहीं लिया जाता था लेकिन हमें मनोरंजक लगते थे उनके उपन्यास तो किताबों में छिपाकर पढ़ा जाता था।
    अब जब वर्तमान पीढ़ी हिंदी पढ़ना ही नहीं चाहती तब अगर उन पुस्तकों के माध्यम से उसमें रुचि जगाई जाए तो आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
    हिंदी फिल्मों व गीतों से सहजता से प्रचार, प्रसार हो ही रहा है।
    आवश्यकतानुसार बदलाव तो हर चीज़ में लाने की तैयारी रहनी चाहिए।
    सार्थक, संदेशपूर्ण संपादकीय हेतु आपको साधुवाद

  11. वाह आदरणीय आपने शब्दश: सही लिखा ।ये बात सही है किताब को लेकर लोग फोटो खिंचवाते है वही उनके लिए बहुमूल्य हो जाती है लेकिन अंदर के साहित्य पर नजर भी नहीं पड़ती। न्यू पॉलिसी को लेकर बेहतरीन अभिव्यक्ति दी ।विद्यार्थियों की अभिरुचि साहित्य के प्रति तभी बढ़ेगी। इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
    सार्थक संपादकीय

  12. बढ़िया संपादकीय! पहली बार अंग्रेजी के पल्प शब्द के लिए लुगदी शब्द का प्रयोग पढ़ा, साहित्य के संदर्भ में,, कुछ पल तो समझने में ही निकल गए।
    मेरा मानना है कि जब बच्चे भाषा सीख रहे हैं ,उस समय तो उन्हें लोकप्रिय साहित्य ही पढ़ाना चाहिए जिससे उनकी अभिरुचि भाषा में बढ़े , वे अपनी धरती की समस्याओं से जुड़े। हां जब उनकी तर्कशक्ति विकसित हो तब आदर्श साहित्य पढ़ाना ठीक रहेगा। वैसे आदर्श और लोकप्रिय साहित्य वास्विकता के धरातल पर किन को कहेंगे? यह मैं नहीं जानती।
    इतिहास के बारे में तो मेरा भी यही मानना है कि हमने अपने देश के शासकों, उनके महान कृत्यों के बारे में बहुत कम जाना। अभी कुछ वर्षों पहले जब मध्यप्रदेश के महेश्वर स्थान को हमने पर्यटन की दृष्टि से देखा ,तब मुझे अहिल्याबाई की महानता के बारे में पता लगा। मुझे बहुत पीड़ा हुई कि ऐसी महान रानी के बारे में मुझे बचपन से क्यों नहीं पता थी!!।दक्षिणी के राजाओं का इतना गौरवशाली इतिहास रहा है ,उत्तर भारत के छात्र उसे नहीं जानते ,यह दुख की बात है। त्रावणकोर में भारत की स्वतंत्रता का पहला युद्ध लड़ा गया, यह बात कितने लोग जानते हैं? इस विद्रोह का अभी मुझे दो महीने पूर्व ही ज्ञान हुआ है। भारत के इतिहास में हमने तो मात्र मुगलों का इतिहास और अंग्रेजों का इतिहास ही पढ़ा।
    संपादकीय की अंतिम कुछ पंक्तियां आपके हृदय का रहस्य प्रकट करती हैं। उत्तम संपादकीय के लिए बधाइयां!!

    • इस विस्तृत, सार्थक और गंभीर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार सरोजिनी जी। आपने महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर ध्यान दिलाया है।

  13. सम्पादकीय में आपने हमेशा की तरह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। अधिकांश अभिमत भी पढ़े। इस बात से कौन सहमत नहीं होगा कि बस्ते का बोझ कम होना चाहिए। इसके अतिरिक्त बार-बार एक ही बात को दोहराना कहाँ तक उचित है?
    यह बात भी अपनी जगह बहुत महत्वपूर्ण है कि यदि हिन्दी की ओर जन मानस को मोड़ना है तो उसे सरल रुचिर और बोधगम्य साहित्य देना ही एकमात्र उपाय है। इसके साथ ही हमें अपने गौरवशाली अतीत को भी सामने लाना ही चाहिए। ऐसे में बदलाव अपेक्षित रहता है। विरोध केवल विरोध के लिए है।

  14. आपका हर संपादकीय सदैव चिंतन मनन के लिए प्रेरित करता है। गोरखपुर विश्वविद्यालय द्वारा यह फैसला लेना कि हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को गुलशन नंदा से लेकर जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक सहित अनेक लोकप्रिय लेखकों के उपन्यास भी कोर्स का हिस्सा होंगे। इस निर्णय पर उनके साहित्य को ‘ लुगदी साहित्य’ से नवाज कर साहित्य मनीषियों का विरोध मेरी भी समझ से परे है। आखिर नई पीढ़ी को पता तो चलना चाहिए कि उनके उपन्यासों में ऐसा क्या था जिसके कारण वह इतने लोकप्रिय हुए। मेरे विचार से साहित्य वही श्रेष्ठ है जो पाठकों के मन को भाये। आज की पीढ़ी गुरुत्तर साहित्य नहीं पढ़ना चाहती किन्तु मुझे विश्वास हैं कि वह सहज सरल भाषा मैं लिखे साहित्य को अवश्य पढ़ेगी। वहीं एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं के पाठ्यक्रम से कुछ चैप्टर हटाने का निर्णय लेने पर एक दूसरी तरह का विवाद खड़ा हो गया है।

    सच जितना अधिक छात्रों के लिये मुग़ल काल या अंग्रेजी साम्राज्य को जानना आवश्यक है उतना ही आवश्यक भारत के पुरातन इतिहास को जानना है। आज हम हुमायूं,अकबर, शाहजहां के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं किन्तु सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य, चालुक्य या काकतेय साम्राज्य के बारे में नहीं जानते!! आपने सच ही कहा है कि विदेशी आक्रमणकारी सदा भारत की ओर ही क्यों रुख करते थे? उत्तर साफ है कि भारत न केवल धन सम्पदा में एक समृद्ध राष्ट्र था वरन संस्कार और संस्कृति में भी समृद्ध था। भारतीयों ने कभी किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया न ही किसी को गुलाम बनाया।

    यहाँ मैं आपके सम्पदाकीय के अंतिम पैराग्राफ की अंतिम पंक्तियों को संदर्भित करना चाहूँगी क्योंकि आपकी इन पंक्तियों ने मेरा मन मोह लिया है…याद रखना होगा कि भारत पर विदेशी आक्रमण इसीलिये होते थे क्योंकि भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। विदेशियों ने आकर भारत को लूटा; धर्म-परिवर्तन किये; यहां वर्षों हमको ग़ुलाम बना कर रखा… मगर ‘कभी मिट सकेगी न हस्ती हमारी।’

  15. समसामयिक समस्याओं पर प्रकाश डालता रोचक और ज्ञानवर्धक संपादकीय, धन्यवाद सम्पादक जी ।”संस्कृत” , का संस्कार किया गया अतः संस्कृत कहलाई। सम्भवतः इसी समय से साहित्य का आभिजात और समान्य साहित्य में वर्गीकरण आरम्भ हुआ, जो हिन्दी में भी चला आया। साहित्य में यदि लोकरुचि नहीं हो तो उसकी सार्थकता ही क्या है? अतः जो लोकप्रिय साहित्य है उसको को पढ़ाने में आपत्ति कैसी? वैसे हमें भी गुलशन नन्दा, प्यारे लाल आवारा, कुशवाहा कांत आदि को पढ़ने की इजाज़त नहीं मिली घर में। स्कूल के फ्री पीरियड्स में दोस्तों से माँग के ही पढ़ी हैं। ‘झील के उस पार’ की जब 10 लाख प्रतियां बिकीं, तो यह पुस्तक पिता घर लाये थे।

    मुग़ल, ब्रिटिश और फिर गाँधी यही कांग्रेस को प्रिय हैं। यहीं से शुरू हो कर ख़त्म हो जाता था इतिहास। हर्षवर्धन, गुप्त काल थोड़ा बहुत उद्धृत था। इतिहास का क्रम बताने के लिए, सभी का ज़िक्र और काल बताना भी पर्याप्त हो सकता है। लेकिन उसके विस्तार में भारतीय इतिहास को ग़ायब कर देना कहाँ तक तार्किक है?
    हस्ती मिटाने के लिए भारत का पुरस्कार वापसी गैंग, बुद्धिजीवी समूह बैठा हुआ है!!! अभी तक नहीं मिटी हस्ती लेकिन आगे के लिए सतर्कता आवश्यक है। कई देशों की हस्ती तो बाक़ी है, पहचान खो गयी है…

  16. “वैसे आजकल सोशल मीडिया तो लोकप्रियतावाद का सबसे ज्वलंत उदाहरण है। हम किसी न किसी वरिष्ठ साहित्यकार, मीडिया कर्मी या सिनेमा कलाकार के हाथ में अपनी कृति पकड़ा कर एक फ़ोटो खिंचवा लेते हैं और फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम पर साझा कर देते हैं। इसके माध्यम से हम अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के चक्कर में ही तो लगे होते हैं। तो फिर जो साहित्य पहले से लोकप्रिय है, उसे पढ़ाने में क्या दिक्कत है। और याद रहे कि जिस महान हस्ती के हाथ में हम अपनी पुस्तक दे कर फ़ोटो ख़िंचवाते हैं, उसने हमारी किताब का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा होता।”
    उपरोक्त पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहना चाहती हूं संपादकीय पढ़कर मन को बहुत प्रसन्नता हुई ,आपने अपने संपादकीय में कई ज्वलंत और सार्थक मुद्दों को उठाया है। बहुत साल पहले जो आपने कहा था गुलशन नंदा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए,उसे अब स्वीकार कर लिया गया है यह बहुत ही खुशी की बात है ।
    आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाई ।
    सविता चड्डा ,भारत

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